2 JANSHANGHARSH AUR KAVITA
प्रो. रामबक्ष जाट
इकाई का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- क्रान्ति में अटूट आस्था के कवि
- वैचारिक आवेग
- आक्रोश की अभिव्यक्ति
- व्यवस्था परिवर्तन और व्यंग्य
- निष्कर्ष
1. पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- जन और जनसंघर्ष से कविता का सम्बन्ध समझ सकेंगे।
- जनकवि के रूप में नागार्जुन की पहचान कर सकेंगे।
- नागार्जुन को जनकवि बनाने वाली कविता की विशेषताएँ समझ सकेंगे।
- व्यवस्था की कमजोरियों को उजागर करने में नागार्जुन की भूमिका समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
नागार्जुन प्रगतिशील साहित्य के सम्मानित रचनाकार हैं। वामपन्थी लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच नागार्जुन जिस सहजता से आज स्वीकार कर लिए जाते हैं, विरोधी लेखकों की दुनिया से उतनी ही जल्दी बहिष्कृत कर दिए जाते हैं। इस दृष्टि से वे शमशेर और यहाँ तक कि मुक्तिबोध से भी अलग हैं।
नागार्जुन भारतीय साहित्य के सन्तों और भक्तों की परम्परा के कवि हैं। सन्तों की तरह न उन्होंने घर बसाया और न ही व्यवस्थित रूप से कहीं रहे। हमेशा इधर-उधर भ्रमण करते रहे। उन्होंने भाँति-भाँति के लोगों को विभिन्न परिस्थितियों में देखा। वैचारिक धरातल पर उन्हें मार्क्सवादी कहा जाता है। परन्तु मार्क्सवाद की पक्षधरता से पूर्व वे अन्य मतों में भी दीक्षित हुए थे। नागार्जुन की कविता का केन्द्र बिन्दु मनुष्य है। मनुष्य की नियति में परिवर्तन के वे आकांक्षी हैं। परिवर्तन का एक ही रास्ता है– क्रान्ति। हमारे देश में क्रान्ति कब होगी यह नागार्जुन की चिन्ता के मूल में है। इसके लिए वे जन संघर्ष को आवश्यक मानते हैं। जनता अपनी वास्तविक स्थिति को समझे और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करे, यह नागार्जुन की सतत चिन्ता है।
- क्रान्ति में अटूट आस्था के कवि
नागार्जुन की कविता के केन्द्र में जनक्रान्ति की ‘लौ’ जलती रहती है। इस ‘लौ’ को जलाए रखने के लिए कवि को बहुत संघर्ष करना पड़ा है। बड़ी मुश्किल से उन्होंने इस ‘लौ’ को बचाया होगा। तेलंगाना के किसान-आन्दोलन के समय कवि को लगने लगा था कि अब तो बस क्रान्ति होने ही वाली है। उसी समय के आसपास की मनोदशा को प्रकट करती हुई नागार्जुन की कविता है लाल भवानी ।
होशियार, कुछ देर नहीं है लाल सवेरा आने में,
लाल भवानी प्रकट हुई है सुना कि तेलंगाने में !
