27 कुँवर नारायण का काव्य कथ्य
डॉ. रेखा सेठी
पाठ का प्रारूप
1. पाठ का उद्देश्य
2. प्रस्तावना
3. आशा-निराशा
4. प्रेम और प्रकृति
5. व्यष्टि-समष्टि
6. सामाजिक प्रतिबद्धता
7. कविता और मानवीयता
8. इतिहास और स्मृति
9. परम्परा और आधुनिकता
10. निष्कर्ष
1. पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- कुँवर नारायण की काव्य यात्रा का संक्षिप्त परिचय जान सकेंगे।।
- एक कवि के रूप में कुँवर नारायण के काव्य की विशिष्टता समझ सकेंगे।
- कुँवर नारायण की रचनाओं में उभरने वाले विविध सन्दर्भ स्पष्ट कर सकेंगे।।
- कुँवर नारायण के काव्य कथ्य की समग्र पहचान कुछ चुने हुए बिन्दुओं के माध्यम से कर सकेंगे।
2. प्रस्तावना
कुँवर नारायण हिन्दी के उन कवियों में से हैं जिनकी काव्य चेतना निरन्तर सृजनरत रहते हुए विकसित होती गई है। अपनी सभी रचनाओं में कुँवर नारायण एक चिन्तनशील मनीषी कवि के रूप में उभरते हैं जो अपने समय-समाज से गहरे आबद्ध होते हुए भी आधुनिक व्यक्ति मन की शंकाओं को केन्द्र में रखते हैं। कवि लगातार आत्मसंवाद करता दिखता है अर्थात् उनके यहाँ कुछ भी अन्तिम, निश्चित या रूढ़ नहीं उसमें वह गतिशीलता है जो मनुष्य का और मनुष्यत्व का परिष्कार करती है। कुँवर नारायण बड़ी सहजता से दोनों पक्षों की सच्चाई को पाठक के समक्ष उजागर कर देते हैं लेकिन उनका मन हर बार उस ओर झुकता है, जहाँ व्यक्ति-मन की संवेदनशीलता को बचाया जा सके।
लगभग छह दशक तक फैले रचना-काल में कुँवर नारायण ने अनेक काव्य कृतियों का सृजन किया। उनका पहला काव्य संग्रह चक्रव्यूह सन् 1956 में प्रकाशित हुआ। आशा-निराशा के धूप-छाँही रंग, प्रकृति और यौवन के मोहक बिम्ब, अस्तित्व और ईश्वर सम्बन्धी जीवन-व्यापी प्रश्न इस काव्य संग्रह का पार्श्व निर्मित करते हैं। अपने पहले काव्य संग्रह के साथ ही कुँवर नारायण ने हिन्दी कविता के इतिहास में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कर दी थी।
सन् 1961 में परिवेश : हम–तुम आया जिसमें कवि के मन की बेचैनी को एक दिशा मिलती प्रतीत होती है। इस संकलन के प्रकाशन के बाद मुक्तिबोध ने कुँवर नारायण की कविताओं के बारे में कहा था कि उनकी कविता में अन्तरात्मा की पीड़ित विवेक चेतना और जीवन की आलोचना है। मुक्तिबोध ने कवि के सार रूप को पहचाना। वह अपने परिवेश के प्रति सजग होकर भी व्यक्ति की अन्तरात्मा में बसी संवेदनशीलता की विवेक दृष्टि से अनुप्राणित था। वस्तुतः कुँवर नारायण बहुपठित, बहुविज्ञ रचनाकार हैं। उन्होंने संस्कृत के आदि ग्रन्थों से लेकर विश्व साहित्य को आन्दोलित करने वाले अनेक रचनाकारों को पढ़ा और उनसे प्रभावित भी हुए लेकिन जो प्रभाव उन्होंने ग्रहण किया, उन्हें मानस की उन गहराइयों तक महसूस किया, जहाँ वे कवि व्यक्तित्व का हिस्सा बन गए।
