34 पद्मावत में अभिव्यक्त सौन्दर्य-चेतना
रीता दुबे and देवशंकर नवीन
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- कवि की सौन्दर्य चेतना और कविता का आपसी सम्बन्ध जान सकेंगे।
- सौन्दर्य चेतना और प्रेम का सम्बन्ध समझ पाएँगे।
- पद्मावत में जायसी द्वारा प्रयुक्त सौन्दर्य-चेतना की विशेषता समझ पाएँगे।
2. प्रस्तावना
सृष्टि का सर्वाधिक सुन्दर तत्त्व प्रेम है। जायसी इस प्रेम के लौकिक एवं अलौकिक दोनों ही रूपों के मर्मज्ञ हैं। प्रेम का आधार सौन्दर्य है, इसलिए विद्वानों ने प्रेम और सौन्दर्य में गहरा सम्बन्ध बताया है। जहाँ सौन्दर्य है, वहाँ प्रेम है। विद्वान इस विचार से भी सहमत है कि सौन्दर्य दृश्य वस्तु में न होकर, द्रष्टा में होती है। यही कारण है कि एक वस्तु किसी के लिए सुन्दर हो सकती है, किसी अन्य के लिए असुन्दर। दरअसल सौन्दर्य दृश्यवान वस्तु और द्रष्टा के बीच एक विशिष्ट सम्बन्ध है। जायसी द्वारा पद्मावत में सृजित इस सम्बन्ध की सृष्टि और सफलता को जानना हमारा लक्ष्य है।
3. पद्मावत में अभिव्यक्त सौन्दर्य-चेतना
महान सूफी साधक अल–गजाली ने प्रेम और सौन्दर्य में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध को स्वीकार किया है। उसके अनुसार “आत्मा सांसारिक सौन्दर्य से गुजरती हुई ईश्वरीय सौन्दर्य पर जाकर टिक जाती है। ईश्वरीय सौन्दर्य ही सांसारिक सौन्दर्य का मूल स्रोत है। जहाँ सौन्दर्य है वहाँ प्रेम हो जाना स्वाभाविक है। जितना ही आकर्षक सौन्दर्य होगा, उतना ही गाढ़ा प्रेम भी होगा।” (अल–गजाली, द मिस्टिक, पृ. 109) सूफी प्रेमाख्यानक काव्यों के रचनाकारों ने भी प्रेम और सौन्दर्य के इस सम्बन्ध को मान्यता दी है। ‘चित्रावली’ के रचनाकार उसमान का कहना है –
जहाँ रूप जग बनिज पसारा, आई प्रेम तहँ किय ब्योहारा।
जो बिधि रूप मयकरि दीन्हीं, प्रेम चकोर नैन तिन्ह किन्हीं।
दीपक जोति रूप उजियारा, प्रेम पतंग आनि तँह जारा।
रूह वास भा केतिक केवा, प्रेम भौर जिव परछेवा। (चित्रावली, पृ. 13)
अर्थात समस्त संसार में जहाँ-जहाँ रूप ने अपना व्यापार फैलाया है, व्यवहार के लिए प्रेम वहाँ पहुँच जाता है। जिस विधाता ने रूप की सृष्टि की है, उसी ने प्रेम भी बनाया है। यही रूप फूलों में सुगन्ध बनकर व्याप्त है और यही रूप भ्रमरों में विलास का रस है। मंझन भी ऐसा ही स्वीकार करते हैं –
इहै रूप त्रिभुवन जग बरसै, महि पयाल अगास।
सोई रूप परगट में देखा, तुव माथे परगास।
यही रूप है जो पूरे संसार में फैला हुआ है। धरती, आकाश, पाताल सभी जगह इसी रूप की झलक है। यही रूप है जो प्रकट होकर हमारे समक्ष है, जिससे सब प्रकाशवान है।
