20 सूरदास : काव्य भाषा और काव्यरूप
प्रभाकर सिंह
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- सूरदास की काव्य-भाषा की सर्जनात्मकता समझ सकेंगे।
- सूर की रचनाओं के काव्य-रूप से परिचित हो सकेंगे।
- सूर के काव्य में प्रयुक्त छन्दों, अलंकारों और मुहावरों की जानकारी सकेंगे।
- भ्रमरगीतसार के काव्य-रूप और भाषिक सौन्दर्य का महत्त्व समझ सकेंगे।
- सूर के काव्य-रूप और काव्य-भाषा की विशिष्टता का विवेचन कर सकेंगे।
2. प्रस्तावना
रचना का सबसे सृजनात्मक पक्ष भाषा है। समर्थ भाषा की अभिव्यक्ति से कोई भी काव्य या रचना कालजयी बनती है। सूर की कविता का सबल पक्ष उनकी भाषा है। भावों के अनुकूल काव्य-रूप और काव्य-भाषा का चुनाव सूर के काव्य का वैशिष्ट्य है। ब्रजभाषा में निहित संगीतात्मकता, गीतात्मकता और सृजनात्मकता की तलाश कर सूर ने अपनी रचनाओं में सफलता से प्रयोग किया है। सूरदास ने कबीर की भाँति न संस्कृत की श्रेष्ठता को नकारा, न ही लोकभाषा के यथारूप को ही स्वीकार किया, बल्कि इन दोनों के बीच में भाषाई संतुलन स्थापित किया। यहाँ हम सूर की रचनाओं के काव्य-रूप और काव्य-भाषा का विवेचन विश्लेषण करेंगे।
3. सूरदास की रचनाओं का काव्य-रूप
काव्य-रूप, काव्य के अभिव्यंजना पक्ष का सबसे सबल पक्ष है। यह कविता की रचना प्रक्रिया के साथ उसके रचना-दृष्टि की ओर भी संकेत करता है। कविता में जितना महत्त्व अनुभूति का है, उतना ही महत्त्व अभिव्यक्ति का भी है। भाषा, छन्द, अलंकार, गीत और संगीत की सृजनात्मक अभिव्यक्ति ही अनुभूति के साथ कविता की संगति बनाते हैं। कविता में इनका समानुपातिक सम्बन्ध और योगदान होता है। कविता के काव्यरूप में अनुभूति और अभिव्यक्ति का यही सामंजस्य होता है। सूर की कविता भी इसी अनुभूति एवं अनुभवों का बिम्ब है। जहाँ चारित्रिक गुण भी सहज रूप में प्रकट होते हैं।
3.1. सूरसागर, सूरसारावली और साहित्य-लहरी का काव्यरूप
सूरदास की प्रामाणिक रचनाएँ तीन हैं – सूरसागर, सूरसारावली, और साहित्य-लहरी। सूरसागर सूर की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना है, सूरसारावली और साहित्य-लहरी इसी के पूरक हैं। साहित्य-लहरी तो सूरसागर के खास अंशों का संग्रह है।
काव्य-रूप के सृजन में अभिव्यक्ति के दो पक्ष होते हैं – बाह्य, जिसमें संरचना और शैली मुख्य हैं और आन्तरिक तत्त्वों में लय, छन्द, बिम्ब एवं प्रतीक मुख्य हैं। काव्य-रूप कविता के इन्हीं अनुभूति और अभिव्यक्ति के समन्वय से निर्मित होता है। सृजनशील कवि काव्य-शास्त्र के बँधे-बँधाए मानदण्डो से मुक्त होकर अपनी काव्य अनुभूति के अनुकूल अभिव्यक्ति के नए प्रयोग करता है। हर महान कवि काव्य संवेदना के साथ काव्य-रूप का भी विस्तार करता है। सूरदास की सबसे महत्त्वपूर्ण कृति सूरसागर है। सूरसागर अपने सम्पूर्ण रचाव में एक ‘महाकाव्य’ की