10 शमशेर की कविताओं का पाठ विश्लेषण- बैल
डॉ. ओमप्रकाश सिंह and डॉ. विवेकानंद उपाध्याय
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- शमशेर का कवि कर्म
- बैल का पाठ-विश्लेषण
- बैल कविता की काव्य भाषा और बिम्ब विधान
- निष्कर्ष
1. पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप- · बैल कविता का रूप और उसकी अन्तर्वस्तु को समझ सकेंगे। ·बैल कविता के काव्य वैशिष्ट्य और उपलब्धियों से परिचित हो सकेंगे। · शमशेर की काव्य-भाषा और बिम्ब विधान को समझ सकेंगे। · शमशेर की काव्यानुभूति की बुनावट, विचारधारा और काव्य संवेदना की जानकारी ले सकेंगे।
2. प्रस्तावना
आधुनिक हिन्दी कविता में शमशेर का एक विशिष्ट स्थान हैं। उनका जन्म सन् 1911 में देहरादून में हुआ था। सन् 1933 में उन्होंने बी.ए पास किया। सन् 1935-36 में वे दिल्ली में वकील बन्धुओं से कला विद्यालय में पेण्टिंग सीखते रहे। सन् 1937 में हरिवंशराय बच्चन की प्रेरणा से इलाहाबाद आए। सन् 1939 में ‘रूपाभ’ पत्र में कार्यालय सहायक के रूप में कार्य किया। सन् 1940 में वे बनारस आ गए और त्रिलोचन के साथ ‘कहानी’ पत्रिका में सम्पादन कार्य किया। सन् 1959 में पहला उनका काव्य संग्रह कुछ कविताएँ और सन् 1961 में दूसरा काव्यसंग्रह कुछ और कविताएँ छपा। सन् 1962 में सारनाथ वास के दौरान उनका परिचय अमरीकी कवि एलेन गिन्सबर्ग से हुआ। सन् 1964 में शमशेर ने मुक्तिबोध के काव्यसंग्रह चाँद का मुँह टेढ़ा है की भूमिका लिखी। सन् 1965 से 1976 तक दिल्ली वि.वि के उर्दू विभाग में उन्होंने हिन्दी उर्दू कोश प्रोजेक्ट में कम्पाइलर का काम किया। सन् 1975 ई० में तीसरा काव्य संग्रह चुका भी हूँ नहीं मैं प्रकाशित हुआ। सन् 1977 में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद, सन् 1978 में साहित्य अकादमी और सन् 1977 में दिल्ली साहित्य परिषद ने उन्हें सम्मानित किया।
3. शमशेर का कवि कर्म
शमशेर अपनी कविताओं में शब्दों का सबसे किफायत से उपयोग करने वाले कवि हैं। छायावाद, प्रगतिवाद, और प्रयोगवाद की रचनाशीलता को समेटे हुए उनकी कविताएँ छायावादी रहस्यमयता, प्रगतिशीलता और विविध प्रकार की प्रयोगधर्मिता के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। लेकिन, ये कविताएँ छायावादी अलंकारिकता, प्रगतिवादी स्थूल वर्णनात्मकता और प्रयोगवादी शब्द कौतुक से दूर हैं। शमशेर की कविताएँ अर्थ का संकेत भर करती हैं। कविताओं में बिम्ब ग्रहण अपेक्षित होता है। लेकिन केवल बिम्बों में ही कविता हो तो अर्थ बोध में बाधा पैदा होती है। शमशेर घोषित रूप से वामपन्थी थे, लेकिन उनकी कविताएँ भारतीय परम्परा के वैदिक-पौराणिक प्रतीकों और बिम्बों से सजी हुई हैं। सूर्य भारतीय साहित्य का आदि नायक है और वह शमशेर के यहाँ प्रमुखता से उपस्थित है। उषा के सौन्दर्य पर वैदिक ऋषि से लेकर जयशंकर प्रसाद तक सम्मोहित थे। शमशेर भी उस सौन्दर्य के जादू से अभिभूत दिखाई देते हैं। शमशेर की कविता उषा के उसी सौन्दर्य का प्रमाण देती है, जब उपमानों के मैले हो जाने और देवताओं के इन प्रतीकों से कूच कर जाने की बात हो रही थी। उनकी मान्यता यह भी है– ‘‘सुन्दरता का अवतार हमारे सामने पल-छिन होता रहता है। अब हम पर है कि हम अपने सामने और चारों ओर की इस अनन्त और अपार लीला को कितना अपने अन्दर घुला सकते हैं।’’ उपर्यु्क्त वक्तव्य शमशेर की काव्य दृष्टि का पता देता है। लीला भारतीय परम्परा की सनातनता के स्वभाव को व्यंजित करनेवाला केन्द्रीय शब्द है। लीला में रहस्यमयता और सामान्यजीवन अनुभव की तार्किकता का एक तरह से स्थगन होता है। यही स्थिति सुर्रियलिस्ट कला में भी होती है। चिर परिचित चीजों को अपनी गिरफ्त में लेकर ही चिर- पुरातन लीला को नूतन बनाकर प्रस्तुत किया जाता है।
4. बैल कविता का पाठ विश्लेषण
यह कविता एक आत्म कथ्य है। कविता का विस्तार मैं से लेकर सारी दुनिया तक फैला हुआ है। यह कविता न तो आत्म वेदना की कविता है और न ही आत्म निवेदन है। यह अनुभूति के विस्तार और बेबसी की सर्वव्यापी अनुभूति की कविता है। निराला ने भिक्षुक और तोड़ती पत्थर कविता में वह सर्वनाम का प्रयोग किया है। ‘वह’ सर्वनाम अन्य पुरुष वाचक है, जबकि यह कविता निज वाचक सर्वनाम से शुरू होकर बैल की सर्वव्यापी पुकार में खत्म होती है। यहाँ बहिर्मुखी सामाजिक दृष्टि प्रायः अन्तर्मुखी ही है और बैल का आत्मसत्य एक सर्वव्यापी भाव में बदल जाता है। शमशेर की काव्य संरचना के रहस्य को अनावृत्त करते हुए मुक्तिबोध ने एक पते की बात कही है, जो बैल कविता पर लागू होती है। वे कहते हैं, “संवेदन की तीव्रता बताने के लिए, वे बहुत बार नाटकीय वितान और इमेजेज प्रस्तुत करते हैं।” निःसन्देह बैल कविता नाटकीय वितान में ही निर्मित है। ऐसा लगता है कि सच में कोई बैल एक भारी बोझ लाद कर लाया हो और उसी थकी हालत में अपनी बात कह रहा हो। कविता की पहली पंक्ति है- मैं वह गुट्ठल काली कड़ी कूब वाला बैल हूँ। पहली पंक्ति में कवि अपने को बैल बताता है, लेकिन साथ ही अपना भूगोल भी विशेषणों की मदद से स्पष्ट कर देता है। यह नायक लघु मानव की तर्ज पर गढ़ा गया है। इसलिए गुट्ठल काली कड़ी कूब वाला है, न कि छायावादी धीरोद्दात नायक जैसा, या मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस जैसा। कामायनी के मनु और मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस से इसका अन्तर पहली पंक्ति में ही स्पष्ट है। पहला चित्र श्रम करते बैल का चित्र है। इस बैल को मिलता क्या है, दो वक्त का बन्धा चारा। चारा भी पेट भर और मन भर नहीं बल्कि बँधा हुआ। उसके लिए बैल को चुपचाप और धीरे-धीरे, क्या- क्या और कैसे- कैसे करना पड़ता है? अकेले माल लाद कर खींचना पड़ता है। इस प्रक्रिया में होता यह है कि उसकी आँखें बाहर निकल आती हैं, त्यौरी चढ़ जाती है। कन्धा, सीना, छाती आगे झुक कर जोर लगाने से रानें भर आती हैं। वह पसीने में डूब जाता है और नथुने फूल जाते हैं, साथ ही फूल जाती हैं। साँस और दम भी। भार ढोना कोई रोमाण्टिक काम नहीं, बल्कि प्राणलेवा काम है।
