30 जायसी : सूफी भावना और रहस्यवाद
शशिकला त्रिपाठी
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- भक्तिकाल की प्रेममार्गी ‘शाखा’ से परिचित होंगे।
- प्रेम का दिव्य रूप और सूफी कवि के बारे में परिचय हासिल करेंगे।
- सूफीमत की विशेषताएँ समझ सकेंगे।
- सूफीमत का अन्य मतों से सम्बन्ध के बारे में जानकारी ले सकेंगे।
- सूफीमत और इस्लामी रहस्यवाद का सम्बन्ध जान सकेंगे.
- जायसी का दार्शनिक चिन्तन समझ सकेंगे।
- जायसी का समन्वयवादी दृष्टिकोण जान पाएँगे।
- जायसी की लोकप्रियता का जायजा ले सकेंगे।
2. प्रस्तावना
जिन कवियों ने लौकिक (सांसारिक) प्रेम के माध्यम से अलौकिक (ईश्वरीय) प्रेम का वर्णन किया, वे भक्तकवि ‘प्रेममार्गी’ कहे गए। मुल्ला दाउद, मलिक मुहम्मद जायसी, कुतुबन, मंझन, कासिमशाह, नूर मुहम्मद आदि इसी धारा के कवि हैं। इनमें सर्वाधिक प्रतिष्ठा जायसी को मिली और वे प्रतिनिधि कवि कहलाए। उनके तीन ग्रन्थ बताए गए हैं – पद्मावत, अखरावट और आखिरी कलाम। इनमें पद्मावत सर्वोत्तम रचना है। डॉ शिवसहाय पाठक ने दो अन्य ग्रन्थों – चित्ररेखा और कन्हावत की खोज की। उनके अनुसार सम्भवतः कन्हावत को ही गार्सा द तासी (हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास लेखक) ने घनावत के रूप में उल्लिखित किया है। (गगनांचल, जनवरी-फरवरी 2014) एक अज्ञात लेखक ने तो चौदह कृतियों का नामोल्लेख किया है।
3. सूफी, सूफीमत और सूफी सम्प्रदाय
इस्लाम में रहस्यवादियों को ‘सूफी’ कहा गया है। ये सांसारिकता से विमुख होकर परमात्मा के प्रेम में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि बेसुध प्रतीत होते हैं। इस अवस्था तक पहुँचने के लिए वे कठिन से कठिन साधना करते हैं, जिसमें प्रेम सर्वोत्कृष्ट होता है। ऐसे ही मुसलमान सन्तों या फकीरों को ‘सूफी’ कहा गया। परमात्मा के साथ एकमेक होना, उनका चरम लक्ष्य होता है।
‘सूफी’ शब्द की व्युत्पत्ति के प्रसंग में विद्वान एकमत नहीं हैं। एक मत है, मदीना में मुहम्मद साहब द्वारा बनवाई गई मस्जिद के ‘सूफ्फा’ (चबूतरे) पर बैठकर खुदा की प्रार्थना करने वाले सूफी कहे गए। दूसरी धारणा है, ‘सूफी’ शब्द ‘सूफा’ से बना है जिसका अर्थ है ‘पवित्रता’। सूफी वे हैं जिनका मन तन से अधिक शुद्ध हो और उनके क्रिया-कलापों मे बाह्याडम्बर न हो। तीसरा मत है, सूफी शब्द का उत्स ‘सफ़’ (पंक्ति) से है। सूफी वे कहलाएँगें जो सदाचार के कारण परमात्मा के प्रिय होंगे। वे निर्णायक क्षण में विशेष पंक्ति में खड़े किए जाएँगें। चौथी धारणा है, ग्रीक शब्द ‘सोफिया’ से सूफी शब्द निस्सृत हुआ है जिसका अर्थ है ‘निर्मल ज्ञान’। जो निर्मल ज्ञान के अधिकारी होते हैं, उन्हें सूफी कहा गया। पाँचवाँ, बहुमान्य मत यह है कि ‘सूफ’ (ऊन) से सूफी शब्दकी व्युत्पत्ति हुई। इस धारणा के पक्ष में ब्राउन मारगोलियन, निकल्सन, इस्लामपन्थी और हिन्दी के आचार्य भी खड़े दिखाई देते हैं। आठवीं और नवीं सदी में अरब में सूफियों की पहचान उनके ढीले-ढाले ऊनी वस्त्रों से होती थी। वे ऊन के कम्बल लपेटे रहते थे और ईश्वर के प्रेम में लीन रहते थे (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, जायसी ग्रन्थावली की भूमिका, पृ. 10)।
सूफियों के दार्शनिक चिन्तन को ‘सूफीमत’ कहा गया। अरबी में इसके लिए ‘तसव्बुफ’ शब्द का प्रयोग हुआ। लेकिन खुद सूफियों ने न तो सूफीमत शब्द का व्यवहार किया और न ‘तसव्वुफ’ शब्द का। सूफीमत का प्रयोग हिन्दी में तो सन्तमत के आधार पर अंग्रेजी के ‘सूफीज़्म’ के सहारे सहज ही चल पड़ा। परन्तु ‘सूफ’ से अरबी में ‘तसव्वुफ’ बना, बिलकुल अपने ढंग पर। (चन्द्रबली पाण्डेय, तसव्वुफ अथवा सूफीमत, निवेदन)
