23 धूमिल की कविता में विद्रोह
डॉ. हर्षबाला डॉ. हर्षबाला
पाठ का प्रारूप
1. पाठ का उद्देश्य
2. प्रस्तावना
3. धूमिल की कविता में विद्रोह का अर्थ
4. साधारण आदमी की धूमिल की अवधारणा
5. धूमिल की कविता की अवधारणा 6. निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- धूमिल की कविताओं की प्रकृति समझ सकेंगे।
- धूमिल की कविताओं के कथ्य की विशेषताएँ जान पाएँगे।
- धूमिल की कविताओं में व्यक्त आक्रोश और विद्रोह को पहचान पाएँगे।
- धूमिल के कवि व्यक्तित्व को समझ पाएँगे।
- प्रस्तावना
धूमिल साठोत्तरी हिन्दी कविता के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में समय और समाज की गहरी पड़ताल की है। उनकी कविता पाठक को सोचने के लिए विवश करती है। उनका आक्रामक अन्दाज पाठक को बेचैन करता है। उनकी इस मानसिकता को हम इस पाठ में विश्लेषित करने का प्रयास करेंगे।
- समकालीन कविता में विद्रोह का अर्थ
समकालीन हिन्दी कविता में सन् 1960 के बाद की कविता को रखा जाता है। हिन्दी के लेखकों और आलोचकों ने इसे ‘मोहभंग का दौर’ कहा है। देश की आजादी के बाद भारतीय मानस में नए भारत के निर्माण का स्वप्न पैदा हुआ। सभी ने देश की खुशहाली का सपना देखा था। इस सपने को हिन्दी कविता ने भी वाणी दी थी। धूमिल ने इस मानसिकता पर लिखा है –
मैंने कहा आजादी …
मुझे अच्छी तरह याद है
मैंने यही कहा था
मेरी नस नस में बिजली
दौड़ रही थी
उत्साह में
खुद मेरा स्वर मुझे अजनबी लग रहा था
मैंने कहा आ-जा-दी…
बीसवीं शताब्दी के छठे दशक के आसपास कवियों को लगने लगा था कि यह इन्तजार लम्बा हो गया है। कवि थकने, उदास होने और असहमत होते-होते खीजने लगे थे। यह खीज व्यवस्था से विद्रोह में बदल गई। कवि को लगने लगा कि यह व्यवस्था, सत्ता और समाज हमारे स्वप्न को साकार करने में असमर्थ है। उन्हें यह भी महसूस हुआ कि दरअसल यह समाज व्यवस्था, सत्ता, परम्परा, आदर्श, नैतिकता… ये सब व्यक्ति की बदहाली के लिए जिम्मेदार हैं। वे सब कुछ छोड़कर इस व्यवस्था से विद्रोह करने पर उतारू हो गए। धूमिल ने कहा–
उसमें सारी चीजों को नए सिरे से बदलने की
बेचैनी थी, रोष था
लेकिन उसका गुस्सा एक तथ्यहीन मिश्रण था
आग और आँसू और हाय का…
वे कहते हैं–
वहाँ न जंगल है न जनतन्त्र
वहाँ कोई सपना नहीं
वहाँ सब कुछ सदाचार की तरह असफल है
यह उनकी बेचैनी की अभिव्यक्ति है। कवि अपनी पीड़ा में जनतन्त्र के विरुद्ध होता हुआ दिखाई देने लगता है। दरअसल उनके मन में बेहतर जनतन्त्र की कल्पना है परन्तु वे उस कल्पना की कविता नहीं लिखते। वे वर्तमान के विरुद्ध लिखते हैं और लगभग गाली देने लगते हैं। गाली मनुष्य तब देता है जब वह पराजित होने लगता है। उसको लगता है कि मेरा शत्रु समर्थ है। मैं उसे परास्त नहीं कर सकता। सिर्फ नैतिकता की रक्षा करने के लिए वह अपने आपको उनसे अलग कर लेता है और उस व्यवस्था का शत्रु बन जाता है