इसके बाद उनकी दृष्टि परम्परा के अवगाहन की ओर मुड़ गई। वह आधुनिक मनुष्य के संशयों, शंकाओं की प्रतिध्वनि परम्परा के पृष्ठों में तलाशने लगे। इस सन्दर्भ में सन् 1965 में आत्मजयी का प्रकाशन एक महत्त्वपूर्ण घटना थी जो आगे चलकर उनकी स्थायी कीर्ति का आधार बनी। परम्परा और आधुनिकता के सामंजस्य का अगला पड़ाव वाजश्रवा के बहाने (सन् 2008) में सामने आया।
कुँवर नारायण के विभिन्न काव्य संकलनों के बीच समय का लम्बा अन्तराल है। आत्मजयी के बाद सन् 1979 में प्रकाशित अपने सामने काव्य संकलन कवि का एक नया रूप प्रस्तुत करता है। यहाँ कवि का मुख्य सरोकार व्यवस्था की विसंगतियों के शिकार व्यक्ति की असुरक्षा, भय और सन्त्रास को चित्रित करना है। कुँवर नारायण घोषित तौर पर प्रगतिशील या समाजवादी कवि नहीं है फिर भी सत्ता की बर्बरता पर उनका संयत आक्रोश और आम आदमी की पीड़ा में उनकी ईमानदार भागीदारी देखते ही बनती है।
बाद के काव्य संकलनों कोई दूसरा नहीं (सन् 1993), इन दिनों (सन् 2002) तथा हाशिये का गवाह (सन् 2009) में कुँवर नारायण बाज़ार और यान्त्रिकता से बदलते परिवेश में जिस तरह संवेदना की हत्या हो रही है उसका प्रतिपक्ष तैयार करते हैं। वे असहमति के मानवीय अधिकार को जीवित रखना चाहते हैं और इसमें कविता की बहुत बड़ी भूमिका देखते हैं। उनके लिए कविता मानवीयता का पर्याय है। कवि समय की गर्म रेत पर परस्पर प्रेम और मानवीयता की धारा प्रवाहित करने के लिए प्रयत्नशील है।
इस तरह कुँवर नारायण का काव्य-कथ्य उनके विस्तृत काव्य फलक के बीच रूप ग्रहण करता है। निराशा के अन्धकार को चीरता हठीला आशावाद और मानवीयता में अखण्ड विश्वास उनकी कविता का स्थायी स्वर है। इन सबके साथ प्रकृति-प्रेम के विविध-वर्णी बिम्बों, इतिहास, स्मृति और दर्शन का अद्भुत सामन्जस्य उनकी रचनाओं को विलक्षणता प्रदान करते हैं। कवि जीवन के विरोधी युग्मों के बीच से अपनी समन्वित–सन्तुलित काव्य-दृष्टि ग्रहण करता है। इसीलिए उनके काव्य में आशा-निराशा, व्यष्टि-समष्टि, परम्परा-आधुनिकता, इतिहास-स्मृति जैसे द्वन्द्वात्मक अभिधान एक साथ जगह पाते हैं।
- आशा–निराशा
कुँवर नारायण की आरम्भिक कविताओं में जिस आधुनिक व्यक्ति का चित्रण है वह आशा-निराशा के द्वन्द्व में घिरा दिखाई पड़ता है। उनके पहले काव्य-संग्रह चक्रव्यूह में एक ओर यदि जीवन-राग की कविताएँ हैं, जिनमें भावना का ज्वार है, उद्दाम आवेग है, तो दूसरी ओर जीवन की विषमताओं में घिरे होने का एहसास भी है। एक चक्रव्यूह जैसी स्थिति है, जिससे निष्कासन की कोई राह नहीं लेकिन कुँवर नारायण की विशिष्टता इस बात में है कि वे निराशा भरी स्थितियों का चित्रण तो अवश्य करते हैं, लेकिन उस निराशा को अपने ऊपर हावी नहीं होने देते। कवि स्वयं से ही प्रश्न करते हैं–
कौन कब तक बन सकेगा कवच मेरा?
