15 रघुवीर सहाय की काव्य-भाषा

डॉ. विभावरी डॉ. विभावरी

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पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. गद्य में कविता
  4. सपाटबयानी में व्यंग्य
  5. बिम्ब
  6. निष्कर्ष
  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • रघुवीर सहाय की काव्य भाषा के बारे में जान सकेंगे।
  • कविता की भाषा और कथ्य के बीच के सम्बन्ध को पहचान सकेंगे।
  • रघुवीर सहाय की कविता की विशेषताएँ समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

रघुवीर सहाय नई कविता के प्रमुख कवि हैं। अपनी भाषाई विशिष्टता के कारण रघुवीर सहाय नई कविता के रूप को परिभाषित करने वाले कवि कहे जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि नई कविता आन्दोलन में कथ्य और रूप के स्तर पर नवीनता का जो आग्रह मिलता है, उसे रघुवीर सहाय की कविताओं की भाषा द्वारा बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। दरअसल साहित्यिक पत्रकारिता से जुड़ाव ने रघुवीर सहाय की काव्य भाषा पर जो असर डाला था, उसने उनकी कविताओं में पत्रकारिता की भाषा और काव्यभाषा के बीच की दूरी कम कर दी। उनकी कविता के स्वरूप के निर्धारण में बोलचाल की इस भाषा का बहुत ज़्यादा प्रभाव रहा है ।

 

काव्यभाषा पर तीन निबन्ध  की प्रस्तावना में डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र लिखते हैं कि “इस पुस्तक में डॉ. चतुर्वेदी ने काव्य भाषा के दो स्तर माने हैं, बोलचाल की भाषा और साहित्यिक भाषा, और कहा है कि – साहित्यिक भाषा मूलतः बोलचाल की वह भाषा है, जो विभिन्‍न रचनाकारों की रचना प्रक्रिया में समाहित होकर अपने स्वरुप को परिवर्तित कर लेती है।” (काव्यभाषा पर तीन निबन्ध-रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृ. 20) चतुर्वेदी जी की इस बात की मार्फ़त यदि रघुवीर सहाय की काव्य भाषा को समझने की कोशिश करें तो कह सकते हैं कि रघुवीर सहाय की काव्य भाषा बोलचाल की वह भाषा है, जो उनकी रचना प्रक्रिया में समाहित होकर एक विशिष्ट स्वरूप में हमारे सामने उपस्थित होती है। उनकी कविता की भाषा और शिल्प पर पत्रकारिता के प्रभाव के कारण उनकी कविता को ‘खबर की कविता’ भी कहा जाता रहा है।

  1. गद्य में कविता

हिन्दी कविता के इतिहास में कविता की भाषा का गद्यात्मकता की ओर झुकाव या छन्द से मुक्ति की प्रक्रिया रघुवीर सहाय से बहुत पहले शुरू हो चुकी थी। रघुवीर सहाय के यहाँ गद्य और पद्य के बीच की सीमा रेखा लगभग खत्म-सी होती दिखती है। इस अर्थ में ‘गद्य की कविता’ रघुवीर सहाय के कविताई की विशिष्टता कही जा सकती है। इनकी कविताओं में जहाँ एक तरफ साधारण जनमानस को समझ में आने वाली भाषा का प्रयोग कविता को गद्यात्मकता की तरफ झुकाता है, वहीं उनकी भाषाई प्रयोगशीलता उन्हें अपने समकालीन कविता से अलग लाकर खड़ा करती है। इस कोशिश में रघुवीर सहाय की कविताएँ, भाषा के तमाम व्याकरणिक मानदण्डों को तोड़ती हुई खुद को बातचीत के उस स्तर पर ले जातीं हैं जहाँ से काव्य-भाषा का यह गुण उसकी विशिष्टता में तब्दील होता जाता है। अनिश्‍चय  कविता का उदाहरण ले सकते हैं-

 

