23 तुलसी की काव्य-यात्रा
अमिष वर्मा and अनिरुद्ध कुमार
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- तुलसी की काव्य-यात्रा की उपलब्धियों को जान सकेंगे।
- राम-काव्य में तुलसीदास के योगदान को समझ सकेंगे।
- तुलसी-काव्य के बहुआयामी स्वरूप को समझ सकेंगे।
- कथ्य के स्तर पर तुलसी-काव्य के विकास और स्वरूप से परिचित हो सकेंगे।
- तुलसी काव्य-यात्रा की शिल्पगत उपलब्धियों का मूल्यांकन कर सकेंगे।
- तुलसी काव्य-यात्रा का महत्त्व पहचान सकेंगे।
- प्रस्तावना
तुलसी की काव्य-यात्रा मध्यकालीन भक्ति-साहित्य की उत्कृष्ट काव्य-साधना है। इसने राम-काव्य को भक्ति-साहित्य का सर्वाधिक प्रभावी स्वर बना दिया था। यह अवधी को साहित्यिक गौरव के शिखर तक पहुँचाने वाली यात्रा है। इसमें समय और स्थिति के अनुरूप किंचित परिवर्तन भी देखने को मिलते हैं। यह परिवर्तन कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर हुए हैं। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि तुलसी काव्य-यात्रा का स्वरूप कैसा है। उसकी उपलब्धियाँ क्या हैं? इनका कथ्यगत और शिल्पगत स्वरूप क्या है? इस काव्य-यात्रा की उपादेयता और प्रभाव क्या हैं तथा हिन्दी साहित्य में इस काव्य-यात्रा का क्या महत्त्व है?
- तुलसी काव्य-यात्रा की उपलब्धियाँ
गोस्वामी तुलसीदास की काव्य-यात्रा उनकी जीवन-यात्रा के समान लगभग एक सदी लम्बी है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस दीर्घ काव्य-यात्रा की बारह प्रामाणिक उपलब्धियाँ गिनाई हैं – “गोस्वामी जी के रचे बारह ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं, जिनमें पाँच बड़े और सात छोटे हैं। दोहावली, कवित्तरामायण, गीतावली, रामचरितमानस, विनयपत्रिका बड़े ग्रन्थ हैं तथा रामललानहछू, पार्वती-मंगल, जानकी-मंगल, बरवैरामायण, वैराग्य संदीपनी, कृष्णगीतावली और रामाज्ञाप्रश्नावली छोटे।” हालाँकि अन्य कई विद्वानों ने तुलसीदास की अन्य कई रचनाएँ भी गिनाई हैं। शिवसिंहसरोज में उनकी दस अन्य रचनाएँ गिनाई गई हैं। हिन्दी हस्तलिखित पुस्तकों के खोज-विवरणों में तुलसी की अनेक रचनाओं का उल्लेख किया गया है। वे रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
1.रामलला नहछू 2. रामाज्ञा प्रश्न 3. जानकी-मंगल 4. रामचरितमानस 5.पार्वती-मंगल 6. गीतावली 7. कृष्ण गीतावली 8. विनयपत्रिका 9. बैरवै रामायण 10. दोहावली 11. कवितावली 12. हनुमानबाहुक 13. वैराग्य-सन्दीपिनी 14.सतसई 15. कुण्डलियारामायण 16. अंकावली 17. बजरंगवाण 18. बजरंग साठिका 19. भरत मिलाप 20. विजय दोहाबली 21. वृहस्पति काण्ड 22. छन्दाबली रामायण 23. छप्पय रामायण 24. धर्मराय की गीता 25. धुव प्रश्नावली 26. गीता भाषा 27. हनुमान स्तोत्र 28. हनुमान चालीसा 29. हनुमान पंचक 30. ज्ञान दीपिका 31.राम मुक्तावली 32. पदबन्द रामायण 33. रस भूषण 34. साखी तुलसीदासजी की 35. संकट मोचन 36. सतभक्त उपदेश 37. सूर्य पुराण 38. तुलसीदासजी की बानी और 39. उपदेश दोहा ।(साहित्य कोश, भाग-2, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, 2000, पृ. 234)