आँखें बाहर को निकली हुईं,
त्यौरी चढ़ी हुई, काँधे ज़ोर लगाते हुए
सीना और छाती आगे को झुककर, ज़ोर लगाते हुए
रानें भरी हुईं गर्म पसीने से तर, मगर
ज़ोर लगाती हुईं,
नथुने फूले हुए, साँस और दम
अपनी ज़ोर आजमाई में लगे हुए…
नथुने के साथ साँस और दम का फूल जाना, इसी प्राणलेश स्थिति का संकेत करता है। यह है श्रम करनेवाले का अनुभाव और संचारी भाव। सम्भवतः श्रम करनेवाले का इतना खरा जीवन्त चित्र श्रमिकों के लिए प्रतिबद्ध किसी प्रगतिवादी कवि ने भी नहीं प्रस्तुत किया है। बैल श्रम का मूर्तिमान रूप बन गया है। सवाल है किस चीज के लिए? दो वक्त के बँधे चारे के लिए। वह चारा किसी के लिए चारा हो सकता है, लेकिन उस खाने वाले के लिए वह दुनिया की सबसे मीठी नमकीन और प्यारी चीज है। कठोर श्रम के बाद स्वादिष्ट भोजन की तलाश नहीं होती। जो कुछ मिलता है, वही परम स्वाद से युक्त होता है।
अपनी शाम के, अपनी सुबह के
बँधे हुए
चारे के लिए
उससे मीठी उससे नमकीन और प्यारी
चीज़
दुनिया में और कोई है क्या?
कविता में दूसरा चित्र रात्रि का उभरता है। यहाँ श्रम के बाद विश्रान्ति की स्थिति है।
… रात की ठहरी हुई, बहुत गहराई से बोलती हुई
चुपचाप बोलती हुई दम साधे आँखे मीचे
सबको देखती सी हुई शान्ति के लिए
गम्भीर, प्राणों में उठती हुई शान्ति…
आकाश के तारे, कुत्तों का पागल शोर
जो इस शान्ति को बढ़ाता ही है
पहरुओं की ठक्-ठक्, सीटियाँ…
और कहीं दूर किसी गाय के गले की घण्टियाँ
कटड़ों और बच्चों की
हवा में
मासूम कच्ची सी खुशबू
शान्ति कैसी –ठहरी हुई बहुत गहराई से चुपचाप बोलती हुई, दम साधे सबको देखती हुई और प्राणों में उठती हुई शान्ति। अपूर्णकालिक विशेषण कृदन्त के द्वारा रात्रि की शान्ति के भाव को व्यंजित करने के साथ उस शान्ति को बढ़ाने वाले तत्त्व हैं- आकाश के तारे, कुत्तों का पागल शोर (ध्यान रखें पागल कुत्तों का शोर नहीं है ये), साथ ही पहरेदारों की सीटियाँ, गाय के गले की घण्टियाँ, भैंस के बच्चों और मनुष्यों के बच्चों की मासूम खुशबू, लेकिन, कच्ची-सी और घोड़ों का टापें मारना, इस शान्ति को और गहरा और स्थायी बना देते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि शान्ति का यह वातावरण निर्मित किससे हुआ है, ध्वनि विम्बों से। यहाँ तक कि रात भी बोल रही है। ध्वनि बिम्बों से शान्ति का सृजन करना शमशेर की रचनाशीलता की अद्वितीयता कहा जा सकता है। शान्ति का अर्थ उनके लिए खामोशी नहीं है और सम्भवतः किसी के लिए नहीं है। अशान्ति खामोशी में भी बेचैन कर सकती है और शान्ति शोर में भी राहत दे सकती है।
मालिक के खर्राटे, मालकिन की बच्चों को थपकियाँ
किसी बच्चे का रात में रो उठना
यह सब रात में कितना प्यारा लगता है’!
