16 रघुवीर सहाय की कविताओं का पाठ-विश्‍लेषण

प्रो. राजेन्द्र प्रकाश गौतम

 

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पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. रघुवीर सहाय की रचना-धर्मिता
  4. रामदास का पाठ-विश्‍लेषण
  5. आपकी हँसी का पाठ-विश्‍लेषण
  6. हँसो-हँसो जल्दी हँसो का पाठ-विश्‍लेषण 
  7. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • साठोत्तरी हिन्दी कविता का परिदृश्य समझ सकेंगे।
  • रघुवीर सहाय की कविताओं की प्रमुख विशेषताएँ जान पाएँगे।
  • रघुवीर सहाय का रचनात्मक लक्ष्य समझ सकेंगे।
  • समाज और राजनीति के प्रति रघुवीर सहाय का दृष्टिकोण और उनकी अन्य वैचारिक अभिव्यक्ति के रूपों की समझ बना सकेंगे।
  • रघुवीर सहाय की तीन विशिष्ट कविताओं – रामदास, आपकी हँसी और हँसो-हँसो जल्दी हँसो  के साहित्यिक विश्‍लेषण के आधार पर उनके काव्य का वैशिष्ट्य समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

रघुवीर सहाय साठोत्तरी हिन्दी कविता के प्रतिनिधि कवियों में से हैं। उन्होंने ‘प्रयोगवाद’ और ‘नई कविता’ के दौर में काव्यरचना आरम्भ की। उस दौर में हिन्दी कविता अहम् केन्द्रित होने लगी थी और लघुता का चित्रण करने के बावजूद, उसका सरोकार आम आदमी के सुख-दुख से बहुत कम रह गया था; जबकि परिवेश साधारण जन की जिन्दगी को असुरक्षित बना रहा था। अधिनायकवादी भय और भ्रष्ट राजनीति से आम आदमी का जीना दूभर हो गया था। ‘नई कविता’ में उसके दुःख-दर्द को मुखर करने की अपेक्षा काल्पनिक अस्तित्ववादी फैशनपरक दुख चित्रित होने लगा था। व्यक्तिवादिता के इस दौर की कविता की भाषा भी जटिल बिम्बों और प्रतीकों के जाल में बुरी तरह से उलझ गई थी। ऐसे समय में रघुवीर सहाय ने साधारण जन की रोजमर्रा की जिन्दगी को साधारण जन की भाषा में कहना शुरू किया। यथार्थ के बेमानी प्रयोग पर उन्होंने एतराज़ किया। रघुवीर सहाय की कविता साठोत्तरी हिन्दी कविता की भाषा को एक नई दिशा देती है। कविता में जिस सपाटबयानी को निकृष्ट माना जाता था उसे उन्होंने युग का काव्यादर्श बना दिया। छायावाद की काव्यभाषा अपनी वायवीयता के लिए जानी जाती है और नई कविता की भाषा बिम्ब पर विशेष बल देकर रूपवाद की ओर झुक जाती है। रघुवीर सहाय की कविता अख़बार के निकट पहुँच जाती है, लेकिन अखबारी न होकर उसका रूप सृजनात्मक रहता है। संवेदना के सम्प्रेषण की इतनी ताज़गी भरी भाषा उनके किसी समकालीन में दिखाई नहीं देती। न तो उनकी कविता में लय अनुपस्थित है और न अनुप्रास, फिर भी वे न रोमानी गीतकार के समकक्ष हैं और न तुकबन्दी के कवि। उनकी भाषा में गद्य का रंग प्रधान है और यह गद्य कविता को भारी भरकम नहीं बनाता, बल्कि उसे एक लोच देता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण रघुवीर सहाय का रचना-कौशल युग-निर्माता कवि का कौशल कहा जा सकता है।

  1. रघुवीर सहाय की रचनाधर्मिता

 