इनमें कई अप्राप्य हैं और कई तुलसी की पहले गिनाई गई बारह रचनाओं में ही अन्तर्निहित हैं। पं. रामगुलाम द्विवेदी भी तुलसी की बारह रचनाओं को ही प्रामाणिक मानते हैं। वस्तुतः ये बारह रचनाएँ तुलसी की काव्य-यात्रा के उत्कर्ष और व्यापकता को रेखांकित करने में समर्थ हैं। रचनाकाल के अनुसार इन बारह रचनाओं को इस क्रम में रखा जाता है –
- रामललानहछू
- वैराग्य संदीपनी
- रामाज्ञाप्रश्न
- जानकी-मंगल
- रामचरितमानस
- पार्वती-मंगल
- गीतावली
- विनय-पत्रिका
- कृष्ण-गीतावली
- बरवै रामायण
- दोहावली
- कवितावली।
ये रचनाएँ तुलसी के काव्य-यात्रा की ऐसी उपलब्धियाँ हैं, जो उनकी व्यापक तैयारी, प्रतिभा, अगाध भक्ति और राम में एकनिष्ठता को पूर्ण रूप से उजागर करती है। आगे हम इन बारह रचनाओं के सहारे तुलसी के काव्य-यात्रा की उपलब्धियों से परिचय प्राप्त करेंगे।
3.1 रामललानहछू
हिन्दी का श्रेष्ठतम प्रबन्ध-काव्य लिखने वाले तुलसीदास के काव्य-यात्रा की शुरुआत खण्डकाव्य से हुई। रामललानहछू में राम के विवाह संस्कार के समय के गीत रचे गए हैं। सारा काव्य सोहर छन्द में लिखा गया है। नहछू विवाह के समय वर द्वारा वधू के नख छुए जाने का संस्कार है। तुलसी ने यह संस्कार अवध में कौशल्या द्वारा कराए जाते दिखाया है। राम का विवाह जनकपुर (मिथिला) में हुआ था, अवध में नहीं। रचना की भाषा शैली से भी अपरिपक्वता और शिथिलता झलकती है। इसी से यह तुलसी की आरम्भिक रचना लगती है। तुलसी ने इसमें प्रचलित रामकथा को सहेजने की वैसी कोशिश नहीं की है जैसी रामचरितमानस में की है। मसलन विवाह मण्डप में कौशल्या द्वारा दूल्हा राम को गोद में बिठाकर सिर पर आँचल ढँकने का वर्णन द्रष्टव्य है –
गोद लिहैं कौसल्या बैठि रामहिं वर हो।
सोभित दूलह राम सीस पर आंचर हो।।
सोहर में काव्य लिखने की तुलसी की कला उनकी अगली कृतियों जानकी-मंगल और पार्वती-मंगल में पूर्णता तक पहुँची है।
3.2 वैराग्य संदीपनी
यह तुलसी के काव्य-यात्रा की दूसरी आरम्भिक कृति है। यह चौपाई और दोहा में रची गई है। इसमें वैराग्य के लिए उपदेश किया गया है। यह तुलसी की अन्य रचनाओं से थोड़ी अलग है। उदाहरण के लिए “निकेत का प्रयोग शरीर के अर्थ में हुआ है। किन्तु वह अन्य रचनाओं में घर के लिए आता है।” (दोहा-6) इसके अतिरिक्त इसमें शान्ति पद के सुख का प्रतिपादन किया गया है। अन्य रचनाओं में उन्होंने भक्ति का ही उपदेश दिया है। इसके पहले सोरठे में संत महिमा का वर्णन इस प्रकार किया गया है –
को बरनै मुख एक, तुलसी महिमा सन्त।
जिन्हके विमल विवेक, सेष महेस न कहि सकत।।
तुलसी के काव्य-यात्रा की यह आरम्भिक कृति इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ये रामचरितमानस जैसे श्रेष्ठ रत्न के निर्माण के लिए तुलसी की काव्य-कला को माँजती जा रही थी। रामचरितमानस की रचना भी मुख्यतः दोहा और चौपाई में ही की गई है।
3.3 रामाज्ञा प्रश्न
यह शुभ-अशुभ फल जानने के लिए प्रश्न विचार और रामकथा को एक साथ संजोकर रचा गया काव्य है। इसमें सुसम्बद्ध कथा नहीं है। इसमें राम कथा के मंगल और अमंगलमय प्रसंग रखे गए हैं। यह पूर्णतः दोहों में रचा गया है। यह सात सर्गों में विभक्त है। प्रत्येक सर्ग में सात सप्तक हैं। प्रत्येक सप्तक में सात दोहे हैं। ज्योतिषशास्त्रीय पद्धति वाली इस रचना का काव्यात्मक महत्त्व साधारण है।