समस्त विशेषताओं को समेटे हुए है। ‘महाकाव्य’ की संरचना युग और परिवेश के अनुरूप बदलती रही है। भारतीय काव्य-परम्परा में वाल्मीकि के रामायण से लेकर आधुनिक कविता में कामायनी के महाकाव्यत्व की कसौटी एक-सी नहीं हैं। महाकाव्य के आन्तरिक और बाह्य नियामक तत्त्वों के आधार पर सूरसागर ‘महाकाव्य’ की श्रेणी में आता है। यह जीवन के सामूहिक भाव और अनुभूतियों का ‘महाकाव्य’ है। काव्य-शास्त्र की मान्य धारणाओं को भी वह अपनी सम्पूर्णता में पूरा करता है। ‘सूरसागर’ के ‘महाकाव्य’ होने के बारे में मैनेजर पाण्डेय का यह कथन उल्लेखनीय है – ‘‘सूरसागर के काव्य-रूप की यह विशेषता है कि वह अपनी सम्पूर्णता में एक महाकाव्य है, उसके भीतर अनेक खण्डकाव्यों का नियोजन है, उसके सन्दर्भ सापेक्ष पद गेय गीत के लक्षणों से युक्त हैं और विनय के पद विशुद्ध चिन्तनमूलक अन्तर्वृत्ति निरूपक गेय मुक्तक हैं। गीतात्मकता, प्रबन्धात्मकता सूरसागर के काव्य-रूप की अपनी मौलिक विशेषता है। संगीत सूरसागर के निर्माण में नियामक तत्त्व हैं। सूरसागर में प्रबन्ध का आधार लोक-जीवन में प्रचलित कृष्ण-कथा है, इसमें कथा की पुनर्रचना और प्रगति की तन्मयता की अभूतपूर्व एकता है, इसलिए पाठक कथारस और अनुभूति की तीव्रता का एक साथ अनुभव करते हैं।’’
काव्य-शास्त्रीय दृष्टि से सूरसागर में नायक श्रीकृष्ण हैं, जिनके व्यक्तित्व में ईश्वर और मानव का अद्वैत भाव है। अंगीरस शृंगार है। बीज भाव ‘प्रेम’ है। प्रकृति का मनोहारी चित्रण है। शैली की दृष्टि से सूरसागर को ‘गीतात्मक महाकाव्य’ कहा जा सकता है। लोक-गीत और शास्त्रीय-संगीत की राग-रागीनियों को इसमें विन्यस्त किया गया है। सूरदास के आलोचक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और बृजेश्वर वर्मा सूरसागर को कृष्ण चरित का महाकाव्य कहते हैं।
सूर-सारावली में कुल मिलाकर 1107 युग्म हैं। अन्तिम पंक्तियाँ बड़े महत्त्व की हैं। इन पंक्तियों से सूर के दीक्षाकाल, कविकर्म, लीलागान-तत्त्वगान, फलश्रुति का संकेत किया गया है। सूरसारावली एकलक्ष्य पदबन्ध वाली हरि-लीला का सार है। सार लिखने की यह परम्परा भारतीय वांग्मय से जुड़ी है, सूरसारावली की रचना स्कन्धात्मक क्रम से है, जबकि सूरसागर में लीला-क्रम को महत्त्व दिया गया है। यह रचना सूरसागर का सार होते हुए भी एक स्वतन्त्र रचना की तरह है। भाषा, भाव और शैली की दृष्टि से यह रचना सूर की ही है। यह रचना आचार्य वल्लभ के पुरुषोत्तमसहस्रनाम की रचना पद्धति की तरह है। इसी से प्रेरित होकर यह रचना रूपायित हुई।
साहित्य-लहरी का काव्य-रूप दृष्टि-कूट के मुक्तक पदो के लिए प्रसिद्ध है। इन पदों में चमत्कारिकता और दुरूहता अधिक है। भक्त कवियों ने भक्तिभाव के लिए साधारण गेय शैली अपनायी है और रहस्यात्मक भावों के लिए दृष्टि-कूट शैली को अपनाया है। ‘दृष्टि-कूट’ की यह शैली सिद्धों, नाथों, और कबीर की कविता से होते हुए आगे विकसित हुई। सूर ने इस परम्परा से जुड़ते हुए भी इसमें मौलिकता के साथ इसको विरह और संयोग के पदों में अपनाया है। इन पदों को ‘सहज समाधि’ का पद कहा जाता है।