युद्ध मेरा, मुझे लड़ना
इस महाजीवन समर में अन्त तक कटि–बद्ध
हर व्यक्ति को अपने जीवन का युद्ध स्वयं ही लड़ना पड़ता है। उसकी यह संकल्पशक्ति और जीवन के प्रति एक आलोचनात्मक दृष्टि सम्बन्धों के ऐसे डोरे बुनती है कि कवि निजता से सार्वजनिकता की परिधि में पहुँच जाता है। उसका सम्बन्ध व्यापक मानवता से जुड़ जाता है। यही बिन्दु उसमें आशा का संचार करता है और वह कह उठता है–
विश्वास रक्खो।
मैं तुम्हारे साथ हूँ।
उस तम–विवश उम्मीद में
जो रोशनी को प्यार करती है।
विश्वास, उम्मीद और आशा का यह स्वर आगे चलकर उनकी कविताओं में दूर तक सुनाई पड़ता है। आत्मजयी और वाजश्रवा के बहाने जैसी प्रबन्ध रचनाएँ हों या कोई दूसरा नहीं, इन दिनों, हाशिये का गवाह ; जैसी रचनाएँ, सब में जीवन का कटु यथार्थ अपनी बीभत्सता के बावजूद कवि को निराशा के अन्धेरों में नहीं धकेलता। कवि की ज़िद्द है कि ज़िन्दगी से लड़ाई उसके भीतर रहकर ही सम्भव है। मनुष्य में कवि का अप्रतिम विश्वास कभी खण्डित नहीं होता –
उसकी विवशता और छटपटाहट
जिसे एक अन्तहीन मृत्यु ने
अपने सीने से चिपका रखा हो।
उसकी लटकी हुई छाती, धँसा हुआ पेट, झुके हुए कंधे, वह
कौन है हमेशा जिसकी हिम्मत नहीं केवल घुटने तोड़े जा सके?
उसके ऊँचे उठे सिर पर एक बोझ रखा है
काँटों के मुकुट की तरह
बस इतने ही से पहचानता हूँ
आज भी
उस मनुष्य की जीत को।
कवि का दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य की हिम्मत नहीं तोड़ी जा सकती इसीलिए वह अजेय है। कवि उसकी इस अपराजेय शक्ति के सम्मुख नतमस्तक है।
- प्रेम और प्रकृति
कुँवर नारायण की कविताएँ एक विशेष सौन्दर्यानुभव से सृजित हैं। उनमें प्रकृति और प्रेम के कुछ अनूठे बिम्ब हैं। उनके यहाँ कोई भी भाव एकांगी नहीं है। रूप, रस, गन्ध के बिम्ब एक मार्मिक सौन्दर्य बोध से परस्पर अनुस्यूत हो गए हैं। यौवन और प्रेम की कविताओं में जीवन की उमंग है। उनमें एक ख़ास तरह की सन्यत ऐन्द्रीयता भी लक्षित होती है। तुम नहीं, चाह का आकाश, देह के फूल, प्यार और बेला के फूल आदि कविताओं में प्रणय और चाह की चटकीली छाया है। ऐसी अधिकांश कविताएँ एक विशेष मनःस्थिति से निःसृत हैं जिनमें भावना की तरलता छलक पड़ती है–
तुमने देखा,
कि हँसती बहारों ने?
तुमने देखा,
कि लाखों सितारों ने?
कि जैसे सुबह
धूप का एक सुनहरा बादल छा जाए,
और अनायास
दुनिया की हर चीज़ भा जाए
प्रेयसी के देखने भर से भावना का जो ज्वार उमड़ता है, उसे कवि प्रभाव की प्रगाढ़ता से सुन्दर अनुभव में बदल देता है। प्रेम, दुनिया की हर चीज़ को अधिक प्रिय बना देता है। अधिक महत्त्वपूर्ण कविताओं में भावना की तरलता के साथ दर्शन का संश्लेषण भी है। अनेक कविताओं में कवि ने प्रेम को देह और वासना की कै़द से मुक्त रखने का आग्रह किया है।
कवि की सौन्दर्याभिलाषी दृष्टि का दूसरा ठौर प्रकृति है। कवि के लिए यह ऐसा विषय है जहाँ उनका मन रमता है। प्रकृति के अनेक सहज-टटके बिम्ब उनकी कविताओं में बिखरे पड़े हैं। कहीं बिल्कुल सादगी से कवि ने प्राकृतिक दृश्यों के फोटो-चित्र खींच दिए हैं–
एक छींटा प्यास,
एक मुट्ठी आस,
उमड़कर मिट्टी बनी आकास
लू अनुकूल
खिलते गुलमोहर के फूल