3.4 जानकी-मंगल
यह गीतपरक खण्डकाव्य है। यह मुख्यतः सोहर में लिखा गया है। बीच-बीच में हरिगीतिका छन्द का प्रयोग किया गया है। इसमें राम-जानकी के विवाह की कथा को आधार बनाया गया है। इसमें सियाराम विवाह का रामचरितमानस जैसा ही विस्तार से वर्णन किया गया है। लेकिन दोनों के वर्णन में कुछ मूल अन्तर भी है। मसलन मानस का पुष्पवाटिका प्रसंग इसमें नहीं है। इसमें परशुराम का आगमन स्वयंवर स्थल पर न होकर बारात के मार्ग में होता है। इसमें मानस जैसा प्रसिद्ध लक्ष्मण-परशुराम संवाद भी नहीं है, क्योंकि लक्ष्मण इस विवाद में शामिल नहीं होते हैं। इसी तरह इसमें जनक द्वारा प्रतिज्ञा करने और लक्ष्मण द्वारा धनुष भंग की बात करने का प्रसंग है, जो रामचरितमानस के समान है, किन्तु रामाज्ञाप्रश्न में नहीं है। इस तरह यह रचना काव्यात्मक दृष्टि से रामाज्ञाप्रश्न और रामचरितमानस के बीच की कड़ी के रूप में सामने आता है। इस काव्य का परशुराम के आगमन का वृतान्त द्रष्टव्य है –
पन्थ मिले भृगुनाथ हाथ फरसा लिए।
डाँटहि आँखि देखाइ कोप दारुन किए।।
राम कीन्ह परितोष रोस रिस परिहरि।
चले सौंपि सारंग सुफल लोचन करि।।
रघुबर भुजबल देख उछाह बरातिन्ह।
मुदित राउ लखि सन्मुख विधि सब भाँतिन्ह।।
3.5 रामचरितमानस
संवत् 1631 तक तुलसीदास की काव्य-यात्रा चरम उत्कर्ष तक जा पहुँची। अयोध्या में रामनवमी के दिन उन्होंने रामचरितमानस की रचना आरम्भ की और उसे 2 वर्ष 7 माह में समाप्त किया। यह महाकाव्य तुलसी के दर्शन और काव्य-कला का चरम उत्कर्ष है। इसमें तुलसी का सौन्दर्य-बोध, समन्वय साधना, भक्ति-भावना और लोकमंगल-कामना काव्य-कला के साथ संश्लिष्ट होकर सबसे परिष्कृत रूप में सामने आया है। लोकभाषा अवधि में सारी रामकथा कहने की शुरुआत उन्होंने संस्कृत के सुमधुर श्लोकों वाले मंगलाचरण से की। इसके साथ ही परम्परा में कुछ नया जोड़ते हुए उन्होंने प्रथम पूज्य विनायक (गणेश) से भी पहले वाणी (सरस्वती) को रखा।
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥
इसका मुख्य छन्द दोहा और चौपाई है। प्रायः चार चौपाई (आठ अर्धालियों) के बाद एक दोहा का क्रम अपनाया गया है। बीच-बीच में सोरठा, हरिगीतिका आदि छन्दों का भी सार्थक प्रयोग किया गया है। बालकाण्ड में रामजन्म का वर्णन करने के लिए हरिगीतिका छन्द का सार्थक प्रयोग द्रष्टव्य है –
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारी॥
रामचरितमानस में रामकथा की योजना भी अपनी पूर्णता को पहुँची है। यह संवाद शैली में लिखा गया है। यह सात काण्डों का महाकाव्य है। बालकाण्ड में विस्तृत भूमिका में मंगलाचरण, सन्त महिमा का बखान और रामकथा का नदी के रूपक के रूप में वर्णन किया गया है। इसके बाद राम के जन्म से लेकर सीता से विवाह कर अयोध्या लौटने तक की कथा है। अयोध्याकाण्ड में राम के राज्याभिषेक और वनगमन से लेकर भरत के चित्रकूट में राम को लौटाने जाने और चरण पादुका लेकर लौटने का प्रसंग है। तीसरे