और कभी जब कभी गौरैया- सा मन

घर के आँगन में खेलने का हुआ

मैंने थामा हाथ उसे कह के बचपना न करो

बाग में धूप खाते-खाते जैसे मैं गरमाकर

उठके छाया में बरामदे में चला आया हूँ

अपने में लौट गया था मेरा मन ऐसे

(अनिश्‍चय, दूसरा सप्‍तक, पृष्ठ 152 )

 

इस कविता को पढ़ते हुए काव्य-भाषा के न सिर्फ पूर्ववर्ती, बल्कि तत्कालीन मानक भी टूटते से दिखते हैं।

रघुवीर सहाय अपने काव्य संकलन लोग भूल गए हैं  की भूमिका में कविता को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि “कविता शब्द का निरा संस्कार नहीं है। न वह वर्तमान की निरी व्याख्या है, न इतिहास का निरा पुनरावलोकन और न अतीत से भविष्य के निरे अन्तरावलम्बन का औचित्य। इन सबके अलावा वह कुछ है, तो साहस है, जो हमारे जाने बिना दूसरे को मिलता है, बशर्ते कि वह दूसरा हमारी कविता में हो।” (भूमिका, लोग भूल गए हैं, रघुवीर सहाय) रघुवीर सहाय की कविता में भाषा के स्तर पर इस ‘दूसरे’ यानी पाठक को कविता में लाने और कविता के सम्प्रेषण में उसकी सहायता करने की कोशिश भी दिखती है। अक्सर नई कविता पर यह आरोप लगता है कि “नया कवि पाठक नहीं तैयार करना चाहता; वह चाहता है कि पाठक स्वयं तैयार हो जाएँ और कविता को समझ लें।” (नई कविता स्रोत और सिद्धान्त, पृ. 122) रघुवीर सहाय, कविता के पाठ में अपनी उपस्थिति को भाषा की मार्फ़त दर्ज कराते हैं और पाठक तक कविता की सम्प्रेषणीयता को सुनिश्‍च‍ित करने का उपक्रम करते हैं। शराब के बाद सवेरा  कविता की पंक्तियाँ ली जा सकतीं हैं-

 

जन्म के कितने दिनों बाद आई थी। वह मेरी मरी हुई माँ।

जो महान मकान बना है पड़ोस में। वह मुझ पर गिर पड़ेगा।

फिर मेरी गर्मियों की छुट्टियाँ हो जाएँगी।

मेरे अपने स्कूल के अन्दर से निकलकर।

बचपन के आखिरी दिन। आएँगे घर के कोने में

कहानियों की आलमारी की खुश्बू। और ठण्डा चिकना फर्श।

मलवे के तले से एक हाथ छुड़ाकर।

उसे टोता हूँ। ढ नहीं ट ।       (आत्म हत्या के विरुद्ध, रघुवीर सहाय)

 

यह कविता न सिर्फ कवि द्वारा सम्प्रेषणीयता सम्भव बनाने के अतिरिक्त प्रयास में भाषा के सचेत प्रयोग (ढ नहीं ट ।) का उदाहरण है, बल्कि इससे रघुवीर सहाय के भाषा-कौशल को भी समझने में मदद मिलती है। इन पंक्तियों की असम्बद्धता अपनी संरचनात्मक विशिष्टता की पूर्णता को तब प्राप्‍त करती है जब कविता में ‘बस यहीं तक रात को पी थी।’ पंक्ति आती है।

 