‘सूफीमत’ से आशय है – आत्मा, परमात्मा और जगत के पारस्परिक सम्बन्धों की भावपूर्ण विवेचना। इस्लामपन्थी ‘एकेश्वरवाद’ में विश्वास करते हैं। उनके अनुसार, परमात्मा इस संसार के सभी वस्तुओं या पदार्थों से भिन्न है। उसके समकक्ष कोई नहीं है। वह जात (सत्ता), सिफत (गुण) और कर्म में अतुलनीय है। सूफीमत में भी ‘एकेश्वरवाद’ को प्रतिष्ठा मिली, किन्तु भिन्न रूप में। इनके सिद्धान्त को ‘सर्वेश्वरवाद’ कहा गया। यहाँ परमात्मा परमसत्य (अनलहक) होते हुए भी सृष्टि और समस्त प्राणियों से अलग नहीं हैं। सृष्टि उसी के अभिव्यक्त होने की इच्छा का परिणाम है। वह जगत रूपी दर्पण में सदैव प्रतिबिम्बित होता है, अतः यह जगत उसकी प्रतिच्छवि है। “मनुष्य उस प्रतिच्छवि की आँख जैसा है…। जिस प्रकार से आँख की पुतली में सम्पूर्ण प्रतिच्छवि उतर आती है, उसी प्रकार से मनुष्य उस परमात्मा को, उसकी प्रतिच्छवि को अपने आप में बसाए हुए है (रामपूजन तिवारी, सूफीमतः साधना और साहित्य, पृ. 254)।”
परमात्मा के प्रसंग में दो सिद्धान्त सूफीमत का प्रतिनिधित्त्व करते हैं – एक ‘वहदतुलवुजूद’ का सिद्धान्त, जिसके प्रवर्तक मुहीउद्दीन इब्नुल अरबी कहे जाते हैं। उनकी दृष्टि में परमात्मा की ही एकमात्र सत्ता है। सम्पूर्ण जगत उसी की अभिव्यक्ति है। दूसरा ‘वहदतुश्शुहूद’ का सिद्धान्त, जिसके प्रवर्तक शेख करीम जीली हैं। इन्होंने परमात्मा और जीव दोनों की सत्ता को स्वीकार किया है। किन्तु जीव ‘शून्य जैसी स्थिति में होता है। वह अस्तित्त्ववान तभी होता है, जब परमात्मा की कृपा होती है।
परमात्मा और सृष्टि दोनो का अंग होने से मनुष्य में सत्-असत् दोनों भाव होते हैं। ईश्वरीय अंश ‘सत्’ अपने उद्गम स्थल पर लौटना चाहता है, लेकिन असत् तत्त्व (शरीर) के कारण ऐसा नहीं हो पाता। इस मार्ग में बाधक तत्त्व ‘अहंकार’ है। अतः सूफी पहले उसे ही नष्ट करना चाहते हैं। इस निमित्त मरण, स्वत्त्व को मिटाना और सिर काटकर रखना जैसी शब्दावलियों का प्रयोग करते हैं।
सूफियों की पूर्ण आस्था अल्लाह में है। ‘कुरान’ अल्लाह की क़िताब है, यह मान्यता उनकी भी थी। परन्तु वे परमात्मा से सीधा सम्बन्ध बनाने के हिमायती थे। परमात्मा को उन्होंने ‘परम-सत्य’, ‘परम-सौन्दर्य’ ही नहीं ‘परमप्रेम’ भी कहा। परमात्मा ही आनन्दानुभूति के लिए प्रेमभाव मनुष्य मे जगाता है। “प्रेम पर ही सूफीमत का प्रासाद खड़ा किया गया है। प्रेम पर सूफियों का इतना व्यापक और गहरा अधिकार है कि लोग प्रेम को सूफीमत का पर्याय समझते हैं।” (चन्द्रबली पाण्डेय, तसव्वुफ अथवा सूफीमत, पृ. 10-11)।”
‘सूफीमत’ इस्लाम का एक अंग माना जाता है, जिसे अपेक्षाकृत उदार माना गया। जब सूफियों के सिद्धान्त इस्लाम के दृष्टिकोण से मेल न खाते, तो वे कुरान और हदीसों की नई व्याख्या कर अपने मत का प्रतिपादन करते। उन्होंने पैगम्बरी कट्टरता स्वीकार नहीं थी। वेदों की प्रतीकोपासना और सगुण भक्तों के प्रतिमापूजन के प्रति पैगम्बरी मतों में जो द्वेष था, उसे वे अनुचित मानते थे। वे तो स्वयं अपने उपास्य को बुत के रूप में देखने लगे और बुतों के आगे सिजदा करने में उन्हें हिचक न होती।