पद्मावत में जायसी ने भाव-सौन्दर्य और शिल्प-सौन्दर्य का अनूठा नमूना प्रस्तुत किया है। यह प्रत्येक पाठक के लिए हृदयग्राही और रसमग्न कर देने वाला है। जायसी की काव्यकला इन वर्णनों में उभरकर हमारे सामने आती है। पद्मावत की नायिका पदमावती सौन्दर्य की साकार प्रतिमा है। वह पारस रूप है, सौन्दर्य का स्रोत है, एक ऐसा स्रोत, जिससे सारा जगत सौन्दर्यमान हो रहा है–
कहा मानसर चहा सो पाई। पारस रूप इंहा लगि आई।
भा निरमर तेन्ह पायन परसे। पावा रूप रूप के दरसे।
मानसरोवर में स्नान करने आई पद्मिनी को देखकर मानसरोवर हर्षित है, जो उसे चाहिए था, मिल गया। पारस रूप पदमावती यहाँ स्वयं आई है। उसके पाँव रखने मात्र से वह निर्मल हो गया। उसने जो रूप पाया है, वह उसी के दर्शन का परिणाम है ।
पद्मावती के रूप सौन्दर्य का विस्तृत वर्णन जायसी ने तोते और राघव चेतन के मुख से कई बार कराया है। “सृष्टि के जिन–जिन पदार्थों में सौन्दर्य की झलक है, पद्मावती की रूप राशि की योजना के लिए कवि ने मानों सबको एकत्र कर दिया है। जिस प्रकार कमल, चन्द्र, हंस आदि अनेक पदार्थों का सौन्दर्य लेकर तिलोत्तमा का रूप संघटित हुआ था, उसी प्रकार कवि ने मानों पदमावती का रूप–विधान किया है। पद्मावती का सौन्दर्य अपिरमेय है, अलौकिक है और दिव्य है (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, जायसी ग्रन्थावली, भूमिका, पृ. 89-90)”। जायसी की पद्मावती परम-सत्ता का प्रतीक है। कवि ने पद्मावती के रूप सौन्दर्य के लोकोतर प्रभाव का भी प्रतिपादन किया है। समस्त सृष्टि उसके रूप के प्रभाव से ही संचालित है। पद्मावती के केश खोलने मात्र से ही आकाश–पाताल में अँधेरा हो जाता है –
बेनी छोरि झारू जो बारा, सरग पतार होई अँधियारा।
पद्मावती का रूप-सौन्दर्य ऐसा है, जिसे सुनकर राजा रत्नसेन मूर्छित हो जाते हैं। देवमन्दिर में पद्मावती का दर्शन करने के बाद पुन: बेहोश हो जाते है। जब राघव चेतन झरोखे में खड़ी पद्मावती को देखते हैं, तो वे अपनी सुध–बुध खो बैठते हैं।
पद्मावती के रूप-सौन्दर्य के साथ–साथ जायसी ने रत्नसेन के रूप की भी प्रसंशा की है। पद्मावती को रत्नसेन के विषय में बताते हुए हीरामन कहता है कि बत्तीस लक्षणों से युक्त उसके रूप और कान्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता है। रत्नसेन को वर-वेश में सज्जित देखकर पद्मावती की सखियाँ कहती हैं –
सह्सौं कराँ रूप विधि गढा, सोने के रथ आवै चढ़ा।
मणि माथें दरसन उजियारा, सौंह निरखि नहि जाई निहारा।
रत्नसेन के रूप को विधाता ने फुरसत से गढा है, वे सोने के रथ पर चढ़े आ रहे है। मणियों जैसे उनके मस्तक के उजाले का तो कहना ही क्या है, उनके चेहरे का तेज इतना है कि निहारा भी नहीं जा रहा है।
पद्मावती के साथ–साथ जायसी ने सिंघलद्वीप की पनिहारिनों के रूप सौन्दर्य का भी चित्रण किया है। उनका कहना है कि जिस देश की पनिहारिने इतनी सुन्दर हैं, उस देश की रानी और राजकुमारियाँ कैसी होंगीं –
पानि भरइ आवहिं पनिहारी, रूप सुरूप पदुमिनी नारी।