लू में गुलमोहर के फूल, अमलतास, दूर तक, सवेरे–सवेरे, कार्निस पर आदि अनेक कविताओं में प्रकृति की चित्रात्मक अभिव्यक्ति हुई है। कमरे में धूप, एक मूड, बहार आई है जैसी कविताएँ खिलन्दड़ वाक्-चित्रों का प्रतिरूप हैं जहाँ कवि शब्दों में प्रकृति एवं मनुष्य के परस्पर खेल को प्रस्तुत करता है।
पहले दौर की कविताओं में प्रकृति का यह रूपायन मिलता है जबकि बाद में बढ़ते शहरीकरण और यान्त्रिकता से प्रकृति को बचाने का विचार मुख्य हो जाता है। प्रकृति की सहजता कवि को प्रिय है। उसके बरक्स आपाधापी से भरी आधुनिक जीवन शैली जो प्राकृतिक सन्तुलन को नष्ट कर रही है, उसके प्रति लेखक गहरी चिन्ता जताते हुए संकल्प करता है–
बचाना है–
नदियों को नाला हो जाने से
हवा को धुँआ हो जाने से
खाने को ज़हर हो जाने से
बचाना है– जंगल को मरुथल हो जाने से,
बचाना है– मनुष्य को जंगल हो जाने से।
बदलते समय में हम सबका दायित्व है कि अपनी नदियों, हवा, जंगल-ज़मीन को सुरक्षित रखें और मनुष्य के जीवन को ऊसर होने से बचाएँ।
- व्यष्टि-समष्टि
कुँवर नारायण की कविता पर यह सवाल बराबर उठाया जाता है। कि उनकी कविताओं का केन्द्र व्यक्ति है या समाज। आरम्भिक दौर की आत्म सजगता से भरी कविताओं के आधार पर कुँवर नारायण को एक ऐसे कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया गया, जिनकी कविताओं पर अस्तित्ववाद का गहरा प्रभाव है। स्वतन्त्र अस्मिता की स्थापना, जीवन में क्षण का महत्त्व, मोह का छिटकना और ऊब, घुटन, थकान-भरी निराशा की मिश्रित अभिव्यक्ति को रेखांकित करते हुए उनकी कविता को एकान्तिक व्यक्तिवाद की दृष्टि से पढ़ा गया। उनके कथ्य एवं भाषा पर भी पाश्चात्य प्रभावों को रेखांकित किया गया। कुँवर नारायण को इस दृष्टि से पढ़ना ग़लत होगा। वे उन कवियों में से हैं जिन्होंने किसी भी वाद में बँधे बिना अनुभूत सत्य को ही अपना साक्षी माना।
अनुभूत सत्य कुँवर नारायण की रचनाशीलता का सबसे बड़ा साक्ष्य है। वे अपनी सभी रचनाओं में जीवन के अनेक पक्षों और ज्ञात सत्यों को स्वानुभव की कसौटी पर आँकना चाहते हैं। कहीं भी यह अनुभव निजबद्धता का पर्याय नहीं बनता। कभी वह सृष्टि के विराट में स्वयं को तलाशता है, तो कभी प्रकृति के विस्तार में स्वयं को समर्पित अनुभव करता है। कुँवर नारायण की चिन्ता व्यक्ति के उत्कर्ष को लेकर है। कवि की वैयक्तिक चेतना का प्रकाश-वृत्त पूरी मानवता को अपने भीतर समेटे हुए है। उनकी प्रसिद्ध कविता एक अजीब–सी मुश्किल इसका अच्छा उदाहरण है-
एक अजीब-सी मुश्किल में हूँ इन दिनों-
मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताक़त
दिनों दिन क्षीण पड़ती जा रही
कवि अंग्रेज़ों से नफ़रत करना चाहता है, तो शेक्सपियर आड़े आ जाते हैं, मुसलमानों से तो ग़ालिब चले आते हैं, सिखों से तो गुरु नानक ध्यान आने लगते हैं। कम्बन, त्यागराज, मुत्तुस्वामी सब कवियों की स्मृति उनके यहाँ एक खूबसूरत एहसास की तरह दर्ज है। ये सब केवल किसी एक धर्म या जाति तक सीमित नहीं, समूचा विश्व इनका घर-आँगन है। मानवीय सद्भाव के जिन उच्चादर्शों को उन्होंने प्रतिष्ठित किया कवि उन मूल्यों से इतना प्रेम करते हैं कि वह किसी से भी नफ़रत नहीं कर पाता। कुँवर नारायण के यहाँ समष्टि का अर्थ समूची मानवता है, जिसे देश-काल की सीमाओं में रूढ़ नहीं किया जा सकता।
- सामाजिक प्रतिबद्धता