“काव्य-भाषा की शक्ति सम्पन्‍नता रघुवीर सहाय की कविताओं में आरम्भ से ही है। वात्स्यायन जी ने सीढ़ियों पर धूप में संग्रह की भूमिका में रघुवीर सहाय की भाषा की ‘सहज प्रवहमान प्रसादमयता’ का उल्लेख किया है। रघुवीर सहाय की भाषा की जीवन्तता के कारण पर विचार करते हुए वात्स्यायन जी ने एक उल्लेखनीय बात कही है कि ‘अपने छायावादी समवयस्कों के बीच बच्चन की भाषा जैसे एक अलग आस्वाद रखती थी और शिखरों की ओर न ताककर शहर के चौक की ओर उन्मुख थी उसी प्रकार अपने विभिन्‍न मतवादी समवयस्कों के बीच रघुवीर सहाय भी चट्टानों पर चढ़ कर नाटकीय मुद्रा में बैठने का मोह छोड़ साधारण घरों की सीढ़ियों पर धूप में बैठकर प्रसन्‍न हैं।’’ (सीढ़ियों पर धूप में, पृ.10) भाषा के सन्दर्भ में ‘शिखरों’ की ओर न ताककर चौक की ओर उन्मुखता रघुवीर सहाय की भाषा को बोलचाल की भाषा से जोड़ती है।” (रघुवीर सहाय का कवि कर्म, पृ. 57) दरअसल रघुवीर सहाय में तटस्थ अनुभव की संवेदना के साथ यथार्थ और परिवेश के प्रति स्वाभाविक जिज्ञासा का भाव है जो भाषा सहित उनकी रचनात्मकता के विविध आयामों के साथ मिलकर एक अलग प्रभाव रचता है। उनकी भाषा में ‘शब्द’, ‘अर्थ’ और ‘वाक्यांशों’ की एक विशिष्ट भंगिमा है, जिसमे सामान्य जीवन की प्रतिच्छाया देखी जा सकती है और यही कारण है कि उनका लहजा आत्मीय और सुगम लगता है।

  1. सपाटबयानी में व्यंग्य

रघुवीर सहाय की कविता की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता बोलचाल की भाषा के माध्यम से गहन अर्थवत्ताओं का सम्प्रेषण भी है। व्यंग्यात्मकता इनकी काव्य भाषा में इस तरह से बुनी होती है कि यह कहीं से भी कृत्रिम नहीं लगती। बातचीत के सहज प्रवाह में इनकी काव्यभाषा की यह विशिष्टता निम्‍न उदाहरणों द्वारा समझी जा सकती है।

 

बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो

ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे

और ऐसे मौकों पर हँसो

जो कि अनिवार्य हो

जैसे गरीब पर किसी ताक़तवर की मार

जहाँ कोई कुछ कर नहीं सकता

उस ग़रीब के सिवाय

और वह भी अक्सर हँसता है

हँसों हँसो जल्दी हँसों

इसके पहले कि वह चले जाएँ

उनसे हाथ मिलाते हुए

नज़रें नीची किए

उसको याद दिलाते हुए हँसो

कि तुम कल भी हँसे थे!( kavitakosh.org/kk/हँसो_हँसो_जल्दी_हँसो_/_रघुवीर_सहाय)

 

दूसरा सप्‍तक में रघुवीर सहाय ने अपनी काव्यभाषा के विषय में स्वयं लिखा है, भाषा को भी साधारण बोलचाल के निकट लाने की कोशिश रही है, मगर इसमें भी कहीं-कहीं भाषा की फिजूलखर्ची करनी पड़ी, बहरहाल इस तरह की कोशिशें विचार वस्तु के दिल और दिमाग में उतरने के तरीके पर निर्भर रहेगी और ज़रूरी है कि हम अपनी अनुभूति को उसी प्रकार सुधारें ताकि कविता भी वैसी ही जानदार हो सके जैसे कि वास्तविकताएँ, जिनसे हम कविता की प्रेरणा लेते हैं। विचार वस्तु का कविता में खून की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है और यह तभी सम्भव है जब हमारे कविता की जड़ें यथार्थ में हों।” (वक्तव्य, दूसरा सप्‍तक) (नई कविता नई दृष्टि, डॉ. रामकमल राय, पृ. 83) गौरतलब है कि रघुवीर सहाय की कविताओं में यथार्थ जब व्यंग्य के आवरण में प्रस्फुटित होता है तो पाठक को लगातार एक बेचैन सन्तुष्टि से भरता चलता है। इसकी एक महत्त्वपूर्ण वजह इन कविताओं की विचार-वस्तु का व्यंग्यात्मकता के लिहाज़ से सटीक होना भी है। इसी संग्रह की एक अन्य कविता का उदाहरण ले सकते हैं-

