25 तुलसी की काव्य भाषा और काव्य रूप
गजेन्द्र पाठक
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- तुलसीदास के भाषा सम्बन्धी विचार जान पाएँगे।
- उनकी भाषा की विशेषता समझ सकेंगे।
- तुलसीदास द्वारा प्रयुक्त विविध काव्य-रूपों से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
तुलसीदास भाव और भाषा दोनों क्षेत्रों में अद्वितीय कवि हैं। उन्होंने भक्तिकाल के दौर में प्रचलित दोनों भाषाओं में अपनी रचनाएँ की। जहाँ अवधी में रामचरितमानस की रचना की, वहीं कृष्णगीतावली ब्रजभाषा में। उनके यहाँ अवधी एवं ब्रजभाषा के पूर्वी एवं पश्चिमी दोनो रूप पाए जाते हैं। कवि ने भाव के दृष्टिकोण से भाषा का विवेकपूर्ण प्रयोग किया है। विभिन्न भाषाओं के शब्दों, रूपकों, छन्दों का प्रयोग, मुहावरे एवं कहावतों का प्रयोग एवं उचित व्याकरण व्यवस्था उनके साहित्य लेखन की धुरी है।
- तुलसी की भाषा
तुलसी की काव्य-भाषा पर बात करने से पहले हमें भक्ति-काव्य की उस भाषा-चेतना को ध्यान में रखना होगा, जिसमें संस्कृत के विरोध के साथ-साथ बोलियों के पक्ष में एक सामान्य सहमति बन चुकी थी। संस्कृत को कुएँ का जल और ‘भाखा’ को बहता नीर सिद्ध किया जा चुका था। कविता के संसार में तुलसीदास के प्रवेश के समय मलिक मोहम्मद जायसी के जरिए अवधी और सूरदास के जरिए ब्रजभाषा के दो पथ तैयार हो चुके थे। अपनी रचनाओं का जनता से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के लिए तुलसीदास ने भी लोक-भाषा का चयन किया। हालाँकि उन्होंने विद्वत समाज की उपेक्षा नहीं की। वे संस्कृत का भी प्रयोग मंगलाचरण में करते रहे। भक्ति-आन्दोलन की सफलता का बड़ा कारण कवियों द्वारा लोक-भाषा का चयन भी था। तुलसी भी इसी भाषा के आग्रही थे। भाषा में पांडित्य का बहुधा प्रदर्शन उन्हें काम्य नहीं था। इसलिए बार-बार अपने कवित्त विवेक पर प्रश्न-चिह्न भी खड़ा करते हैं–
कबित बिबेक एक नहिं मोरे, सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।
xx xx xx xx
कबि न होऊँ नहिं बचन प्रबीनू । सकल कला सब विद्या हीनू।।
तुलसी का यह कथन उनके कविता सम्बन्धी अविवेक को नहीं दर्शाता, बल्कि उनके आत्मगोपन की प्रवृत्ति को दिखाता है। भाषा में वे सहजता के आग्रही हैं। वैसी तमाम भाषा जो आम जनजीवन से अपना संवाद स्थापित न कर सके, वह तुलसीदास को प्रिय नहीं थी। वे कहते हैं–
आखर अरथ अलंकृति नाना। छन्द प्रबन्ध अनेक बिधाना।
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा।।
नाना प्रकार के अक्षर-अर्थ, अलंकार, अनेक प्रकार की छन्दरचना, भावों और रसों के अपार भेद आदि कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष होते हैं। कविता वह होती है जो गंगा के समान हित करने वाली हो।
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कँह हित होई।।
तुलसीदास ने अवधी के साथ ब्रजभाषा में भी रचनाएँ कीं। संस्कृत पर भी उनका उतना ही अधिकार था। रामचरितमानस के हर सोपानों की शुरुआत तुलसीदास ने संस्कृत में की है। बाकी के दोहे और चौपाई अवधी में हैं। वाणी की देवी और मंगल के देवता गणेश से अपने रामचरितमानस का श्रीगणेश करने वाले तुलसीदास वाणी और मंगल को जिस लोक से जोड़ना चाहते हैं, उसका पूरा साक्ष्य उनके रचना संसार में मौजूद है। मंगल अगर लोक का होना है, तो वाणी भी लोक-वाणी ही होगी ।