खण्ड अरण्यकाण्ड में इन्द्रपुत्र जयंत की कुटिलता, शूर्पनखा की नाक कटना, खर-दूषण संहार, रावण द्वारा सीता हरण, राम द्वारा सीता की तलाश आदि का प्रसंग है। चौथे खण्ड किष्किन्धाकाण्ड में राम और हनुमान भेंट, सुग्रीव से मित्रता, बालि वध, सुग्रीव की सेना द्वारा सीता की खोज, हनुमान द्वारा लंका जाने की तैयारी आदि का वर्णन है। सुन्दरकाण्ड में हनुमान के लंका पहुँचने, अशोक वाटिका में सीता का पता लगाने, लंका दहन और राम को बन्दिनी सीता का सन्देश सुनाने तक का प्रसंग है। छठे खण्ड लंकाकाण्ड में नल-नील की सहायता से समुद्र पर सेतु बनाने, वानर-राक्षस युद्ध, लक्ष्मण शक्ति, राम द्वारा रावण का वध, विभीषण का राजतिलक, सीता की मुक्ति, राम लक्ष्मण सीता और हनुमान का पुष्पक विमान से अयोध्या लौटने आदि का प्रसंग है। सातवें और अन्तिम खण्ड उत्तरकाण्ड में राम का राज्याभिषेक और रामराज की स्थापना तथा गरुड़ काकभुशुण्डी संवाद के जरिए भक्ति और ज्ञान के स्वरूप का वर्णन है।
उत्तरकाण्ड में वर्णित रामराज तुलसी के सपनों का राज्य है। इसमें किसी से कोई वैर नहीं करता है। विषमताएँ समाप्त हो गई हैं। लोग वर्णाश्रम और वेदों के बनाए अपने धर्म पर चलने वाले हैं। दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से राम राज मुक्त है। अल्पमृत्यु नहीं होती। कोई दरिद्र या दीन नहीं है।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
(रामचरित मानस, उत्तरकाण्ड, दोहा 20, चौपाई 7)
इस राज में सभी उदार, परोपकारी और ब्राह्मणों की पूजा करने वाले हैं। पुरुष एक नारी व्रतधारी हैं और स्त्रियाँ पतिव्रता हैं।
रामचरित मानस को सर्वांगपूर्ण महाकाव्य के रूप में चिह्नित करते हुए रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि – “रचना-कौशल, प्रबन्धपटुता, सहृदयता इत्यादि सब गुणों का समाहार हमें रामचरितमानस में मिलता है।
पहली बात, जिस पर ध्यान जाता है, वह है कथा-काव्य के सब अवयवों का उचित समीकरण। कथा-काव्य या प्रबन्ध-काव्य के भीतर इतिवृत्त, वस्तु व्यापार वर्णन, भाव व्यंजना और संवाद, ये अवयव होते हैं। न तो अयोध्यापुरी की शोभा, बाललीला, नखशिख, जनक की वाटिका, अभिषेकोत्सव इत्यादि के वर्णन बहुत लम्बे होने पाए हैं, न पात्रों के संवाद, न प्रेम, शोक आदि भावों की व्यंजना। इतिवृत्त की शृंखला भी कहीं से टूटती नहीं है।
दूसरी बात है कथा के मार्मिक स्थलों की पहचान। अधिक विस्तार हमें ऐसे ही प्रसंग का मिलता है जो मनुष्य मात्र के हृदय को स्पर्श करने वाले हैं, जैसे जनक की वाटिका में राम सीता का परस्पर दर्शन, राम वन गमन, दशरथ मरण, भरत की आत्मग्लानि, वन के मार्ग में स्त्री पुरुषों की सहानुभूति, युद्ध में लक्ष्मण को शक्ति लगना इत्यादि।
तीसरी बात है प्रसंगानुकूल भाषा। रसों के अनुकूल कोमल, कठोर पदों की योजना तो निर्दिष्ट रूढ़ि ही है। उसके अतिरिक्त गोस्वामी जी ने इस बात का भी ध्यान रखा है कि किस स्थल पर विद्वानों या शिक्षितों की संस्कृत मिश्रित भाषा रखनी चाहिए और किस स्थल पर ठेठ बोली। घरेलू प्रसंग समझकर कैकेयी और मन्थरा के संवाद में उन्होंने ठेठ बोली और स्त्रियों में विशेष चलते प्रयोगों का व्यवहार किया है। अनुप्रास की ओर प्रवृत्ति तो सब रचनाओं में स्पष्ट लक्षित होती है।