जिसने आज के मनुष्य की यह हालत बना रखी है। धूमिल कहना चाहते हैं कि मैं व्यवस्था के साथ नहीं हूँ। आगे बढ़कर वे यह भी कहते हैं कि मैं इस व्यवस्था के विरुद्ध हूँ। यही विद्रोह है और इसी मानसिकता की अभिव्यक्ति धूमिल की कविता में होती है। चूँकि यह अकेले व्यक्ति का आक्रोश है इसलिए कवि ‘मुँहफट’ हो गए हैं तथा हर किसी से, हर कहीं लड़ने-झगड़ने के लिए वे तैयार दिखतें हैं।
‘जनतन्त्र’
जिसकी रोज सैकड़ो बार हत्या होती है
और हर बार
वह भेड़ियों की जुबान पर ज़िन्दा है …
धूमिल अपनी कविताओं में देश का एक नया अर्थ करते हैं जो उनकी विद्रोही मानसिकता की उपज है। वे स्थितियों को अपने पारम्परिक अर्थ में मानने से इनकार करते हैं। उनका मत है कि हमारे देश में ऐसा ‘जनतन्त्र’ है जिसमें ज़िन्दा रहने के लिए ‘घोड़े और घास को/ एक जैसी छूट है’, जाहिर है कि या तो घोड़ा भूखा रहेगा या घास समाप्त हो जाएगी। धूमिल कहते हैं कि शर्म अब ‘सहूलियत’ बन गई है। विवेक ‘चापलूसों के तलवे’ चाट रहा है। ईमानदारी ‘अपनी चोर जेबें’ भर रही है। जनता तो मात्र एक ‘गाड़ी’ है। इस तरह धूमिल की नज़र में सारा देश ‘मेरा कारागार’ है।
जनतन्त्र, त्याग, स्वतन्त्रता…
संस्कृति, शान्ति, मनुष्यता…
ये सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
खुशफहम इरादे थे
कवि को
लगता है कि हर चीज/ झूठ है :/आदमी/ देश/ आजादी/ और प्यार–
सिर्फ नफरत सही है।…
धूमिल ने यथार्थ की इसी समझ को वाणी दी है।भाषा का यह तेवर हिन्दी कविता ने पहली बार देखा था।इसी कारण धूमिल उस दौर में अत्यन्त लोकप्रिय कवि बन गए थे। यह यथार्थ की नई समझ थी। भले ही आज हम कह सकते हैं कि यह समझ एकांगी थी, व्यक्तिगत थी, एक नाराज आदमी की समझ थी परन्तुवे कविता में सच के बहाने व्यवस्था को चोट पहुँचाना चाहता थे।इसी कारण धूमिल ने प्रत्येक प्रतिष्ठित संस्था के खिलाफ लिखा–
अपने यहाँ संसद
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है।
इसी तरह उनकी कविता इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि–
वे वकील हैं
वैज्ञानिक हैं
अध्यापक हैं
नेता हैं
दार्शनिक हैं
लेखक हैं
कवि हैं
कलाकार हैं
यानी कि-
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।…
यह कहना तो अतिशयोक्ति ही है परन्तु उस दौर में यह तर्क प्रतिष्ठित हो गया। सम्पूर्ण समाज की यह एकांगी और नकारात्मक तस्वीर है जो मोहभंग के उस दौर में कविता के केन्द्र में आ गई थी। धूमिल ने अपनी डायरी में लिखा है “जिस लेखक का खलनायक जितना सशक्त होता उसका लेखन उतना ही विस्तृत, गहरा और सक्षम होता है क्योंकि उस खलनायक के घेराव और पतन के लिए अत्यधिक जागरूकता, समझ से भरी हुई साहसिकता और संघर्ष के सटीक और सही कौशल से भरी कारगर कल्पनाशीलता की जरूरत होती है। ये सारी बातें सृजनात्मक स्तर पर सार्थक होकर एक ‘महान’ रचना बन जाती हैं। प्रेमचन्द के