पदुम गन्ध तेंह अंग बसाही, भँवर लागि तेंह संग फिराही।
लंक सिंघिनी सारंग नैनी, हंसगामिनी कोकिल बैनी।
आवाहिं झुण्ड सो पाँतिहि पांती, गवन सोहाइ सो भाँतिहि भाँती।
केस मेघवरि सिर ता पाई, चमकहिं दसन बीजु की नाई।
कनक कलश मुख चन्द दिपाहीं, रहस कोउ सो आवाहिं जाही।
जासौं वै हेरहिं चख नारा, बाँक नैन जनु हनहिं कटारी।
मानहु मैन मुरति सब अछरी बरन अनूप।
जेन्हिकि ये पनिहारी सो रानी केहि रूप।
पद्मिनी जाति की रूप और स्वरूप वाली पनिहारिनें वहाँ पानी भरने के लिए आती हैं। वे कमल की गन्ध जैसी सुगन्धित है, इसीलिए भौंरे उन्हें कमल समझकर उनके साथ चलते रहते हैं। उनकी कमर सिंह की तरह, नयन मृग की भाँति, चाल हंस की भाँति और वाणी कोयल की तरह है। वे झुण्ड में पंक्ति बनाकर चलती है, तो शोभायमान लगती हैं। उनके मेघमाला जैसे काले केश सिर से पैर तक लहराते हैं और दन्त पंक्ति बिजली सी चमकती है। उनका मुख चन्द्रमा के समान दिप–दिप करता है। वे प्रसन्नता के साथ आती जाती रहती है। वे सुन्दर रमणियाँ, जिसकी ओर देखती हैं, प्रतीत होता है कि बाँकें कटाक्ष से कटारी मार रही हों। वे कामदेव की मूर्तियों और अप्सराओं के समान सुन्दर हैं। जिस देश की पनिहारिनें ऐसी हैं उस देश की रानियाँ कैसी होंगीं!
सिंघलद्वीप की पनिहारिनों के सौन्दर्य के वर्णन के अतिरिक्त, जायसी ने वहाँ के हाट-बाजार, सघन अमराई, वृक्ष, फल, फूल, मानसरोवर, हस्तशिल्प… सभी का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। उनके सौन्दर्य चेतना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने वर्णन को केवल पात्रों तक ही सीमित नहीं रखा, सिंघलद्वीप के वर्णन में भी उनके सौन्दर्य चेतना की झाँकी देखने को मिलती है। तत्कालीन नगरों की विशेषता को ध्यान में रखते हुए लोक-जीवन से परिचित जायसी नगर-वर्णन प्रस्तुत करते हुए प्रस्तुत के साथ अप्रस्तुत की भी झलक देते हैं।
नवौ खण्ड नव पँवारी औ तहँ वज्र केवार।
चारि बसेरें सों चढ़ै सत सौं चढ़ै जो पार।
उक्त वर्णन जितना सिंघलदीप के नगर का है, उससे ज्यादा भारतीय हठयोग तथा सूफियों के चार मुकामों का सुन्दर समन्वय है । हाट का वर्णन ऐसा बन पड़ा है कि वहाँ का पूरा दृश्य आँखों के सामने साकार हो उठता है –
लै लै बैठ फूल फुलहारी। पान अपूरव धरे सँवारी।
सोंधा सबै बैठु लै गाँधी। बहुत कपूर खिरौरी बाँधी।
कतहूँ पण्डित पढ़हिं पुरानू। धरम पन्थ कर करहिं बखानू।
कतहुँ कथा कहै कछु कोई। कतहूँ नाच कोउ भलि होई।
कतहुँ काहु ठग बिद्या लाई। कतहूँ लेहिं मानुस बौराई।
चरपट चोर धूत गठिछोरा मिले रहहिं तेहि नाँच।
जो तेहि नाँच सगज भा अगुमन गत ताकर पै बाँच।