तुलसीदास की काव्यभाषा पर विचार करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस तरफ संकेत किया कि जायसी ने सिर्फ अवधी में लिखा और सूरदास ने सिर्फ ब्रजभाषा में, जबकि तुलसी ने दोनों काव्य-भाषाओं में समान रूप से लिखा। जायसी से तुलसी की अवधी और सूरदास से तुलसी की ब्रजभाषा की तुलना करें, तो निश्चय ही तुलसी आगे के कवि सिद्ध होते हैं। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने लिखा कि “इन दोनों भाषाओं को संस्कृत की परिपक्व चाशनी की पाग देकर उन्होंने उन्हें अद्भुत मिठास प्रदान की है। उनकी रचनाओं में इन दोनों भाषाओं पर इतना अधिकार दिखाई देता है जितना स्वयं सूरदास का ब्रजभाषा पर और जायसी का अवधी पर न था।”
श्यामसुन्दर दास ने तुलसी की भाषा-दृष्टि पर विचार करते हुए एक बहुत अच्छी बात कही है। उन्होंने लिखा है कि “संस्कृत, जिसमें अब तक रामकथा संरक्षित थी, अब जनसाधारण की बोलचाल की भाषा न रह कर पण्डितों के ही मण्डल तक बँधी रह गई थी। इससे ‘रामचरितमानस’ का आनन्दपूर्ण लाभ सर्वसाधारण नहीं उठा सकते थे। इसीलिए गोस्वामी जी को भाषा में रामचरितमानस लिखने की प्रेरणा हुई, पर पण्डित लोगों में उस समय भाषा का आदर न था । भाषा कविता की वे हँसी उड़ाते थे।
भाषा भनिति मोरि मति भोरी। हँसिबे जोग हँसे नहिं खोरी।।
परन्तु गोस्वामी जी ने उनकी हँसी की कोई परवाह नहीं की, क्योंकि वे जानते थे कि वही वस्तु मानास्पद है जो उपयोगी भी हो। जो किसी के काम न आए, उसका मूल्य ही क्या?”
तुलसीदास ने गीतावली, विनयपत्रिका, और कवितावली का अधिकांश ब्रजभाषा में लिखा, जो फुटकल छन्दों की रचना है। ब्रजभाषा में महाकाव्य की परम्परा नहीं थी। जब रामचरितमानस जैसा प्रबन्ध-काव्य लिखने बैठे तो उन्होंने तीन कारणों से अवधी का चुनाव किया। एक तो वह उनकी अपनी मातृभाषा थी। दूसरी यह कि उनके काव्य-नायक राम की अयोध्या भी अवधी क्षेत्र था। तीसरा कारण यह कि अवधी में सूफी कवियों ने प्रबन्ध-काव्य की परम्परा का विधिवत विकास कर लिया था। तुलसीदास के तीस वर्ष पहले जायसी ‘पद्मावत’ लिख चुके थे।
3.1. शब्द-चयन
तुलसी की काव्य-भाषा पर विचार करते हुए अनेक आचार्यों ने उनके शब्द-चयन में सावधानी की सराहना की है। आचार्य शुक्ल ने उनकी अवधी में चित्रकूट और अयोध्या के आस-पास की बोलियों में प्रयुक्त शब्दों के आधार पर उनके जन्मस्थान सम्बन्धी विवाद का समाधान किया है। इसके अलावा तुलसी की जो दूसरी विशेषता है, वह दूसरी भाषाओं के शब्दों के उदार उपयोग से जुड़ी है। ब्रज और अवधी के अलावा बुन्देलखण्डी, भोजपुरी और यहाँ तक कि अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग भी तुलसीदास के यहाँ मिलता है। एक बड़े हृदय का कवि ही भाषा के संसार में सम्मिश्रण की सांस्कृतिक शक्ति को स्वीकार करता है। जीवन और जीवन से जुडी हुई भाषा ही यह बोध पैदा कर सकती है–
सरल कवित कीरति बिमल सोइ आदरहि सुजान
सरल कविता ही श्रेयस्कर होती है, और यह सरलता जीवन में प्रचलित शब्दों के उपयोग से ही सम्भव है। शब्द चयन में तुलसीदास किसी शुद्धता ग्रन्थि के शिकार नहीं दिखाई पड़ते।