सम्पूर्ण लेखन में खलनायक, कहीं भी खलनायक पात्र के रूप में नहीं है। बनिए, जमीन्दार, ब्राह्मण, सरकारी कर्मचारी… ये सब उनके यहाँ सामाजिक प्राणी हैं। ये खलनायक नहीं हैं, बल्कि खलनायक के हथियार हैं। फिर खलनायक कौन है वहाँ? मेरे विचार से प्रेमचन्द के लेखन में हिन्दुस्तानी आदमी, हिन्दुस्तानी कौम का दास मन है।” धूमिल कविता को एक सार्थक वक्तव्य की तरह देखते और मानते हैं जो आदमी की जिजीविषा को रेखांकित करती है। कविता उनके लिए ठहरे हुए को हरकत में लाने, सोए हुए को जगाने का माध्यम है। धूमिल के सम्बन्ध में काशीनाथ सिंह लिखते हैं “रचना में चली आ रही वायवी, काल्पनिक और व्यक्तिगत भावभूमि को छोड़कर उसने कविता को बिम्बों की घटाओं से निकाला है। उसने कविता को अमूर्तन के अन्धेरे से उबारा। वह कहता था– ‘भाषा अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रही है। कुछ हैं जो भाषा को खा रहे हैं।’ उसने भाषा को उसकी जिम्मेदारी की जगह तैनात किया। उसने कविता को एक खास तरह की मुँहफट और खुर्राट ज़बान दी। उसने कहा कि– ”पहले लोग कहते थे, कविता करेंगे। आज हम कहते हैं कविता हो या न हो, हम आदमी करेंगे।”
प्रो. रामबक्ष ने धूमिल की कविता में व्यक्त विद्रोह को रेखांकित करते हुए लिखा है ”धूमिल की कविता में ‘व्यवस्था’ स्वयं एक पात्र है।” कहीं वह मोचीराम का जूता है, जिसकी नाप के बाहर कोई व्यक्ति नहीं है। कहीं वह ‘मकान’ है जिस पर ‘स्वागत है’ लिखा है जिसका फाटक किसी आदमखोर के जबड़े की तरह खुलता है और जिसके भीतर देखते-ही-देखते एक समूचा मुस्कुराता हुआ आदमी नमक के ढेले-सा घुल जाता है। कहीं वह पशुओं को पालतू बना रही है। कहीं यह संकेत मिलता है कि ‘वे जिसकी पीठ ठोकते हैं, उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है।’ कविता का विषय ‘व्यवस्था’ न भी हो तो भी पृष्ठभूमि में व्यवस्था बराबर बनी रहती है। कविता चाहे राजकमल चौधरी के लिए हो या प्रौढ़ शिक्षा, मोचीराम हो या पटकथा … व्यवस्था सब जगह है, जिसका विरोध हुआ है। ‘शहर का व्याकरण’ इसी व्यवस्था का प्रतीक है। राजकमल के बारे में लिखते हुए धूमिल ने उनकी इस बात की तारीफ़ की है कि ‘उनकी हर आदत/ दुनिया के व्याकरण के खिलाफ थी’। अन्य कवियों की तरह धूमिल की कविता की ‘व्यवस्था’ कोई अमूर्त्त और वायवीय नहीं है बल्कि उसका ठोस सामाजिक सन्दर्भ है।
चौराहे पर कवायद करते हुए
ट्रैफिक पुलिस के चेहरे पर
मुझे हमेशा जनतन्त्र का नक्शा
नजर आया है।
धूमिल मानते हैं और लिखते हैं कि कविता ‘किसी बौखलाए हुए आदमी’ का वक्तव्य है। इस पर विचार करना चाहिए कि आदमी कब बौखलाता है? जब उसका तर्क समाप्त हो जाता है या जब सामने वाला उसकी बात सुनने से इनकार कर देता है या समझने से इनकार कर देता है। इस तरह जब ‘सत्ता’ या ‘व्यवस्था’ को किसी भी तरीके से हम अपनी बात नहीं समझा पाते, सारे तर्क चुक जाते हैं, विरोध, असहमति सब बेअसर हो जाते हैं, तब आदमी बौखला जाता है। तब वह भी तर्क, सभ्यता, नियम, क़ानून को भूल जाता है। धूमिल कहना चाहते हैं कि आज का मनुष्य ऐसा हो गया है। इसलिए वे इस व्यक्ति के पक्ष में कविता लिखना चाहते हैं। यह आदमी ‘नाराज आदमी’ है और वह औरत, जिस पर धूमिल कविता करते हैं, वह ‘पागल औरत’ है।