बैल को मालिक के खर्राटे, मालकिन की बच्चों को थपकियाँ और किसी बच्चे का रो पड़ना अच्छा लगता है। यह बोध महत्त्वपूर्ण है शमशेर की काव्यसंवेदना की दृष्टि से, क्योंकि कठोर श्रम के बावजूद उसके हृदय का स्रोत सूखा नहीं है। उसके भीतर मालिक और उसके बच्चों के प्रति घृणा का भाव नहीं है। यही वह वैष्णव निरीहता है, जिसकी ओर विजयदेवनारायण साही ने इशारा करते हुए कहा है, “एक तरह की वैष्णव भावना, अर्पित निरीहता शमशेर की कविता में बराबर मौजूद है।” यह शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट की विशेषता है।
मुझे नहीं मालूम यह मेरे सपने का हिस्सा होता है
एक मीठी जागती नीन्द का, या जागरण का
कोई अन्तर नहीं।
कविता का तीसरा खण्ड बैल और उसके मालिक के मौन संवाद पर केन्द्रित है। उसे मालिक पर गुस्सा आता है, लेकिन समस्या यह है कि उसका मालिक उसे अच्छी तरह जानता है और मालिक बैल से उसकी मूक भाषा में अच्छी तरह बात करता है।
मगर मुश्किल यह है
कि मालिक मेरी नस नस को जानता और समझता है
वह मुझसे मेरी मूक भाषा में अच्छी तरह
बात करता है
मुझे वह इस तरह निचोड़ता है जैसे
घानी में एक-एक बीज कसकर दबाकर
पेरा जाता है…
उपमा की दो विशिष्टताएँ होती हैं- पहली कि उपमेय और उपमान में समानता होनी चाहिए दूसरी यह कि उसमें नवीनता होनी चाहिए। इसलिए मालिक बैल से कुछ इस तरह काम लेता है जैसे कोल्हू में सरसों का एक एक दाना कस के पेर दिया जाता है। शमशेर की उपर्युक्त उपमा दोनों ही प्रतिमानो पर खरी है। शमशेर ने नागार्जुन की तरह अन्न को देव का दर्जा दिया है। अन्न उसी के लिए देव हो सकता है, जिसके जीवन में उसका अभाव हो और वह उसके लिए अलभ्य वस्तु हो। चारे के लिए अन्न देव पद का प्रयोग बैल को भारतीय मनुष्य बना देता है। वह अन्न देव कौन है? उसका नाम क्या है? इसका उत्तर है- चारा।
यह एक मोटी और स्पष्ट बात है,
गीत नहीं
कि वह चारा है और मैं बेचारा
यह एक मोटी और स्पष्ट बात है। मोटी बात वह बात होती है जिसको समझने के लिए किसी अतिरिक्त बुद्धि या बौद्धिक मशक्कत की आवश्यकता नहीं होती। जिसे आम और खास सब समझ जाते हैं। साथ ही वह स्पष्ट भी होती है। लेकिन इसके गीत होने की सम्भावना का सीधा नकार। गीत में लय और तुक बनाए रखने के लिए बन्दिश कई बार बात को खा जाती है, साथ ही गाने या कहने का अन्दाज भी, अर्थ में अन्तर उपस्थित कर देता है और गीत में माधुर्य और संगीत का तत्व अनिवार्य होता है। लेकिन खुद गीत जीवन के लिए अनिवार्य नहीं होता। मोटी और स्पष्ट बात इन सभी सम्भावनाओं को खारिज करती है। कविता का चौथा खण्ड है चारा और बेचारा होने की विसंगति और सारे संसार में बैल की नियति की व्यापकता की अनुभूति के बारे में।
मेरा मालिक भी शायद एक अन्य दो टांगो पर खड़ा
और मुँह वाला कपड़ा पहनने वाला
बैल है : एक गन्दा-सा नाटा-सा बैल
कमज़ोर मगर बहुत चालाक और गीत गुनगुनाने वाला
बैल मगर… लगते हैं वो गीत मुझे अच्छे
कभी कभी मैं अपने इसी श्रम में
कहाँ खो जाता हूँ, कुछ पता नहीं चलता
यह सारी दुनिया मुझे बैल मालूम होती है
बॉ ! बॉ ! बॉ !