 

मरने की इच्छा समर्थ की इच्छा है

असहाय जीना चाहता है

आओ सब मिलकर उसे बस जीवित रखें

सब नष्ट हो जाने की कल्पना

शासक की इच्छा है

आओ हम सब मिलकर

उसे छोड़ बाकी सब नष्ट करें

सुन्दर है सर्वनाश

वही सर्वहारा के कष्टों को सार्थक करता है

और हमारे कष्टों को मनोरंजक भी       (बुद्धिजीवी का वक्तव्य /रघुवीर सहाय)

 

इस कविता में रघुवीर सहाय जिस सामाजिक यथार्थ और विद्रूपता की तरफ इशारा कर रहे हैं, एक बुद्धिजीवी के नज़रिए से जिस सच्‍चाई को देख रहे हैं, उसी बुद्धिजीवी वर्ग (जिसमें वे खुद भी शामिल हैं!) को सवालों के घेरे में भी ले रहे हैं। एक कविता या कवि की सफलता भी शायद इसी बात में निहित है कि ज़रूरत पड़ने पर वह खुद को भी नहीं बख्शता! ‘और हमारे कष्टों को मनोरंजक भी’- पंक्ति से यह बात स्पष्ट होती है। यहीं ध्यान देने वाली बात यह भी है कि इस पूरी व्यवस्था के साथ खुद को भी सवालों के घेरे में खड़ा करने के तीखेपन को भाषा का व्यंग्यात्मक तेवर एक तरह का पैनापन देता है। इस लिहाज़ से देखें तो रघुवीर सहाय की व्यंग्यात्मकता का एक अलग ही रूप दिखता है। उनकी बेहद चर्चित कविता अधिनायक  को उनकी व्यंग्यात्मक शैली का चरम माना जा सकता है। यद्यपि यह उनकी पूर्ववर्ती कविताओं में से एक है-

 

राष्ट्रगीत में भला कौन वह

भारत-भाग्य-विधाता है

फटा सुथन्ना पहने जिसका

गुण हरचरना गाता है।

मखमल टमटम बल्लम तुरही

पगड़ी छत्र चँवर के साथ

तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर

जय-जय कौन कराता है।                (अधिनायक/रघुवीर सहाय)

 

एक दोहरी सामाजिक व्यवस्था पर इससे तीखा व्यंग्य नहीं हो सकता कि अपनी प्राथमिकताओं को भूलकर यह व्यवस्था हमें उस ‘भाग्य-विधाता’ के गुणगान पर मजबूर करे, जिसके बारे में शायद ही हमें पता है या कि जिसका गुणगान शायद ही हमें हमारी मूलभूत समस्याओं से मुक्ति दे सके! इन सबके बावजूद हम पूरे अनुशासन के साथ यह रस्म अदायगी करते रहते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस भाव के सम्प्रेषण में रघुवीर सहाय की काव्य-भाषा का विशिष्ट योगदान है।

  1. बिम्ब

 

रघुवीर सहाय भाषाई उपकरणों का सहज नएपन के साथ उपयोग करने वाले कवियों में शुमार हैं। कविता में नए बिम्बों का ऐसा इस्तेमाल जो न सिर्फ कवि़ता की अर्थवत्ता को बढ़ाए, बल्कि उसमें ताज़गी का एहसास भी पैदा करे- रघुवीर सहाय की कविता की दृष्टि से बेहद महत्त्वपूर्ण बात हो जाती है।

 

