32 समकालीन कविता और केदारनाथ सिंह

डॉ. ओमप्रकाश सिंह

 

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पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. लोक और स्‍थानीयता
  4. प्रकृति से गहरा राग
  5. वैश्‍व‍िक दृष्टि
  6. बिम्बों की नई भाषा
  7. अतिकथन और मितकथन के बीच
  8. सहज साधारण जीवन बोध
  9. आत्‍मालाप और जनसंवाद
  10. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • केदारनाथ सिंह की कविता का महत्त्व और उसकी नवीनता समझ सकेंगे।
  • समकालीन कविता के विकास में केदारनाथ सिंह का योगदान समझ सकेंगे।
  • समकालीन कविता के सन्दर्भ में केदारनाथ सिंह की कविताओं की विशिष्टता समझ सकेंगे।
  • केदारनाथ सिंह की कविताओं की भाषा और उनका प्रस्‍तुतिकरण जान पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

 

आजादी के बाद जिन कवियों ने हिन्दी कविता को नई दिशा दी, उनमें केदारनाथ सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।  सन् 1950  से केदारनाथ सिंह ने विधिवत कविता लेखन शुरू हुआ  और केवल कथ्‍य ही नहीं, रूप के स्‍तर पर भी हिन्‍दी कविता को एक नया तेवर दिया। पिछले 65 वर्षों के दौरान कृषि प्रधान संस्‍कृति वाला भारत कई संक्रमणों से गुजरा है, गाँव का रूप बदला है, लोक संस्‍कृति और प्रकृति को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, आर्थिक और सामाजिक विसंगतियों ने जीवन और सम्बन्धों के प्रति लोगों के पारम्परिक नजरिए में  आमूलचूल परिवर्तन किया। कह सकते हैं कि पिछले कुछ दशकों में विज्ञान और तकनीक की घनघोर गति के कारण हमने कई सदियों की दूरी तय कर ली। इन सब बदलावों को कविता कैसे दर्ज करती है, वह कहाँ और किनके साथ खड़ी होती है, मनुष्‍यता को हराने वाली ताकतों के खिलाफ वह कैसे हस्‍तक्षेप करती है, भावों और संवेदनाओं के क्षरण पर वह कैसे मरहम लगाती है, इन सब बातों को अगर कविता के माध्‍यम से समझना हो, तो केदारनाथ सिंह की कविता ताकतवर ढंग से हमारे सामने आती है। केदारनाथ सिंह बहुत आवेग के साथ उथल-पुथल मचाने वाले ढंग से हस्‍तक्षेप नहीं करते, उनकी कविता में एक खास तरह की खामोशी और तरलता देखी जा सकती है, जो निराले ढंग से एक बड़े परिवर्तन का संकेत देती है। जिस खामोशी के साथ किसी पौधे में कल्‍ले फूटते हैं, जिस नीरवता के साथ किसी बड़ी चट्टान को छेद कर एक जड़ निकल आती है, कुछ उसी खामोशी के सा‍थ केदारनाथ सिंह की कविता हमें समाज के अनछुए पक्षों के बीच ले जाकर खड़ा कर देती है। समकालीन जीवन की विभीषिकाओं और जटिलताओं पर अत्यन्त शान्त ढंग से किया गया यह ठोस हस्‍तक्षेप हिन्‍दी कविता को नई ताकत देता है। जीवन के आदिम विषयों जैसे प्रकृति, प्‍यार, सम्बन्ध, पानी, विश्‍वास, स्‍पर्श, विस्‍थापन आदि को केदारनाथ सिंह उठाते हैं और इन्‍हें मनुष्यता की नई ज्‍योति से दीप्‍त कर देते हैं। निश्‍च‍ित रूप से इन कविताओं से काव्‍य पक्षधरता के नए मायने खुलते हैं।

 