रघुवीर सहाय का समूचा लेखन आम आदमी के सुख-दुःख का चित्रण करता है। उनकी कविता जनसाधारण की कविता है। उनका रचना-संसार स्वातन्त्र्योत्तर भारत के यथार्थ से निर्मित हुआ है। उनकी काव्य-यात्रा स्वतन्त्र भारत में ‘लोकतन्त्र की विचार-यात्रा’ भी है। इस यात्रा के प्रारम्भ से लेकर बीसवीं सदी के अन्त तक, लगभग आधी सदी का भारतीय समाज उनकी कविता में बोलता दिखाई देता है। रघुवीर सहाय प्रतिबद्ध और यथार्थवादी रचनाकार हैं। अपनी इस प्रतिबद्धता को व्यक्त करते हुए वे कहते हैं – “विचार वस्तु का कविता में खून की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है और यह तभी सम्भव है, जब हमारी कविता की जड़ें यथार्थ में हों।” (रघुवीर सहाय रचनावली, भाग-1 : सं. सुरेश शर्मा, पृष्ठ-38) रघुवीर सहाय ने यथार्थ को सही सृजनात्मक आयाम दिया है। उन्होंने यथार्थ को वैज्ञानिक ढंग से समझने की बात कही है– “कोशिश तो यही रही है कि सामाजिक यथार्थ के प्रति अधिक जागरूक रहा जाए और वैज्ञानिक तरीके से समाज को समझा जाए।’’ (दूसरा सप्तक, सं.-अज्ञेय, पृष्ठ-139) रघुवीर सहाय ने साहित्यिक लेखन को एक सामाजिक प्रतिमान माना। सन् 1950 के बाद लोकतन्त्र के नाम पर जो कुछ हुआ उससे सभी वाकिफ हैं। कुल मिलाकर हमारे इस लोकतन्त्र ने, रघुवीर सहाय के शब्दों में– “मोटे, बहुत मोटे तौर पर हमें इन्सान की शानदार जिन्दगी और कुत्ते की मौत के बीच चाँप लिया है।”(आत्महत्या के विरुद्ध -रघुवीर सहाय, वक्तव्य से). लोकतन्त्र इस धारणा को लेकर चलता है कि शासन में जनता की हिस्सेदारी, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, आर्थिक समानता आदि हो, जो वर्तमान व्यवस्था में पूर्णत: अनुपस्थित नज़र आती है। चुनाव में जनप्रतिनिधि के रूप में तो पूँजीपतियों के ही प्रतिनिधि चुने जाते हैं या बना लिए जाते हैं। ये प्रतिनिधिगण अस्थिर समाज को सुधारने की बजाए उसे तोड़ने में लगे हैं। यह केवल कवि के समय का यथार्थ नहीं, बल्कि हमारे अपने समय का यथार्थ भी है–

                        मुझे शक है

                        टूटते हुए समाज का रोना जो रोते हैं

                        उनके कल परसों के आँसुओं का

                        प्रमाण मेरे पास लाओ

                        मुझे शक है ये टूटते समाज में

                        हिस्सा लेने आए हैं, उसे टूटने से रोकने के लिए नहीं।

रघुवीर सहाय लोकतन्त्र की विसंगति, विडम्बना को बहुत गहराई में जाकर उघाड़ते हैं और बार-बार इस पर व्यंग्य करते हैं–

                        संसद एक मन्दिर जहाँ किसी को द्रोही कहा नहीं

                      जा सकता

          ***

                        दस मन्त्री बेईमान और कोई अपराध  सिद्ध नहीं

                        काल रोग का फल है और अकाल अनावृष्टि का

                        यह भारत एक महागद्दा है प्रेम का

ऐसे लोकतन्त्र में बुर्जुआ वर्ग को छोड़कर सभी उद्देश्यहीनता की जिन्दगी जीते हैं। वे जीते हैं सिर्फ जीने के लिए, लड़का बड़ा होता है सिर्फ बड़ा होने के लिए, उसके पास न कोई शक्ति है न उद्देश्य–