देश की आजादी पर भी इसी भाव-भूमि से कवि ने टिप्पणी की है–
कागज की आजादी मिलती,
ले लो दो-दो आने में।
ऐसे उत्साह और उमंग में जीते हुए कवि को उस समय झटका लगा जब तेलंगाना का किसान-आन्दोलन विफल हो गया। फिर उस युग में स्तालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ की राजनीति में आए बदलाव से सभी प्रगतिशील रचनाकारों के सामने आस्था के संकट के रूप में एक समस्या आई। पहले स्तालिन का गुणगान और मृत्यु के बाद उनकी उतनी ही निन्दा। दुनिया के कई बड़े बुद्धिजीवी भी इस झटके को नहीं झेल पाए और क्रान्तिकारी परम्परा से खुद को अलग कर लिया। उसके बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी विभाजन हुआ। बाद में तो और भी बड़े झटके प्रगतिशील कवियों एवं बुद्धिजीवियों को लगे। ज्ञान और विवेक की धज्जियाँ उड़ाने वाली कष्टप्रद घटनाएँ स्वयं मार्क्सवादी दुनिया में हुईं। सबसे बड़ा झटका इस समझ ने दिया कि अब हमारे जीवन में क्रान्ति नहीं होगी– बाद में कभी भले ही हो। फिर भी नागार्जुन के मन में क्रान्तिकारी आग की ‘लौ’ नहीं बुझी। वे हमेशा जनसंघर्ष के क्रान्तिकारी उभार के प्रति आशान्वित रहे। वे कम्युनिस्ट पार्टी के विघटन जैसी घटनाओं से टूटे नहीं। वे सिद्धान्त पढ़कर जीवन जीने वाले नहीं थे, उन्होंने जीवन को अपने ढंग से जिया, इसीलिए वे कम्युनिस्ट पार्टियों तक की आलोचना करते हुए कहते हैं–
प्रगतिशील पार्टियों के दलपति तक
हमसे ठकुर सुहाती चाहते हैं
अपनी नुक्ताचीनी सुनकर
वे अन्दर ही अन्दर बुरा मान जाते हैं
नागार्जुन की प्रतिबद्धता किसी पार्टी के प्रति नहीं, जनता के प्रति है। यही कारण है कि वे कम्युनिस्ट पार्टियों के विचलन की भी आलोचना करने में नहीं हिचकते। नागार्जुन की आस्था हमेशा जनसंघर्ष में और क्रान्ति के प्रति इसीलिए बनी रही क्योंकि वे जनता के प्रति प्रतिबद्ध थे–
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ प्रतिबद्ध हूँ –
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ…
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ…
अन्ध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए…
अपने आपको भी ‘व्यामोह’ से बारम्बार उबारने की खातिर…
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतदा प्रतिबद्ध हूँ !
- वैचारिक आवेग
यह सही है कि नागार्जुन कि कविताओं में वैचारिक सन्तुलन का अभाव दिखाई देता है। उनमें एक खास किस्म की ‘आवेगधर्मिता’ मिलती है, जो जनसंघर्ष की छोटी से छोटी घटना को भी अतिरंजित करके देखती है। दिनमान में सुरेश शर्मा ने सवाल उठाया – ‘एक मार्क्सवादी कवि को ऐसे आवेग से कहाँ तक नियंत्रित होना चाहिए?’ कुछ आलोचक इसे नागार्जुन का वैचारिक अन्तर्विरोध कहते हैं और कुछ इसे ‘पॉपुलरिज्म’ का एक रूप मानते हैं। इस सवाल को मुक्तिबोध व नागार्जुन की तुलना करते हुए भी उठाया जाता है। मुक्तिबोध अपने विचारों में संगत नैरन्तर्य बनाए रखते हैं, जबकि नागार्जुन का हर बार मोहभंग होता है। ऐसा क्यों है? क्या नागार्जुन का ‘ज्ञानात्मक आधार’ कमजोर है? या इसका कोई और कारण भी है? क्या सिर्फ नागार्जुन का ही मोहभंग हुआ है? क्या इस दौर के दूसरे वामपन्थी बुद्धिजीवी इससे अछूते रहे हैं?
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का बार-बार विभाजन विदित है। नागार्जुन का मोहभंग उनकी आवेगधर्मिता से ही सम्बद्ध नहीं है। इस मोहभंग के मूल में यह चिन्ताजनक स्थिति है कि भारत में अभी तक क्रान्ति नहीं हो पाई है और निकट भविष्य में इसके होने की सम्भावना भी कम ही है–
काश,क्रान्तियाँ उतनी आसानी से हुआ करतीं !
काश, क्रान्तियाँ उतनी सरलता से सम्पादित हो जातीं!
काश, क्रान्तियाँ योगी, ज्योतिषी या जादूगर के चमत्कार हुआ करतीं!
काश, क्रान्तियाँ ‘बैठे-ठाले सज्जनों’ के दिवा स्वप्नों-सी घटित हो जातीं!