3.2. नाटकीयता
अमृतलाल नागर ने ‘मानस का हंस’ में तुलसी के नाटककार रूप का आख्यान प्रस्तुत किया है। यह निश्चय ही तुलसी का अद्भुत प्रयोग था कि एक पूरे नगर को रंगमंच में तब्दील कर दिया। तुलसीदास के सन्दर्भ में विचार करें तो वे नाटक न लिखते हुए भी नाटक और रंगमंच के बीच ऐसा कोई विवाद नहीं देखते। पूरा रामचरितमानस नाटकीयता का अद्भुत प्रयोग है। गौरतलब है कि जिस भाषा में नाटकों की कोई परम्परा नहीं रही हो, उस भाषा में कविता को नाटकीय सम्भावनाओं से परिपूर्ण करना तुलसी मौलिक और ऐतिहासिक महत्त्व का प्रयोग था। विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘लोकवादी तुलसीदास’ में तुलसी की इस विशिष्टता को रेखांकित किया है–
“महान कविता में नाटकीयता विद्यमान होती है। यह नाटकीयता कवि कौशल की कसौटी है। नाटकीयता केवल कथानक-विन्यास में नहीं, संवाद, वाक्य गठन, शब्दों की ध्वनि योजना, छन्दों की यति-रचना के प्रत्येक उपकरण में रची बसी होती है। यहाँ एक बात और ध्यातव्य है। नाटकीयता में काव्य-दृश्य होता है, किन्तु प्रदर्शन, भाषा स्फीति और नाटकीयता एक साथ नहीं चल सकते। अनुभूति की तीव्रता जैसे सघन बनकर उपमा, प्रतीक, बिम्ब बनते हैं, भाषा उसी प्रकार अनुभूति की धार पर कटकर विवरणात्मकता से नाटकीयता में पर्यवसित हो जाती है । भाषा गोया यह मुद्रा धारण कर लेती है– कहने से क्या फायदा, खुद देख लीजिए। कहने से क्या फ़ायदा- यानी कहना बेसूद है, कथन असक्त है–‘कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई’ (लोकवादी तुलसी दास, पृ-126) ।”
दशरथ और कैकेयी, कैकेयी और मन्थरा और उसके पहले लक्ष्मण और परशुराम के सिर्फ़ सवांद ही नहीं, कविता कहने का जो पूरा ढंग है, या यों कहें कि पूरा काव्य विन्यास ही तुलसीदास के यहाँ नाटकीय गुणों से रचा पगा है। अवध में रामलीला की परम्परा और उसकी लोकप्रियता तुलसीदास से नई है या पुरानी, यह तो विचार का विषय है, लेकिन इस परम्परा की लोकप्रियता में तुलसीदास की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। तुलसी की काव्य भाषा में नाटकीयता का यह एक सामाजिक पक्ष है।
3.3. रूपक और प्रतीक
तुलसी की काव्यभाषा पर विचार करने के क्रम में सबसे पहले हमारा ध्यान उस प्रसंग की ओर जाता है, जहाँ राम सीता को पहली बार देखकर मन ही मन पुष्पवाटिका में पुलकित हैं। गुरु विश्वामित्र के लिए फूल लेकर लौट रहे हैं, लेकिन इस फूल पर, हृदय की दीवार पर, टंकित सीता का चित्र भारी पड़ रहा है। बात छिपाए नहीं छिपती और गुरु के सामने असलियत जुबान पर आ जाती है। दिन जैसे-तैसे कटता है, लेकिन शाम होते ही पूरब में चन्द्रमा का उदय फिर सीता की याद दिलाता है–
प्राची दिसि ससि उगउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा।।
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं।।
राम का यह विचार कि चन्द्रमा सुन्दर हो सकते हैं, लेकिन सीता के समान नहीं हो सकते। तुलसीदास को यह टीस थी कि सीता जैसी स्त्री के सौन्दर्य की तुलना दूसरे कवियों की जूठी की हुई उपमाओं से की जाए।