                        बड़ा हो रहा है लड़का / उन औजारों के बिना

                        जिससे वह बनाता और तोड़ता हुआ बड़ा होता

                        वह सिर्फ बड़ा हो रहा है। 

 

यह व्यवस्था नाकाम और कमजोर आदमी बनाती है, जिससे कोई अन्याय के खिलाफ आवाज़ न उठा सके। इस प्रकार भारत की स्वाधीनता के बाद भी बुर्जुआ लोकतन्त्र से यहाँ की जनता को दुबारा पराधीन होना पड़ा। देश की जनता ने जब आजादी की लड़ाई लड़ी थी, तब उसने सोचा था कि आजादी के बाद देश में आर्थिक एवं सामाजिक समानता होगी, शोषण और अन्याय से मुक्ति मिलेगी। लोकतन्त्र में अधिनायकवादी शक्तियों का भय नहीं होगा। खुशहाली के साथ-साथ सामाजिक न्याय होगा, जनता सन्त्रास से मुक्त होगी। लेकिन जनता के ये सपने बहुत जल्दी टूट गए। भ्रष्ट राजनेताओं की स्वार्थ-वृत्ति ने जनता के सभी सपनों को चूर-चूर कर दिया। रघुवीर सहाय स्वप्‍न भंग पर लिखते हैं–

बीस वर्ष/ खो गए भरमे उपदेश में

                        एक पूरी पीढ़ी जनमी पलीपुसी क्लेश में

                        बेमानी हो गई अपने ही देश में।

 

रघुवीर सहाय के रचनाओं की प्रतिबद्धता है जनता और इस जनता में स्त्री भी शामिल है, जो सदियों से शोषित पीड़ित है। साहित्य में अब तक चित्रित स्त्री को रघुवीर सहाय ने पढ़िए गीता कविता में चित्रित किया है। इस में वे नारी की कल्पित मर्यादा को ढहा कर एक ‘विडम्बना’ पैदा करते हुए निम्‍न मध्यमवर्गीय नारी की पूरी जीवन-गाथा और उसकी विडम्बना प्रस्तुत करते हैं। स्त्री सन्दर्भ की उनकी अन्य प्रमुख कविताएँ हैं- किले में औरत, बड़ी हो रही लड़की औरत का सीना, बैंक में लड़कियाँ, नारी, दयावती का कुनबा औरत की जिन्दगी रघुवीर सहाय बहुत कम शब्दों में नारी की परिस्थितियों का वर्णन कर देते हैं। उनकी स्मिता की पहचान भी कराते हैं, साथ-साथ उन्हें संघर्ष की ओर प्रेरित भी करते हैं। कभी-कभी उनकी सहनशीलता का घोर विरोध भी करते हैं–

                          नारी बिचारी है /पुरुष की मारी है

                          तन से क्षुधित है /मन से मुदित है

                          लपक झपक कर /अन्त में चित है।

 

रघुवीर सहाय की कविता में केवल शोषित, भ्रष्ट समाज और उस समाज में हताश-निराश लोग ही दिखाई नहीं देते, बल्कि उन्हें उस समाज में बदलाव की एक उम्मीद भी दिखाई देती है। वे इस शोषित समाज को सचेत कर अपनी इस दशा को बदलने के लिए प्रेरित करते हैं। रघुवीर सहाय ने यह बखूबी जाना कि जीना लाचारी और बेबसी का नाम नहीं है, यह संघर्ष और विकल्प के सृजन का नाम है–

                           शक्ति दो, बल दो हे पिता !