‘सूफीमत’ के उत्कर्ष में जिन सूफियों का योगदान महत्त्वपूर्ण है उनके नाम हैं – मारुफ करखी, राबिया, हसन अल बसरी, जूलनून, यजीद, जुनैद, मंसूर बिन हल्लाज और इमाम गज्जाली। हल्लाज तो सूफीमत के शिरोमणि कहे गए। उनके अद्वैतवाद – अनलहक़ (मैं ही ब्रह्म हूँ) से खलीफा नाराज थे। इसलिए, उन्हें सूली पर चढ़ाया गया। तत्पश्चात्, अल गज्जाली ने सूफीमत को उदार बनाने की दिशा में समन्वयवादी नीति अपनाई। वह कुरान, राबिया, अलबसरी, जुनैद से ही नहीं, यूनानी दार्शनिकों से भी प्रभावित हुआ। उसके द्वारा धर्म, दर्शन और भक्ति भावना में जो समन्वय हुआ उससे तसव्वुफ की प्रतिष्ठा में स्थिरता आई। इस प्रसंग में जिली, अरबी और रुमी के नाम भी लिए जाते हैं, जिन्होंने सूफी परम्परा को आगे बढ़ाया।
इस्लाम के आधार के बावजूद सूफीमत में अन्य धर्मों या मतों से भी सन्निकटता दिखाई देती है। भारतीय धर्म, दर्शन, उपनिषद, वेदान्त, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, बौद्धदर्शन आदि के सिद्वान्तों को भी सूफियों ने आत्मसात किया। बौद्धों के ‘निर्वाण’, ‘ध्यानावस्था’ और ‘एकान्तसेवन’ तथा सूफीमत के ‘फना’, ‘मुराकथा’, और ‘खिलवत’ के सिद्धान्तों में समानता है। ब्राउन निकोल्सन जैसे विद्वान सूफीमत में नवअफलातूनी दर्शन (ग्रीक-दर्शन) की छाया अधिक पाते हैं। वहाँ भी चरम-लक्ष्य की प्राप्ति में बुद्धि और तर्क का निषेध है। कहना न होगा कि सूफियों का सम्पर्क जिन देशों से हुआ, उसके धर्म, दर्शन से वे अप्रभावित नहीं रह सके।
सूफीमत के विभिन्न सम्प्रदाय हैं। उनमें चिश्ती सम्प्रदाय, सोहरावर्दी सम्प्रदाय, कादरी सम्प्रदाय, नक्शबन्दी सम्प्रदाय, औलिया सम्प्रदाय, साबिरी सम्प्रदाय और मेहदवी सम्प्रदाय प्रमुख हैं। भारतवर्ष में सूफियों का प्रवेश बारहवीं सदी में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती के समय से माना जाता है। उन्होंने ही चिश्तिया सम्प्रदाय की स्थापना की। उन्हीं के शिष्य परम्परा में बाबा फरीद और उनके शिष्य निजामुद्दीन औलिया आते हैं। इस सम्प्रदाय में संगीत को प्रधानता दी गई है। रामचन्द्र शुक्ल और परशुराम चतुर्वेदी जायसी को इसी सम्प्रदाय से जोड़ते हैं। मशहूर सन्त शेख शहाबुद्दीन सुहरवर्दी के नाम पर सोहरावर्दी सम्प्रदाय की स्थापना हुई। इस सम्प्रदाय के सूफी अधिक दुनियादार थे। वे गृहस्थ होते थे और उनका सुल्तानों से सम्बन्ध भी बना रहता। हिन्दी के कवि कुतुबन का सम्बन्ध इसी सम्प्रदाय से था। शेख कादिरी जिलानी ‘कादरिया’ सम्प्रदाय के संस्थापक माने जाते हैं। शाह नियामत उल्लाह और महमूद जिलानी सिंध में इसी सम्प्रदाय के प्रचारक बने। नक्शबन्दी सम्प्रदाय के प्रवर्तक ख्वाजा बहाउद्दीन कहे जाते हैं। बाबर, हुमायूँ, अकबर आदि का वंशानुगत सम्बन्ध इसी सम्प्रदाय से था। कादिरिया और नक्शबन्दिया सम्प्रदाय से किसी हिन्दी कवि की सम्बद्धता ज्ञात नहीं होती। रामपूजन तिवारी और रामखेलावन पाण्डेय जायसी का सम्बन्ध मेहदवी सम्प्रदाय से बताते हैं, जिसके संस्थापक मीर सैय्यद मोहम्मद जौनपुरी थे। विजयदेव नारायण साही का अभिमत एकदम भिन्न है। उनका तर्क है, पद्मावत के कड़वक में गुरुओं की लम्बी सूची प्रस्तुत की गई है, फिर जायसी को किसी एक गुरु से कैसे जोड़ा जा सकता है।
4. जायसी की सूफी साधना
परमात्मा-मिलन के लिए ‘साधना-पथ’ पर चलना अनिवार्य होता है। इस पथ को सूफियों ने ‘सूफी साधना’ या ‘सूफी मार्ग’ कहा है। साधना के बिना चरम-लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव नहीं होती। इस्लामिक पृष्ठभूमि होने के कारण जायसी के ग्रन्थों में जाने-अनजाने सूफी साधना के सभी बिन्दु मिल जाते हैं।