- धूमिल की साधारण आदमी की अवधारणा
आज का भारतीय आदमी ऐसा है जो ‘हर अन्याय को चुपचाप’ सहता है। सवाल यह है कि क्यों सहता है? उसे बोलना चाहिए। यह जनतन्त्र है, सबको आजादी है। परन्तु धूमिल कहते हैं कि कहाँ आजादी है? वह आदमी तो ‘पेट की आग’ से डरने लगा है। व्यवस्था उसे भूखा मार देगी। धूमिल ऐसे आदमी के बारे में कहते हैं–
जो किताबों के बीच में
जानवर-सा चुप है।
कवि मानते हैं कि जानवर प्रतिरोध नहीं करता क्योंकि उसके पास भाषा नहीं है, परन्तु आदमी तो बोले। लेकिन व्यवस्था ने उसे मार-मार कर, सता-सता कर जानवर बना डाला है। धूमिल बड़ी आत्मीय पीड़ा से इस आदमी का चित्र इस तरह खींचते हैं–
तुम अपढ़ थे
गँवार थे
सीधे इतने कि बस-
‘दो और दो’ चार थे
यदि ध्यान से गणित का हिसाब देखें तो दो और दो चार ही तो होते हैं। इसमें क्या सीधापन और क्या टेढ़ापन। दो और दो पाँच तो होते नहीं। यहाँ धूमिल संकेत करते हैं कि चालाक, समझदार और पढ़े-लिखे लोग दो से शुरू करते हैं और दो-दो मिलाकर दो सौ कर देते हैं। दो और दो बाईस भी कर देते हैं। लेकिन सीधे आदमी को सीधा दिखता है। इसलिए वह मूर्ख है। मूर्ख इस दुनिया की नजर में है। धूमिल की नजर में वही ‘भला’ आदमी है, जिसका दर्द उनकी कविताओं में गरजता है।
इसलिए धूमिल को जब भी अवसर मिलता है वह इस आदमी पर कुछ-कुछ लिख देते हैं। इस आदमी पर लिखते हुए धूमिल आक्रामक नहीं होते। सहृदय हो जाते हैं। कभी-कभी थोड़ा चिढ़ जाते हैं। यह चिड़चिड़ाहट इन पंक्तियों में देखी जा सकती है।
इसीलिए मैं फिर कहता हूँ कि हर हाथ में/ गीली मिट्टी की तरह– हाँ-हाँ मत करो/
तनो/अंकड़ो/ अमर बेलि की तरह मत जियो/ जड़ पकड़ो/
बदलो– अपने आप को बदलो/ यह दुनिया बदल रही है…
इस बदलती हुई दुनिया में वह आदमी बदल नहीं रहा है। वह तो ‘अपनी उपस्थिति पर अनायास खाँस’ रहा है। जाहिर है कि यह खाँसी बीमारी की खाँसी नहीं है। अपनी उपस्थिति को वह खाँसी के माध्यम से प्रकट कर रहा है। वह तो ‘वक्त के साथ बेचैनी से’ बीत रहा है। वक्त चुपचाप गुजर जाता है। जब कोई कष्ट न हो, पीड़ा न हो, दर्द न हो तो आदमी का जीवन भी ऐसे ही बीत सकता है परन्तु धूमिल ने ‘बेचैनी’ शब्द में उसके जीवन की दास्तान का मर्म उद्घाटित कर दिया है और अपने हिस्से की सम्बन्ध भावना को भी अभिव्यक्त किया है। उसकी नाक ऊँची है, बरौनियाँ सटी हुई हैं। उसकी गर्दन लम्बी है। वह इस शक में जीवित रहता है कि किसी ने रास्ते भर उसका पीछा किया है। यह शक उसके मन में कितना भय पैदा कर रहा है। धूमिल इसे कविता में अनकहा छोड़ देते हैं। उसकी उम्र सत्ताइस वर्ष है और जिसके प्रेम पत्रों की आँच पर उसकी प्रेमिकाएँ रोटियाँ सेंकती हैं। इस तरह वह आदमी अपने आप में ‘सम्भावित नर्क’ है। इस आदमी को समझ में आ गया है–