                          जब दुःख के भार से मन थकने आए

                          पैरों में कुली-की-सी चाल छटपटा

                          इतना सौजन्य दो कि दूसरों के बक्स-बिस्तर घर तक

                          पहुँचा आएँ

 

समाज के परायेपन को वे स्वीकार नहीं करते। यह स्वीकार अपने होने की पहचान मिटा देता है। अलगाव के परिवेश में भी रघुवीर सहाय को आशा की किरण दिखाई देती है। उसमें अटूट विश्‍वास और आस्था है जो कहती है कि एक न एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा।

                          दूसरे तीसरे जब इधर से निकलता हूँ

                          देखता हूँ, अरे इस वर्ष गुलमोहर में अभी तक

                          फूल नहीं आया

                          इसी तरह आशा करते रहना कितना अच्छा है

                          विश्‍वास रहता है कि वह प्रज्ज्वलित रूप

                          मैं भूल नहीं आया।

 

रघुवीर सहाय न व्यथा को स्वीकार करते हैं, न जीवन से पलायन को। वे व्यथा से, दुःख-दर्द से मुक्ति की कामना करते हैं। वे कहते हैं कि आजादी के बाद हर साधारण मनुष्य ने अपने लिए जो स्वप्‍न देखा था, उनकी जो आशाएँ थीं, हक़ था वह सब पूरा होना चाहिए–

                          हमको तो अपना सब हक़ मिलना चाहिए

                          हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन

                          कम से कम वाली बात न हमसे कहिए।

 

जीवन के प्रति इस प्रकार की आस्था मनुष्य को हर विपरीत परिस्थिति, हर द्वन्द्व, हर कठिनाई से जूझने की इच्छा शक्ति देती है, वह टूटता नहीं, न ही पराजित होता है। रघुवीर सहाय समाज में व्याप्‍त इस भयावह परिस्थिति से स्वविवेक के आधार पर लड़ते हैं, परन्तु कविता में कोई निष्कर्ष या निर्णय नहीं देते। वे जनता में इसकी समझ देते हैं जो अपना विकल्प खुद बनाएगी। रघुवीर सहाय का कविता संसार बहुत बड़ा है, जिसमें उन्होंने हर शोषित-उत्पीड़ित के दुःख-दर्द को पहचाना और संघर्ष किया है। वे सबके दुःख-दर्द में भागीदार हुए, सबके लिए लड़े, भाषा के स्तर पर, सबको अपना अधिकार प्राप्‍त कराने के लिए लड़ते रहे, जीवन के अन्त तक एक अदम्य जिजीविषा के साथ।

  1. रामदास का पाठ-विश्‍लेषण

स्वाधीनता के बाद जिस लोकतन्त्र की स्थापना हुई और उसमें साधारण जनता की जो हालत हुई वह रघुवीर सहाय की रामदास  कविता में बहुत स्पष्ट है। इस कविता के सन्दर्भ में वे कहते हैं “उनके भीतर दुःख की कई परतें समाई हुई हैं और दुःख के खिलाफ कई सतहें भी और इसमें रचनात्मकता के कई प्रयत्‍न समाहित हैं और मानवीय सभ्यता पर तथा मानवीय आत्मा पर आक्रमण को निरस्त करने के कई प्रयत्‍न हैं।” (रघुवीर सहाय रचनावली, भाग-3: सम्पादक-सुरेश शर्मा, पृष्ठ-483) इस तरह लोकतन्त्र की विडम्बना को वे पूरे साहस के साथ उघाड़ते हैं। उनकी कविताएँ एक सपाट और सीधा वक्तव्य है क्योंकि वे जानते हैं कि दो अर्थ वाले शब्द हमेशा खतरनाक होते हैं, सत्ता इनका उपयोग अपने पक्ष में कर सकती है, इसलिए वे पहले ऐसी भाषा पाना चाहते हैं, जिसके दो अर्थ न हो।

 