कुँवर नारायण की सामाजिक प्रतिबद्धता का स्वर किसी विचारधारा से सम्बद्ध न होकर मनुष्य मात्र के प्रति उनकी संवेदनशीलता से निःसृत है। उनकी एक नहीं अनेक कविताएँ ऐसी हैं, जिनमें राजनीतिक सचेतता, सामाजिक प्रतिबद्धता और हर हाल में आम आदमी के हक में खड़े होने की ललक देखी जा सकती है। सातवें दशक की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिस्थितियाँ आम आदमी के लिए जिस तरह की व्यूह रचना कर रही थीं, कवि उनका अनावरण करता है। स्वाधीनता के बाद का मोहभंग, सामाजिक विकास की दृष्टि का धुँधला जाना, आम आदमी की बेबसी-लाचारी और धीरे-धीरे आपातकाल की ओर बढ़ता सत्ता का केन्द्रीकरण-कवि अपने इस युग-यथार्थ का साक्षी है। वे समाज की चेतस इकाई की तरह समय की करवट को महसूस करता है। अपने-सामने, कोई दूसरा नहीं, इन दिनों, हाशिये का गवाह – संग्रहों में अनेक ऐसी कविताएँ हैं। सम्मेदीन की लड़ाई इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कविता है। सम्मेदीन मात्र एक संज्ञा नहीं, भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंग लड़ता भारतीय नागरिक है जो लोकतन्त्र की उम्मीद है। कवि उसकी लड़ाई को मात्र राजनीतिक परिदृश्य तक सीमित नहीं रखते। उनके शब्दों में:
अन्धेरों के खिलाफ़… ख़बर रहे
किस किस के खिलाफ़ लड़ते हुए
मारा गया निहत्था सम्मेदीन
बचाए रखना
उस उजाले को
जिसे अपने बाद
ज़िन्दा छोड़ जाने के लिए
जान पर खेल कर आज
एक लड़ाई लड़ रहा है
किसी गाँव का कोई ख़ब्ती सम्मेदीन
कवि एक सजग नागरिक की भाँति उस महान लोकतन्त्र को बेनकाब करते हैं, जहाँ शोषण की अतिशयता व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन कर रही थी। कुँवर जी की कविताओं में भी भारतीय लोकतन्त्र के उस अध्याय को पढ़ा जा सकता है जहाँ हत्याएँ होती हैं, बच्चे भूख से मरते हैं। जनता बेकसूर होकर भी कटघरे में खड़ी है। गरीबी, भूख और लाचारी ने आम आदमी को बेबस कर दिया है।
कवि की दृष्टि सिर्फ़ अपने देश और समय तक सीमित नहीं है। दुनिया में जहाँ कहीं भी शोषण और अन्याय के अध्याय रचे जा रहे हैं, वह उन पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। वियतनाम और काले लोग कविताओं में कुँवर नारायण अपनी संवेदना का दायरा बड़ा कर लेते हैं। वियतनाम के विस्थापितों की पीड़ा और रंग-भेद का दंश झेलते दुनिया के काले लोगों की आवाज़ उनकी कलम की नोंक से सुनाई देती है-
सुना है वे भी इन्सान हैं, मगर काले हैं
जिन्हें कुछ गोरे जानवरों की तरह पाले हैं।
ये कविताएँ एक बार फिर सिद्ध करती हैं कि कवि की चिन्ता मानव मात्र को लेकर है। उनकी सहानुभूति हर उस मनुष्य के साथ है जिसकी गरिमा को सत्ताएँ चोट पहुँचाती हैं। सन् 2009 में प्रकाशित काव्य-संग्रह हाशिए का गवाह में कुँवर नारायण एक कदम और आगे बढ़ाते हैं। वर्तमान की विकरालता इस संग्रह की कविताओं में भी भली-भाँति अंकित है– बाज़ार की चकाचौंध (बाज़ारों की तरफ), विज्ञापन की सच ढँकने की कोशिश (काला और सफ़ेद), अपने खूँखार जबड़ों में आदमी को दबोचकर बैठा दैत्याकार शहर (शहर और आदमी), शक्ति का उद्दण्ड प्रदर्शन और आदमी की लाचारी (अगर इन्सान ही हूँ)। इन सभी कविताओं में स्थिति का स्वीकार मात्र नहीं है, कवि अपनी मानवीय दृष्टि से उसका प्रतिपक्ष रचता है।
- कविता और मानवीयता