यद्यपि “नई कविता के सम्बन्ध में यह आरोप लगाया जाता है कि इसके बिम्ब इतने अपरिचित और संकुल हैं कि संवेदना की अभिव्यक्ति को कुण्ठित कर देते हैं। जैसा कि नए कवियों की समय-समय पर की गयी काव्य-सम्बन्धी घोषणाओं से विदित होता है कि उनके लिए, नए भावों को पुराने बिम्बों के सहारे व्यक्त करना सम्भव नहीं है। नई अर्थवत्ता, नए भावों को नए प्रतीकों, उपमानों और बिम्बों के सहारे ही व्यक्त किया जा सकता है। लेकिन नए कवियों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पाठक उन बिम्बों से परिचित हो, जिसका प्रयोग वह कर रहा है।” (नई कविता स्रोत और सिद्धान्त, डॉ. विजय द्विवेदी, पृ.113) इस लिहाज़ से यदि रघुवीर सहाय की कविता में बिम्बों पर गौर करें तो वे कविता की अर्थवत्ता को बढ़ाते हैं। दूसरा सप्‍तक  की वसन्त  कविता का उदाहरण ले सकते हैं-

 

उजड़ी डालों के अस्थिजाल से छनकर भू पर गिरी धूप

लहलही फुनगियों के छत्रों पर ठहर गयी अब

ऐसा हरा रुपहला जादू बनकर जैसे

नीड़ बसे पंछी को लगनेवाला टोना।   (वसन्त, दूसरा सप्‍तक, पृ. 140)

 

यहाँ ऊपरी तीन पंक्तियों के दृश्य चित्र की एक अन्य चित्र- ‘नीड़ बसे पंछी को लगने वाला टोना’- से समानता ने इन पंक्तियों को पाठक के लिए ग्राह्य बना दिया है। इस नज़रिए से देखें तो रघुवीर सहाय की कविताओं के बिम्बों में नवीनता और पाठकीय ग्राह्यता दोनों का समावेश मिलता है। “रचनात्मक स्तर पर बिम्ब-विधान के कुछ नए रूप यों रघुवीर सहाय की कविताओं में विकसित हुए हैं। अपनी भाषा के रचाव में उन्होंने वर्णन और बिम्ब के भेद को क्रमशः मिटाया है। कविता की भाषा को सही अर्थ में बोलचाल और अखबार की भाषा से सम्बद्ध करने में वर्णन और बिम्ब का अन्तर डूब जाए, यह स्वाभाविक है। इस प्रक्रिया में सामान्य भाषा की रचनात्मक क्षमता का बिल्कुल नया और प्रीतिकर एहसास कवि के प्रथम महत्त्वपूर्ण संकलन आत्महत्या के विरुद्ध  की कविताओं में होता है; वे कविताएँ चाहे राजनीति के अनुभव क्षेत्र से संबद्ध हों या कि प्रेम के अनुभव-क्षेत्र से अथवा प्रकृति के मानवीय चित्र से। रघुवीर सहाय की कविताओं में वर्णन-बिम्ब का अभेद कैसे होता है, यह समझने के लिए कुछ उदाहरण प्रस्तुत है-

 

सिंहासन ऊँचा है सभाध्यक्ष छोटा है

अगणित पिताओं के

एक परिवार के

मुँह बाए बैठे हैं लड़के सरकार के

लूले काने बहरे विविध प्रकार के

हलकी सी दुर्गन्ध से भर गया है सभाकक्ष             (मेरा प्रतिनिधि)

……………………………………………….

एक गरीबी, ऊबी, पीली, रोशनी, बीबी

रोशनी, धुन्ध, जाला, यमन, हरमुनियम अदृश्य

डब्बाबन्द शोर

गाती गला भींच आकाशवाणी

अन्त में टड़ंग।                                         (आत्महत्या के विरुद्ध)

 

पहले उद्धरण में किसी सामान्य सभाकक्ष का वर्णन भी है और विशिष्ट सभाकक्ष का बिम्ब भी। वर्णन मूलतः प्रस्तुत कथन है, बिम्ब अप्रस्तुत विधान। उन्हीं पंक्तियों में वर्णन और बिम्ब के स्तरों की टकराहट अर्थ को असाधारण विस्तार देती है। दूसरे वर्णन-बिम्ब में निम्‍न मध्यवर्गीय गृहस्थ जीवन का चित्र है, जो एक छोटे से कमरे का वर्णन है, पर ऐसे न जाने कितने कमरों के लिए बिम्ब रूप में सक्रिय होता है। यह प्रक्रिया सम्भव होती है कविता में बोलचाल की भाषा के प्रयोग के कारण, जो रचना को विशिष्ट बनाते हुए भी इसे सच्‍चे मन से प्रजातान्त्रिक रखती है। वर्णन और बिम्ब प्रजातान्त्रिक और विशिष्ट को एक साथ समोने में रघुवीर सहाय की कविताओं का रूप साधारण अर्थ और अनुभव को विराटता देता है।” (हिन्दी काव्य का इतिहास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृ. 292-293)