चाहे वह आजादी के बाद के मोहभंग, अवसाद, आत्मनिर्वासन और निरुपायबोध का दौर हो या 1990 ई० के बाद की एकध्रुवीय दुनिया में विज्ञान और तकनीक की चकाचौंध का समय हो, केदारना‍थ सिंह ने अपनी कविता में इसे बहुत ही स्‍पष्‍टता के साथ दर्ज किया है। इस अर्थ में ये दुर्लभ ढंग से समकालीनकवि हैं। जहाँ साठ के दशक में वे फर्क नहीं पड़ता के मुहावरे में अपने समय को दर्ज करते हैं, वही सन् 2014 ई० में यह कहते हुए कि विज्ञान के अन्धेरे में अच्‍छी नीन्द आती है, अपने समय में विज्ञान के शोर पर एक बड़ी टिप्‍पणी करते हैं। निश्‍च‍ित रूप से इन टिप्‍पणियों में गहरे सरोकार को देखा जा सकता है। परन्तु इस सरोकार का सम्बन्ध केवल वर्तमान घटनाओं से नहीं है, इनका इतिहास और भूगोल बहुत विस्‍तृत है। इन कविताओं की शाखाएँ बुद्ध, कुम्भनदास, भिखारी ठाकुर, इब्राहिम मियां से लेकर बाघ और गर्भवती चींटी तक फैली हुई हैं इनकी जड़ें देश-विदेश के तमाम छोरों तक पहुँच जाती हैं। ध्‍यातव्‍य है कि इनका आना महज नाम या स्‍थान या भाव का आना नहीं है, बल्कि एक गहरे सम्पृक्तिबोध और स्‍पष्‍ट पक्षधरता के साथ उस विचार का  आना है, जिससे यह दुनिया थोड़ी और सुन्दर और गर्म हो सकती है। इनका आना समकालीन समय को अतीत और भविष्य के बीच उस स्‍थान पर रख देना है, जिससे ये तीनों एक नई आभा से जगमगा जाते हैं।

  1. लोक और स्‍थानीयता

 

लोक का प्रकृति और मनुष्‍यता से खास तरह का आदिम और सहज रिश्‍ता होता है, इसीलिए कुछ सीमाओं के बावजूद यहाँ जीवन का कच्‍चा सौन्दर्य दिखता है। यही कारण है कि साहित्‍य (और शास्‍त्र भी) जब-जब बहुसंख्‍यक समाज से दूर होता है या उसमें ठस्‍सपन आता है तो वह नई ऊर्जा लेने लोक के पास जाता है। केदारनाथ सिंह की कविताओं  में लोक की अत्यन्त सहज उपस्थिति दिखती है। यह उपस्थिति अहा भाव से लोक या गाँव को कुछ पंक्तियों के माध्‍यम से कविता में पिरो देनेवाली उपस्थिति से भिन्‍न है। यहाँ कृत्रिमता के लिए कोई स्‍थान नहीं है बल्कि कई बार यह अहसास भी नहीं होता कि इन कविताओं में लोक तत्त्व का ऐसा उपयोग हुआ है। असल में लोक का क्षेत्रीयता और स्‍थानीयता से गहरा रिश्‍ता होता है, स्‍थानीय परम्पराएँ, लोक विश्‍वास और कृषि केन्द्रित संस्‍कृति इसके मूल में होती है। केदारनाथ सिंह की विशिष्‍टता इस बात में निहित है कि इस स्‍थानीयता को बरकरार रखते हुए वे इसे एक वैश्‍व‍िक सन्दर्भ दे देते हैं।

 

उदाहरण के लिए हम बढ़ई और चिडि़या कविता लेते हैं, जो कि एक भोजपुरी लोकगीत (बढ़ई बढ़ई खूँटा चीर, खूँटा में मोर दाल बा) से सन्दर्भ लेती है, परन्तु इसमें गिलहरी की पूँछ से लेकर बाघिन के बच्‍चे आने लगते हैं, और इसका फलक बड़ा होता चला जाता है-

 

उसकी आरी कई बार लकड़ी की नीन्द

और जड़ों में भटक जाती थी

कई बार एक चिडि़या के खोंते से

टकरा जाती थी उसकी आरी

और फिर,

वह चीर रहा था/ और दुनिया दोनों तरफ

चिरे हुए पटरों की तरह गिरती जा रही थी।

 

कविता में लोक है परन्तु मोह नहीं है, केवल गाँव का सौन्दर्य नहीं है, बल्कि एक आधुनिकताबोध है, जो गाँव के हालात और शहर से उसकी दूरी को बारीकी के सा‍थ दर्ज करता चलता है-

कौन हैं ये लोग

जो कि मेरे हैं?