बैल को अपना मालिक भी एक बैल ही लगता है। दो टांगों पर खड़ा, मुँह वाला कपड़ा पहनने वाला, लेकिन गन्दा, नाटा कमजोर मगर बहुत चालाक और गीत गुनगुनाने वाला। बैल को उसके मालिक के गीत अच्छे लगते हैं, वह खो भी जाता है, लेकिन ये क्या यह सारी दुनिया ही उसे बैल मालूम होती है। और कविता का अन्त बैलकी पुकार से होती है। बाँऽऽऽऽऽ बैल की यह पुकार मौन मूक श्रम की पुकार है, जो प्रार्थनाओं की तरह अनसुनी और अनुत्तरित रह गई है।
बैलभारतीय कृषि संस्कृति की संघर्ष और तप के साथ वैष्णवता का प्रतीक है। प्रेमचन्द की मशहूर कहानी ‘दो बैलों की कथा’ ऐसा ही एक आख्यान है। शमशेर की बैल कविता स्थूल वर्णनात्मकता की बजाय कुछ संकेत करती है। शमशेर मानते हैं –‘‘काव्य-कला समेत जीवन के सारे व्यापार एक लीला ही हैं—और यह लीला मनुष्य के सामाजिक जीवन के उत्कर्ष के लिए निरन्तर संघर्ष की ही लीला है’’ यह लीला भाव ही जीवन की पारम्परिक भारतीय समझ है। शमशेर की काव्यानुभूति और जीवनानुभूति एक हीं है। इसलिए वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, “मेरी कविता के निर्माण में आसपास की साधारण वस्तु भी जब सामने आती है, तो मैं उस वस्तु को अपने रंग में लपेट कर अपनी कविता में शामिल कर लेता हूँ।” आसपास की साधारण वस्तुओं को हमारे सामने इस प्रकार रखते हैं कि वे हमारे सामने एक नए रूप में आती है और प्रायः नई लगने लगती है।
रूप, अन्तर्वस्तु तथा काव्य-भाषा के प्रश्न को हर बड़ा कवि अपने स्तर पर हल करता है। अज्ञेय ने सुरुचि सम्पन्नता और सुनार जैसी कारीगरी को प्राथमिकता दी तो मुक्तिबोध ने ओज और पौरुष तथा प्रखरता जैसे गुणों को महत्त्व दिया। लेकिन शमशेर ने सबसे ज्यादा महत्त्व गोपन को दिया। वे अपने प्रयास में इस हद तक सफल हुए कि आज भी उनकी कविताएँ पाठकों और आलोचकों के लिए चुनौती बनी हुई हैं और इतने लम्बे समय के बाद भी न तो पुरानी पड़ीं न ही अर्थ से रिक्त हुईं। उनकी बिम्बधर्मिता का मूल है चित्रकला के प्रति उनकी रुचि और समर्पण। मुक्तिबोध के शब्दों में, “शमशेर की मूलवृत्ति एक इम्प्रेशनिस्टिक चित्रकार की है। इम्प्रेशनिस्टिक चित्रकार अपने चित्र में केवल उन अंशों को स्थान देगा जो उसके संवेदना ज्ञान की दृष्टि से प्रभावपूर्ण संकेतशक्ति रखते हैं। केवल कुछ ही ब्रशेज में वह अपना काम करके, दृश्य के शेष अंशों को दर्शक की कल्पना के भरोसे छोड़ देता है।” पाठकों की कल्पना के लिए स्थान ज्यादा छोड़ने का परिणाम यह होता है कि कविताएँ कई बार दुरूह लगने लगती है। 