3.2. भ्रमरगीत का काव्य-रूप
भ्रमरगीत को कुछ आलोचक खण्डकाव्य मानते हैं तो कुछ उसे स्वतन्त्र रूप से लिखे मुक्तक प्रगीतों का संकलन मानते हैं। विदित है सूर ने भ्रमरगीत में विभिन्न प्रकार के काव्य-रूपों और काव्य-प्रकारों का प्रयोग किया है। भ्रमरगीत में गीत, संगीत और नृत्य कला की शैली का सृजनात्मक प्रयोग सूर ने सफलता के साथ किया है। भ्रमरगीत कई समन्वित काव्य-रूपों की रचना हैं।
भ्रमरगीत मूलतः प्रगीतात्मक काव्य है। गीत के पहले टेक में गीत का सार सूक्ति परक ढंग से कह दिया जाता है फिर सम्पूर्ण पद में उसका विस्तार किया जाता है। इस प्रक्रिया में गीत की कथात्मकता का विस्तार होता चलता है। कहीं-कहीं इस रचना-प्रक्रिया का अतिक्रमण होता है, लेकिन इसी अतिक्रमण में सूर की रचनात्मकता का दर्शन होता है। भ्रमरगीत के पदों को पढ़ने के बाद यह मुक्तक परम्परा की रचना की तरह लगता है लेकिन भ्रमरगीत अपने सम्पूर्ण रचाव में एक कथा की एकान्विति की तरह है। कथा का यह क्रम स्वतन्त्र कथा-काव्य में रूपायित होता है। भ्रमरगीत की संवाद शैली ‘उद्धव-गोपियों’ के वाद-विवाद के बाद संवाद में परिणत होती है फिर संवाद के बाद वाद-विवाद का रूप उपस्थित होता है। उद्धव के एक संवाद के उत्तर में गोपियाँ अनगिनत प्रतिसंवाद करती हैं। उद्धव के संवाद में तर्क और ज्ञान का आधिक्य है तो गोपियों के संवाद में लोकानुभव और लोक-जीवन का तर्क है जिसमें सहृदयता और भावुकता के साथ वाक चातुर्य की कला है। गोपियों के संवादो में अधिक कविताई है। सहृदयता और वाग्विदग्धता के इस संयोजन से गोपियों के सामने उद्धव फीके नजर आते हैं।
भ्रमरगीत एक सफल गीतिकाव्य है। गीतिकाव्य की सारी संवेदना भ्रमरगीत में व्याप्त है। सूर की निजता, संवेदनशीलता और प्रेम की आकुलता गोपियों के बहाने भ्रमरगीत में प्रकट होती है। भावों के अनगिनत रूप गीत-संगीत और विभिन्न रागों में मिलकर भ्रमरगीत की काव्य-संवेदना को उदात्त काव्य-रूप बना देता है। भ्रमरगीत में लोक-गीत के तत्त्वों का मिश्रण कर सूर ने इसमें विशिष्ट वातावरण का निर्माण किया है।
भ्रमरगीत एक विरह काव्य है, लेकिन यहाँ विरह का रोना नहीं है। गोपियाँ कृष्ण से भले दूर हों, लेकिन वह कृष्ण की उपस्थिति को सदैव अपने हृदय में महसूस करती हैं। विरह को उन्होंने जीवन का स्थायीभाव बना लिया है जिसमें वह किसी का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करना चाहती, फिर चाहें कृष्ण हो या उनके द्वारा भेजे गए उद्धव। भ्रमरगीत में भ्रमर के प्रतीक के रूप में कृष्ण, उद्धव, भ्रमर, भ्रमित करने वाला और प्रेमी का आशय प्रकट होता है। ‘भ्रमर’ मूलतः सामन्ती प्रवृत्ति का द्योतक है। जब कि गोपियाँ लोक-समूह या जन-समूह की द्योतक हैं।