ज़िन्दा रहने के लिए
पालतू होना जरूरी है।
धूमिल प्रश्न करते हैं कि यह आदमी कौन है और कैसा है? क्या वह धूमिल है? नहीं–
वह धूमिल नहीं–
एक डरा हुआ हिन्दू है
उसके बीवी है
बच्चे हैं
घर है
अपने हिस्से का देश
ईश्वर की दी हुई गरीबी है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि गरीबी ईश्वर की दी हुई नहीं है। यह गरीबी व्यवस्था की दी हुई है, परन्तु उसे यह समझा दिया गया है कि गरीबी उसके भाग्य से, ईश्वर से मिली हुई है। अतः उसका विरोध करने का कोई फायदा नहीं है। धूमिल मानते हैं कि समय की सच्चाई को जानना ‘विरोध में होना’ है। धूमिल जानते हैं इसलिए विद्रोह की कविताएँ लिखते हैं। वह आदमी नहीं जानता इसलिए वह चुप है और बर्दाश्त करता है। धूमिल उसके हिस्से के दर्द को वाणी देते हैं। धूमिल की कविता उस साधारण आदमी का जीवन जीने का हलफनामा है जिसे सभी राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग करना चाहते हैं। वह नारों और सिद्धान्तों के खोखलेपन से ऊबकर सिर्फ दो वक्त की रोटी के जुगाड़ के लिए ही संघर्षरत है। शब्दों के बीच कभी उस आदमी को जाति, तो कभी वर्ग बनाया जा रहा है पर वह निर्दोष आदमी हलफनामा दर्ज कराना चाहता है कि वह किसी का हथियार नहीं है। धूमिल कविता को नए ढंग से परिभाषित करते हुए कहते हैं–
कविता
शब्दों की अदालत में
अपराधियों के कटघरे में
खड़े एक निर्दोष आदमी का
लफनामा है।
- धूमिल की कविता की अवधारणा
धूमिल की कविता जीवन सत्य को उभारने का माध्यम है। यद्यपि धूमिल कभी-कभी खीझकर इस ‘ससुरी कविता’ को ‘जंगल से जनता तक ढोने’ से इनकार करते हैं। ये वे कविताएँ हैं जो आत्मरति से उपजी हैं। इस कविता को जागृति और सामाजिकता से जोड़कर ही धूमिल कविता पर बहस करते हैं–
इससे पहले कि वह तुम्हें
सिलसिले से काटकर अलग कर दें
कविता पर बहस शुरू करो
और शहर को अपनी ओर झुका लो
इस तरह धूमिल कविता को नए ढंग से परिभाषित करना चाहते हैं। उन्होंने कई कविताएँ लिखी हैं जिन्हें हम ‘कविता के बारे में कविता’ कह सकते हैं। उनकी कविताओं में कई वक्तव्य आते हैं जिनसे कविता का अर्थ और प्रभाव विश्लेषित किया गया है। उनका कहना है कि ‘कविता का मतलब है– भाषा में आदमी होना’ वे कहते हैं–
शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
उनके लिए भाषा इस आदमी को समझने का जरिया है। जटिल बिम्बधर्मिता से दूर और रोमानियत से परे उनके लिए भाषा कविता में आदमियत की तमीज है। भाषा के माध्यम से भी उन्होंने विरोध दर्ज किया है। बुद्धिजीवी जब भाषा पर संयम बरतने की अपील करते हैं तो हैं तो धूमिल लिखते हैं–
आखिर मैं क्या करूँ
आप ही जवाब दो?