इनके चेहरों को देखकर

मुझे अपनी घड़ी की सुई

ठीक क्‍यों करनी पड़ती है बार-बार?

 

  1. प्रकृति से गहरा राग

 

कविता और प्रकृति के सुविख्‍यात रिश्‍ते से हम सब परिचित हैं, परन्तु जिस प्रकार प्रकृति पल-पल-नूतन होती रहती है उसी प्रकार कवि भी नए भावबोध के साथ उसे नए बिम्बों, नए प्रतीकों से जोड़ता रहता है। केदारनाथ सिंह के पास प्रकृति के इतने नए सन्दर्भ हैं कि उनके आधार पर प्रकृति और कविता के एक नए समीकरण की तलाश की जा सकती है। पर्यावरण को लेकर हाल के दिनों में जागरूकता आयी है और उसने एक नए विमर्श का भी रूप ले लिया है। शैकत शय्या और हिममण्डित चोटियों के साथ-साथ अब प्रकृति को विज्ञान और समाज के बीच रखकर देखने की कोशिशें हो रही हैं। वह हमारे अस्तित्‍व और अस्मिता के सवालों से जुड़ रही है। केदारनाथ सिंह की कविता प्रकृति के इस पक्ष को सादगी के साथ परन्तु अत्यन्त प्रभावी ढंग से उठाती है। इसी दृष्टि से अभूतपूर्व कविता है  विद्रोह

 

सुनिएमेरे बिस्‍तर ने कहा

यह रहा मेरा इस्‍तीफा

मैं अपने कपास के भीतर

वापस जाना चाहता हूँ

उधर आलमारी में बन्द

किताबें चिल्‍ला रही थीं

खोल दो- हमें खोल दो

हम जाना चाहती हैं अपने बाँस के जंगल

और मिलना चाहती हैं/ अपने बिच्‍छुओं के डंक

और साँपों के चुम्‍बन से।

 

मनुष्‍य खुद को केन्‍द्र में रखकर प्रकृति को देखता रहा है, यह कविता स्‍पष्‍ट ढंग से हाशिए पर पड़ी प्रकृति को उठाकर केन्‍द्र में रख देती हैं। बलपूर्वक ये कविताएँ बताती हैं कि प्रकृति मनुष्‍य की जागीर नहीं है, बल्कि हमारा वजूद उस पर टिका हुआ है, वह है तो हम हैं–

हरा पत्ता /कभी मत तोड़ना/ और अगर तोड़ना तो ऐसे/ कि पेड़ को जरा भी/ न हो पीड़ा

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे/ कि लिख चुकने के बाद/इन शब्‍दों को पोंछकर साफ कर देना

 

इसीलिए कवि प्रकृति के सन्दर्भ में ज्‍यों की त्‍यों धर दीनी चदरिया का सन्देश देते हैं ताकि आनेवाली पीढि़यों को भी प्रकृति का वरदान मिलता रहे। कवि की पक्षधरता एकदम साफ है, इसीलिए वह घास के पक्ष में मतदान करता है और ध्‍वंसकारी शक्तियों के खिलाफ खड़ा होता है–

पाठको, मुझे क्षमा करना

कि जिक्र अणु बम का

और मैं एक तितली के पक्ष में

बकवास कर रहा हूँ

 

जहाँ अमूमन लोगों की नजर नहीं जाती, कवि उसकी चिन्ता करता है, शायद इन्‍हीं अर्थों में कविता को मानवता की मातृभाषा कही गई है–

इतने बड़े शहर में अब इतनी भी जगह नहीं

कि एक गर्भवती चींटी

कहीं रख दे अपना अण्डा

  1. वैश्‍व‍िक दृष्टि  

 