5. बैल कविता की काव्य-भाषा और बिम्ब विधान शमशेर की काव्य भाषा बोलचाल के मुहावरे के नजदीक है। उनकी आरम्भिक कविताएँ अवश्य तत्सम शब्दावली वाली हैं, लेकिन आगे चलकर वे कविताएँ हिन्दी उर्दू के दोआब होने का रा्स्ता पकड़कर आगे बढ़ती हैं। उनके प्रिय कवि निराला ने भी छायावाद के दायरे से बाहर निकलने में वही रास्ता अख्तियार किया था। उनके समकालीन नागार्जुन और त्रिलोचन ने लोकभाषा का मार्ग अपनाया। शमशेर काव्य-भाषा में मौन और अन्तराल देने वाले कवि हैं। हालाँकि निराला मौन का उपयोग कर चुके थे। यह कविता भी मूक भाषा की शक्ति का बयान करती है जिसमें बैल का मालिक बैल से हाड़ तोड़ मेहनत करवाने की अदा में बात करता है। विजयदेव नारायण साही ने सही कहा है “काव्यानुभूति की इस बनावट का शिल्प के स्तर पर एक नतीजा यह निकलता है कि शब्द जो जड़ थे, सहसा पोले पड़ने लगते हैं। शब्द की जड़ – अवस्था वह है, जो उनको रूढ़ अर्थों के पाश में बाँधती है। शब्द और अर्थ का सम्बन्ध एक अचल स्थिरता की तरह परिभाषाबद्ध हो जाता है।” बैल कविता में शब्द और अर्थ के नए साहचर्य के द्वारा ही शान्ति और रात्रि का बिम्ब प्रस्तुत किया गया है। ठहरी हुई, चुपचाप बोलती हुई दम साधे आँखें मींचे सबको देखती हुई शान्ति, प्राणों में उठती हुई शान्ति। मीठी जागती नीन्द। एक ही साथ जागना और सोना, दोनों। जोर लगाते हुए काँधे, जोर लगाती हुई रानें। ये तो हुए अपूर्णकालिक या वर्तमानकालिक कृदन्त विशेषणों के नवीन प्रयोग जो शब्द कौतुक कतई नहीं कहे जा सकते। इसी तरह पूर्णकालिक कृदन्त विशेषणों का प्रयोग भी देखने लायक है। लदा हुआ माल, आँखें बाहर को निकली हुईं, त्यौरी चढ़ी हुई। विजयदेव नारायण साही कहते हैं, “जब एक बार शब्दों को जकड़े हुए अर्थों के पाश टूट जाते हैं, तब उनकी इस नई मुक्ति की अवस्था में, उन्हें नए- नए रिश्तों में जोड़ना सम्भव होने लगता है।……. ऐसी अवस्था में ऐसे शब्द आने लगते हैं, जिनके साहचर्य की कल्पना पहले नहीं की गई थी।।” आम तौर पर शमशेर की कविता में शब्दों का लोप दिखाई देता है। इसके कारण उनकी कविता में दुरूहता दिखाई देती है। लेकिन बैल कविता प्रायः खड़ी बोली की वाक्य रचना के पदक्रम के सामान्य विन्यास के अनुरूप लिखी गई है। या तो वाक्य सामान्य वर्तमान काल के हैं, या अनिश्चय बोधक वर्तमान काल के। क्रिया के धातुरूप में ता जोड़कर और सहायक क्रियाओं के साथ आए अनिश्चय बोधक वर्तमानकाल के वाक्यों की कविता में भरमार है। ऐसा लगता है कि सब कुछ दृश्य के रूप में अभी घट रहा हो और कभी भी इसके दुहराव की सम्भावना हो। सबसे बड़ी बात तो यह है कि शमशेर यहाँ अपनी कविता में बातचीत के मुहावरे को कसकर पकड़े दिखाई देते हैं। छायावाद के दौर में हिन्दी कविता में क्रियाओं पर पर्याप्त ध्यान न देने के कारण हिन्दी कविता की लोकप्रियता और शक्ति दोनों पर असर पड़ा। निराला उस दौर के अकले कवि थे, जिन्होंने क्रिया और सहायक क्रिया के महत्त्व को गहराई से समझा था। शमशेर के प्रिय कवि निराला रहे हैं। उपर्युक्त कविता में कुल पाँच प्रश्न भी कवि ने खड़े किए हैं। उनमें से दूसरे नम्बर का प्रश्न हाँ या ना की शक्ल में है और बाकी चार प्रश्न क्यों और किसके लिए की