जनमु सिन्धु पुनि बन्धु विषु दिन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि चन्द बापुरो रंक।
तुलसीदास की काव्य-चेतना और काव्य-भाषा में फर्क नहीं है। जिस भाषा पर सवार होकर वे राम-कथा कहने चले थे वह भाषा उसी तीर की तरह है, जिससे दूर तक मार करने के लिए कमान को बहुत पीछे तक खींचना होता है। चन्द्रमा को सौन्दर्य का प्रतिमान नहीं बनाना है, तो इतने से काम नहीं चलेगा कि सीता को उनसे सुन्दर मान लिया जाए। बल्कि इससे आगे जा कर वे उनकी पूरी जन्म-कुण्डली पर विचार करते हैं। खारे समुद्र में उनका जन्म, उसी समुद्र, जिसमें उनके साथ विष भी निकला था। निकला तो अमृत भी था, लेकिन वे यहाँ अमृत की चर्चा नहीं करते। विष का असर होने का ही कारण है, कि वे दिन भर निस्तेज पड़े रहते हैं और ऊपर से काले दाग आ जाते हैं। और कहाँ सीता जी?
और आगे चलें। अभी चाँद से बहस जारी है। यह उन्हें कुछ तिरछे नजर नहीं आते, बल्कि–
घटइ बढइ बिरहिनि दुख दाई । ग्रसइ राहु निज संधिहि पाई।।
कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चन्द्रमा तोही।।
ये चन्द्रमा इतने लाचार और गुणहीन ही नहीं, अवगुण सम्पन्न लगते हैं। उनका बराबर घटना-बढना, विरहिणी स्त्रियों को दुख देने वाला इनका रूप, चकवे को दुखी करने वाला उनका रूप, और कमल को मुरझाने वाला रूप… ये सब मिलकर चन्द्रमा का ‘चरित्र प्रमाण-पत्र’ प्रस्तुत ऐसे करते हैं, जिसको अनुसंशित और अग्रसारित करने का साहस कोई न कर सके। तुलसीदास के राम ही जब यह कह रहे हैं तो किसी दूसरे का निहोरा करने की जरूरत क्या?
तुलसीदास ने राम चन्द्रमा प्रसंग में एक नए प्रेमी के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास किया है, जहाँ धरती से कम आकाश में ज्यादा दिलचस्पी पैदा हो जाती है। साथ ही एक अद्भुत प्रयोग भी किया है। रात के अन्धकार में तुलसी की दिलचस्पी शायद कम है। यही कारण है कि निराला जब राम की शक्ति पूजा लिखते हुए तुलसीदास से लोहा लेने का साहस करते हैं, तब शुरुआत ही रवि के अस्त हो जाने से करते हैं। तुलसी के राम रात भर चन्द्रमा से लड़ते रहे। उन्हें उनकी हैसियत का एहसास कराते रहे, लेकिन जैसे ही रात बीतती है वैसे ही पुनः –
अरुनोदय सकुचे कुमुद उडगन जोति मलिन
एक अरुणोदय से रात का सारा शृंगार जो राम के लिए किसी यातना से कम नहीं था, वह ठप्प पड़ गया। झूठा पड़ गया। तुलसी की काव्य-भाषा का यह चमत्कार उनकी रीति विरोधी चेतना का परिणाम है। रात के बहादुर और बात के बहादुर दोनों तुलसी के लिए एक हैं–
नृप सब नखत करहि उजिआरी टारि न सकहि चाप तम भारी
दूसरों की चमक से चमकने वाले बलशाली और दूसरों की बातों से चकित करने वाले ज्ञानी एक जैसे होते हैं। तुलसी की काव्य-भाषा की बनावट और बुनावट दोनों में प्रतीकों के गूढ़ और गम्भीर अर्थ हैं। राम, चन्द्रमा के साथ नहीं हैं, सूर्य के साथ हैं । वैसे भी वे सूर्यवंशी हैं। सूर्य के साथ उनका याराना तब भी प्रकट होता है, जब सीता अपने जीवन के सबसे कठिन क्षण, रावण द्वारा अपहरण के समय राम को याद करती हैं–
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिन नायक।