ऐसी स्थिति में जनता से प्रेम करने वाले नागार्जुन जैसे कवियों में अस्थिरता, बेचैनी और उतावलापन ये तत्त्व आवेगधर्मिता के रूप में आ ही जाते हैं। जिन्हें क्रान्ति के होने न होने की चिन्ता नहीं है, उनमें यह आवेगधर्मिता आ ही नहीं पाती है। समाज की आम समझ से परिचालित बुद्धिजीवी को न इस संकट की अनुभूति होती, न तो उसका मानसिक सन्तुलन कभी बिगड़ता। ऐसे लोग मजे में हैं। नागार्जुन की चिन्ता है कि क्रान्ति कब होगी? कब होगी उनकी दिवाली? जहाँ जनसंघर्ष तीव्र है, वहाँ नागार्जुन मौजूद हैं। वे वहीं भावुक हो जाते हैं। भोजपुर शीर्षक कविता में कवि ने ऐसा ही एक भाव-विह्वल वक्तव्य दिया है–
यही धुआँ मैं ढूंढ़ रहा था
यही आग मैं खोज रहा था
यही गन्ध थी मुझे चाहिए
बारुदी छर्रे की खुशबू…
जहाँ शान्ति और व्यवस्था है, वहाँ जनकवि की रुचि नहीं है। जहाँ संघर्ष है, वहीं कवि है और वहीं कविता है। जब भी जनसंघर्ष बढ़ता है तो कवि को लगता है कि यह क्रान्ति की दिशा में आगे बढ़ने वाला कदम है, भले ही वह कदम छोटा ही क्यों न हो। तब नागार्जुन की कविता आवेगधर्मी हो जाती है और उनकी कविता में अतिरंजना पूर्ण वर्णन मिलने लगता है–
लेकिन क्यों कर बुझने दूँ मैं अपना वाजिब क्रोध
बच्चों के हत्यारों से पब्लिक लेगी प्रतिशोध।
इस पवित्र प्रतिशोध-यज्ञ में मैं हूँ सबके साथ…
क्यों गूँगा होऊँ, बतलाओ झुकने दूँ क्यों माथ?
भावावेग का सन्तुलन उन्हीं के यहाँ होता है, जो न किसी चीज पर मुग्ध होते, न क्रुद्ध। अतः उनकी भाषा भावावेग रहित होती है – सन्तुलित और निश्चित।वैसे नागार्जुन की कविता में व्यक्त विचारों की सैद्धान्तिक समीक्षा की जाए तो उनमें अनेक कमियाँ व भटकाव नजर आएँगे। मार्क्सवाद के सूत्रों की गणितीय नाप-जोख से उनमें अनेक असंगतियाँ और अन्तर्विरोध मिल सकते हैं, लेकिन मार्क्सवादी सिद्धान्त की अधिक जानकारी रखने वाले अनेक चिन्तकों से अधिक नागार्जुन ने मार्क्सवादी साहित्य का विकास किया है। उन्होंने जनता से जुड़े साहित्य का एक मानक निर्मित किया है।
फिर भी यह सही है कि उनकी रचनाओं में भावनाओं का आवेग प्रकट होता है। कोई घटना घटित हुई, कवि का मन उद्वेलित हुआ और उन्होंने इस उद्वेलन को कविता में व्यक्त कर दिया। इसे व्यक्त करके कवि भी उससे मुक्त हो गया और यहीं कविता भी समाप्त हो गई। कविता लिखने के बाद कवि के पास उस विशेष सन्दर्भ में कुछ नहीं बचता, वह सब कुछ निःशेष कर चुका होता है। जिस दिन एक बात ठीक लगी, कह दी, दूसरे दिन दूसरी बात ठीक लगी, वह कह दी। इस तरह उनकी कविता में बाह्य संघर्ष तो खूब है लेकिन आत्मसंघर्ष नहीं है। उनकी आत्मा पाक-साफ़ है, मलाल तो कुछ है ही नहीं। जब भी उनको अपने आप में गलती लगी, उसे तुरन्त सुधार लिया। गलती को स्वीकार करके उसे हटा दिया, फिर आत्मसंघर्ष की आवश्यकता ही क्या?