चौथी बात है शृंगार की शिष्ट मर्यादा के भीतर बहुत ही व्यंजक वर्णन।”
तुलसी की काव्य-यात्रा में रामचरितमानस जैसी कृति की उपलब्धि अति महत्त्वपूर्ण है। यह कृति हिन्दी ही नहीं रामभक्ति-धारा के सम्पूर्ण भारतीय साहित्य के लिए अत्यन्त महत्त्व की है। आगे भी तुलसी ने अन्य रूपों में रामकथा कहकर इसी उच्चता को हासिल करने की कोशिश की।
3.6 पार्वती-मंगल
अवधि गीतों का यह अत्यन्त सरस खण्डकाव्य है। यह सोहर छन्द में लिखा गया है। बीच-बीच में हरिगीतिका छन्द का प्रयोग किया गया है। इसमें 148 द्विपदियाँ और 16 हरिगीतिकाएँ हैं। यह शिव पार्वती के विवाह की कथा पर आधारित है। रामचरितमानस में पार्वती की तपस्या देखकर राम ने शिव से गिरिजा को अंगीकार करने के लिए कहा, जिसे शिव ने स्वीकार कर लिया। पार्वती मंगल की कथा में राम को बीच में नहीं डाला गया है। हिमवान की पुत्री पार्वती, नारद की प्रेरणा से तपस्या करती है। उनकी उग्र साधना से प्रभावित होकर वटु रूप में शिव उसकी परीक्षा लेते हैं और उनके एकनिष्ठ प्रेम को देखकर उन्हें पत्नी के रूप में अंगीकार कर लेते हैं। वे हिमवान के पास लग्न के लिए सप्तर्षियों को भेजते हैं। भूतों-पिशाचों के साथ बावले वर की बारात से नगर में हड़कम्प मच गया। फिर शिव ने अपना भव्य और सुन्दर रूप दिखाया, जिसके बाद धूम-धाम से उनका विवाह सम्पन्न हो गया। मानस की कथा शिव पुराण के अनुरूप है, जबकि पार्वती-मंगल की कुमारसम्भव के। किन्तु इसमें शिव पार्वती के खुले शृंगारिक दृश्यों का कहीं वर्णन नहीं आया है। इसमें तुलसी के गार्हस्थिक प्रौढ़ दृष्टि का बखूबी परिचय मिलता है। उन्होंने इसमें लोक-रीति का बखूबी चित्रण किया है। पारिवारिक व्यवहार कुशलता, प्रेम की अनन्यता और विवाह संस्कार की सरसता का इसमें सुन्दर चित्रण मिलता है।
3.7 गीतावली
गीतावली रामकथा पर आधारित सुमधुर गेय पदों का संग्रह है। यह ब्रज भाषा में लिखा गया काव्य है . इसमें 328 पद हैं। ये पद भी रामचरितमानस के समान सात काण्डों में विभक्त हैं। इसकी रामकथा में रामचरितमानस से समानता के साथ थोड़ी भिन्नता भी है। इसमें भी रामाज्ञा प्रश्न की तरह परशुराम का आगमन बारात के मार्ग में होता है तथा उनसे केवल राम का संवाद होता है, लक्ष्मण का नहीं। इसके अतिरिक्त इसमें राम के राज्याभिषेक के बाद के प्रसंगों में स्वान, यती, खग के न्याय और ब्राह्मण बालक की जीवन-कथा का भी वर्णन है। इसमें सीता के निर्वासन और लव-कुश के जन्म का भी वर्णन है। समान कथा में भी थोड़ा विस्तार है। जैसे वन में सीता का राम के विरह में दुःखी होना, राम का जटायु और शबरी के प्रति पिता और माता का स्नेह प्रकट करना, देवताओं द्वारा राम को सीता का पता बताना, अशोक वाटिका में सीता के प्रश्नों का मुद्रिका द्वारा उत्तर देना, लक्ष्मण के शक्ति लगने पर सुमित्रा द्वारा शत्रुघ्न को राम की सेवा में भेजने का हनुमान से आग्रह करना, आदि। वास्तव में यह रामकथा के मार्मिक रूप को बेहतर रूप में प्रस्तुत करता है। मानस में कौशल्या के पुत्र का विरह में व्याकुल रूप केवल एक बार आया है, जबकि इसमें उसका बार-बार व्याकुल होना मर्मस्पर्शी प्रभाव पैदा करने वाला है –