- सूरदास की काव्यभाषा
भाषा रचना का सबल और सृजनात्मक पक्ष है। समर्थ रचनाकार भावों के अनुकूल भाषा का सृजन करता है। काव्यभाषा में लोक और शास्त्र के सफल सामंजस्य से सूर ने श्रेष्ठ काव्य का रूपायन किया है। चाहे गोपियों का उद्धव पर किया गया व्यंग्य हो, यशोदा और कृष्ण के बीच के प्रेम एवं खीज का वर्णन हो, भाषा अपने सहज रूप में अभिव्यक्त होती है। लोकभाषा से निकटता ने सूर को काव्यगत दुरूहता से मुक्त रखा है। इतना ही नहीं उन्होंने ब्रजभाषा को कृष्ण-कथा की गीतात्मक अभिव्यक्ति के योग्य बनाया। सुरों एवं रागों में तराशकर कविता को सहज लोककण्ठ तक पहुँचाया। चूंकि सूरदास मूलतः भजनानन्दी थे, उन्हें हर रोज मन्दिर में कीर्तन हेतु पद की रचना करनी थी इसलिए पदों में गीतात्मकता का यह अद्भुत संयोजन कोई विस्मय की बात नहीं है। उन्होंने ब्रजभाषा में निहित लोकसंगीत के तत्त्व से अपने पदों को इस प्रकार संयोजित किया है मानो ब्रजभाषा और संगीत की भाषा का भेद मिट गया हो। हालाँकि उनकी भाषा रागबद्ध है, जिसमें केदार, सोरठा, कैफ़ी, सारंग, कान्हरो, जैतश्री, रामकली आदि प्रमुख राग हैं। तुकों की सटीक योजना भी सूर की भाषा को संगीतधर्मी बनाती है।
4.1. ब्रजभाषा की सृजनात्मकता
सूरदास की काव्य-भाषा ब्रज है। सूर की काव्यभाषा का निर्माण शास्त्र और लोक के सहज समन्वय से हुआ है। सूर की ब्रजभाषा में जीवन व्यवहार की, सामाजिक जीवन के विविध सन्दर्भों की और सूचनाओं की सम्पदा है। उनकी काव्य-भाषा में उस युग का समाज और संस्कृति का दर्शन होता है। सूरदास ने राधा-कृष्ण की पौराणिक कथा की जगह लोक में प्रचलित कथा का संयोजन सूरसागर में अधिक किया है। लोक की इस प्रेम-कथा को लोक भाषा में सूर ने ऐसा प्रस्तुत किया कि वह जन-जन में व्याप्त हो गयी।
सूर के काव्य से ब्रजभाषा की काव्य परम्परा में सृजनात्मक शक्ति पैदा हुई। सृजनात्मकता का यह रंग शब्द-चयन, गीत-संगीत और वचन-वक्रता में दिखाई देता है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में ‘‘चलती हुई ब्रजभाषा में सबसे पहली साहित्यिक कृति इन्हीं की मिलती है, जो अपनी पूर्णता के कारण आश्चर्य में डाल देती है। पहली साहित्य-रचना और इतनी प्रचुर प्रगल्भ और काव्यांगपूर्ण कि अगले कवियों की शृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ इनकी जूठी जान पड़ती है।’’