मुद्रा में हैं। पहला प्रश्न है कि बैल की जी तोड़ मेहनत किसके लिए है और क्यों है। उत्तर है दो वक्त के बँधे चारे के लिए। दूसरा प्रश्न उस चारे के स्वाद की विकल्पहीनता के लिए स्वयं से ही पूछा गया है, न उत्तर की प्रत्याशा में। लेकिन जब जोर आजमाइश का बोध निचोड़े जाने और बीज की तरह कसकर पेरे जाने के रूप में प्रकट होता है, तब वही प्रश्न एक भिन्न शब्दावली में सामने आता है कि यह तर्पण किसके लिए? आगे के बाकी दोनों प्रश्न उत्तर के विकल्प के रूप में हैं। सुबह के अन्न देव के लिए? शाम के अन्न देव के लिए? जिस को दुनिया चारे के नाम से जानती है। लेकिन यह सिर्फ अन्न या कहें कि चारे का प्रश्न नहीं है। इसका सम्बन्ध बेचारगी से भी है जो बैल के साथ अनिवार्य रूप से सम्बद्ध है। यह स्थिति असहायता, विवशता और निरीहता को भी व्यंजित करती है। मुक्तिबोध ने शमशेर के बिम्ब विधान की तारीफ करते हुए लिखा है,“शमशेर मनोवैज्ञानिक यथार्थवादी कवि होते हुए भी आत्मपरक हैं।” “वे न केवल रूप, स्पर्श, रस, गन्ध की संवेदनाएँ पहचानते हैं- यह मामूली बात है,- वरन् वे संवेदनाओं के रूप-स्पर्श रस-गन्ध का चित्रण करते हैं। वास्तविक संवेदनाओं का चित्रण हिन्दी में बहुत ही कम हुआ है। एक भावप्रसंग में संवेदनाओं के प्रभावकारी गुणों के चित्र प्रस्तु करना शमशेर का ही काम है। शमशेर का संवेदन ज्ञान और संवेदन चित्रण अद्वितीय है।” शमशेर के यहाँ चाक्षुष बिम्बों की बहुलता है। उनके चित्रकार होने के कारण है। इस कविता का पहला खण्ड चाक्षुष बिम्बों से भरा है। शान्ति और रात्रि का वर्णन श्रव्य बिम्बों से निर्मित है। ध्वनि को शब्दों में बाँधने की कला देखने लायक है। गन्ध बिम्ब कम हैं। लेकिन बच्चों की मासूम, कच्ची-सी खुशबू जैसा गन्ध बिम्ब उनकी सृजनशीलता का पता और सबूत देता है। शमशेर खुद को हिन्दी- उर्दू का दोआब मानते थे। छायावाद के कवियों में निराला ने छायावादी काव्यभाषा से आगे जाने का रास्ता बोलचाल की भाषा और उर्दू के मार्ग पर खोजने की कोशिश की थी। शमशेर ने उस कोशिश को एक सही अंजाम तक पहुँचाया। उनकी कविता में एक ही साथ संस्कृत के साथ अरबी – फारसी की शब्दावली भी दिखाई देती है। खड़ी बोली का ठेठ अन्दाज और उसमें संस्कृत और उर्दूपन की छौंक शमशेर की शमशेरियत की विशेष अदा है। गुट्ठल, कूब पहरुआ, कटड़ा जैसे खड़ी बोली के खालिस शब्दों के बीच पुट्ठों को श्लथ कर देना या नीन्द का कर्ब बन जाना जैसे प्रयोग शमशेर को भारतीय परम्परा का कवि बना देते हैं।