‘प्रेम’ सूफी साधना में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। लौकिक प्रेम में इतनी उदात्तता दिखाई जाती है कि वह पारलौकिक प्रतीत होने लगता है। ‘इश्क मजाजी इश्क हक़ीकी की सीढ़ी है और उसी के द्वारा इन्सान खुदी को मिटा कर खुदा बन जाता है।’ (चन्द्रबली पाण्डेय, तसव्वुफ अथवा सूफीमत, पृ. 10)
जायसी स्पष्ट कहते हैं कि प्रेम के बल पर ही मनुष्य बैकुण्ठ का अधिकारी बनता है, अन्यथा उसका जीवन एक मुट्ठी राख के सदृश है – मनुष्य प्रेम भएउ बैकुण्ठी। नाहिं त काह छार एक मूँठी।। साधक ‘प्रेम पियाला’ पीता हुआ उन्माद की दशा तक पहुँच जाता है। वहाँ उसे परमात्मा से तादात्म्य की अनुभूति होती है। रत्नसेन के भावाविष्टावस्था (हाल) का वर्णन करते हुए जायसी ने लिखा है –
सुनतहि राजा गा मुरुछाई । जानहुँ लहरि सुरुज कै आई ।।
परा सो प्रेम समुंद अपारा । लहरहिं लहर होई विसँभारा ।।
भावार्थ यह कि हीरामन तोता से पद्मावती का ‘नखशिख वर्णन’ सुनकर रत्नसेन प्रेमानुभूति की तीव्रता से मूर्छित हो जाता है। मानो, सूर्य की लहर अर्थात लू का झोंका आ गया हो। वह प्रेम के समुद्र में गिर गया था। आकांक्षा की लहरों के बार-बार उठने से वह बेसुध हो जाता। यहाँ पूर्वराग (मिलन के पूर्व) की तीव्र विरहानुभूति की अभिव्यक्ति हुई है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल रत्नसेन को आत्मा और पद्मावती को परमात्मा का प्रतीक बताते हैं। सूफी काव्यों में साधक ‘आशिक’ होता है और साध्य ‘माशूका’। किन्तु पद्मावत में इस आध्यात्मिक संकेत का पूर्ण निर्वाह नहीं हो पाया है –
गुरु सुवा जेहि पन्थ दिखावा । बिन गुरु जगत को निरगुन पावा ।।
पद्मावत की उपर्युक्त पंक्ति में जायसी ‘सुवा’ को गुरु के रूप में दिखाते हैं। वह रत्नसेन को साधना के पथ पर अग्रसर करते है। जायसी का विश्वास है कि गुरु ही निर्गुण को सगुण बनाता है। इसलिए उनकी दृष्टि में गुरु का महत्त्व है। जिन सन्त, फक़ीरों के विचार उन्हें अनुकरणीय लगे, उन्हें जायसी गुरुवत् स्मरण करते हैं। यह ‘गुरुवाद’ भारतीय धर्मसाधनाओं की विशेषता थी, जिसे सूफियों ने अपनाया और अपने काव्यदर्शन में उनका प्रतिपादित किया।
परमात्मा ‘परसौन्दर्य’ है। उसके सौन्दर्य का आभास प्राकृतिक तत्त्वों से होता है। इस प्रकार, नानारूपात्मक यह जगत ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है। यही है सूफियों का ‘प्रतिबिम्बवाद’। जायसी ने पद्मावती के रूप में दिव्यता का पूरा संकेत देते हुए लिखा है –
बिगसे कुमुद देखि ससि रेखा। भै तेहिं रूप जहाँ जो देखा।।
पाए रूप रूप जस चहे। ससि मुख सब दरपन होइ रहै।।
सरलार्थ यह कि चन्द्रमारूपी पद्मावती के मुस्कुराने से कुमुदिनी रूपी सखियाँ भी विकसित हो गईं। जिसने उसे देखा, उसी रूप का हो गया। दर्पण-सदृश पदार्थों में उसी का रूप प्रतिबिम्बित होता है। पद्मावती बिम्ब है और यह जगत उसका प्रतिबिम्ब।
जायसी का सम्बन्ध मूलतः इस्लाम धर्म से था। अतः इस्लामिक मान्यताओं की स्वीकृति उनके विचारों में मिलती है। उन्होंने पद्मावत् के स्तुतिखण्ड में ‘करतार’ का सुमिरन करते हुए उसकी सृजनात्मकता का बखान इस तरह किया है –
कीन्हेसि प्रथम जोति परगासू । कीन्हेसि तेहिं पिरीत कविलासू ।।
कीन्हेसि धरती सरग पतारु । कीन्हेसि बरन-बरन अवतारु ।।
अर्थात, ईश्वर ने पहले ज्योति (पैगम्बर) उत्पन्न किया। फिर उसकी प्रसन्नता के लिए विलास (स्वर्ग), धरती और पाताल बनाए और उनमें बरन-बरन के जीवों की रचना की। यह विश्वास भी सूफी साधना का अंग है।