किसी कविता के महत्त्व का एक पैमाना यह भी होता है कि उसका कैनवास कितना बड़ा है। स्‍थानीयता और समकालीनता से जुड़ते हुए भी वह दिक् काल का कितना अतिक्रमण करती है। इस दृष्टि से केदारनाथ सिंह की कविता के पात्र विश्‍व नागरिक हैं। यह अनायास नहीं है कि इनकी कविताओं में बुद्ध बार-बार आते हैं,  इस समय दुनिया को बुद्ध की करुणा से ज्‍यादा भला और किस चीज की जरूरत होगी। सत्ता से लगातार हारते और हिम्‍मत खोते साहित्‍य को कुम्भन से ज्‍यादा ऊर्जा कौन देगा। कई बार ऐसा लगता है कि केदारनाथ सिंह की स्‍थानीयता और वैश्‍व‍िकता में गहरा अन्त:सम्बन्ध है, दोनों एक दूसरे को देखने की दृष्टि देते हैं। निश्‍च‍ित रूप से इसमें कवि के तमाम देशों के यात्री होने और बहुपठित होने की भी भूमिका है, परन्तु उसके मूल में वह सौन्दर्य बोध है, जो पूरी दुनिया को एक सूत्र में बाँधता है, जिसे किसी भी देश में पढ़ा जाए, अर्थ उसी देश का निकलता है–

 

कि अंगुलिमाल छुट्टा घूम रहा है शहर में

 और सुजाता अपने शहर के

किसी छुतहा अस्‍पताल में भर्ती है

आनन्द की मुझे कोई खबर नहीं

लगभग हर देश में एक बर्लिन की दीवार होती है, भले ही वह दिखाई दे या न दे पर मेरी खिड़की से दिखती है–

बर्लिन की टूटी दीवार भी

और देखता हूँ कि उसके चारों ओर

लगा रही है चक्‍कर एक पागल स्‍त्री

न जाने कब से।

  1. बिम्‍बों की नई भाषा

 

बिम्ब और केदारनाथ सिंह का गहरा रिश्‍ता है। केवल यही नहीं कि बिम्‍ब पर उन्‍होंने शोधकार्य किया था और आधुनिक हिन्‍दी कविता में बिम्‍बविधान  नामक चर्चित पुस्‍तक लिखी थी, बल्कि बिम्‍बों का निर्माण करने और उनके बहाने बड़ी से बड़ी बात को सहजता से कह जाने की एक अनूठी शैली उन्‍होंने विकसित की है। उनके यहाँ बिम्ब सिर्फ एक दृश्‍य या चित्र नहीं रह जाता बल्कि वह कथ्‍य में कुछ इस तरह घुलमिल जाता है कि अलग से बिम्‍ब पर नजर भी नहीं जाती। अनेक स्‍थलों पर छोटे बिम्ब भी आते हैं, परन्तु कई बार पूरी की पूरी कविता ही एक बिम्‍ब होती है। नए संग्रह  सृष्टि पर पहरा  की शीर्षक कविता को देखें–

 

कितना भव्‍य था

एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर

महज तीन-चार पत्तों का हिलना

उस विकट सुखाड़ में

सृष्टि पर पहरा दे रहे थे

तीन-चार पत्ते

 

ध्‍यान दें कि यहाँ बिम्‍ब केवल पेड़ या पत्ते तक सीमित नहीं है, बल्कि मस्तिष्‍क में पूरी दुनिया का वह संघर्ष सामने खड़ा हो जाता है, जिसमें एक ओर सुखाड़ और उसे निर्मित करनेवाली ताकते हैं और दूसरी ओर हरापन और उसके साथ खड़ी जिजीविषा है। इसे आगे बढ़ाते हुए गाँधी के उस कथन से जोड़ सकते हैं, जिसमें लालच और जरूरत के बीच पृ‍थ्‍वी खड़ी है।

  1. अतिकथन और मितकथन के बीच  

 

कवि बोधा ने प्रेम के पन्थ को कराल कहते हुए उसकी तुलना तलवार की धार पर दौड़ने से की थी। कविता लिखना भी कुछ ऐसा ही है। थोड़ी सी चूक हुई कि आपकी कविता बड़बोली और लाउड कही जाने लगेगी, थोड़ी सम्प्रेषणीयता बाधित हुई कि कठिन काव्‍य के प्रेत मंडराने लगेंगे। अर्थात सूत भर के हेर फेर से कविता का पूरा प्रभाव बदल जाता है। इस दुर्लभ सन्तुलन को लगभग अपनी सभी कविताओं में केदारनाथ सिंह साधने में सफल होते हैं। इसीलिए आलोचक रामस्‍वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं कि, “सामान्‍यत: जमीन की महिमा का बखान करनेवाले अधिकतर कवि अभिधा और सपाटबयानी पर आश्रित रहते हैं, जैसे नागार्जुन, सुमन या कि आगे चलकर धूमिल। केदारनाथ सिंह का रास्‍ता इनसे अलग है, जो कविकर्म की दृष्टि से जितना कठिन है उपलब्धि की दृष्टि से उतना ही सृजनात्‍मक।” (हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, पृष्ठ 242)