अन्धेरों के वर्चस्व को अस्वीकार करती कुँवर नारायण की कविता बहुत गहरी संवेदनशीलता से जीवनी-शक्ति प्राप्त करती है। कवि के लिए कविता और मानवीयता लगभग पर्याय हैं। इसलिए यदि मनुष्य को बचाना है तो कविता को बचाना होगा, भाषा को बचाना होगा। यकीनों की जल्दबाज़ी में, कविता कविता की ज़रूरत जैसी कविताओं में कवि, कविता की पक्षधरता करता दिखाई पड़ता है–
कविता वक़्तव्य नहीं गवाह है
× × ×
कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता
भाषा में उसका बयान
जिसका पूरा मतलब है सच्चाई
जिसकी पूरी कोशिश है बेहतर इनसान
कवि आग्रह करते हैं कि नारों और इश्तिहारों की दुनिया में हम किसी तरह अपने मन का एक कोना कविता के लिए बचाए रखें क्योंकि जीवन में वह बहुत कुछ दे सकती है। जीवन में कोमलता की ओर लौटना, स्थितियों के विपरीत होने पर भी विश्वास को खण्डित होने से बचाए रखना और कविता को सम्भावना की तरह तलाशना यह निश्चय ही कवि की उपलब्धि है।
आज हम एक ऐसे हिंस्र समय में रह रहे हैं जहाँ हर पल थोड़ी मनुष्यता मरती जाती है। बाज़ार का वर्चस्व और बढ़ती यान्त्रिकता व्यक्ति को खुदगर्ज़ और संवेदनहीन बना रहे हैं। हिंसा और नफ़रत के इस दौर में हमारे पास एकमात्र विकल्प यही है कि हम प्यार से, नफ़रत को जीत जाएँ। इन दिनों संग्रह में इसी भाव की एक कविता है जख़्म –
इन गलियों से
बेदाग़ गुज़र जाता तो अच्छा था
और अगर
दाग़ ही लगना था तो फिर
कपड़ों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं
आत्मा पर
किसी बहुत बड़े प्यार का जख़्म होता
जो कभी न भरता
यह सदाशयता ही कुँवर नारायण की विलक्षणता है। समय की बेचैनी, गहरी उथल-पुथल, परिस्थितियों की प्रतिकूलता का एहसास कवि को बखूबी है, फिर भी एक ज़िद्द है, जो हार मानने नहीं देती। ऐसा आत्मविश्वास है, जो मनुष्यता में उनकी आस्था को मिटने नहीं देता। शायद यही आने वाले युगों के लिए वह आलोक कण हो सके जिससे दिन रुपहले और उजाले रह सकें।
- इतिहास और स्मृति
इतिहास और स्मृति कुँवर नारायण के कवित्व का अभिन्न हिस्सा हैं। ‘लखनऊ’ ‘श्रावस्ती’, ‘कुतुब मीनार’, ‘कोणार्क’, ‘फतेहपुर सीकरी’- ये सभी उनके यहाँ अपने अलग रंग में मौजूद हैं। लखनऊ, खत्म होती नवाबशाही और व्यर्थ की शहरी भागमभाग ओढ़े उनकी कविताओं में एक नए रूप में दर्ज है, तो कुतुब मीनार की ऊँचाइयाँ हमारी नीचाइयों का एहसास कराती हैं। कोणार्क का मोहक सौन्दर्य स्तब्ध करता है, तो फतेहपुर सीकरी उदास। इन सब कविताओं में इतिहास के ये स्मृति चिह्न कवि के मन पर कुछ नई रंग-रेखाएँ अंकित कर देते हैं।
कवि, अतीत के गली-कूचों में ग़ालिब, मीर, कबीर, सूर, तुलसी की भी तलाश करते हैं। इस सन्दर्भ में उनकी दो महत्त्वपूर्ण कविताएँ हैं – आजकल कबीरदास और अमीर खुसरो। कबीर और खुसरो उस काव्य परम्परा के वाहक हैं जो साझी संस्कृति को प्रतिष्ठित करते हैं। कवि, कबीर का महत्त्व इस बात में मानता है कि ‘उनका हर शब्द दृष्टि और दृष्टि-दोष में ज़रूरी भेद’ करता है। इस कविता में कुँवर नारायण कबीर के दर्शन, समाज और भाषा के संकट को संकेतित कर अपने समय और उनके समय की समान्तरता को पहचानने की कोशिश करते हैं। वे उनके दाय को अपने कवि मन के भीतर अर्जित भी करते हैं और अन्ततः कबीर की उपस्थिति ‘प्रेम’ के उस भाव में मानते हैं जो असीम और विस्तृत है। अमीर खुसरो का आकलन करते हुए कवि कला और सत्ता के आपसी सम्बन्धों के तनाव को रेखांकित कर, कलाकार की स्वतन्त्र सत्ता की प्रतिष्ठा करता है। इस कविता का एक अंश द्रष्टव्य है-