कबहु प्रथम ओं वार जगावति कहि प्रिय बचन सबारे ।
उठहु तात बलि भानु बदन पर अनुज सखा सब वारे ।।
कबहुँ कहति यो बड़ी बार भई वाह भूप पह भैया ।
बन्धु बोलि वेंडय जो भावै गई निछावरी मैया (अयो. 52) ।।
इसमें वन में सीता और राम के बीच के हास-विलास का भी सुन्दर चित्रण किया गया है। रामचरितमानस की रामकथा सामाजिक दायित्त्व को मर्यादा के साथ पूरा करता है। गीतावली रसिक भक्तों के चित्त-रंजन का लक्ष्य पूर्ण करती है। इसके राम पग-पग पर देवत्त्व का बोध न कराकर हाड़-माँस के शरीर और भावनायुक्त मन वाले लगते हैं।
3.8 विनय-पत्रिका
विनय-पत्रिका तुलसीदास की आध्यात्मिक साधना का वैराग्य से रामकृपा प्राप्ति तक का परिचय देने वाला काव्य है। सन् 1666 के आसपास लिखी गई इस कृति में 271 स्त्रोत-गीत हैं। इनमें से शुरुआती 63 में गणेश, शिव, पार्वती, गंगा, यमुना, काशी, चित्रकूट, हनुमान, सीता और माधव की वन्दना की गई है। विभिन्न देवी देवताओं का गुणगान कर तुलसी ने उनसे राम-भक्ति की ही याचना की है। इसमें मन को जगत से खींचकर रामचरणों में लगाने का उद्बोधन, राम के शील, स्वभाव और महात्म्य का गुणगान, उनके नाम की महिमा का बखान, कृपा के लिए करुण आत्मनिवेदन, अपनी क्षुद्रता की भत्सर्ना और दृढ़ आस्था का चित्रण मिलता है। अन्तिम तीन पदों में उन्होंने राम के समक्ष अपना निवेदन विनय-पत्रिका के रूप में प्रस्तुत किया है। विनय-पत्रिका के रूप में तुलसीदास ने हिन्दी साहित्य को सर्वश्रेष्ठ आत्मनिवेदन काव्य दिया है।
3.9 श्रीकृष्ण गीतावली
गीतावली में गीतों में रामकथा रचने के बाद तुलसी ने कृष्णकथा को भी गीतों में बाँधा है। श्रीकृष्ण गीतावली में गीतों का यह संग्रह कृष्णकथा के प्रसंगों पर आधारित है। इसमें इकसठ गीत हैं। इसमें उन्होंने कृष्ण के चरित का वर्णन न कर, केवल कोमल और मधुर अंशों को चित्रित किया है।
उन्होंने कृष्णकथा में भी अपने मर्यादावाद को काफी हद तक निबाहा है। यह छोटी रचना काव्य कला की दृष्टि से सुन्दर है। भाषा ठेठ बोलचाल की ब्रज है।
3.10 बरवै रामायण
सोहर, दोहा, चौपाई, हरिगीतिका, गेय पद आदि के बाद तुलसी की काव्य-यात्रा बरवै छन्द में रामकथा रचने की ओर उन्मुख हुई। इसमें कवितावली की तरह सात काण्डों में बासठ बरवै हैं। छह में रामकथा और उत्तरकाण्ड में भक्ति विषयक पद हैं। किन्तु इसके पाठ को लेकर तुलसी की रचनाओं में सर्वाधिक अनिश्चितता है। सुनिश्चित कथा-योजना का अभाव इसे मुक्तक काव्य की श्रेणी में ला देता है।
3.11 दोहावली
यह तुलसी द्वारा लिखे गए विभिन्न समय के दोहों का संग्रह है। यह एक मुक्तक काव्य है। इसमें कोई कथा नहीं है, 573 दोहे हैं। बहुत से दोहे रामचरितमानस और रामाज्ञा प्रश्न के हैं। कई नए मनोहर दोहे भी मिलते हैं। इसमें चातक सम्बन्धी दोहों की एक शृंखला मिलती है, जिसके सहारे तुलसीदास ने भक्ति और प्रेम की व्याख्या की है।
3.12 कवितावली