- आक्रोश की अभिव्यक्ति
नागार्जुन की कविताओं में ‘वाजिब क्रोध’ दिखाई देता है – वर्ग घृणा नहीं। घृणा और क्रोध की प्रकृति में अन्तर होता है। क्रोध जब आता है तो बहुत तेजी से आता है, फिर धीरे-धीरे उतरने लगता है, और एकदम उतर जाता है। फिर ठण्डे दिमाग से जब वह सोचता है तो पात्र की स्थिति, उसकी सीमा और सामर्थ्य को आँकता है और तब हँसकर उसे टाल देता है। कुछ-कुछ इस विश्वास के साथ कि तुमसे और उम्मीद ही क्या की जा सकती है ? क्रोध से उत्पन्न निराशा भी हास्य में बदल जाती है। इन्दिरा गाँधी पर लिखी गई नागार्जुन की अनेक कविताओं में इस प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। घृणा की प्रक्रिया इससे उल्टी होती है। ‘समझ’ के बाद क्रोध शान्त हो जाता है, पर घृणा समझ के साथ-साथ बढ़ती जाती है। घृणा करने वाला अपने दुश्मन को कभी भी कमजोर मानकर नहीं चलता है। ऐसा रचनाकार अपने दुश्मन का वर्णन हल्के हास्य से कभी नहीं करता है। अभिव्यक्ति पक्ष की सहजता भी यहाँ घृणा के असर को गहराने का काम करती है। घृणा में समझौते की सम्भावना नहीं रहती। क्रोध उदारतापूर्वक क्षमा भी कर सकता है, घृणा क्षमा करना नहीं जानती। घृणा विचारवान होती है, क्रोध भावुक होता है। घृणा ठण्डी लग सकती है, लेकिन स्थायी होती है। क्रोध तीक्ष्ण होता है लेकिन अस्थायी होता है। क्रोध प्रवाह में बह सकता है। क्रोधी को जब ‘ज्ञान’ होता है तो वह सन्त बन जाता है। सन्त समझ सकता है कि छोड़ो, किस-किस को तंग करते रहोगे, सब ठीक हो जाएँगे या कर दिए जाएँगे। वह संकट की घड़ियों में भी प्रसन्न रह सकता है। भय और आशंका कभी उसके पास नहीं फटकती। वह अपने विरोधी को नगण्य और तुच्छ समझता है, इसीलिए वह निश्चिन्त होता है। उसे अपने विरोधी से सतर्क रहने की आवश्यकता कभी महसूस नहीं होती। उसे किसी से मोह नहीं होता – यहाँ तक कि अपने यश से भी नहीं। उसमें ग्लानि और पश्चाताप जैसे भाव तो कभी आते ही नहीं। जो किया ठीक किया और जो करेंगे वह भी ठीक करेंगे। इसके विपरीत घृणा करने वाला आत्म-परिष्कार में लगा रहता है, बेचैन रहता है, शत्रु से आतंकित रहता है तथा शत्रु से लड़ने के लिए अपने आप से लड़ता रहता है। उसका आत्मसंघर्ष हमेशा चलता रहता है। हिन्दी में नागार्जुन की कविता में शासक वर्ग के प्रति क्रोध और मुक्तिबोध की कविता में घृणा के भाव प्रमुख रूप से मिलते हैं। अतः नागार्जुन में बाह्य संघर्ष अधिक है तथा मुक्तिबोध में आत्मसंघर्ष। नागार्जुन ने अनेक राजनेताओं – इन्दिरा गाँधी, चरण सिंह, राजनारायण, मोरारजी आदि पर क्रोध के भाव से भरी हुई कविताएँ लिखी हैं।
- व्यवस्था परिवर्तन और व्यंग्य
नागार्जुन अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में बुनियादी परिवर्तन की आवश्यकता पर बल देते हैं। इतने लम्बे काव्य-जीवन में उन्होंने हमेशा, हर पल इस आवश्यकता को गम्भीरता से महसूस किया है। व्यवस्था विरोधी मानस के पाठक को नागार्जुन का यह गुण आकर्षित करता है। फिर नागार्जुन ने अपनी कविता को यहाँ की सांस्कृतिक शब्दावली में व्यक्त किया है। उनकी कविता के पात्र पूरे सांस्कृतिक परिवेश में हमारे सामने आते हैं। ये पात्र चाहे