सूर ने अपने काव्य में जिस भाषा का प्रयोग किया है, वह उस क्षेत्र की जन-भाषा या लोक-भाषा थी। लोक-भाषा को सरस और संगीतमय बनाकर इतना समृद्ध कर दिया कि ब्रजभाषा का काव्य-सौष्ठव देखते ही बनता है। ब्रजभाषा को साहित्यिक भाषा के रूप में रूपान्तरित करने का काम सूर ने ही किया। हरबंश लाल शर्मा सूर की काव्य भाषा की साहित्यिकता के बारे में लिखते हैं, ‘‘जो कोमलकान्त पदावली, भावानुकूल शब्द-चयन, सार्थक अलंकार योजना, धारावाही प्रवाह, संगीतात्मकता और सजीवता सूर की भाषा में है, उसे देखकर यही कहना पड़ता है कि सूर ने ही सर्वप्रथम ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया।’’
सूर ने ब्रजभाषा में निहित लोक संगीत और गीत के तत्त्वों को पदों में सहजता से विन्यस्त कर दिया है। गीतात्मकता और संगीतात्मकता से सूर ने काव्यभाषा में नया आयाम रचा। लोक के सांस्कृतिक तत्त्वों से सूर अपनी काव्य-भाषा की अनुभूति को समृद्ध करते हैं। लोक-जीवन का यह रंग काव्य-भाषा में होली, सावन और अन्य पर्वों और त्योहारों के वर्णन में दिखाई देता है।
उड़त गुलाल लाल भए बादर
रंगि गए सिगरे अटा अटारी।
सूर की काव्य भाषा रूपक प्रधान भाषा है। उनके काव्य के रूपक का आधार विस्तृत है। प्रकृति, मनुष्य, समाज, और लोक-संस्कृति इसके मुख्य स्रोत हैं। उनके भाषा के रूपक प्रधान होने की बात करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है, ‘‘सूरदास की काव्य-भाषा रूपक प्रधान भाषा है। यहाँ रूपक केवल अलंकार मात्र नहीं है। भाषा का रूपात्मक चरित्र एक विशेष प्रकार की चिन्तन पद्धत्ति का लक्षण है। चूँकि भाषा में ही चिन्तन सम्भव है इसलिए भाषा का स्वरूप चिन्तन के स्वरूप को जाहिर करता है। सूरदास के रूपक प्रधान या लाक्षणिक चिन्तन के अनुरूप ही उनकी काव्य-भाषा की संरचना निर्मित हुई है। इसी रूपक प्रधान भाषा में वे जीवन के यथार्थ, अनुभूति, विचार आदि की पुनर्रचना और अभिव्यक्ति करते हैं। वे राधा और कृष्ण के चरित्र, व्यवहार सौन्दर्य, भाव आदि की व्यंजना भी लाक्षणिक भाषिक संरचना में ही करते हैं। भ्रमरगीत में भावों की गहराई और वैचारिक द्वन्द्वों की जटिलता की अभिव्यक्ति रूपक प्रधान भाषा में हुई है। सूरदास रूपक प्रधान चिन्तन के सहारे ही अलंकारों का प्रयोग करते हैं और बिम्ब, प्रतीक, अन्योक्ति आदि की रचना भी करते हैं। इस पद्धति से काव्य-भाषा में वाग्विदग्धता, उपचार वक्रता और अभिव्यक्ति के सौन्दर्य का विकास हुआ है।’’
सूर की काव्य-भाषा में अपने युग के सामाजिक सरोकार की छाया है, तो उस पर विचार और दर्शन का भी प्रभाव है। सूर की काव्य-भाषा का सौन्दर्य, ज्ञान, विचार और भाव-पक्ष एक दूसरे से जुड़े हैं। ये सभी मिलकर सूर के काव्य की अभिव्यक्ति पक्ष को विशिष्ट बनाते हैं।
आंचलिक और लोक-भाषा के शब्दों का प्रयोग सूर के काव्य-भाषा की सबसे बड़ी शक्ति है। आंचलिक शब्दों को भाव और सौन्दर्य तत्त्व से सुसज्जित कर सूर जब कविता रचते हैं। तब ऐसा लगता है, जैसे ब्रज का सम्पूर्ण लोक उसमें जाग्रत हो गया है।
जोरति छाक प्रेम सौ भैया।
ग्वालनि बोलिलियौ अधजेंवत, उठि दोउ भैया।
तबहिं तै मैं भोजन्ह कीन्हौ, चाहति दियौ पठाई।