तितली के पंखों में
पटाखा बाँधकर भाषा के हलके में
कौन–सा गुल खिला दूँ
जब ढेर सारे दोस्तों का गुस्सा
हाशिए पर चुटकुला बन रहा है
क्या मैं व्याकरण की नाक पर रुमाल बाँधकर
निष्ठा का तुक विष्ठा से मिला दूँ?
यहाँ इस प्रश्न पर भी विचार किया जाना चाहिए कि धूमिल व्यवस्था का विरोध करते हुए किसके समर्थन में खड़े होते हैं अर्थात धूमिल का पक्ष क्या है? यहाँ यह कहना आवश्यक है कि धूमिल अपने पक्ष की कविता कम लिखते हैं। उन्हें विरोध की कविता लिखने में आनन्द आता है। इसलिए व्यवस्था जिस ‘बेकसूर आदमी’ को सजा सुना रही है उसका एक चित्र धूमिल की कविताओं में भी मिलता है।
धू
मिल कविता के बारे में कविता तो करते ही हैं, वे भाषा के बारे में भी चिन्तित रहने वाले कवि हैं। धूमिल व्यवस्था विरोधी कवि हैं उनकी कविता की केन्द्रीय चिन्ता इस व्यवस्था से विद्रोह है। इस क्रम में वे कवि कर्म की भी नई व्याख्या करते हैं। वे मानते हैं कि आज विपक्ष में कोई नहीं है। सबके सब सत्ता के पक्ष में चले गए हैं और विपक्ष में सिर्फ कविता है। तात्पर्य यह भी है कि सिर्फ कविता ईमानदार है, कविता इस देश से प्यार करती है, कविता इस देश के साधारण आदमी का पक्ष रखती है। उन्होंने लिखा है कि–
वह किसी गँवार आदमी की ऊब से
पैदा हुई थी और
एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ
शहर में चली गई।
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए पहली बार लग सकता है मानो कविता नाम की एक लड़की है, जो शिक्षित व्यक्ति के लालच में शहर चली गई हो। अब कविता ‘ऊब’ से पैदा होती है, इस विषय पर बहस हो सकती है। तब भी कविता के इतिहासकारों का मानना है कि कविता लोकगीतों के रूप में अनपढ़ गँवार लोगों द्वारा रची गई थी। बाद में विकास के दौरान वह शिक्षित मध्यवर्ग की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई है। यह वक्तव्य देकर धूमिल आगे बढ़ जाते हैं।
धूमिल इस तरह के कई असम्बद्ध वक्तव्य देते हैं, जिनसे तत्कालीन कविता के बारे में उनकी समझ का पता चलता है परन्तु वह समझ सुसंगत हो यह आवश्यक नहीं। इसी तरह उन्होंने लिखा कि तीसरे पाठ के बाद कविता में कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है। पहली बार पढ़ने पर उसके अर्थ की चमक रहती है, दूसरे पाठ में छूटा हुआ अर्थ मिल सकता है। चाहो तो तीन बार पढ़ लो। यह वक्तव्य सरलीकृत लगता है। यह कुछ कवियों पर लागू हो सकता है परन्तु सभी कविताओं पर लागू नहीं होता।
धूमिल की एक कविता है मुनासिब कार्रवाई। इसमें वे व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का दायित्व कविता को सौंपते हैं। वे मानते हैं कि इस समय का सत्य व्यवस्था के विरोध का सत्य है। व्यवस्था के समर्थन में कोई तर्क नहीं है। विरोधी दल के जो लोग दिखते हैं, उनको सत्ता पक्ष ने किसी न किसी तरीके से खरीद लिया है। यहाँ धूमिल ‘सवाल पर सवाल’ पूछते हैं और गूँगे के मुँह से उत्तर फूटता है।
कविता क्या है?