रघुवीर सहाय की यह कविता उनके समकालीन सन्दर्भों के साथ-साथ वर्तमान सन्दर्भ की भी कविता है। यह आम आदमी की निस्सहायता की कविता है, हत्या की सरेआम घोषणा के बावजूद अपनी जान न बचा पाने की, अकेले पड़ते जाने की, मृत्यु के कुछ क्षण पहले की घनघोर उदासी की और समाज के संवेदनहीनता के चरम की कविता है। हत्यारा रामदास को मारने की घोषणा पहले ही कर चुका है। जाहिर है हत्यारे की यह धृष्टता क्रमशः ही बढ़ी होगी। इस बात की भी प्रबल सम्भावना है कि हत्यारे के पीछे किसी राजनीतिक सत्ता का समर्थन होगा, फिर भी उसकी धृष्टता बढ़ने का सबसे बड़ा कारण लोगों में आपसी एकजुटता का न होना है, एक-दूसरे के प्रति अविश्‍वास का होना है। इसीलिए कविता में रामदास एक बार किसी को साथ ले लेने के बारे में सोचता तो है, पर या तो वह इसी अविश्‍वास के कारण किसी को नहीं बुलाता है या फिर लोग ऐक्य की कमी या भय के कारण उसका साथ नहीं देते। सभी लोग रामदास की इस पूर्व घोषित हत्या के मूक दर्शक हैं, हत्यारा फिर उसी भीड़ के बीच से वापस लौटता है, लेकिन कोई प्रतिरोध का एक शब्द तक नहीं बोलता, शायद इस भय से कि कहीं उसकी भी हत्या न हो जाए। लेकिन इस कविता का सन्देश ही है कि यह रामदास  कोई भी जन सामान्य हो सकता है। मूक दर्शकों में से ही कोई अगला रामदास  हो सकता है। दरअसल यह मानवता और जन साधारण की सरेआम हत्या की कविता है।

एक स्तर पर यह कविता मुक्तिबोध के रचनासंसार के एक पक्ष से जा मिलती है। मुक्तिबोध ‘भयानक खबर के कवि’ हैं। रघुवीर सहाय की इस कविता में भी आद्योपान्त भय विद्यमान है, ऐसा भय जो रीढ़ तक समाता है। मुक्तिबोध की कविताओं में भय फैण्टेसी के रूप में और जटिलता के साथ आता है, तो यहाँ भय की अभिव्यक्ति अत्यन्त सरल शब्दों व प्रतीकों के माध्यम से हुई है। कवि का उद्देश्य इस कविता में एक साधारणनिरीह मनुष्य की हत्या की त्रासदी का वर्णन करना भर नहीं है बल्कि वह ऐसी हत्याओं के प्रति लोगों की सो चुकी संवेदना को जगाना चाहता है कि ऐसी हत्या का अगला ग्रास वे स्वयं न बनें।

 

रघुवीर सहाय की व्यक्तिवाचक नामों वाली कविताओं में रामदास  को विशिष्टतम कहा जा सकता है।

रघुवीर सहाय ने अपनी कविता में लयों और छन्दों का बहुत सार्थक और प्रभावी प्रयोग किया है। उनके कई समकालीन कवि छन्दों का प्रयोग रोमानी भाव बोध के लिजलिजे गीत लिखने के लिए कर रहे थे। लेकिन निराला और नवगीतकारों की तरह उन्होंने लयों और छन्दों की शक्ति का प्रयोग परिवेश की विसंगतियों के प्रभावपूर्ण चित्रण के लिए किया है। इसका बहुत सशक्त उदाहरण उनकी रामदास  कविता है। इस कविता की भाषा का यह मुहावरा असाधारण सृजन-शक्ति का प्रमाण है–

 

चौड़ी सड़क गली पतली थी,

दिन का समय घनी बदली थी,

रामदास उस दिन उदास था,

अन्त समय आ गया पास था,

खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर,

दोनों हाथ पेट पर रख कर,

हाथ तौल कर चाकू मारा,

भीड़ ठेल कर लौट गया वह,

लोग निडर उस जगह खड़े रह

जैसे प्रयोग इसी सृजन-शक्ति का उदहारण हैं।

  1. आपकी हँसी  का पाठ-विश्‍लेषण

रघुवीर सहाय की कविता में हँसी का बहुआयामी और रचनात्मक प्रयोग हुआ है। हँसना सचमुच एक बहुत बड़ी, गहराई से अर्थ देने वाली प्रभावात्मक क्रिया है। यह सिर्फ आनन्द का सूचक नहीं; करुणा, आतंक, पराजय, व्यंग्य का भी सूचक है। हँसना बहु-अर्थ-व्यंजक है। हर विसंगति और विडम्बना पर हँसा जा सकता है, उसे बदलने के लिए, उसके विरोध में जाने के लिए; असंगति का आनन्द लेने के लिए नहीं।