शत्रु पक्ष के हों या जन पक्ष के। बन्दी युवकों के समर्थन में नागार्जुन ने कविता लिखी तो शीर्षक दिया कब होगी इनकी दिवाली । कब होगी इनकी क्रान्ति नहीं कहा। कवि ने दिवाली की प्रसन्नता से क्रान्ति के उल्लास की तुलना कर दी। रोजनबर्ग दम्पति पर कविता लिखते हुए उन्हें रोहिताश्व और हरिश्चन्द्र याद आए। इसी तरह ‘शब्दवेधी बाण चला रहे शिकारी’ ‘हिडिम्बा की हिचकी’, ‘सुरसा की जम्हाई’, ‘छींक मार कर करो न असगुन’ जैसी पंक्तियाँ जिस परिचित काव्यलोक का निर्माण करती हैं, उससे हिन्दी पाठक परायापन महसूस नहीं करता। उसे नागार्जुन की कविता में अपने देश की धड़कन, स्मृति, परम्परा, संस्कृति के दर्शन होते हैं।
नागार्जुन कभी निरर्थक सिद्धान्त चिन्तन में नहीं लगे रहे, बल्कि जीवन की जीवन्त धड़कन को उन्होंने अपनी कविता में लोकप्रिय ढंग से व्यक्त किया। इस लोकप्रिय पद्धति के कारण उन्होंने अपने समय के नेताओं की निन्दा करने के लिए गाँधीजी के आदर्शवाद का सहारा ले लिया। कांग्रेसी नेताओं के भोगवाद से तो गाँधीजी की त्याग भावना अच्छी ही थी। तीनों बन्दर बापू के कविता में नागार्जुन ने लिखा–
‘मुड़ रहे दुनिया जहान को तीनों बन्दर बापू के
चिढ़ा रहे हैं आसमान को, तीनों बन्दर बापू के
बदल-बदल कर चखें मलाई, तीनों बन्दर बापू के
गाँधी-छाप झूल डाले हैं तीनों बन्दर बापू के
असली है, सर्कस वाले हैं तीनों बन्दर बापू के’
इस कविता को पढ़कर लग सकता है कि इसमें गाँधीवादी दृष्टि से आज की राजनीति की आलोचना की गई है। लेकिन नागार्जुन गाँधीवादी नहीं हैं, उन्होंने तो इस लोकप्रिय भाव का उपयोग कर लिया।
नागार्जुन के व्यंग्य बड़े चुटीले होते हैं। उनका व्यंग्य व्यवस्था की विद्रूपता को उघाड़कर हमारे सामने रख देता है। नागार्जुन अपने प्रति जितने निर्मम हैं उतने ही दूसरों के प्रति। उनके व्यंग्य की जद में कांग्रेसी नेता हैं, ब्रिटेन की महारानी हैं, सत्ता के दलाल हैं, घूस की कमाई खाने वाले अफसर हैं। नामवर सिंह का मत है कि “कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक नहीं हुआ है।” नागार्जुन के काव्य में व्यक्तियों के व्यंग्य का चित्रण तो है ही, व्यवस्था पर भी करारा व्यंग्य है–
कच्ची हज़म करोगे
पक्की हज़म करोगे
बोफोर्स की दलाली
गुपचुप हजम करोगे।
नित राजघाट जाकर
बापू भजन करोगे।
बापू के बन्दरों की करामात देखिए –
सेठों का हित साध रहे हैं तीनों बन्दर बापू के
युग पर प्रवचन लाद रहे हैं तीनों बन्दर बापू के।
जिस जवाहरलाल नेहरू की वे लगातार आलोचना कर रहे हैं, उन्हीं नेहरू का पक्ष लेकर उन्होंने श्रीमती इन्दिरा गाँधी की आलोचना कर डाला–
इन्दु जी, इन्दु जी
क्या हुआ आपको
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को
नागार्जुन इस भोगवाद की आलोचना इसलिए करते हैं क्योंकि यह भोगवाद जनता के शोषण और अत्याचार पर कायम है। लोकप्रिय पद्धति से इस तरह की कविताएँ लिखने के कारण रचना और अन्ततः कवि की वैचारिक दृष्टि का सवाल भी उठ खड़ा होता है क्योंकि लोकप्रियता अन्ततः दर्शन के स्तर पर वर्तमान व्यवस्था का ही समर्थन करती है। इसका सार्थक उपयोग बहुत कठिन कार्य है। नागार्जुन ने जहाँ-जहाँ इस पद्धति का उपयोग किया है, वहाँ-वहाँ उनकी रचना का वैचारिक परिप्रेक्ष्य कमजोर पड़ गया है। कविता प्रभावशाली तो लगती है, इससे रचना की प्रेषणीयता तो बढ़ी है, लेकिन वैचारिक दृष्टि धुँधली पड़ गई है।