उस हाट में फूलवाली मालिनें फूल ले लेकर बैठी हैं। सुन्दर पान सजाकर रखे हुए हैं। गन्धी सभी प्रकार की सुगन्धि लेकर बैठा है। अधिक कपूर डालकर कत्थे की टिकिया बाँधी गई है। कहीं पर पण्डित पुराण का पाठ कर रहे हैं, कहीं लोग धर्म के मार्ग का बखान कर रहे हैं। कहीं कोई कथा कह रहा है तो कहीं सुन्दर नाच और कौतुक के खेल चल रहे हैं। कहीं छल का खेल चल रहा है तो कही कुछ और पाखण्ड हो रहा है। वहाँ हाट में होने वाले नृत्य में चोर, धूर्त और सामान लूटने वाले भी है। जो व्यक्ति पहले से उस नाच में सजग रहता है, वही अपनी पूँजी को बचा पाता है।
4. पद्मावत में चित्रित प्राकृतिक सौन्दर्य
प्रकृति पृथ्वी के अस्तित्व से ही मानव की सहचरी रही है। प्रकृति-सौन्दर्य हमेशा से ही प्रेम का प्रेरक तत्त्व रहा है। कालिदास, भवभूति जैसे महान कवियों की रचनाएँ इस बात का प्रमाण है। मानव का तो पूरा अस्तित्व ही प्रकृति पर निर्भर है। एक तरफ जहाँ प्रकृति सहचरी है, शान्त है, जीवनदायिनी है वहीं वह कभी कभी विकराल रूप भी धारण कर लेती है –
उठै लहरि परबत की नाई। होई फिरै जोजन लख ताई।
धरती लेत सरग लहि बाढा। सकल समुँद जानहुँ भा ठाढा।
प्रकृति के सौन्दर्य का चित्रण जितने रूपों में हो सकता है, उन सभी रूपों में जायसी ने प्रकृति के सौन्दर्य का सूक्ष्म चित्रण प्रस्तुत किया है।
4.1 आलम्बन रूप में प्रकृति का सौन्दर्य-चित्रण
आलम्बन रूप में प्रकृति का वर्णन कवि साध्य-रूप में करते है। पद्मावत में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ पर जायसी ने प्रकृतिका आलम्बन रूप में चित्रण किया है। वातावरण-निर्माण के लिए प्रकृति के दृश्यों को आलम्बन रूप में ग्रहण किया गया है एक उदाहरण द्रष्टव्य है –
कुहू कुहू कोइल करि राखा, ओं भिंगराज बोल बहु भाषा।
दही दही क महरि पुकारा, हारिल बिनवै आपनि हारा।
कुहकहिं मोर सोहावन लागा, होई कोराहार बोलहिं कागा।
ग्राम्य-जीवन के अभिन्न अंग तालाब का एक सुन्दर चित्रण जायसी ने प्रस्तुत किया है –
ताल तलवारि बरनि न जाहीं, सूझइ वार पार तेन्ह नाहीं।
फूले कुमुद केत उजिआरे, जानहुँ उए गगन महँ तारे।
4.2 उद्दीपन रूप में प्रकृति का चित्रण
प्रकृति के सहज आलम्बन सौन्दर्य के अतिरिक्त उद्दीपन-रूप में भी इसका वर्णन किया गया है। मानव-मन के हर्ष-विषाद के साथ हर्षित और दु:खी होती प्रकृति की सौन्दर्य राशि चारों तरफ बिखरी हुई है। सुख के अवसर पर प्रकृति नाचती थिरकती तथा गाती हुई प्रतीत होती है। किन्तु अवसाद के क्षणों में वही प्रकृति मुरझाई, अलसाई और दु:खी दिखाई देती है। तभी तो नागमती की वियोग-वेदना वाला बारहमासा हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। उद्दीपन रूप में प्रकृति का चित्रण बड़े ही सजीव और स्वाभाविक रूप में किया गया है। पद्मावत के षड्ऋतु वर्णन में पद्मावती के हृदय के हर्ष का सुन्दर वर्णन है। यह प्रकृति पदमावती के लिए एक नया सन्देश लेकर आई है। बसन्त ऋतु का एक दृश्य इस तरह है –
प्रथम वसन्त नवल रितु आई, सुरितु चैत बैसाख सोहाई।
