14 रघुवीर सहाय का काव्य-कथ्य
डॉ. संजय कुमार
पाठ का प्रारूप
- पाठ उद्देश्य
- प्रस्तावना
- नई कविता के दौर में
- मोहभंग के दौर में
- बाद के दौर में
- निष्कर्ष
1. पाठ का उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–
- रघुवीर सहाय की काव्य-रचना के बारे में समझ सकेंगे।
- रघुवीर सहाय की काव्य यात्रा के विकास के विभिन्न सोपानों को समझ सकेंगे।
- रघुवीर सहाय की कविता का संरचनात्मक वैशिष्ट्य समझ सकेंगे।
- स्वतंत्रता के बाद की कविताओं में रघुवीर सहाय की कविता की विशेषता समझ सकेंगे।
2. प्रस्तावना
सन् 1947 में इस देश को आजादी मिली और इसी के आसपास रघुवीर सहाय ने कविता लिखना आरम्भ किया। आजादी के साथ ही देश का विभाजन हुआ और भयानक साम्प्रदायिक हिंसा फैली। अगले ही वर्ष महात्मा गाँधी की हत्या कर दी गयी। इन त्रासद घटनाओं के बावजूद देश को मिली स्वतन्त्रता के कारण धीरे-धीरे जनता में आशा और आकांक्षा की एक लहर फैली। आशा और आकांक्षा के इन स्वरों के साथ कवि के युवा-मन के उत्साह और उम्मीदों को जोड़ लें तो ये सब मिलकर रघुवीर सहाय की आरम्भिक कविताओं का मिजाज निर्मित करते हैं।
रघुवीर सहाय की सम्पूर्ण साहित्यिक सक्रियता के कई आयाम हैं। इनमें कविता, कहानी और रचनात्मक पत्रकारिता प्रमुख हैं। उनकी पहली उपलब्ध कविता अंत का प्रारंभ है जो अगस्त, 1946 में लिखी गई थी और उनकी पहली प्रकाशित कविता आदिम संगीत है जो आजकल मासिक पत्रिका के अगस्त, सन् 1947 के अंक में छपी थी। अज्ञेय ने उनकी कविताओं के महत्त्व को पहचाना और उन्हें सन् 1951 में प्रकाशित दूसरा सप्तक में शामिल किया। वे दूसरा सप्तक में शामिल सबसे कम उम्र के कवि हैं। रघुवीर सहाय के प्रकाशित कविता संग्रहों का विवरण इस प्रकार है:
- दूसरा सप्तक, सन् 1951 (इस सप्तक में रघुवीर सहाय की कविताएँ छह अन्य कवियों के साथ शामिल हैं।)
- सीढ़ियों पर धूप में, सन् 1960
- आत्महत्या के विरुद्ध, सन् 1967
- हँसो हँसो जल्दी हँसो, सन् 1975
- लोग भूल गए हैं, सन् 1982 (इस काव्य-संग्रह पर रघुवीर सहाय को सन् 1984 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था।)
- कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ, सन् 1989
- एक समय था, सन् 1995
उपर्युक्त काव्य-संग्रहों के विवरण से स्पष्ट है कि रघुवीर सहाय का रचनाकाल नई कविता के दौर से समकालीन कविता के दौर तक विस्तृत है। हर दौर के साथ उनकी कविता के कथ्य और शिल्प में परिवर्तन भी हुआ है। उनके काव्य-कथ्य की विशेषताओं को रचनाकाल के अनुसार तीन भागों में बाँट कर देखा जा सकता है– नई कविता के दौर में, मोहभंग के दौर में और बाद के दौर में।
3. नई कविता के दौर में
इस कालखंड में रघुवीर सहाय के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। दूसरा सप्तक में उनकी कविताएँ संकलित हुईं 1951 ई. में और सीढ़ियों पर धूप में कविता संग्रह 1960 ई. में प्रकाशित हुआ। इस दौर की कविताओं में रघुवीर सहाय का युवा-मन विविध रूपों में अभिव्यक्त हुआ है। यहाँ प्रकृति है, प्रेम है, वासना का उद्दाम आवेग है और साथ ही कर्मरत जीवन जीने का संकल्प है। उनका काव्य-नायक विलक्षण ढंग से परम्परा से अपना सम्बन्ध स्थापित करता है। वह स्वयं को अपने पिता की अनुकृति मानता है, उस पिता की जिन्हें अभी तक कष्टों से निवृत्ति नहीं मिली है। वह पिता से शक्ति और बल प्रदान करने की प्रार्थना करता है–