नागार्जुन की कविता में शत्रु पक्ष के प्रति एक ही भाव क्रोध नहीं है और भी अनेक भाव उनमें मिलते हैं। वे सबसे अधिक परिहास में आनन्द लेते हैं। शासक वर्ग के लोग जब परेशान होते हैं, जब उन्हें उलझन होती है, निर्णय लेने में कठिनाई महसूस होती है, जब उनका आत्मविश्वास डगमगाने लगता है, तब नागार्जुन को परिहास सूझता है। परेशान हैं कांग्रेसी, जनता वाले परेशान हैं, तीन दिन तीन रात जैसी अनेक कविताओं में यह परिहासमय आनन्द की अनुभूति उत्कृष्ट रूप में व्यक्त हुई है। इसी तरह अपनी एक कविता शासन की बन्दूक में उन्होंने लिखा –
जली ठूँठ पर बैठकर, गई कोकिला कूक।
बाल न बाँका कर सकी, शासन की बन्दूक।
यह शासन, जिसकी शक्ति बन्दूक की नली में है, उसके विरूद्ध यह कविता गुरिल्ला छेड़छाड़ का आनन्द देती है। अत्याचारी और शक्तिशाली मानी जाने वाली बन्दूक असहाय है। वह कोयल की कूक को दबा नहीं सकती। कोयल का वह कुछ नहीं बिगाड़ सकती। योगिराज अरविन्द को सम्बोधित करते हुए कवि ने लिखा–
हम प्राणी हैं, जले कपारों वाले
सूझ रहा है
इसीलिए परिहास
जय जय हे आजाद हिन्द के
पोप
हम विदग्ध, पर करना नहीं प्रकोप।
नागार्जुन को परिहास सूझ रहा है, फिर भी निवेदन कर रहे हैं कि तुम कोप न करना। नागार्जुन परिहास करते समय अपने कवि – व्यक्तित्व को बहुत ऊपर उठा लेते हैं, इतना ऊपर कि परिहास पीड़ित व्यक्ति यदि ‘कोप’ भी करें तो भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
नागार्जुन में सम्बन्ध-हीन परिहास वृत्ति नहीं मिलती। वे किसी का (भले ही वह शत्रु हो) सिर्फ मजाक नहीं उड़ाते, बल्कि कहीं गहरे में वे किसी पक्ष से जुड़े हुए होते हैं, उससे सम्बन्ध महसूस करते हैं। वे जनता का पक्ष लेकर जनविरोधों, व्यक्तियों, ताकतों का मजाक उड़ाते हैं। इसलिए नागार्जुन जहाँ दुःखद घटनाओं और बातों को हास्य में रूपान्तरित कर अभिव्यक्त करते हैं, वहाँ वे हँसते नहीं, जनता की पीड़ा को अनुभव कर सोचते हैं। ऐसा हास्य तनावमुक्त नहीं होता। ऐसी कविताएँ पढ़ते हुए पाठक भी हँसते नहीं, सोचते हैं। फिर प्रश्न उठता है कि नागार्जुन हास्य का, परिहास का इस्तेमाल करते ही क्यों हैं? इसका कारण यह है कि परिहास मन को हल्का कर देता है। डरावनी और दुःखद घटनाएँ मन को आतंकित न करें, डराएँ नहीं, इसलिए कवि हास्य द्वारा उनके प्रभाव को हल्का कर देते हैं। वैसे तो यह आतंककारी सत्ता स्वयं चाहती है कि लोग उनसे डरें। वह जनता को भयभीत देखना चाहती है। जनता के भय पर ही उनकी सत्ता कायम है। नागार्जुन अपनी रचना में सत्ता के इस भय को हटा देते हैं, उसे हास्यास्पद बना देते हैं। सत्ता जिस बात को गम्भीरता से ले रही है, कवि उसे अगम्भीरता से ले रहे हैं। इसलिए नागार्जुन का पाठक डरता नहीं, आतंकित नहीं होता, मुक्त और सहज हो जाता है। किसी भी जन संघर्ष की सफलता के लिए आवश्यक है कि जनता समझे कि शत्रु पक्ष अदना है, वह शक्तिशाली प्रतीत होते हुए भी असमर्थ, कमजोर एवं