चन्दन चीर पहिरि धनि अंगा, सेन्दुर दीन्ह बिहंसि भरि मंगा।…
जेहि घर कन्ता रितु भली, आउ बसन्ता नित्तु।
सुख बहरावहि देवहरै, दुक्ख न जानहि कित्तु।
नवल वसन्त ऋतु का आगमन हो चुका है। चैत बैशाख में वह ऋतु सुहावनी लग रही है। रानी पद्मावती ने चन्दन चीर धारण किया हुआ है और प्रसन्नता पूर्वक पूरी मांग में सिन्दूर धारण कर रखा है। जिस घर में कन्त हो वहाँ सदैव भली वसन्त ऋतु आती है। वहाँ पति-पत्नी वसन्त ऋतु में उद्यान में जाकर अपने आपको बहलाते हैं। सुख का अनुभव करते हैं। सुहाने वसन्त ऋतु के प्रभाव के कारण प्रतीत होता है कि दोनों एक दूसरे से मिल गए हों –
रंग राती पिय संग निसि जागे, गरजे चमकि चौकि कंठ लागे।
लेकिन यही प्रकृति, प्रिय के दूर होने पर कष्टदायी प्रतीत होती है, हृदय को जलाने वाली लगती है। नागमती के विरह वर्णन के माध्यम से प्रकृति सौन्दर्य का जो रूप जायसी ने पद्मावत में प्रस्तुत किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। परम्परागत एवं नवीन मौलिक उपमानो से युक्त यह बारहमासा प्रतिक्षण सौन्दर्य प्रदान करता है। ऐसा लगता है कि प्रकृति भी नागमती के विरह में ही विरही है, नागमती का विरह प्रकृति के कण–कण में समा गया है, तभी तो –
पिय सौं कहेहु सन्देसरा, ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि गई, तेहिक धुआँ हम लाग।
भौंरे और काग पक्षी का रंग हमेशा से ही काला नहीं था। यह कालापन विरहणी नागमती के हृदय की ज्वाला से उठे धुएँ के कारण हो गया है। उस हृदय से उठने वाले धुएँ से अगर इन पक्षियों की यह हालत है, तो जिस विरही के हृदय में यह विरह ज्वाला जल रही होगी, उसका क्या होगा। प्रकृति की ऐसी सूक्ष्म कल्पना जायसी के सौन्दर्य विवेक का परिणाम है।
4.3 अलंकार रूप में प्रकृति का चित्रण
जायसी ने प्रकृति के उपादानों को अलंकार रूप में भी ग्रहण किया है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण अलंकारों की सहायता से काव्य में एक नवीन सौन्दर्य का सृजन किया है। उन्होंने जड़ पदार्थ में भी चेतनता का आरोप किया है, जिसके कारण वह सजीव हो उठी है। सूखते हुए सरोवर से विरही हृदय की उपमा द्रष्टव्य है –
सरवर हिय घटत निति आई, टूक-टूक होई होई बिहराई।
बिहरत हिया करहु पिय टेका, दिस्टि दंवगरा मेरवहु एका।
या फिर,
तोर जोबन अस समुद हिलोरा, देखि देखि जिय बूडै मोरा।
इन उपमानों के अतिरिक्त नागमती के संयोग वर्णन की उपमा एक फुलवारी से दी है, जिसकी पत्तियों में अभी-अभी जीवन आया है, कोपलें आई हैं –
जस भुईं दहि असाढ़ पलुहाई, परहिं बुन्द औ सोंध बसाई।
ओहि भांति पलुही सुख बारी, उठे करिल नव कोंप सँवारी।