कमल और सूर्य भारत के लिए विशेष अर्थ रखते हैं। इन दोनों प्रतीकों को राम के साथ जोडने के लिए तुलसी ने जिस तरह के प्रयोग किए हैं, वह सिर्फ़ वही कर सकते हैं। सीता के अपहरण के बाद रामचरितमानस में राम जब साधारण मनुष्य की तरह विलाप कर रहे हैं, तब गोदावरी के तट पर सुन्दरता के अन्य प्रतीकों के साथ ‘चन्द्रमा’ भी राम की प्रशंसा सुन रहे हैं। इस प्रशंसा का कारण यह है कि जब तक इनके साथ सीता जैसा सौन्दर्य था तब उसका महत्त्व कम था। आज जब सीता नहीं है, तब इन्हें जश्न मनाने का अवसर मिला है। तुलसीदास की प्रतीक-योजना की बहुस्तरीयता के साथ कथानक में नाटकीयता को जोड़कर देखने पर चकित हुए बिना नहीं रहा जा सकता ।
तुलसीदास के काव्यभाषा की जिस महत्त्वपूर्ण विशेषता की ओर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हमारा ध्यान आकृष्ट किया था, वह विशेषता थी उनकी प्रसंगानुकूल भाषा। शुक्ल जी ने लिखा है कि,“रसों के अनुकूल कोमल-कठोर पदों की योजना तो निर्दिष्ट रूढ़ि ही है। उसके अतिरिक्त गोस्वामी जी ने इस बात का भी ध्यान रखा है कि किस स्थल पर विद्वानों या शिक्षितों की संस्कृत मिश्रित भाषा रखनी चाहिए और किस स्थल पर ठेठ बोली। घरेलू प्रसंग समझकर कैकेयी और मन्थरा के संवाद में उन्होंने ठेठ बोली और स्त्रियों में विशेष चलते प्रयोगों का व्यवहार किया है।”
हिन्दी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा बनाने का श्रेय आचार्य शुक्ल ने तुलसी को समर्पित किया है। इस साहित्यिक भाषा में जिस सादगी और मर्यादा का निर्वाह हुआ है, उसमें अलंकारों का, छन्दों का, शब्द शक्तियों का व्यावहारिक और आवश्यक उपयोग ध्यान देने लायक है। इनका उपयोग तुलसीदास ने चमत्कार और प्रदर्शन के लिए नहीं किया है। आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि “उनकी साहित्य मर्मज्ञता, भावुकता और गम्भीरता के सम्बन्ध में इतना और जान लेना भी आवश्यक है कि उन्होंने रचना नैपुण्य का भद्दा प्रदर्शन कहीं नहीं किया है और न शब्द चमत्कार आदि के खिलवाड़ो में वे फँसे हैं। अलंकारों की योजना उन्होंने ऐसे मार्मिक ढंग से की है कि वे सर्वत्र भावों या तथ्यों की व्यंजना को प्रस्फुटित करते हुए पाए जाते हैं, अपनी अलग चमक-दमक दिखाते हुए नहीं। कहीं-कहीं लम्बे-लम्बे रूपक बाँधने में अवश्य उन्होंने एक भद्दी परम्परा का अनुसरण किया है।”
आचार्य शुक्ल ने तुलसीदास के कमजोर पक्षों को भी उद्घाटित किया है।
अवधी और ब्रजभाषा पर तुलसीदास के समान अधिकार की चर्चा करते हुए आचार्य शुक्ल की यह टिप्पणी पढ़े बगैर तुलसी की काव्य-भाषा पर कोई बात पूरी नहीं होती। ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में उन्होंने लिखा है– “ तुलसीदास जी के रचना विधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल से सौन्दर्य की पराकाष्ठा अपनी दिव्य वाणी में दिखाकर साहित्य क्षेत्र में प्रथम पद के अधिकारी हुए। हिन्दी कविता के प्रेमीमात्र जानते हैं कि उनका ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। ब्रजभाषा का जो माधुर्य हम सूरसागर में पाते हैं, वही माधुर्य और भी संस्कृत रूप में गीतावली और कृष्णगीतावली में पाते हैं । ठेठ अवधी की जो मिठास हमें जायसी की पद्मावत में मिलती है वही जानकी-मंगल, पार्वती-मंगल, बरवै रामायण और रामललानहछू में हम पाते हैं । यह सूचित करने की आवश्यकता नहीं कि न तो सूर का अवधी पर अधिकार था और न जायसी का ब्रजभाषा पर।”