यह तुलसी की काव्य-यात्रा में काव्य-सौष्ठव के नए शिखर छूए जाने का उद्घोष है। सम्भवतः यह सन् 1655 से 1680 के बीच लिखा गया था। तुलसी ने इस मुक्तक काव्य में ब्रज भाषा और कवित्त-सवैया छन्द को अपनाया है। रामचरितमानस की ही तरह इसके भी सात खण्ड हैं। छह काण्डों में रामकथा का वर्णन है। सातवें खण्ड उत्तरकाण्ड में अन्य विविध विषयों का वर्णन किया गया है। किन्तु इसकी कथा योजना रामचरितमानस जैसी सशक्त नहीं है। मसलन अरण्यकाण्ड के केवल एक छन्द में राम के मायामृग के पीछे जाने की घटना चित्रित है। इसी तरह सुन्दरकाण्ड में केवल एक छन्द में हनुमान के समुद्र लाँघने के लिए मन्दराचल पर चढ़ने का उल्लेख किया गया है। उत्तरकाण्ड में राम के गुणगान के बाद आत्मनिवेदन और समाज की स्थिति को प्रकाशित करने वाले छन्द हैं। तुलसी के जीवन के उत्तरार्ध और उसके दौर के समाज को प्रकाशित करने वाला यह काव्य अपनी शैली का अद्वितीय काव्य है।
- तुलसी की काव्य-यात्रा का महत्त्व
तुलसी की काव्य-यात्रा ने हिन्दी साहित्य को काव्य-कला, दर्शन, लोकमंगल-कामना, भक्ति-भावना, आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से उच्चतम स्तर तक पहुँचा दिया। महाकाव्य के भारतीय और पाश्चात्य दोनों प्रतिमानों के आधार पर उनके रामचरितमानस को विश्व के श्रेष्ठ काव्यों में शुमार किया गया है। मार्मिक मुक्तकों की दृष्टि से विनय-पत्रिका और कवितावली, गीतिकाव्यों में गीतावली और कृष्णगीतावली, दोहों की दृष्टि से दोहावली और लोकगीतों की दृष्टि से पार्वती-मंगल और जानकी-मंगल अद्वितीय काव्य हैं। कथा, भाषा और शैली तीनों क्षेत्रों में तुलसीदास की काव्य साधना ने उत्कर्ष का शिखर स्पर्श किया है। रामचन्द्र शुक्ल तुलसी की कथ्यगत सर्वांगपूर्णता का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि “भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं, तो इन्हीं महानुभाव को। और कवि जीवन का कोई एक पक्ष लेकर चले हैं …पर इनकी वाणी की पहुँच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है। एक ओर तो वह व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवद्भक्ति का उपदेश करती है, दूसरी ओर लोकपक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौन्दर्य दिखाकर मुग्ध करती है। व्यक्तिगत साधना के साथ ही साथ लोकधर्म की अत्यन्त उज्ज्वल छटा उसमें वर्तमान है।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन- इलाहाबाद, पृ. 114)
तुलसी ने मध्यकाल की हिन्दी प्रदेश की सभी काव्य-भाषाओं में और सभी शैलियों में श्रेष्ठतम रचनाएँ की हैं। उन्हें रचना शैली की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ बताते हुए आचार्य शुक्ल आगे लिखते हैं कि- “काव्यभाषा के दो रूप और रचना की पाँच मुख्य शैलियाँ साहित्य क्षेत्र में गोस्वामी जी को मिलीं। तुलसीदास जी के रचनाविधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के बल से सबके सौन्दर्य की पराकाष्ठा अपनी दिव्य वाणी में दिखाकर साहित्य क्षेत्र में प्रथम पद के अधिकारी हुए। हिन्दी कविता के प्रेमी मात्र जानते हैं कि उनका ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। ब्रजभाषा