तद्भव शब्दों का प्रयोग सूर के काव्य की विशिष्टता है। पूरी ध्वन्यात्मकता से यहाँ इसका प्रयोग किया गया है।
आवहुँ कान्ह साँझ के बेरिया।
गाइनि माँझ भए हौं ठाढै़ कहति जननि यह बड़ी कुबेरिया।
सूर स्याम कहत-कहत ही बस करि लीन्हे आइ निदेरिया।
सूर-काव्य में तद्भव और तत्सम शब्दावली का प्रयोग भावों और प्रसंगों के अनुकूल हुआ है। कृष्ण-सौन्दर्य का वर्णन करते हुए तत्सम के पारम्परिक रूपों का प्रयोग है। वहीं बाल लीला के वर्णन में तद्भव शब्दों की अधिकता है। अर्थ की गत्यात्मकता और स्थिरता द्वारा भी तत्सम-तद्भव शब्दों का चुनाव सूर ने बड़ी सजगता से किया है। तत्सम शब्दों के प्रयोग का उदाहरण –
सोभा कहत कहे नहिं आवै।
अँचवत अति आतुर लोचन पुट मन न तृप्ति कौ पावै।।
सजल मेघ घनस्याम सुभग बपु तडित न बन मातै
xx xx xx
मैया बहुत बुरौ बलदाऊ
कहन लग्यौ बन बडौ तमासौ सब मोड़ा मिलि आई।
मोहूँ कौ चुचकारि गयौ लै जहाँ सघन बन झाऊ।
भागि चल्यों कहि गयौ उहाँ ते काटि खाई रे हाऊ।।
पहले पद में तत्सम-बहुल शब्दों का और दूसरे पद में तद्भव शब्दों का विरल प्रयोग है। परिवेश और संवेदना की दृष्टि से तत्सम, तद्भव का सार्थक प्रयोग अधिक काव्यात्मक बन गया है। बिम्ब-प्रयोग में सूर अग्रणी कवि हैं। गतिशील और गत्यात्मक भावों को बिम्ब द्वारा व्यक्त करना, सम्पूर्ण अर्थ संश्लेषण करता है। जटिल और सूक्ष्म भावों को प्रगट करने के लिए सूर ने अपने काव्य में कई जगह बिम्बों का सफल प्रयोग किया है। भ्रमरगीत के जिस प्रसंग में गोपियाँ उद्धव के योग को अस्वीकार करने के लिए मार्मिक भावों को व्यक्त करती हैं, वहाँ बड़ी सजगता दिखती है। ऐसी सजगता जिसमें अस्वीकार हो, लेकिन उद्धव का अपमान न हो। ऐसे भावों को सूर ने विलक्षणता से व्यक्त किया है –
जो हितकरि पढ्यौ मनमोहन
से हम तुमकौं दीनौ।
सूरदास ज्यों बिप्र नारियर
करहीं बन्दन कीनौ।।
‘बिप्र नारियर’ का बिम्ब पूरे भाव को उसी संजीदगी से प्रगट करता है। बिम्ब-विधान का प्रयोग सूर के काव्य में सहज अंग बनकर आता है। वे बिम्बों की योजना सायास नहीं करते।
किसान-जीवन की संस्कृति से सूर के काव्य का गहरा जुड़ाव है। उनके काव्य में किसानी जीवन संवेदना से जुड़े मुहावरों और लोकोक्तियों का भाषिक प्रयोग सूर के किसानी जीवन से गहरे सम्बन्ध को प्रकट करता है। गोपी-उद्धव संवाद, किसान-जीवन से जुड़े शब्दों के प्रयोग से अधिक जीवंत और अर्थधर्मी हो उठा है। गोपियाँ उद्धव के प्रति अपने खीज को कुछ ऐसे प्रगट करती हैं –
धान को गाँव पयार तैं जानों,
ज्ञान विषय रस भोरे।
सूर सूर बहुत कहे न रहै रस,
गूलर को फल फोरे।।
भाषा में लोक-प्रचलित शब्दों का प्रयोग सूर की कविता में अर्थ-विस्तार देता हैं। काव्य-भाषा की सृजनात्मकता के ऐसे प्रसंग सूर के काव्य में बहुलता में हैं।