कोई पहनावा है?
कुर्त्ता-पजामा है
न भाई ना
कविता
शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी
का हलफनामा है।
कविता आगे चलती है और धूमिल फिर कहते हैं कि क्या कविता व्यक्तित्व बनाने की, अपनी छवि चमकाने की, खाने-कमाने की चीज है? यहाँ धूमिल नकार में उत्तर देते हैं परन्तु प्रश्नों से ध्वनित होता है कि कुछ लोग कविता से व्यक्तित्व बनाने का काम लेते हैं या कविता उनके लिए खाने-कमाने की चीज है। धूमिल उनकी इस मान्यता से सहमत नहीं। कविता इस काम के लिए नहीं हैं। उनके लिए कविता–
भाषा में
आदमी होने की तमीज है।
यहाँ ‘आदमी होना’ सिर्फ जैविक सन्दर्भ में आदमी होना नहीं है। आदमी यहाँ आदमियत का अर्थ ध्वनित करता है। उसके संकेत दूर तक जाते हैं।
धूमिल मानते हैं कि भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है। वह तो है ही, साथ ही कई बार वह ‘प्रायोजित अर्थ’ को ध्वनित करने लगती है। उससे सावधान रहने की जरूरत है। जानबूझकर उन्होंने आदमी को ‘गूँगा’ बना दिया है। वह वही भाषा बोलता है जो ‘वे लोग’ चाहते हैं और वे लोग तो चाहते हैं कि आप कभी कुछ बोलें ही नहीं।
धूमिल ने एक जगह लिखा है ‘भाषा ठीक करने से पहले आदमी को ठीक’ करना चाहिए। वे यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं परन्तु आदमी को ‘ठीक’ करना सरल नहीं है। इसकी लम्बी प्रक्रिया है। इसमें यदि आप चले गए तो …! धूमिल इस विषय पर मौन रहते हैं।
धूमिल की प्रसिद्ध कविता पटकथा का प्रारम्भ इन पंक्तियों से होता है–
जब मैं बाहर आया
मेरे हाथों में
एक कविता थी और दिमाग में
आँतों का एक्स-रे
इन पंक्तियों से अहसास होता है कि धूमिल कविता को और भाषा को कितना महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनका मानना है कि इस व्यवस्था ने भाषा का व्याकरण बिगाड़ दिया है। इसने किसी चीज को सही जगह नहीं रहने दिया है–
न संज्ञा
न विशेषण
न सर्वनाम
एक समूचा और सही वाक्य
टूटकर
बिखर गया है
उनकी व्याकरण इस देश की
शिराओं में छिपे हुए कारकों का
हत्यारा है…
यहाँ व्याकरण व्यवस्था का प्रतीक बन गया है और धूमिल व्यवस्था के भीतर की अव्यवस्था पर टिप्पणी कर रहे हैं। व्यवस्था का संचालन चालाक लोग कर रहे हैं और सामान्य आदमी उसका शिकार हो रहा है। एक जगह कविता की कुछ पंक्तियाँ है–
उन लोगों ने
बहस के लिए
भूख की जगह
भाषा को रख दिया है
यहाँ धूमिल भाषाई आन्दोलन के सन्दर्भ में कुछ अलग वक्तव्य देते हुए नजर आते हैं। भूख और भाषा का यहाँ अलग अर्थ है। धूमिल अपनी कविता में– ‘भूख’ शब्द को कई अर्थों में प्रयुक्त करते हैं। भूख सिर्फ खाने की भूख नहीं है। वह प्रत्येक मनुष्य की जैविक जरूरत है। मनुष्य के रहने के लिए घर, पहनने के लिए कपड़ा, मेहमान के स्वागत के लिए सामान, घर खर्च के लिए आमदनी, मनोरंजन के लिए वक्त, इज्जत से जीना– यह सब इस ‘भूख’ द्वारा अभिव्यक्त होता है। मनुष्य पशु नहीं है जो सिर्फ भोजन से