 

हँसी मनुष्य की नैसर्गिक अभिव्यक्ति का एक महत्त्वपूर्ण रूप है। ऐसे समय में जबकि अमानवीय व्यवस्था ने भाषा को भी अपने पक्ष में इस्तेमाल करना आरम्भ कर दिया हो, हँसी मनुष्य की भावनाओं को सशक्त रूप में अभिव्यक्त कर सकती है। रघुवीर सहाय लिखते हैं– “…यह सच है कि हँसी को मैंने आदमी की बदलती हुई हालत का एक सूचक जैसे मान लिया है। जहाँ भाषा से, उसकी भाषा से उसको समझना इतना आसान नहीं होता है वह आप अक्सर देखते हैं कि आदमी की हँसी से आप उसको समझ लेते हैं।” इसीलिए ‘हँसी’ रघुवीर सहाय की कविताओं में कई रूप में और अलग-अलग अर्थ सन्दर्भों के साथ आती है। आपकी हँसी  शीर्षक कविता में भी हँसी का एक विशिष्ट स्वरूप सामने आता है। मात्र बारह पंक्तियों की यह कविता सत्ता के चरित्र को हँसी के माध्यम से पूरी तरह उद्घाटित कर देती है। यहाँ हँसी हास्य-विनोद की सृष्टि नहीं करती, वरन भय, आतंक व हिंसा का वातावरण उत्पन्‍न करती है। सत्ता पक्ष ‘निर्धन जनता के शोषण’, ‘लोकतन्त्र की मृत्यु’ आदि का स्वयं जिम्मेदार होते हुए भी इन वास्तविक समस्याओं की हँसी ही नहीं उड़ाता, बल्कि उन्हें हँसी में उड़ाकर निरर्थक अदृश्य और अमूर्त्त बना देता है।

 

यह कविता ‘आप’ और ‘मैं’ के बीच चलती है। इस ‘आप’ में केवल सत्ता पक्ष ही नहीं बल्कि उसमें शामिल होने के लिए प्रयासरत हिस्सा भी है, जो भ्रष्टाचार, अवसरवादिता जैसे मुद्दों की खिल्ली उड़ाता है ताकि उसके लिए भी सत्ता का मार्ग प्रशस्त हो सके। इस भयावह और क्रूर ‘आप’ के बरख्श ‘मैं’ के रूप में निरीह आम आदमी का दयनीय चेहरा है…जिसे अकेला पाकर (या करके) हिंसक सत्ताधारी क्रूर अट्टहास करता है।

 

पूरी कविता की भाषा एक तनाव की भाषा है।‘कह कर आप हँसे’ जैसे एक घूर्णन-बिंदु है। शेष सारी पंक्तियाँ उसी के इर्द-गिर्द घूमती हुई एक तनाव ग्रस्त फलक का निर्माण करती हैं। हर पंक्ति के साथ इस फलक की गति बढ़ती जाती है और उसी अनुपात में कविता का तनाव भी।