 

समकालीन दौर में बाजार, पूँजी और साम्राज्‍यवाद आदि को लेकर प्रचुर मात्रा में कविताएँ लिखी जा रही हैं, परन्तु घोंसलों का इतिहास  कविता में जिस रचनात्‍मकता के साथ ये सारे सन्दर्भ आते हैं, उनसे आसानी से समझा जा सकता है कि अतिकथन और मितकथन के बीच रास्‍ता बनाना कितना कठिन होता है।

बाजार में मिलते नहीं घोसले

वहाँ सिर्फ पिंजड़े मिलते हैं।

—————————–

इसलिए अच्‍छा यही होगा

कि घोंसलों को छोड़ दिया जाए पेड़ पर ही

जहाँ अपनी छोटी-सी गरिमा में

झूलते रहें वे

इतिहास के दूसरी तरफ

इसी भाव बोध से जुड़ती हुई एक दूसरी कविता दाने  में कवि के सहज किन्‍तु दृढ़ विरोध को महसूसा जा सकता है–

नहीं

हम मण्डी नहीं जाएँगे

खलिहान से उठते हुए

कहते हैं दाने

जाऍंगे तो फिर लौटकर नहीं आऍंगे

जाते जाते

कहते जाते हैं दाने

कवि दिल्‍ली को उठाकर कहीं और रख देने की बात करता है ताकि–

केन्‍द्र को मिलती रहे/ हाशिए की रोशनी

  1. सहज साधारण जीवन बोध (यथार्थ के साथ)

 

जीवन की सहजता को बयान करना शायद सबसे कठिन काम है। सहजता को इस तरह बरतना कि वह सरल या निम्‍न न हो जाए, जीवन के प्रसंगों का इस प्रकार उठाना कि बात भी बन जाए और कहीं हल्‍कापन भी न आने पाए, बहुत ही मुश्किल काम है। निश्‍च‍ित रूप से यह बहुत ही प्रौढ़ता और कठोर श्रम की माँग करता है। केदारनाथ सिंह की कविताओं में इस सहजता को अलग से रेखांकित किया जा सकता है।

आना

आना जैस मंगल के बाद

चला आता है बुध

 आना

 

कवि को कोई मुगालता नहीं है, आज के समय और समाज की वास्‍तविकता को जानते हैं, शायद सहजता का सम्बन्ध कवि के इस यथार्थ बोध से जुड़ता है।

 

नदियाँ जो कि असल में/ शहरों का आरम्भ हैं

और शहर जो कि असल में/ नदियों का अन्त

सृष्टि पर पहरा  संग्रह के समर्पण में कवि ने लिखा है–

अपने गाँव के लोगों को

जिन तक यह किताब

कभी नहीं पहुँचेगी

 

इस इक्‍कीसवीं सदी में जहाँ पल भर में सूचनाएँ पूरी दुनिया की यात्रा कर लेती हैं, कवि की किताब उन लोगों तक क्‍यों नहीं पहुँच पाती। खास तौर से तब, जब कि वे लोग ही कविता के केन्‍द्र हैं। इस संग्रह के प्रकाशित होने से काफी पहले भी कवि ने एक कविता में थोड़े भिन्‍न सन्दर्भ के साथ इस बात को उठाया था।

 

यही हैं मेरे लोग

जिनका मैं दम भरता हूँ कविता में

और यही, यही जो मुझे कभी नहीं पढ़ेंगे

किस तरह मिलूँ

कि बस मैं ही मिलूँ

और दिल्‍ली न आए बीच में।

दरअसल नए समाज की विसंगतियों का पूरा बोध कवि को है और वह जानता है कि केवल आदर्श से दुनिया नहीं चलती।