सन्तुष्ट हो जाए। उसकी सारी बुनियादी आवश्यकताएँ इस शब्द द्वारा व्यंजित होती हैं। ‘भाषा’ का अर्थ धूमिल अभिव्यक्ति के लिए करते हैं। जब आप अपने आप को अभिव्यक्त करते हैं तो आपका दर्द, आपका क्रोध, आपकी निराशा भी अभिव्यक्ति पाती है। जब आप बोलते हैं, तो प्रतिरोध में बोलते हैं। इसलिए व्यवस्था चाहती है कि आप गूँगे ही रहें और यदि आप कभी बोलें तो वह बोलें जो ‘वे लोग’ चाहते हैं। उन्होंने आपके लिए एक अलग भाषा बना रखी है। वे चाहते हैं कि आप ‘भूख’ पर बहस न करें, चर्चा न करें। बहस करेंगे तो आप भूख मिटाने के उपायों पर चर्चा करेंगे और तब आप उनके विरोधी हो जाएँगे। इसलिए उन्होंने हिन्दी-तमिल का झूठा झगड़ा डाल दिया ताकि आप निरर्थक मुद्दे पर चर्चा करते रहें और आपकी ताकत उसी में खर्च हो जाए।
इसी क्रम में धूमिल एक जगह कहते हैं कि भूख ‘सबसे पहले भाषा को खा’ जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि आदमी समझौता कर लेता है। पालतू बन जाता है। विरोध करना टाल देता है। हाँ-हाँ में सिर हिलाता है; क्योंकि ‘पेट की आग’ से डरता है। इसलिए धूमिल आगाह करते हैं –
मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
यदि सही दूरी नहीं है
तो तुम अपने आपको आदमी मत कहो
धूमिल कहते हैं कि अब समय बदल गया है–
इस वक्त जबकि कान नहीं सुनते हैं कविताएँ
कविता पेट से सुनी जा रही है आदमी
गज़ल नहीं गा रहा है गज़ल
आदमी को गा रही है
यह कथन चौकाने वाला तो है ही, व्यवस्था की विद्रूपता को भी अभिव्यक्ति देने वाला वक्तव्य है।
- निष्कर्ष
धूमिल मोहभंग की मानसिकता से ग्रस्त कवि हैं। उन्होंने अपनी कविता में ‘व्यवस्था’ को परिभाषित करने का प्रयास किया है तथा हर जगह उसके विरुद्ध वक्तव्य दिया है। यह वक्तव्य मुँहफट और एकांगी है। धूमिल का यह विद्रोह अपने में ईमानदार अकेले व्यक्ति का विद्रोह है। इसलिए उनके द्वारा प्रस्तुत तस्वीर एकांगी प्रतीत होती है। कभी-कभी उनके बड़बोलेपन में उनकी निराशा झाँकती है। धूमिल की यह बेबाकी पाठक को प्रभावित करती है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें–
- संसद से सड़क तक- धूमिल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- क्रान्तिदर्शी कवि धूमिल- वी. कृष्ण, सीता प्रकाशन,हाथरस
- धूमिल और उसका काव्य संघर्ष- ब्रह्मदेव मिश्र, लोकभारती प्रकाशन,इलाहबाद
- समकालीन बोध और धूमिल का काव्य- डॉ. हुकुमचन्द्र राजपाल,वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली
- कविता के नए प्रतिमान- नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र-धूमिल – सम्पादक-रत्नशंकर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF_%27%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%27
- https://www.youtube.com/watch?v=MXh2LacLCS0
- https://www.youtube.com/watch?v=gIG5atE0N4E
- https://www.youtube.com/watch?v=bdqsgDLUkYw