  1. हँसो हँसो जल्दी हँसो का पाठ विश्‍लेषण

हँसो हँसो जल्दी हँसो काव्य संग्रह में हँसी-प्रसंग खुलकर सामने आता है। इसमें हा-हा–हा, आपकी हँसी, हँसो हँसो जल्दी हँसो  आदि कविताएँ हँसी से सम्बन्धित हैं। रघुवीर सहाय जिस हँसी का प्रयोग अपनी कविता में करते हैं, उसमें परिहास, उपहास और आक्रोश मिला हुआ है। यह हँसी विशिष्ट परिवेश से उत्पन्‍न हुई है और उसका लक्ष्य भी विशिष्ट है। हँसी प्रसंग पर बात करते हुए रघुवीर सहाय कहते हैं कि– “शायद यह सच है कि हँसी को मैंने आदमी की बदलती हुई हालत का एक सूचक जैसा मान लिया है। जहाँ भाषा से, उसकी भाषा से उसको समझना इतना आसान नहीं होता वहाँ आप अक्सर देखते हैं कि आदमी की हँसी से आप उसको समझ लेते हैं।” (रघुवीर सहाय रचनावली,भाग-3: सम्पादक-सुरेश शर्मा, पृष्ठ-422) अतः इसी हँसी के बहाने वे उन तकलीफों को समझ लेना चाहते थे जो शायद वे सीधे-सीधे नहीं बोल सकते थे–

 

हँसो कि तुम पर निगाह रखी जा रही है

                       हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उनकी कडुवाहट

                       पकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगे

                       ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो

                      वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं

                     और मारे जाओगे।

 

हँसी’ रघुवीर सहाय की कविताओं में सर्वथा स्वाभाविक हास्य के रूप में नहीं बल्कि साभिप्राय, अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में आती है। आपकी हँसी  की हँसी जहाँ भय व आतंक का माहौल उत्पन्‍न करती है वहीं इस कविता में ‘हँसी’ अभिव्यक्ति के पर्याय के रूप में चित्रित है। हँसी के तरीके पर कवि इसलिए ध्यान आकृष्ट कराना चाहता है कि उस पर ‘निगाह रखी जा रही है’। न चाहते हुए भी हँसने की विवशता गौरतलब है। अधिकांश पंक्तियों के आरम्भ में हँसो’ शब्द का आना, हँसने की आज्ञार्थकता और विवशता का सूचक है। इस विवशतापूर्ण हँसी की कई सीमाएँ निर्धारित कर दी गई हैं, ताकि निरर्थकता के अलावा उनसे कोई और बोध न हो।

 

हँसी की इन सीमाओं में एक सीमा स्वयं पर न हँसने की भी निर्धारित की गई है, क्योंकि आत्म-उपहास से भी व्यवस्था के चेहरे के पर्दाफाश का भय है। मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका परिवेश की ही होती है। दूसरी हिदायत ऐसी हँसी के लिए दी गई है जिससे व्यक्ति बहुत खुश न दिखे, क्योंकि इस सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था ने जो अधिकांश शर्मनाक स्थितियाँ उत्पन्‍न की हैं उससे वह अछूता मालूम पड़ेगा और मारा जाएगा। कवि इस तरह हँसने की सलाह देता है कि जिससे किसी को मालूम न चले कि वह हास्य किस पर केन्द्रित था बल्कि उससे यह भान हो कि वह अत्यन्त शक्तिशाली सत्ता के समक्ष (अन्य सभी निर्बलों की तरह) अपनी पराजय के स्वीकार के साथ उसके प्रति अपनेपन की हँसी है।

                  

  हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते हो

                    सबको मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त हो

                    एक अपनापे की हँसी हँसते हो

                    जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए

 

हँसी के माध्यम से कवि देश के हताशा भरे माहौल का खुलासा तो करते ही हैं, उस जनता के प्रति क्रोध, आक्रोश भी व्यक्त करते हैं जो विरोध किए बिना शोषण और अत्याचार सहती रहती है। साथ ही वह उन पर भी क्रोध व्यक्त करता है जो गरीब पर हो रहे अत्याचार को देखकर चुप रहते हैं, विरोध नहीं करते। आत्महत्या के विरुद्ध  काव्य संग्रह में संकलित नई हँसी  कविता में कवि ने हँसी के एक दूसरे आयाम को पकड़ा है, जो बेइमानी, मक्‍कार हँसी के रूप में फूट पड़ी है। इस देश में मक्‍कारी इतनी बढ़ गई है कि जिस अख़बार को जनता का स्वर माना जाता था, वह भी नेताओं की बेईमानी में शामिल हो गया है–