जब दुख के भार से मन थकने आय
पैरों में कुली की-सी लपकती चाल छटपटाय
इतना सौजन्य दो कि दूसरों के बक्स-बिस्तर घर तक पहुँचा आयें
कोट की पीठ मैली न हो, ऐसी दो व्यथा–
शक्ति दो।
(शक्ति दो– सीढ़ियों पर धूप में, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, पृ. 86)
वह अपने पिता से पूछता है कि अपनी पीढ़ी में उन्होंने असहनीय कष्टों को कैसे सहा होगा ? उन कष्टों से बचने के लिए उन्होंने क्या उपाय किया होगा ? कैसे दुखों से मुक्ति मिली होगी ? वह सब कहो अपने पुत्रों और छोटे भाइयों के लिए। इन प्रश्नों के पूछने और इस प्रार्थना के साथ ही कवि के प्रश्न सिर्फ किसी एक व्यक्ति के प्रश्न नहीं रह जाते। इन प्रश्नों में जैसे पूरी युवा पीढ़ी का स्वर ध्वनित हो उठता है और कवि के पिता सिर्फ किसी एक व्यक्ति के पिता नहीं रह जाते। वे जीवन-संघर्षों में अर्जित जीवित अनुभवों की पूरी परम्परा बन जाते हैं। जहाँ से युवा पीढ़ी अपने संघर्षों के लिए प्रेरणा और शक्ति ग्रहण करती है।
पूर्व पीढ़ी से प्रेरणा ग्रहण करने के बावजूद रघुवीर सहाय कथ्य और शिल्प के धरातल पर अपने लिए एक नया रास्ता निकालते हैं। यह नयापन इस दौर की प्रेम और प्रकृति सम्बन्धी कविताओं में अधिक स्पष्टता से नजर आता है। रघुवीर सहाय जिस प्रकृति का वर्णन करते हैं वह ग्रामीण या वन्य प्रकृति नहीं है। ये कविताएँ पर्वतीय प्रदेश या सागर-तटों की यात्राएँ करके नहीं लिखी गयी हैं। यह एक औसत शहरी प्रकृति है, जिसमें ग्रामीण जीवन की यादें भी बसी हुई हैं। अतः यह प्रकृति निर्जन नहीं बल्कि जन-संकुल है। कवि जब प्रकृति को मूर्त करता है तो उसमें मनुष्य की हरकतों को भी पूरा स्थान मिलता है। चूँकि शहरी मनुष्य के लिए प्रकृति का निर्जन क्षेत्र सहजता से उपलब्ध नहीं है इसलिए रघुवीर सहाय जैसे नये कवियों ने साधारण लोगों के रोजमर्रा जीवन में जो कुछ आसानी से उपलब्ध है उसी पर अपना ध्यान केंद्रित किया। सम्भवतः इसीलिए रघुवीर सहाय ने प्रकृति क्षेत्र की आत्यंतिक घटनाओं को विशेष महत्त्व दिया, जैसे सुबह (‘प्रभाती’, ‘मुँह अंधेरे’), शाम (‘सायंकाल’), पानी (‘पानी’, ‘पानी के संस्मरण’), धूप (‘धूप’), चाँद (‘चाँद की आदतें’) आदि। यह छायावाद के ‘सुंदर’ और ‘असाधारण’ के स्थान पर ‘सामान्य’ की प्रतिष्ठा थी या इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि यह ‘साधारण’ में ही ‘विशिष्ट की खोज’ का प्रयास था।
रघुवीर सहाय के काव्य में प्रेम की प्रकृति भी रोमांटिक कवियों से भिन्न प्रकार की है। यह भिन्नता न सिर्फ छायावादी कवियों से है, बल्कि अज्ञेय जैसे नई कविता के उन कवियों से भी, जिनके भावबोध पर रोमांटिकता का गाढ़ा रंग दिखाई पड़ता है। अज्ञेय के काव्य-नायक को नारी के प्रेम में आश्वस्ति मिलती है, अकेलेपन की पीड़ा से मुक्ति मिलती है और समाज की क्रूर वास्तविकताओं से आक्रांत उसका मन वहाँ विश्राम पाता है। इसलिए वह बार-बार भागकर नारी की शरण में जाता है। रघुवीर सहाय के काव्य-नायक को नारी के प्रेम में न तो अपनी व्यथा से मुक्ति मिलती है और न ही अपने अकेलेपन से–
जब मैं तुम्हारी दया अंगीकार करता हूँ
किस तरह मन इतना अकेला हो जाता है ?