सूर-काव्य में औकारान्त रूपों का प्रमुखता से प्रयोग किया गया है। यह प्रयोग संज्ञा में ही नहीं विशेषण और क्रिया के भूतकालिक कृदन्त रूपों में भी देखा जा सकता है। परसर्गों का प्रयोग प्रसंगों और भावों के अनुकूल किया गया है। कभी-कभी परसर्ग संज्ञा के साथ जुड़कर संश्लिष्ट रूप में प्रयोग किए गए हैं। ‘गुपालहि स्रवननि’ जैसे प्रयोग उल्लेखनीय हैं। नाम धातु – उपजाए, रिसाए और संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग विशिष्टता के साथ किया गया है।
4.2. अलंकार, छन्द, लोकोक्तियाँ और मुहावरे
सूरदास की कविता में अलंकारों का प्रयोग चमत्कार पैदा करने के लिए नहीं किया गया है। उनका प्रयोग भाव और कथ्य के अनुकूल प्रभाव पैदा करने के लिए किया गया है। सूर के अलंकार प्रयोग के बारे में हरवंशलाल शर्मा ने लिखा है, ‘‘सूर के काव्य में शब्दालंकारों की जगह अर्थालंकारों का प्रयोग अधिक हुआ है, क्योंकि शब्दालंकार तो वर्ण-सौन्दर्य को ही विशेष रूप से प्रस्फुटित करते हैं। रूप सौन्दर्य के लिए उनका इतना महत्त्व नहीं, जबकि सूर का उद्देश्य रूप-सौन्दर्य चित्रण और उसके द्वारा भाव-सौन्दर्य का पोषण करना था।’’ कृष्ण के रूप-सौन्दर्य का यह वर्णन रूपक, उत्प्रेक्षा और व्यतिरेक के समन्वित प्रयोग से किया गया है।
देखि सखी अधरन की लाली
मनि मरकत तै सुभग कलेवर ऐसे हैं वन माली।
मनो प्रात की घटा साँवरी तापै अरुण प्रकाश
ज्यों दामिनि बिचि दमकि रहत है कहरत पीत सुबास।
उत्प्रेक्षा एवं उपमा अलंकारों का भरपूर उपयोग सूर ने रूप चित्रण में किया है। राधा और कृष्ण की अंग-छवि की मनोहर झाँकी को रूपायित करने में उन्होंने उपमा एवं उत्प्रेक्षा का मुक्त-हस्त प्रयोग किया है। भ्रमरगीत में भी उन्होंने कई अलंकारों का सहारा लिया है। असंगति, विरोधाभास, विभावना आदि अलंकारों के अतिरिक्त और कई प्रकार के दृष्टान्त, समुच्चय आदि अलंकारों का प्रयोग किया है।
काव्य की कलात्मकता में छन्द का विशेष महत्त्व होता है। सूर ने राग-रागिनियों के भीतर छन्द की योजना की है। पदों के ऊपर गति का सृजनात्मक प्रयोग फिर दोहों की योजना उल्लेखनीय है। दोहा, रोला, और चौपाई का प्रयोग भी सूरसागर में है। इनके अलावा सूरदास ने जिन छन्दों का अधिक प्रयोग किया है, उनमें सार, सरसी, लवनी, समान सवैया प्रमुख हैं। छन्द की पारम्परिक योजना के साथ नए छन्दों का प्रयोग भी सूर के काव्य में मौजूद है।
काव्य-भाषा को स्वाभाविक और जनधर्मी बनाने के लिए सूर ने लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग किया है। लोक और ग्राम्य जीवन में बिखरे लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग से उनकी भाषा में अर्थ-गाम्भीर्य तो पैदा होता है; काव्य में मिठास भी भर जाता है। भ्रमरगीत में गोपियाँ जब उद्धव पर व्यंग्य करती हैं, तब भाषा में मुहावरे एवं लोकोक्तियों का प्रयोग देखने लायक होता है। गोपियों के इस उपालम्भ में मुहावरे स्वतः दिखाई पड़ने लगते हैं। उदाहरणार्थ यह पद देखा जा सकता है –