सूफी साधना में ‘शैतान’ की परिकल्पना आत्मा-परमात्मा के मिलन में बाधक शक्ति के रूप में हुई है। जबकि भारतीय अद्वैतवाद में ‘माया’ बाधक तत्त्व है। जायसी ने सूफीमत के अनुसार ही पद्मावत में राघव को शैतान के रूप में वर्णित किया है – राघव दूत सोई सैतानू। प्रमुख बाधक तत्त्व ‘अहंकार’ है। अहं ही साधक को लक्ष्य तक पहुँचने नहीं देता। इसे मिटाकर ही परमात्मा में लीन हुआ जा सकता है। ‘अनलहक’ का ज्ञानोदय भी अहं के नष्ट होने पर ही होता है –
हौं हौं कहत सबै मति खोई । जौ तू नाहिं आहि सब कोई ।।
आपुहि गुरु सों आपुहि चेला । आपुहि सब औ आपु अकेला ।।
सरलार्थ यह है कि सब ‘मैं’, ‘मैं’ करते हुए बुद्धि नष्ट कर देते हैं। जब मैं या तू नहीं होता तो वही सब कुछ होता है। वही गुरु होता है और वही शिष्य। वह सब में होता है और सबमें होते हुए अकेला होता है। अहं नाश के बाद ही अद्वैत स्थिति आती है।
उपनिषद में पंचभूतों का वर्णन है। उसमें आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल एवं जल से पृथ्वी का उत्पत्ति क्रम है। जबकि, जायसी अरब देशों की मान्यता के अनुकूल चार भूतों के उल्लेख भिन्न क्रम में करते हुए उनमें परस्पर सम्बन्ध स्थापित करते हैं – हवा से पानी हुआ, पानी से आग हुई और आग से मिट्टी। इन्हीं से संसार गतिशील होता है –
पौन हुतें भा पानी, पानी हुते भै आगि ।
आगि हुतें भै माँटी गोरखधन्धै लागि ।।
सूफी साधना या सूफीमार्ग की पारिभाषिक शब्दावलियाँ हैं, जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के परिचायक हैं। इस मार्ग की चार मंजिलें हैं और उन मंजिलों की चार अवस्थाएँ होती हैं। पहली मंजिल है ‘शरीअत’, जिसमें धर्मग्रन्थों की मान्यताओं का अनुपालन होता है। साधक की यह अवस्था ‘नासूत’ कही जाती है। दूसरी मंजिल ‘तरीक़त’ है जिसमें साधक जगत की तुच्छताओं से ऊपर उठ जाता है। इस अवस्था को मलकूत कहते हैं। तीसरी मंजिल ‘मारिफत’, ज्ञान-प्राप्ति की अवस्था ‘जबरुत’ है। चौथी और अन्तिम मंजिल ‘हक़ीक़त’, परम-सत्य से साक्षात्कार के दरम्यान साधक की अवस्था ‘लाहूत’ की होती है। प्रायः मंजिल और अवस्था को एक मान लिया जाता है। जायसी साधना के इन विधानों के प्रति आस्थावान थे – ‘चारि बसेरे’ सों चढ़ै सत सौं चढ़ै जो पार’ जायसी की इस पंक्ति में वस्तुतः चार मंजिलों का ही संकेत है।
सूफीमार्ग में मनुष्य के भी चार विभाग माने गए हैं – 1. नफ़्स (विषयोपभोग की प्रवृत्ति) 2. रूह (आत्मा) 3. कल्ब (हृदय) और 4. अक़्ल (बुद्धि)। लक्ष्य तक पहुँचने के लिए साधक (सालिक) को सात भूमियों को पार करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में सूफी जिन्हें ‘मुकामात’ भी कहते हैं। इनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं – अबूदिया (हृदय को पवित्र करने की चेष्टा), इश्क (प्रेम), जहद (स्वेच्छादारिद्र्य), म्वारिफ (स्वरूप-चिन्तन), वज्द (उन्माद) हक़ीम (सत्य की झलक) और वस्ल (मिलन)। फ़ना और बक़ा की पूर्व स्थिति ‘वस्ल’ है। जायसी के ग्रन्थों में इन स्थितियों के यथोचित वर्णन हुए हैं।
सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा-मिलन के लिए व्याकुल है। किन्तु यह महामिलन साधना की अपूर्णता में सम्भव नहीं।
धाइ जो बाजा कै मन साधा । मारा चक्र भएउ दुइ आधा ।।
चन्द सुरुज औ नखत तराई । तेहि डर अन्तरिख फिरैं सबाई।।
पवन जाइ तहँ पहुँचै चहा । मारा तैस टूटि भुइँ रहा ।।
अगिनी उठी उठि जरी नियाना । धुवाँ उठा उठि बीच बिलाना ।।