…
तुम उसका क्या करती हो मेरी लाड़ली–
-–अपनी व्यथा के संकोच से मुक्त होकर
जब मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।
(जब मैं तुम्हें–सीढ़ियों पर धूप में, पृ. 98)
इस कविता की व्याख्या करते हुए डॉ. नामवर सिंह ने कविता के नए प्रतिमान में बहुत ठीक लिखा है–“एक ‘लाड़ली’ सम्बोधन पूरी कविता को और ही रंग दे देता है। छायावादी ‘सखि’, ‘सजनी’, ‘प्रिये’, ‘प्राण’, ‘रानी’ आदि सम्बोधनों के स्थान पर ‘लाड़ली’ शब्द रखकर रघुवीर सहाय ने रूमानी भावुकता को ही नहीं तोड़ा, बल्कि एक मीठी-सी अगंभीरता के द्वारा प्यार में निहित अकेलेपन की व्यथा को बिजली की कौंध के समान पूरी तीव्रता के साथ उद्भासित भी कर दिया।” (कविता के नए प्रतिमान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 149)
रघुवीर सहाय के प्रेम की प्रकृति रोमांटिक भावबोध के दायरे को तोड़ती है। यहाँ प्रेम की वह रोमांटिक समझ नहीं है, जो दुनिया के तमाम दुखों का निदान स्त्री के प्रेम में ढूँढ़ती है और जब वहाँ भी दर्द ही मिलता है तो फिर इसका भी निदान नारी के उष्ण आलिंगन में ही खोजती है। रघुवीर सहाय दु:ख के कारणों को उसके सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भ में देखते हैं या देखने का आग्रह रखते हैं। वे दु:खों से निवृत्ति का उपाय नारी के प्रेम में नहीं देखते; बल्कि शोषण, उत्पीड़न और सामाजिक अन्याय पर आधारित इस समाज व्यवस्था के परिवर्तन में देखते हैं।
4. मोहभंग के दौर में (आत्महत्या के विरुद्ध और हँसो हँसो जल्दी हँसो )
इस दौर में रघुवीर सहाय के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए– आत्महत्या के विरुद्ध और हँसो हँसो जल्दी हँसो। दूसरा सप्तक के अपने वक्तव्य में रघुवीर सहाय ने लिखा– “कोशिश तो यही रही है कि सामाजिक यथार्थ के प्रति अधिक से अधिक जागरूक रहा जाए और वैज्ञानिक तरीके से समाज को समझा जाए।” (दूसरा सप्तक, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 138) उन्होंने सिर्फ ‘ईमानदारी’ ही नहीं ‘ईमानदारी के बाद’ की जीवन प्रक्रिया को भी काव्य-रचना के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना और एक अनवरत प्रयत्न की आवश्यकता पर बल दिया–“यह प्रयत्न है अपनी अविभाजित बुद्धि से वास्तविकता को निरन्तर आत्मसात करते रहने का, अपनी अनुभूति को सुधारते रहने का…।” (सीढ़ियों पर धूप में, पृ. 257) आरम्भ से ही यथार्थ को आत्मसात करने का यह अनवरत प्रयत्न इस दौर की रचनाओं में सबसे अधिक फलीभूत होता नजर आता है। रचनात्मकता की दृष्टि से यह रघुवीर सहाय का सबसे समृद्ध दौर है।