- तुलसीदास का काव्य-रूप
तुलसीदास अवधी और ब्रजभाषा के जिस संयुक्त साहित्यिक क्षेत्र में अपनी रचनात्मकता की तलाश करते हैं, उसकी चर्चा काव्यभाषा के प्रसंग में हो चुकी है। ब्रजभाषा में चूँकि महाकाव्य की कोई परम्परा नहीं थी, इसलिए उन्होंने जो रचनाएँ ब्रजभाषा में कीं, उन्हें फुटकल छन्दों तक सीमित रखा। महाकाव्यात्मक विस्तार के लिए उन्होंने अवधी का चुनाव किया और इस चुनाव के कारण की चर्चा पूर्व में हो चुकी है।
तुलसीदास ने अपने समय में प्रचलित सभी काव्य-पद्धतियों का उपयोग किया है, वे प्रमुख पद्धतियाँ हैं-
4.1. उपदेशात्मक शैली : सिद्धों-नाथों और निर्गुण सन्तों द्वारा दोहों के जरिए इस शैली का उपयोग बेहद प्रचलित था। तुलसी के मित्र रहीम ने भी इसी शैली का प्रयोग किया है। तुलसीदास की दोहावली, वैराग्य संदीपनी और रामाज्ञा प्रश्नावली में यह शैली दिखाई पड़ती है।
4.2. वीर रस पद्धति : वीरगाथा काल से ही हिन्दी में यह पद्धति प्रारंभ हो गई थी। इसका विकास और विस्तार रीतिकाल तक हुआ है। तुलसीदास ने राम की वीरता और ओज के लिए इस शैली का उपयोग किया है। रामचरितमानस के लंका काण्ड और कवितावली के सुन्दर काण्ड तथा लंका काण्ड में इस पद्धति का ओजस्वी रूप दिखाई पड़ता है।
4.3. दोहा-चौपाई पद्धति : जिस अवधी में तुलसीदास रचनाशील थे, उस अवधी में सूफी प्रेमाख्यानक कवियों ने दोहा और चौपाई का अपनी कविता में विधिवत विकास कर लिया था। तुलसी का पूरा रामचरितमानस इस दोहा-चौपाई पद्धति का सुन्दर निदर्शन है। वैराग्य सन्दीपनी में भी इस दोहे-चौपाई शैली का प्रयोग हुआ है।
4.4. लोक-गीतों की परंपरा : तुलसी काव्य में लोक-गीतों की एक समृद्ध परम्परा दिखाई पड़ती है। किसी भी मांगलिक अवसर पर तुलसीदास लोकपरम्परा से प्राप्त छन्दों और ध्वनियों के पास जाते हैं । पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामललानहछू इसके प्रमाण हैं। कवितावली और गीतावली में भी इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं। पुत्रोत्सव हो या विवाहोत्सव, जो जिन्दगी के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अवसर हैं, वहाँ इस लोक-संगीत की ठाट तुलसी के यहाँ खुलकर प्रकट होती है।
बरवै रामायण, जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि तुलसीदास ने इसे अपने मित्र रहीम की रुचि के अनुसार लिखा था, वह बरवै भी लोक छन्द ही है। अवधी का यह ललित छन्द सावन के झूले और होली के गीतों से सम्बन्ध रखता है।
4.5. कवित्त सवैया और पद पद्धति : तुलसीदास ने अपनी कवितावली में ब्रजभाषा के कवित्त और सवैया पद्धति का प्रयोग किया है। गंग और नरहरि जैसे कवियों ने इन छन्दों को लोकप्रिय बनाया था। ये दोनों कवि अकबर के नवरत्न में शामिल थे। तुलसीदास नवरत्नों में शामिल तो नहीं थे, लेकिन वे राज दरबारों की पसंद से परिचित थे, इसलिए उन्होंने कवित्त और सवैया में भी एक नया प्रयोग किया और इन छन्दों को राज दरबार से बाहर निकालकर जनता के बीच पहुँचाया।