पानि उठा उठि जाई न छुआ। बहुरा रोइ आइ भुईं चुवा ।।
अर्थात सिंहलद्वीप में सुन्दरी पद्मावती हैं। उनके चारो ओर बिजली का चक्र और यमराज की कटारी घूमती रहती है। इसलिए, उन तक पहुँचना कठिन है। मिलन की साध लिए जो वहाँ दौड़कर जाता है, वह चक्र से टुकड़े-टुकड़े हो जाता है। सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र भयवश ही एक स्थान पर न टिककर आकाश में घूमते रहते हैं। हवा, आग, धुआँ, पानी भी अपने प्रयासों में विफल हो जाते हैं। महज इच्छा से योग-सिद्धि नहीं हो सकती और न ही अधूरे प्रयत्नों से। हठयोग साधना में चक्रों से गुज़रना पड़ता है। अग्नि, जल आदि से कवि का यही संकेत है। हठयोग की सम्पूर्णता में ही प्राण की सिद्धि (परमात्मा की प्राप्ति) होती है।
सूफीमत में आस्था रखते हुए ही फारसी की मसनवी शैली में जायसी ने ‘पद्मावत’ लिखा। इस प्रकार जायसी की भक्ति का मूलाधार सूफीमत है। फिर भी उनके ग्रन्थों में भारतीय धर्म, दर्शन और साधनाओं के प्रति अनुकूलन का भाव है।
5. रहस्यवाद
प्रकृति या परमात्मा के रहस्यों को जानने और उसके साथ भावात्मक सम्बन्ध बनाने की प्रक्रिया ‘रहस्यवाद’ है। यहाँ बुद्धि का अभिप्राय तर्कयुक्त ज्ञान है। परन्तु भावावेश में ज्ञानोदय की अभिव्यक्ति रहस्यात्मक हो जाती है। ज्ञान के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है, वही भावना के क्षेत्र में रहस्यवाद हो जाता है। दार्शनिक दृष्टि से ‘रहस्यवाद’ का सार्वदेशिक महत्त्व रहा है। इसे विशेष धर्म या मत तक सीमित नहीं किया जा सकता। “सभी मुख्य धर्मों में रहस्यवादी प्रवृत्ति पाई जाती है। हिन्दू धर्म, ईसाई धर्म, बौद्ध धर्म, इस्लाम धर्म आदि के अनुयायियों में उस परम-सत्य को पाने, उसके साथ एकमेक होने की उत्कट आकांक्षाएँ पाई जाती हैं। चाहे वह पश्चिम का हो या पूरब का, चीन का हो या अरब का (रामपूजन तिवारी, सूफीमत : साधना और साहित्य, पृ. 12-13)।”
रहस्यवाद के दो प्रकार हैं – भावनात्मक और साधनात्मक। जब भावना के क्षेत्र में आत्मा और परमात्मा में तादात्म्य स्थापित किया जाता है तो वह अनुभूति ‘भावनात्मक रहस्यवाद’ की होती है। वैष्णव भक्ति के ‘माधुर्य’ में बीज रूप में भावनात्मक रहस्यवाद पहले से था, उसे उत्कर्षता मिली सूफियों के भारत आगमन के बाद। निर्गुणपन्थी कबीर, दादू और कृष्णभक्त कवयित्रियों – आण्डाल, मीरा ने अपने आराध्य को ‘प्रियतम रूप’ में ही देखा है। सूफी कव्वाल तीव्र विरहानुभूति में गाते-नाचते मूर्छित हो जाते हैं। जब साधक, ध्यान, योग, जन्त्र-मन्त्र आदि क्रियाओं द्वारा परमात्मा से साक्षात्कार करता है, तब ‘साधनात्मक रहस्यवाद’ होता है। सिद्ध, नाथों की परम्परा में इसे पूर्ण प्रश्रय मिला था। सूफियों ने उनकी साधना-पद्धति और प्रतीकों को भी अंगीकार किया।
सूफियों का सम्बन्ध बुनियादी रूप से इस्लाम से रहा, अतः ‘इस्लामी रहस्यवाद’ से परिचित होना आवश्यक है –
सही मायने में, इस्लाम में रहस्यवाद का सूत्रपात ‘सूफीमत’ में हुआ। इब्नुल अरबी के अनुसार, ‘वहदतुलवुजद’ के सिद्धान्त से हुआ। उनके ‘हमाबुस्त’ का तात्पर्य है – ‘ईश्वर ही सब कुछ है।’ उसमें लीन होकर इन्सान अपना वजूद उसी तरह मिटा दे जैसे पानी की बूँदें समुद्र में मिलकर समाप्त होती हैं। इतिहासकार ताराचन्द इस्लामी रहस्यवाद के तीन उद्गम बताते हैं – एक, मुहम्मद साहब का स्वयं का रहस्यवादी व्यक्तित्त्व। दो, आठवीं सदी में ईसाइयों के पैंथेइज़्म (सर्वेश्वरवादी सिद्धान्त) से मुसलमानों का प्रभावित होना। यूनानी-अद्वैतवाद के कारण ईसाइयों में माधुर्य भावना पहले से थी। तीसरा मोड़ आया भारतीयों और फारसियों के व्यापार-सम्बन्ध से। उनके बीच दार्शनिक सिद्धान्तों के भी आदान-प्रदान हुए। सूफियों की प्रेमभावना से किसी को ख़तरा न था, अतः उसे लोकप्रियता मिली (सन्दर्भः भारतीय संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव)।