खुसरो जानता है अपने दिल में
उस दिन भी सुल्तानी आतंक ही जीता था
अपनी महफिल में।
भूल जाना मेरे बच्चे कि खुसरो दरबारी था।
वह एक ख्वाब था-
जो कभी संगीत
कभी कविता
कभी भाषा
कभी दर्शन से बनता था
वह एक नृशंस युग की सबसे जटिल पहेली था
जिसे सात बादशाहों ने बूझने की कोशिश की।
सच्ची कविता और कला का चरित्र चाटुकारिता से भिन्न होता है। वह सत्ता के आतंक के विरुद्ध मानवीय प्रतिपक्ष की पहल है। कुँवर नारायण इसी पहल की परम्परा में एक नया अध्याय जोड़ते हैं।
- परम्परा और आधुनिकता
कुँवर नारायण वर्तमान के बिन्दु से जब अतीत को देखते हैं तो कवि की दृष्टि जीवन के उस चिरन्तन सत्य का अन्वेषण करती है जो कालातीत है। पारम्परिक और आधुनिक का समन्वित स्वर उनके दो महत्त्वपूर्ण आख्यान काव्यों में प्रस्तुत हुआ है जो अपने समय से आगे बढ़कर, आने वाले युगों तक अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं। ये काव्य हैं – आत्मजयी तथा वाजश्रवा के बहाने।
आत्मजयी में कठोपनिषद् के नचिकेता प्रसंग को आधार बनाया गया है। यहाँ कथा मात्र माध्यम है नचिकेता उस आधुनिक विवेकशील मानस का प्रतिनिधि है, जिसे अपनी जिज्ञासाओं, संशयों और विद्रोह की पीड़ा का सलीब स्वयं ही उठाना पड़ता है। आत्मजयी का नचिकेता, वह चिन्तनशील प्राणी है जो प्रदत्त-परिस्थितियों को स्वीकार कर उनसे सन्तुष्ट नहीं होता। उसकी जिज्ञासाएँ उसे व्याकुल करती हैं वह बार-बार अपने होने को परिभाषित करना चाहता है। उसके सचेतन व अवचेतन में बसे सभी प्रश्न वहाँ मुखर हो उठते हैं। मृत्यु का रहस्य प्राप्त कर जब वह पुनः जीवन की ओर लौटता है तो उसमें एक नई जीवन दृष्टि का उदय हो चुका है, जो अनिवार्यतः पुरातन के निषेध से निर्मित नहीं है। मूल्य संक्रमण के घात-प्रतिघात को झेलते हुए वह अन्ततः जिस सत्य की प्राप्ति करता है, उसमें नई आस्था एवं नई आशा का संचार है।
नचिकेता को उन जीवन मूल्यों की तलाश है जिनका अस्तित्व स्वयं जीवन से भी बड़ा है। वह अपनी परम्परा और इतिहास को एक नवीन दृष्टि-बोध से अपनाने को प्रस्तुत है तभी वह आत्मजयी बनता है। रचना में नचिकेता और उसके पिता वाजश्रवा की असहमति नई और पुरानी पीढ़ी के संघर्ष का प्रतीक है लेकिन यह संघर्ष दो पीढ़ियों का सतही संघर्ष नहीं है। कवि ने इसे वैदिक वस्तुवाद और औपनिषदिक अध्यात्मवाद के बीच संघर्ष का प्रतीक माना है। वाजश्रवा उस वस्तुवादी दृष्टि का प्रतिनिधि है जो प्रकृति पर अधिकार चाहती है। नचिकेता उस आध्यात्मिक दृष्टि का पोषक है जो आन्तरिक संयमन के बिना भौतिक प्रगति को खतरनाक मानता है।
आत्मजयी के प्रकाशन के लगभग पचास बरस बाद कुँवर नारायण का दूसरा खण्डकाव्य वाजश्रवा के बहाने प्रकाशित हुआ। यह रचना आत्मजयी से सम्बन्धित भी है और स्वतन्त्र भी। यहाँ भी कथा का आधार नचिकेता और वाजश्रवा ही हैं। इस रचना में आत्मजयी की मूल समस्या को एक भिन्न दृष्टिकोण से देखा गया है। कवि ने स्वयं लिखा-