आत्महत्या के विरुद्ध काव्य संग्रह को पढ़ते हुए जिस चीज पर हमारा ध्यान सबसे पहले जाता है वह है उसकी परिवेशबद्धता। इस संग्रह की कविताओं में भावावेश में हाँफता, व्यथा से डबडबाया और व्यंग्य की मारक चोट करता एक तेज और तीखा राजनीतिक स्वर अनुस्यूत है। थोड़ा ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इस प्रमुख स्वर के साथ कई और स्वर मिले हुए हैं। ये विसंवादी नहीं संवादी स्वर हैं। कुछ कविताओं में रघुवीर सहाय ने ऐसे लोगों का वर्णन किया है जो इस देश के मौजूदा संकट की परिस्थिति और अन्याय एवं शोषण पर आधारित व्यवस्था के कुचक्र से बेखबर और उदासीन हैं। ये लोग पालतू जानवरों की तरह अभ्यस्त ढंग से जिंदगी जीते चले जाते हैं। लोगों की इस प्रवृत्ति पर कवि कुढ़ता है और यह कुढ़न तीखे अन्दाज में अभिव्यक्त होती है। ऐसे लोग कुछ लोग नहीं हैं बल्कि बहुसंख्या में हैं इसलिए कवि को इन सबसे नफरत है–
एक मेरी मुश्किल है जनता
जिससे मुझे नफरत है सच्ची और निस्संग
जिस पर कि मेरा क्रोध बार-बार न्योछावर होता है
(स्वाधीन व्यक्ति –आत्महत्या के विरुद्ध, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 15)
इस ‘क्रोध’ और ‘नफरत’ की व्यंजना से ही स्पष्ट है कि कवि जनता और अपने समय की व्यवस्था के प्रति किसी ‘तटस्थ’ बुद्धिजीवी का रुख अख्तियार नहीं करता। वह आम ‘जनता’ ही नहीं बल्कि ‘बदमाशों, गधों, आधे पागलों, और मक्कारों के लिए’ भी ‘जिम्मेदारी महसूस करता’ है। वह ‘विराट भीड़ों के समाज’ को सामाजिक न्याय और सामाजिक समानता के पक्ष में बदलना चाहता है और इस काम में वह अपने ढंग से जुटा हुआ है–एक सचेत नागरिक और रचनाकार की हैसियत से। अतः उसकी नफरत भी जनता से गहरे लगाव के कारण उपजी है। यह एक बहुत प्यार करने वाले आदमी की नफरत और गुस्सा है। कवि के शब्दों में कहें तो यह कुछ उसी तरह-से है–‘जैसे कोई एक आँख से हँसे एक से रोए’। इसी तरह कवि इस समाज में अपनी और कविता की भूमिका एवं सार्थकता के बारे में सोचता है। सोचने की इस प्रक्रिया में ही कविता धीरे-धीरे अपेक्षाकृत शांत लय में निर्मित होती है। पहली प्रवृत्ति का अच्छा उदाहरण अगर फिल्म के बाद चीख और आत्महत्या के विरुद्ध जैसी कविताएँ हैं तो दूसरी प्रवृत्ति का सफल जीवन, मेरा मींजा दिल आदि और तीसरी प्रवृत्ति के उदाहरण के रूप में स्वाधीन व्यक्ति, नेता क्षमा करें और अपने आप और बेकार जैसी कविताओं के नाम लिए जा सकते हैं।
आत्महत्या के विरुद्ध की अधिकांश कविताएँ पहली नजर में घोर राजनीतिक दिखती हैं। लेकिन उन्हें ध्यान से देखें तो वे सिर्फ राजनीतिक ही नहीं हैं; बल्कि उनमें अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भ की जटिल और बहुआयामी वास्तविकता को अभिव्यक्ति मिली है। इस काव्य-संग्रह में शोषण और अन्याय पर आधारित एक पूरी ठोस दुनिया उभरती है, जो हद दर्जे की भ्रष्ट, अनैतिक, क्रूर और भयावह है। जहाँ इस सामूहिक भ्रष्टाचार का प्रतिरोध करने वाली कोई संगठित शक्ति नहीं है, सिर्फ कुछ आवाजें हैं, जैसे–‘कुछ करो/उसने कहा लोहिया से लोहिया