6. जायसी का रहस्यवाद
“हिन्दी के कवियों में यदि कहीं रमणीय और सुन्दर अद्वैती रहस्यवाद है, तो जायसी में, जिनकी भावुकता बहुत ऊँची कोटि की है। वे सूफियों की भक्ति भावना के अनुसार कहीं तो परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखकर जगत के नाना रुपों में उस प्रियतम के रूप-माधुर्य की छाया देखते हैं, और कई सारे प्राकृतिक रुपों और व्यापारों का ‘पुरुष’ में समागम हेतु प्रकृति को शृंगार, उत्कण्ठा या विरह विकलता के रूप में अनुभव करते हैं (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, जायसी, पृ. 141)।”
रहस्यवादियों के लिए ‘प्रेम’ सर्वोत्कृष्ट है। जायसी के रहस्यवाद में जिस प्रेम-तत्त्व की प्रतिष्ठा हुई है, वह पूर्णतया तसव्वुफ के अनुकूल है। प्रेमाख्यान ‘पद्मावत’ में प्रेम को ही गरिमा प्रदान की गई है। जायसी का कथन है, तीनों लोक और चौदह खण्डों में जहाँ तक दृष्टि जाती है, एक मात्र प्रेम ही सौन्दर्य है और कुछ नहीं –
तीनि लोक चौदह खण्ड, सबै परै मोहि सूझि।
प्रेम छाँडि किछू और न लोना, जो देखौं मन बूझि।।
साधक, ऐसे प्रेम के लिए कठिन से कठिन मार्ग पर जाता है। प्रेम-विरह की आग में तपकर ही उसकी भक्ति का खरापन सिद्ध होता है। ‘पार्वती महेस खण्ड’ में गौरा पार्वती रत्नसेन के प्रेम को खरा बताती हुई कहती हैं –
निस्चै यहु विरहानल दहा । कसत कसौटी कंचन लागा ।।
रहस्यवादी, प्रकृति में परमसत्य का आभास पाते हैं। दृश्यमान जगत के सौन्दर्य में अलौकिक सत्ता का उन्हें संकेत मिलता है। जायसी, पद्मावती को पारस रूप बताते हैं। वह परमज्योति है, उसी से सभी प्राकृतिक उपादान आलोकित होते हैं – सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, हीरे, रत्न, माणिक्य, मोती उसी की ज्योति से प्रकाशमान हैं –
बहुतै जोति जोति ओहि भई।
रवि ससि नखत दीपहिं ओहि जोति। रतन पदारथ मानिक मोती ।।
ज्योति से साक्षात्कार होते ही अन्धकार का गुम होना लाज़मी है। प्रभात का उत्प्रेरक दृश्य तभी उपस्थित होता है। प्रकृति में प्रियतम का बोध और सामीप्य लाभ से भक्त को जो आनन्दानुभूति होती है, उसकी व्यंजना जायसी बहुत ही भावुक ढंग से करते हैं –
देखि मानसर रूप सोहावा।
हियँ हुलास पुरइनि होइ छावा।।
गा अँधियार रैनि मसि छूटी । भा भिनुसार किरिन रवि फूटी।।
सरलार्थ यह कि राजा हीरामन तोता और अन्य के साथ सातवें मानसर समुद्र में पहुँचा तो मानसर का सुन्दर रूप देखकर उसे अत्यधिक उल्लास हुआ। उसे ऐसा अनुभव हुआ कि उनकी प्रसन्नता ही मानो कमल की बेल बनकर मानसर पर छाई हुई है। रात की स्याही छूट गई। अँधेरा चला गया। भोर हुआ और सूर्य की किरणें निकलने लगीं। यहाँ मानसर के सौन्दर्य में परम-सौन्दर्य को संकेतित किया गया है।
जायसी के अनुसार परमात्मा प्रकृति के कण-कण में विद्यमान है। वह सृष्टि का सिरजनहार ही नहीं, संचालक भी है। उसी से प्रकृति अनुशासित होती है। उसने ही स्वर्ग बनाया, धरती बनाई, चाँद, सूरज, तारे बनाए, वन, समुद्र, पहाड़ बनाए और भी नाना प्रकार की वस्तुओं का उसने ही निर्माण किया है। सार यह कि वही सर्वस्व है। चित्ररेखा में जायसी ने ऐसा ही कहा है –