4.6. पद रचना : तुलसीदास ने भक्ति काल में सर्वाधिक प्रचलित पद काव्य-रूप को भी अपनाया है। वही पद जो कबीर जैसे निर्गुण सन्त कवियों के यहाँ मिलते हैं, सूरदास और मीरा के यहाँ मिलते हैं। उन्होंने अपनी गीतावली, विनय पत्रिका और कृष्णगीतावली में इस पद्धति का समावेश किया है।
आशय यह कि तुलसीदास ने अपने समय तक और अपने समकालीन प्रायः सभी प्रमुख काव्य-रूपों का न सिर्फ उपयोग किया, बल्कि सब में अपनी तरह का प्रयोग कर उनमें एक नई ऊर्जा का संचार भी किया है। इन सभी काव्य-रूपों को वे लोकप्रियता के वास्तविक निर्धारक तथा साहित्य के लक्ष्य, जनता तक ले जाने का प्रयास करते हैं।
कथा-सूत्र की दृष्टि से तुलसीदास ने प्रबन्ध, निबंध और मुक्तक तीनों का उपयोग किया है। प्रबन्ध-काव्य के अन्तर्गत उन्होंने रामचरितमानस की रचना की है। निबंध के अन्तर्गत उन्होंने लोकसंस्कृति से रससिक्त जानकी-मंगल, पार्वती-मंगल और रामललानहछू लिखा, मुक्तक के अन्तर्गत कवित्त-शैली में कवितावली और हनुमानबाहुक, दोहा शैली में दोहावली और सगुनावली, बरवैशैली में बरवै रामायण, गीत शैली में गीतावली, कृष्ण गीतावली और विनय पत्रिका तथा दोहा चौपाई शैली में बैराग्य संदीपनी की रचना की है।
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने तुलसी के काव्य-रूप पर विचार करते हुए लिखा है कि,“मुक्तक के क्षेत्र मे तुलसीदास का महत्त्व कम आँका जा सकता है, सूरदास ने उस क्षेत्र में बहुत अधिक क्षमता प्रदर्शित की, पर प्रबन्ध के क्षेत्र में गोस्वामी जी को पार कर जाने वाला हिन्दी में कोई कवि नहीं हो सका। उसमें सबसे बड़ी विशेषता यह है कि शास्त्र का कोई गहरा आग्रह नहीं है। प्रबन्धकाव्यों में वर्णनात्मक प्रसंगों के संसार की जैसी परिपाटी संस्कृत में भी चल पड़ी थी उसका भी परित्याग कर आवश्यक वर्णनों से ही उन्होंने काम लिया है (तुलसीदास, राधाकृष्ण मूल्याकंन माला, पृ-47) ।”
- निष्कर्ष
इस प्रकार तुलसीदास ने न सिर्फ अवधी एवं ब्रजभाषा का प्रयोग किया बल्कि उनके यहाँ संस्कृत एवं भोजपुरी का भी अल्प प्रयोग दिखाई पड़ता है। छन्दों, अलंकारों एवं रूपकों की सुन्दर योजना उनकी रचनाओं में दिखाई पड़ती है। हालाँकि तुलसी की भाषा संस्कृतनिष्ठ है, परन्तु उनके यहाँ तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज आदि शब्दों का प्रचुर भण्डार है। उनकी भाषा एवं भाव का एक मात्र उद्देश्य लोकमंगल है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- गोस्वामी तुलसीदास, रामजी तिवारी, साहित्य अकादमी,नई दिल्ली
- तुलसीकाव्य मीमांसा, उदयभानु सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- गोस्वामी तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा,वाराणसी
- मध्यकालीन कविता के सामाजिक सरोकार, डॉ.सत्यदेव त्रिपाठी,शिल्पायन,दिल्ली
- हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली,मुकुन्द द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
- लोकवादी तुलसी, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
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- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B8