“आत्मजयी में यदि मृत्यु की ओर से जीवन को देखा गया है तो वाजश्रवा के बहाने में जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की एक कोशिश है। इस देखने (पश्य) का विशेष महत्त्व है। अन्ततः दोनों एक से ही निष्कर्ष बिन्दु पर पहुँचते-से लगते हैं, जहाँ जीवन को लाँघकर, खुले आकाश-मार्ग से, पहुँचा जा सकता है, वहीं शायद जीवन को जीते हुए थल-मार्ग से भी।” (वाजश्रवा के बहाने- कुँवर नारायण, भूमिका) जीवन और मृत्यु की वास्तविकता की पड़ताल, पीढ़ियों का संघर्ष, प्रकृति का दोहन आदि कवि की ऐसी चिन्ताएँ हैं जिन्हें वे नचिकेता और वाजश्रवा के बहाने टटोल रहे हैं। जीवन में अनेक स्थितियों की द्वन्द्वात्मकता को सचेत भाव से विश्लेषित करता है और पाता है कि अतिवाद में समन्वय सम्भव नहीं। अति-भौतिक और अति-आत्मिक के बीच समझौता हो ही नहीं सकता। इस अतिवाद में ही हिंसा की जड़ें पनपती हैं। वह समन्वय और सुलह के रास्ते तलाशना चाहता है। यह कृति इसी सदिच्छा का परिणाम है। कवि जैसी जीवन दृष्टि अर्जित करता है, उसकी अभिव्यक्ति इन पंक्तियों में हुई है-
कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है
एक जीवन-दृष्टि-
कि उसमें विनम्र अभिलाषाएँ हो
बर्बर महत्वाकांक्षाएँ नहीं,
वाणी में कवित्व हो
कर्कश तर्क-वितर्क का घमासान नहीं,
कल्पना में इन्द्रधनुषों के रंग हो,
ईर्ष्या द्वेष के बदरंग हादसे नहीं,
निकट सम्बन्धों के माध्यम से
बोलता हो पास-पड़ोस,
और एक सुभाषित, एक श्लोक की तरह
सुगठित और अकाट्य हो जीवन-विवेक।
वाजश्रवा के बहाने की रचना से कुँवर नारायण चिन्तन का एक वृत्त पूरा करते हैं। आत्मजयी से स्वतन्त्र होते हुए भी यह रचना उस खण्डकाव्य में उठे कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर ढूँढती है। कवि के रचना क्रम में इस कृति का विशेष महत्त्व है। कुँवर नारायण का समस्त रचना-कर्म जीवन-विवेक की तलाश है।
- निष्कर्ष
कुँवर नारायण की काव्य-रचनाओं से गुज़रकर हम उन्हें ऐसे कवि के रूप में पहचान पाते हैं जिनका काव्य फलक अत्यन्त विस्तृत है। विषय कि विविधता के साथ-साथ वह समय के लम्बे अन्तराल में फैला हुआ है। कवि की मुख्य चिन्ता व्यक्ति-अस्मिता को लेकर है लेकिन यह अस्मिता गहरे सामाजिक बोध से आबद्ध है। देश-काल कि सीमाओं को तोड़कर उनकी दृष्टि मानव मात्र पर टिकी है। इतिहास-स्मृति, अतीत-वर्तमान, मिथकीय चेतना और आधुनिकता के समन्वय से ही कवि अडिग आस्था को प्राप्त करता है जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीवन की सकारात्मकता को बचाए रखती है।
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पुस्तकें
- आत्मजयी, कुंवर नारायण, भारतीय ज्ञान, दिल्ली
- वाजश्रवा के बहाने, कुंवर नारायण, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
- परिवेश:हम-तुम, कुंवर नारायण,वाणी प्रकाशन, दिल्ली
- कुंवर नारायण की कविता: मिथक और यथार्थ, प्रदीप कुमार सिंह, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली
- कुंवर नारायण के काव्य में परम्परा और प्रयोग का द्वन्द्व, अमरेन्द्रनाथ त्रिपाठी, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली
- कुंवर नारायण और उनका साहित्य, अनिल मेहरोत्रा, ज्ञान भारती प्रकाशन,दिल्ली
- समकालीन हिन्दी कविता, परमानन्द श्रीवास्तव(सम्पा.), साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
- कविता के नए प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%81%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3
- https://www.youtube.com/watch?v=XGFN2UL7p7k
- https://www.youtube.com/watch?v=2AUDJ4s4WEA