का जो माधुर्य हम सूरसागर में पाते हैं, वही माधुर्य और भी संस्कृत रूप में हम गीतावली और कृष्णगीतावली में पाते हैं। ठेठ अवधी की जो मिठास हमें जायसी के पद्मावत में मिलती है वही जानकी-मंगल, पार्वती-मंगल, बरवैरामायण और रामललानहछू में हम पाते हैं। यह सूचित करने की आवश्यकता नहीं कि न तो सूर का अवधी पर अधिकार था और न जायसी का ब्रजभाषा पर। प्रचलित रचना शैलियों पर भी उनका इसी प्रकार का पूर्ण अधिकार हम पाते हैं।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 91) भाषा-शैली पर यह अधिकार और किसी को प्राप्त नहीं है।
तुलसी की काव्य-यात्रा का महत्त्व न केवल राम भक्ति शाखा को बल्कि पूरे हिन्दी और भारतीय साहित्य को मानवतापरक मूल्यों के आदर्श से ओत-प्रोत विराट चरित्रों की अनुपम भेंट देने में है। यह हमें कर्त्तव्य, त्याग, प्रेम, सहिष्णुता, लोकमंगलकारी मृदुलता, अमंगलनाशक कठोरता और लोक-कल्याणकारी राज-व्यवस्था के ऐसे लोक में ले जाता है, जो मानव-जाति का लक्ष्य बनने का सामर्थ्य रखता है। तुलसी के काव्य-यात्रा की ये उपलब्धियाँ वर्णाश्रम और पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पक्षधरता के कारण कुछ सीमित हुई हैं। दलित, स्त्री एवं अन्य कतिपय निम्नवर्गीय समाज के प्रतिकूल कतिपय मूल्यों का संवाहक होने के बावजूद, तुलसी की काव्य-यात्रा के साहित्यिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक योगदान की महत्ता को अधिकतर आलोचक स्वीकार करते हैं।
- निष्कर्ष
इस तरह हम कह सकते हैं कि तुलसी की काव्य-यात्रा जितनी सुदीर्घ है, उतनी ही मूल्यवान भी है। इस यात्रा में तुलसी ने काव्य के तमाम रूपों को उत्कर्ष पर पहुँचा दिया है। प्रबन्ध और मुक्तक, अवधी और ब्रज, शृंगार और भक्ति, लोक और अध्यात्म, कर्म और धर्म, ज्ञान और भक्ति, सगुण और निर्गुण, नाम और रूप… सभी उनकी काव्य-यात्रा में अपना उज्ज्वल स्वरूप पाने में सफल रहे हैं। उनकी काव्य-यात्रा का चरम फल रामचरितमानस के रूप में प्राप्त हुआ, जो आज भी उत्तर भारत के लोगों का धर्म-कर्म और आध्यात्म का पथप्रदर्शक है। तुलसी की काव्य उपलब्धियों ने हिन्दी साहित्य को, भारत ही नहीं, विश्व के श्रेष्ठ साहित्य में शामिल कर दिया है।
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पुस्तकें
- हिन्दी साहित्य कोश भाग–1, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- तुलसी ग्रन्थावली, नागरी प्रचारणी सभा ,वाराणसी
- गोस्वामी तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा,वाराणसी
- गोसाई तुलसीदास,विश्वनाथप्रसाद मिश्र,वाणी प्रकाशन, दिल्ली
- लोकवादी तुलसीदास, विश्वनाथ त्रिपाठी, राधाकृष्ण प्रकाशन
- हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास, नागरी प्रचारणी सभा, बनारस
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- http://www.bharatdarshan.co.nz/author-profile/2/author2.html
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- http://www.ignca.nic.in/coilnet/tulsi003.htm
- http://www.ignca.nic.in/coilnet/tulsi005.htm