जैसे दग्ध होती धरती आषाढ़ में फिर से पलुहती है। उसमे नया जीवन आता है, अभी तक पानी के अभाव में जो धरती मृतप्राय थी, जिसका हृदय जगह–जगह से फटा हुआ था, वह अब वर्षा की बून्दों से भरने लगा है। बूँद पड़ने पर सुगन्ध से भर जाती है। उसी भाँति वह बाला सुख से हरी हो गई है। जैसे करील में नये कोपलें निकलती और सुहानी लगती है उसी प्रकार उस बाला में सुख की कोपलें निकल रही है जो सुहावनी लग रही है, प्रकृति के साथ मानव हृदय का इतना गहरा तादात्म्य जायसी के गहन सौन्दर्य-चेतना का परिचायक है।
जायसी ने प्रकृति का मानवीकरण कई स्थान पर किया है। नागमती के विरह में जड़ पदार्थ भी दुखी हैं – तेहि दुःख डहे परास निपाते ,लोहू बूडी उठे परभाते।
एक तरफ जहाँ प्रकृति मानव के दुःख से दुखी और उसकी खुशी से खुश है, वहीं दूसरी तरफ वह स्वयं कई बार मानव रूप में हमारे समक्ष उपस्थित हो जाता है। जायसी ने प्रकृति को एक सुन्दर नारी-रूप में देखा है – नवल सिंगार बनस्पति कीन्हा, सीस परसहि सेन्दुर दीन्हा।
इन वनस्पतियों को देखकर ऐसा लगता है, मानो इन्होंने नया शृंगार किया हो। उनकी लाल-लाल छोटी-छोटी कोपलों से प्रतीत रहा है, जैसे उसने एक विवाहिता स्त्री की तरह सिन्दूर धारण कर लिया हो।
4.4 जायसी का शिल्प सौन्दर्य
जायसी की कविता का एक महत्त्वपूर्ण आयाम शिल्प सौन्दर्य भी है। उनका शिल्प सौन्दर्य उनके व्यक्तित्व का सूक्ष्म प्रतिरूप है। जायसी जन के कवि थे, इसीलिए उन्होंने जनता की भाषा अवधी में अपनी रचनी की। उन्होंने पद्मावत में अपने समय के जन–जीवन, साहित्य और संस्कृति के विशाल शब्द-भण्डार का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। जायसी की शब्द सम्पदा अत्यन्त समृद्ध तथा सौन्दर्यपूर्ण है। अरबी, फारसी के साथ तद्भव और तत्सम शब्दों का प्रयोग उनके सौन्दर्य रुचि का परिचय देता है। जायसी ने परम्परागत लोकोक्तियों, मुहावरों तथा सूक्तियों का भी समुचित प्रयोग किया है। जायसी काव्य में प्रयुक्त सूक्तियाँ निम्नलिखित है –
फूल सोई जो महेसहिं चढ़े।
(फूल वही है जो महेश पर चढे।)
साहस जहाँ सिद्धि तहँ होई।
(सिद्धि उसी को मिलती है जिसके पास साहस होता है।)
धनि सो पुरुख जस कीरति जासू। फूल मरे पर मरै न बासू।
(वह पुरुष धन्य है, जिसके मरने के बाद भी उसकी कीर्ति, उसका यश अमर हो जाता है, फूल मर जाते हैं, पर उनकी सुगन्ध नहीं मरती है।)
बैठो कोई राज औ पाटा। अन्त सबै बैठिहि एहि खाटा।
इस धरती पर अनन्तकाल तक राजपाट कोई भी नहीं भोग सकता, एक न एक दिन मृत्यु की खाट पर सबको बैठना होता है ।
पद्मावती के नख–शिख वर्णन खण्ड में कवि ने शिल्प सौन्दर्य के प्राय: समस्त साहित्यिक उपादानों का सफल प्रयोग किया है। जायसी ने क्रमशः केश, माँग, ललाट, भौंह, नेत्र, नासिका, अधर… पेट, पीठ, नाभि, नितम्ब तथा चरणों के रूप-सौन्दर्य का वर्णन किया है। यह परम्परा फारसी साहित्य में भी देखने को मिलती है। माँग के लिए दीपक, रक्तरंजित खड्ग तथा अधरों के लिए रक्त और ग्रीवा के लिए सुराही के उपमान फारसी काव्य के प्रसिद्ध उपमान है, जिनका सफल प्रयोग जायसी ने पद्मावत में किया है।