  1. निष्कर्ष

 

इस लिहाज़ से कह सकते हैं कि नई कविता में रघुवीर सहाय एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने नई कविता के नएपन को अपनी भाषाई विशिष्टता से एक अलग मुकाम दिया है। पत्रकारिता और कविता की भाषा का ऐसा समन्वय उनकी कविताओं में दिखता है जो अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अपनी कविता में साधारण भाषा के मुहावरों, शब्दों और वाक्यों के द्वारा सामाजिक यथार्थ के संश्‍ल‍िष्ट चित्रों को भी सहजता से अभिव्यक्त किया है। यह रघुवीर सहाय की काव्य-भाषा की क्षमता है। उनकी कविताओं में मध्यवर्गीय जीवन की जो विसंगतियाँ चित्रित हैं, उनकी अभिव्यक्ति बोलचाल की भाषा में बेहतर सम्भव हो पाई है। “समकालीन यथार्थ के बीचोबीच अपनी कविता को प्रतिष्ठित करने के लिए रघुवीर सहाय ने अपनी भाषा में नाटकीय गुणों का समावेश किया है। उनकी कविताओं में यह नाटकीयता आई है : वास्तविक घटनाओं, यहाँ तक कि प्रचलित नामों और संस्थाओं के व्यंजनात्मक उपयोग द्वारा, औसत मानसिकता में आसानी से उभर सकने वाली सामयिक हलचलों – सनसनीखेज़ – के समावेश द्वारा, औसत आदमी की मुद्राओं, उत्तेजनाओं – यहाँ तक कि उसकी ‘वल्गैरिटीज़’ के भी निःसंकोच उपयोग द्वारा।” (समानान्तर, रमेशचन्द्र शाह, पृ.89) लेकिन कविता के इन तमाम उपादानों के साथ सहज बोलचाल की जिस भाषा का समायोजन रघुवीर सहाय अपनी कविताओं में करते हैं, वह उनकी कविता का एक गहरा रिश्ता पाठक के साथ जोड़ता है। और यही उनकी कविता की सफलता भी कही जानी चाहिए।

 

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अतिरिक्त जानें

पुस्तकें

  1. काव्यभाषा पर तीन निबंध, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद
  2. हिन्दी काव्य का इतिहास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद
  3. दूसरा सप्तक, अज्ञेय (संपा.), भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
  4. रघुवीर सहाय का कवि कर्म, सुरेश शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. रघुवीर सहाय संचयिता, कृष्ण कुमार(सम्पा.), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. आत्महत्या के विरुद्ध, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. लोग भूल गए हैं, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  8. हँसों हँसों जल्दी हँसों, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  9. प्रतिनिधि कविताएँ, रघुवीर सहाय, सुरेश शर्मा(सम्पा.), राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
  10. रघुवीर सहाय की काव्यानुभूति और काव्यभाषा, अनंतकीर्ति तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
  11. समकालीन काव्य-यात्रा,  नन्दकिशोर नवल, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली

 

वेब लिंक्स

  1. http://sol.du.ac.in/mod/book/tool/print/index.php?id=1464
  2. http://kavitakosh.org/kk/cache/d/de/%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%2598%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25B5%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25B0_%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25B9%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25AF.html
  3. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF
  4. http://www.hindisamay.com/writer/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF-.cspx?id=1183&name=%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF
  5. https://www.youtube.com/watch?v=ZICMdGjptbo