वह मथुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे।
तुम कारे, सुफलक सुत कारे, कारे मधुप भँवारे।।
गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि वह मथुरा नगरी काली कोठरी के समान है, वहाँ से जो भी आता है, वह काला ही आता है। यहाँ गोपियों का आशय रंग विशेष से न होकर मनुष्य की उस कपटपूर्ण प्रवृत्ति से है जो उन्हें उद्धव, अक्रूर एवं भ्रमर में दिखाई देता है। हालाँकि यह भाषायी प्रहार सहज नहीं है, किन्तु भाषा के मुहावरेदार प्रयोग ने संवाद को सरस बना दिया है। सूरदास प्रसंग के अनुसार मुहावरे चुनने में सिद्धहस्त कवि हैं। दृष्टव्य हैं –
अपनौ दूध छाँड़ि को पीवै, खारे कूप कौ बारी।
इस प्रकार सूर की भाषा में वाक्चातुर्य के साथ हास्य भी समाहित है। काव्य-भाषा में किसान जीवन से जुड़े मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से सूर की लोक संस्कृति सम्बन्धी गहरी समझ का पता चलता है। उनकी भाषा में बातचीत की सहजता और चतुराई एक साथ मिल जाती है। जिसका जिक्र आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी आलोचना में बार-बार किया है। भ्रमरगीत तो सूर की काव्यभाषा की सृजनात्मकता का चरम विकास है। यहाँ गोपियों की सहृदयता और वाग्विदग्धता में भाषा की संवेदना और वक्रता का रूपायन होता है।
- निष्कर्ष
सूर अपने काव्य में अनुभूति की व्यापकता और गहराई को गुणवत्ता प्रदान करते हैं। वहाँ अपने विलक्षण अभिव्यंजना-शिल्प सृजनात्मकता का उत्कर्ष आ जाता है। काव्य-रूप, काव्यभाषा, छन्द, अलंकार और मुहावरों की योजना उसके काव्य-सौन्दर्य को समृद्ध करते हैं। उनके काव्य-रूप में गीतात्मकता की गहन संवेदना है, काव्य-भाषा में लोक और शास्त्र का सहज संयोजन है। परम्परा से काव्य-भाषा ग्रहण करते हुए सूर, उसमें मौलिकता और नयापन भर देते हैं। ब्रजभाषा का काव्य-वैभव बढ़ जाता है। सूर के काव्य-रूप और काव्य-भाषा के सृजनात्मक पक्ष का यह वैशिष्ट्य प्रशंसनीय है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास, नागरी प्रचारणी सभा, बनारस
- भ्रमरगीत सार , रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा, वाराणसी
- त्रिवेणी, रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा, वाराणसी
- सूर साहित्य, हजारी प्रसाद द्विवेदी राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- मध्यकालीन कविता के सामाजिक सरोकार, डॉ.सत्यदेव त्रिपाठी,शिल्पायन,दिल्ली
- हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली, मुकुन्द द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
वेब लिंक्स
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
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