                       बीस बड़े अखबारों के प्रतिनिधि पूछें पचीस बार

                       क्या हुआ समाजवाद

                       कहे महासंघपति पचीस बार हम करेंगे विचार

                      आँख मार कर पचीस बार वह, हँसे वह, पचीस बार

                      हँसे बीस अख़बार

 

‘हँसी’ को बोलने के विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने के कारण इस कविता में बोलने का जिक्र बहुत हुआ है, बोलने की आजादी सिर्फ आत्मप्रलाप तक सीमित है ‘जितनी देर ऊँचा गोल गुम्बद गूँजता रहे, उतनी देर’। लेकिन चुप रहने की इजाज़त नहीं है क्योंकि जब सभी हँस रहे हों तब चुप्पी का अर्थ ‘प्रतिवाद’ होगा। कुल मिलाकर यह कविता ‘हँसी’ के माध्यम से अभिव्यक्ति पर पाबन्दियाँ लगाकर, साधारण आदमी को एक-दूसरे से अलग-थलग कर एकाकी बना डालने और सत्ता के पक्ष में खड़े होने के लिए बाध्य करने वाली व्यवस्था का पर्दाफाश करती है। इस कविता की भाषा एक स्तर पर इतनी साधारण है कि सामान्यत: उसे कविता की भाषा मानने में संकोच हो सकता है लेकिन रघुवीर सहाय ने साधारण को भी असाधारण बना दिया है।

  1. निष्कर्ष

 

रघुवीर सहाय की कविता प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के आगे की हिन्दी कविता के विकास क्रम को रेखांकित करती है। जन-जीवन से जुड़ी यह कविता खुरदरे यथार्थ को चित्रित करती है। उन्होंने उपर्युक्त दोनों धाराओं की कविता की सीमाओं को अच्छी तरह पहचान लिया था। उनकी कविता में जनपक्षधरता का स्वर है लेकिन यह जनपक्षधरता नारे वाली जनपक्षधरता नहीं है। उसने जन की कमजोरियों और स्वार्थों को भी पहचाना था। गलत के खिलाफ आवाज़ उठाए बिना क्रान्ति और परिवर्तन सम्भव नहीं। ऊपर रघुवीर सहाय की जिन तीन कविताओं पर विशेष चर्चा हुई है और उनके कथ्य और शिल्प का जो विवेचन हुआ है, उसके आधर पर कहा जा सकता है कि रघुवीर सहाय यथास्थिति को तोड़ने वाले कवि हैं। वे जन की त्रासदी को बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते हैं। उनकी कविता ने आने वाली पीढ़ी को एक दिशा दी है।

 

you can view video on रघुवीर सहाय की कविताओं का पाठ-विश्‍लेषण

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. आत्महत्या के विरुद्ध, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
  2. लोग भूल गए हैं, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. प्रतिनिधि कविताएँ, रघुवीर सहाय, सुरेश शर्मा(सम्पा.), राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
  4. रघुवीर सहाय संचयिता, कृष्ण कुमार(सम्पा.), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. रघुवीर सहाय का कवि कर्म, सुरेश वर्मा, पीपुल्स लिटरेसी,दिल्ली
  6. अर्थात: रघुवीर सहाय, हेमंत जोशी(सम्पा.), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. रघुवीर सहाय की काव्यानुभूति और काव्यभाषा, अनंतकीर्ति तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
  8. सीढ़ियों पर धूप में: रघुवीर सहाय, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’(सम्पा.), भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी
  9. समकालीन काव्य-यात्रा , नन्दकिशोर नवल, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
  10. कविता के नए प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली

 

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  1. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF
  2. http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF
  3. http://www.hindisamay.com/writer/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF-.cspx?id=1183&name=%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF-
  4. http://www.youtube.com/watch?v=ZICMdGjptbo