  1. आत्‍मालाप और जनसंवाद

 

केदारनाथ सिंह की कविताओं की एक बड़ी विशेषता इनकी संवादधर्मिता है। संवाद को नाटकों की बड़ी विशेषता के रूप में रेखांकित किया जाता है, परन्तु वह हमारे दैनिक जीवन की विशेषता है। भाषा मूलत: संवाद बनाने का काम करती है, यह संवाद व्‍यक्तियों, समाज से या खुद से भी हो सकता है। केदारनाथ अपनी बहुतेरी कविताओं में आत्‍मालाप करते नजर आते हैं, परन्तु उसी बहाने वे समाज के बड़े सवालों से जूझ रहे होते हैं।

 

 तुम्‍हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह

कैसे हो मेरे भाई जगरनाथ

 

इस तरह की अनेक कविताएँ हैं, जिनमें कवि ने पात्र विशेष से या त्रिलोचन जैसे सहयोगी कवियों से संवाद स्‍थापित किया है और साधारण सी बात में से नई और बड़ी बात पैदा की है।

  1. निष्‍कर्ष

 

और पूरी कर रहा हूँ वह कविता

जिसे लिखना शुरू किया था मेरे किसी पुरखे कवि ने

मैंने यही तो किया है

कि हटा दिया है कोई हलन्‍त्

लगा दी है कहीं बिन्‍दी

उलट दिया है कोई विशेषण

उड़ा दी है कोई तिथि

और तुर्रा यह

कि मैंने कविता की है। 

 

पर मौसम

चाहे जितना खराब हो

उम्‍मीद नहीं छोड़तीं कविताएँ

 

यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा

मैं लिखना चाहता हूँ

 

केदारनाथ सिंह की समग्र कविताओं पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट होता है कि कवि ने कथ्‍य, बिम्‍बविधान, वाक्य विन्यास, प्रस्‍तुतिकरण आदि अनेक स्‍तरों पर कविता की दुनिया में बड़ा हस्‍तक्षेप किया है। उन्‍होंने न केवल अपना नया रास्‍ता बनाया है, बल्कि लगभग 65 वर्षों की दीर्घ कालावधि में रचनारत रहते हुए भी उसे पुराना और रूढ़ होने से बचाने में सफल रहे हैं। आरोपित सजावट और नारेबाजी से कविता को सायास बचाते हुए उन्‍होंने अपने आत्‍मसंवाद को सर्वजन संवाद में बदल देने की दुर्लभ क्षमता विकसित की है। बिम्‍ब और प्रस्‍तुतिकरण के इस अनूठेपन के कारण इनकी कविताएँ कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर समकालीन कविता के स्वर को समृद्ध करती हैं। इन कविताओं से गुजरने पर खास तरह की चुप्‍पी या कहें सन्‍नाटे से साक्षात्‍कार होता है, जिसके मूल में एक गहरी उदासी, हाशिए पर खड़े व्‍यक्ति की लाचारी, एक पीड़ा भाव नजर आता है। वही उदासी जिसका सम्बन्ध गौतम बुद्ध से जुड़ता नजर आता है। ये कविताएँ हमें थोड़ा चुप, थोड़ा उदास कर जाती हैं, परन्तु साथ ही हममें थोड़ा सा और भर जाती हैं– जीवन।

 

you can view video on समकालीन कविता और केदारनाथ सिंह

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1.  समकालीन हिन्दी कविता, संपादक: परमानन्द श्रीवास्तव, साहित्य अकादमी दिल्ली।
  2.  मेरे समय के शब्‍द , केदारनाथ सिंह, राधाकृष्‍ण प्रकाशन, दिल्‍ली।
  3.  हिन्दी साहित्य और सम्बेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी , लोकभारती प्रकाशन नई दिल्ली।
  4.  आधुनिक हिन्दी कविता में बिम्बविधान, केदारनाथ सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  5.  यहाँ से देखो, केदारनाथ सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. उत्तर कबीर, केदारनाथ सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

 

वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
  2. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
  3. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
  4. https://www.youtube.com/watch?v=_6Q2ZDes3Ow