सरग साजि कै धरती साजी। बरन-बरन सृष्टि उपराजी।।
साजे चाँद सुरुज और तारा। साजे बन कहँ समुद्र पहारा।।
जायसी, अनन्त सत्ता की प्रतीति बाह्य जगत में ही नहीं, अन्तर्जगत में भी करते हैं। सिद्धों, नाथों की भाँति पिण्ड के भीतर। विरहानुभूति की विकल अभिव्यक्ति जायसी ने इस तरह की है-
पिउ हिरदय महँ भेंट न होई। को रे मिलाव कहौ केहि रोई।।
विरह के मर्म को वही समझ सकता है, जिसे प्रेम घाव का अनुभव हो –
प्रेम घाव दुःख जानै कोई। जेहि लागे जानै पे सोई।।
जो परमात्मा की अनुपम छाँह पा लेता है, वह आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है। उसे धूप नहीं सहनी पड़ती –
जेहि वह पाँई छाँह अनूपा, फिरि नहीं आई सहे यह धूपा।
जायसी को रहस्यमयी सत्ता के प्रति पूर्ण विश्वास है। अद्वैतवाद, सर्वेश्वरवाद और प्रतिबिम्बवाद की मान्यताओं के अनुकूल उन्होंने अनन्त सत्ता की अभिव्यंजना की है। वस्तुतः जायसी का रहस्यवाद भारतीय-अभारतीय दर्शन और सिद्धान्तों का समवेत रूप है। उसमें रहस्य भावना को पूरा उत्कर्ष मिला है।
7. निष्कर्ष
भक्तिकाल के प्रतिनिधियों कवियों का चयन दार्शनिक सिद्धान्तों के आधार पर हुआ है। बुनियादी तौर पर जायसी का सम्बन्ध इस्लाम, इस्लामी रहस्यवाद और सूफीमत से था। इसलिए, उन्होंने प्रेमतत्त्व को सर्वाधिक महत्ता दी। वे प्रेममार्ग के प्रतिनिधि कवि कहे गए। फिर भी, सर्वग्राही और समन्वयवादी दृष्टि के कारण उनके सिद्धान्त और साधना-पक्ष में भारतीय धर्म-साधना के भी कुछ अंगों को स्वीकृति मिली है। सचमुच जायसी की सूफी साधना और रहस्यवाद का पाठ अकादमिक दृष्टि से ही नहीं, सामाजिकता के लिए भी महत्त्वपूर्ण है।
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पुस्तकें
- जायसी, रामपूजन तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
- सूफीमत : साधना और साहित्य, रामपूजन तिवारी, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी
- जायसी, परमानन्द श्रीवास्तव, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली
- जायसी : आकलन के आयाम, सम्पादक – सदानंद शाही, अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद
- तसव्वुफ अथवा सूफीमत, चन्द्रबली पाण्डेय, सरस्वती मंदिर, वाराणसी
- मध्यकालीन धर्मसाधना, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रकाशक साहित्य भवन प्रा. लिमिटेड, इलाहाबाद
- जायसी : एक नई दृष्टि, डॉ. रघुवंश, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- जायसी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, प्रकाशकः भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
- जायसी, विजय देव नारायण साही, हिन्दुस्तानी ऐकेडमी, इलाहाबाद
- जायसी गन्थावली, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी
- हिन्दी और फारसी काव्य का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. निवास बत्रा, नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी
- पद्मावत, वासुदेवशरण अग्रवाल, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
- http://www.kavitakosh.org/kk/%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%A4_/_%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A6_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%80
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