उन्होंने विभिन्न उपमानों के लिए कही परम्परागत, तो कही नवीन उपमानों का प्रयोग किया है। कुछ प्रमुख उपमान इस प्रकार है –
नेत्र – कमल, भ्रमर, भृंग, खंजन, मीन, तरंग।
ललाट – द्वितीया का चन्द्रमा, किरण युक्त सूर्य।
नासिका – खड्ग, तोते की चोंच।
अधर – बिम्बफल, मूंगे में जड़े हीरे।
जायसी ने अपने सौन्दर्य-चित्रण में अपनी प्रतिभा, कल्पना, बहुज्ञता एवं बिम्ब विधायिनी शक्ति का सहारा लिया है।
5. निष्कर्ष
स्पष्ट है कि पद्मावत की काव्यात्मकता में जायसी की सौन्दर्य-चेतना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उत्कृष्ट भाव और शिल्प सौन्दर्य सम्बन्धी जायसी की चेतना ने पद्मावत को एक नई ऊँचाई प्रदान की है। चरित्र कथा, भाषा शैली, प्रसंग… हर जगह इस सौन्दर्य के दर्शन होते हैं। अवधी भाषा की जिस मधुरता का रसास्वादन पाठक पद्मावत पढ़ने के बाद होता है, वह जायसी जैसे कुशल पारखी की सौन्दर्य-कला का परिणाम है ।
you can view video on पद्मावत में अभिव्यक्त सौन्दर्य-चेतना |
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- सूफी काव्य में पौराणिक सन्दर्भ, डॉ. अनिल कुमार, ग्रन्थलोक, दिल्ली
- प्रेमाख्यानक काव्य में भारतीय संस्कृति, डॉ. अशोक कुमार मिश्र, राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली
- जायसी ग्रन्थावली, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, वाणी प्रकाशन
- सूफी सन्त साहित्य का उद्भव और विकास, प्रो. जय बहादुर लाल, नवयुग ग्रन्थागार, लखनऊ
- पद्मावत का काव्य-वैभव, डॉ. मनमोहन गौतम, मैकमिलन पब्लिकेशन
- पद्मावत : नवमूल्यांकन, डॉ. राजदेव सिंह, उषा जैन, पाण्डुलिपि प्रकाशन, दिल्ली
- जायसी : एक नव्यबोध, अमर बहादुर सिंह ‘अमरेश’, साहित्य कुटीर, लखनऊ
- जायसी, परमानन्द श्रीवास्तव, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- भारतीय चिन्तन परम्परा, के. दामोदरन, पीपीएच, नई दिल्ली
- भक्ति आन्दोलन के सामाजिक सरोकार, सं. गोपेश्वर सिंह, भारतीय प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
- जायसी,विजयदेवनारायण साही, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद
वेब लिंक्स
- http://www.hindikunj.com/2010/06/hindi-sahitya-ka-itihas.html
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
- http://www.kavitakosh.org/kk/%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%A4_/_%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A6_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%80
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%A4
- https://www.youtube.com/watch?v=ryQw4xpWZ1I