लाचार होता जा रहा है। हम उसकी तुलना में संगठित एवं मजबूत हैं। तभी जनता का मनोबल बना रहेगा। नागार्जुन जन-कवि इसीलिए है कि वे जनता के इस मनोबल को बनाए रखते हैं। जनता के दुःख-दर्द के साथ वे गहरी सम्बन्ध – भावना महसूस करते हैं। कहा जा सकता है कि नागार्जुन सिर्फ क्रोध नहीं करते, दुलार भी करते हैं। जितना क्रोध करते हैं, उससे कम दुलार नहीं करते, बल्कि इस दुलार के कारण ही क्रोध करते हैं। इस दुलार की अभिव्यक्ति नेवला कविता में हुई है,‘बन्धु डॉ. जगन्नाथ में’ हुई है या फिर कब होगी इनकी दिवाली जैसी कविता में हुई है। परन्तु सबसे अधिक सशक्त अभिव्यक्ति हुई है चन्दू मैंने सपना देखा में।
चन्दू, मैंने सपना देखा, कल परसों ही छूट रहे हो
चन्दू, मैंने सपना देखा, खूब पतंगें लूट रहे हो
चन्दू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलण्डर
चन्दू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ बाहर
नागार्जुन ने अपनी कविताओं में ‘आगामी युगों के मुक्ति सैनिक’ की तस्वीर भी दी है। हरिजन गाथा में अछूत शिशु के जन्म पर आशीर्वाद देते हुए बाबा नागार्जुन कहते हैं–
अरे देखना इसके डर से
थर-थर काँपेंगे हत्यारे
चोर-उचक्के, गुंडे-डाकू
सभी फिरेंगें मारे-मारे
नागार्जुन की कविता में जनता के जीवन के प्रति जो प्रेम भाव है, जो सम्बन्ध-भावना वे महसूस करते हैं, जनता के सुख-दुःख से जो लगाव महसूस करते हैं, उसके कारण नागार्जुन ‘नागार्जुन’ हैं। विरोध, विद्रोह और क्रान्ति के गीत गाने वाले कवि तो और भी मिल जाएँगे, लेकिन जनता से प्रेम करने वाले नागार्जुन जैसे कवि बिरले ही कभी होते हैं।
- निष्कर्ष
नागार्जुन एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने आम जनता के दुःख-दर्द और उसके संघर्ष को अपनी कविता का विषय बनाया है। उनकी प्रतिबद्धता आम जनता के प्रति है। जहाँ कहीं भी वे जनता की गाढ़ी कमाई का दुरुपयोग देखते हैं, क्रुद्ध हो उठते हैं और उनकी लेखनी ऐसे शोषकों के खिलाफ चल पड़ती है। नागार्जुन ने कविता के लिए विशेष प्रकार का ढाँचा तैयार किया है और आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है। उनकी कविताओं में प्रकृति, प्रेम और सौन्दर्य का भी चित्रण मिलता है पर मूलतः वे जनसंघर्ष की अभिव्यक्ति करने वाले कवि हैं।
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- युगधारा,नागार्जुन, यात्री प्रकाशन, दिल्ली
- सतरंगे पंखों वाली,नागार्जुन, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
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- नागार्जुन रचना संचयन,चयन और संपादन राजेश जोशी,साहित्य अकादमी
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- बाबा नागार्जुन,संपादक नरेन्द्र कोहली, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली
- जनकवि नागार्जुन, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार,नई दिल्ली
- आधुनिक कविता युग और संदर्भ, शिवकुमार मिश्र, स्वराज प्रकाशन दिल्ली
- कविता के नए प्रतिमान,नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन
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