‘वाम वाम वाम दिशा समय साम्यवादी’ लिखने वाले शमशेर को ऊपर से देखकर लगता है कि वे कोई घोर साम्यवादी कवि होंगे और उनकी कविताएँ भी ऐसी ही होंगी। लेकिन स्थिति इसके ठीक विपरीत है। इस हकीकत के बारे में विजयदेव नारायण साही ने सही ही लिखा है, “वक्तव्य उन्होंने सारे प्रगतिवाद के पक्ष में दिए, कविताएँ उन्होंने बराबर वे लिखीं जो प्रगतिवाद की कसौटी पर खरी न उतरतीं।” बैल कविता इसी का उदाहरण है। अगर कोई प्रगतिवादी कवि यह कविता लिखता तो पेर कर निचोड़ देने वाले मालिक और उसके बच्चों को वह अपना स्वाभाविक वर्ग शत्रु समझता। वह उसके खिलाफ संघर्ष करता, लेकिन सर्वहारा वर्ग का जीवन्त प्रतीक समझेजाने की सम्भावना रखनेवाले बैल को मालिक के खर्राटे और उसके बच्चे प्यारे लगते हैं। इससे भी बड़ी बात कि अन्त में उसका मालिक उसे एक आदमीनुमा बैल लगने लगता है और सारी दुनिया ही अन्ततः उसे बैल लगने लगती है। और कविता के अन्त में बैल अपनी भाषा में पुकार उठता है ताकि उसकी बात सारे बैल सुन और समझ सकें। छायावादी महामानव की तरह चित्रित यह नायक बैल न तो महानता का निर्वाह करता है, न ही संघर्ष का बिगुल फूँकता है बल्कि वह एक दार्शनिक मुद्रा अख्तियार कर लेता है जिसमें उसकी निजी वेदना सर्वव्यापी होकर सारी दुनिया पर छा जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बैल कविता शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट के महत्त्वपूर्ण साक्ष्य प्रस्तुत करती है, जिसमें नाटकीयता, बिम्बधर्मिता और वैष्णवी निरीहता के साथ उनकी काव्य भाषा के हिन्दी उर्दू संस्कार दिखाई देते हैं, जो हिन्दी कविता में उनकी पहचान के ठोस कारण हैं।
6. निष्कर्ष
आधुनिक हिन्दी कविता में शमशेर ऐसे कवि हैं जिनकी ठीक-ठीक तुलना किसी अन्य कवि से सम्भव नहीं है। अपनी कविताओं में दबे-छिपे शब्दों और बिम्बों के माध्यम से जिस रूप में हमारे सामने आते हैं, यह उनकी अपनी निजी विशेषता है। बैल कविता शमशेर की श्रेष्ठ कविताओं में शामिल है। इस कविता में बैल के माध्यम से उन्होंने अपने समय की स्थिति की जिस तरह उजागर किया है, वह चौका देने वाला है। उनका बैल मात्र बैल नहीं है। अपनी संवेदना के माध्यम से शमशेर ने उसे विस्तार दिया है। कविता में बैल का बॉ बॉ का स्वर विस्तृत होकर सबका स्वर बन जाता है। इसीलिए बैल को उसका मालिक आदमीनुमा बैल लगता है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- शमशेर: कविता लोक, जगदीश कुमार, नई दिल्ली
- काल से होड़ लेता शमशेर, विष्णुचन्द्र शर्मा, संवाद प्रकाशन, मुंबई
- शमशेर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना/मलयज(सम्पा.), राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
- कवियों का कवि शमशेर, रंजना अरगड़े, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- प्रतिनिधि कविताएँ : शमशेरबहादुर सिंह, सम्पादक-नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- बिम्बों से झांकता कवि : शमशेर, डॉ. वीरेन्द्र सिंह,पंचशील प्रकाशन, जयपुर
- कविता के नए प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
- https://www.youtube.com/watch?v=ZZGpKHOXUsE
- https://www.youtube.com/watch?v=jelRXM5uvls