ने कहा/ कुछ करो’। किन्तु लोगों की ये आवाजें विशाल पैमाने पर संगठित व्यवस्था के अन्याय के सामने हार जाने के लिए अभिशप्त हैं। प्रतिरोध का अकेला या इक्का-दुक्का स्वर सामूहिक भ्रष्टाचार के सामने व्यर्थ हो जाता है। निश्चय-ही इस काव्य-संग्रह का ‘मैं’ भी व्यवस्था विरोधी लोगों में शामिल है, लेकिन उसे अपने प्रतिरोध के व्यर्थ चले जाने का अहसास है। फिर भी वह हताश नहीं हुआ है। प्रतिरोध की किसी संगठित शक्ति के अभाव के कारण ही उसे अपने रचना-कर्म के भी बेकार चले जाने का डर है, इसलिए वह ‘कुछ भी लिखने से पहले हँसता
और निराश’ होता है और अन्त में कहता है–
हो सकता है कि यही मेरा योगदान हो कि
भाषा का मेरा फल जो चाहे मेरी हथेली से खुशी से चुग ले।
अन्याय तो भी खाता रहे मेरे प्यारे देश की देह
(स्वाधीन व्यक्ति –आत्महत्या के विरुद्ध, 16)
यह ‘स्वाधीन व्यक्ति’ की कैसी विडंबना है कि उसकी हर स्वतन्त्र अभिव्यक्ति अपनी असफलता में परतन्त्र हो जाने के लिए बाध्य है। लेकिन क्या इसके बाद भी उसे वास्तविक अर्थों में स्वाधीन व्यक्ति कहा जा सकता है? रघुवीर सहाय की कविता में यह विडंबना-बोध अर्थ की बहुआयामी व्यंजना उत्पन्न करता है।
हँसो हँसो जल्दी हँसो काव्य-संग्रह में रघुवीर सहाय ने अपना ध्यान अपने समय के व्यापक परिदृश्य के निर्माण पर केंद्रित नहीं किया है; बल्कि वे छोटी-छोटी घटनाओं और व्यक्तियों के जीवन-व्यवहार की व्याख्या के माध्यम से सर्वव्यापी अन्याय और शोषण के चरित्र को पकड़ते हैं। इसका सम्बन्ध अन्ततः उस समाज में विद्यमान सत्ता की संरचना से जाकर जुड़ता है। व्यापक परिदृश्य के निर्माण से ध्यान हटाकर छोटी-छोटी घटनाओं और व्यक्तियों के जीवन-व्यवहारों पर केंद्रित करने का एक कारण शायद यह हो कि सत्ता के अन्याय की प्रकृति को व्यक्तियों के जीवन या छोटी-छोटी घटनाओं में पकड़ना उसे अधिक ठोस और मूर्त रूप में पकड़ना है। साथ ही शोषण और अन्याय की प्रकृति जितनी सूक्ष्म होती जायेगी उसे व्यापक सतह पर पकड़ना सम्भवतः उतना ही मुश्किल होता जाएगा। ऐसी स्थिति में सत्ता के अन्याय को व्यक्ति के जीवन-प्रसंगों में घटित देखना, उसे अधिक मूर्त और विश्वसनीय रूप में ही देखना नहीं है; बल्कि इससे ‘अन्याय’ के अधिकाधिक सूक्ष्म और चालाक होते रूप को भी समझने में मदद मिलती है। इस काव्य-संग्रह के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण यह भी है कि रघुवीर सहाय ने अन्याय और भ्रष्टाचार के दृश्यों को रचने के लिए लोगों की भाषा पर नहीं बल्कि उनके चेहरे की भाव-भंगिमा और हँसने के ढंग पर अधिक ध्यान दिया है। हँसने के बदलते अन्दाज को उन्होंने लोगों के बदलते चरित्र की पहचान का सबसे सटीक लक्षण बना दिया है। इस काव्य-संग्रह में सत्ता के सबसे आसान और अमानुषिक शिकार के रूप में स्त्रियों का जीवन बार-बार आया है। किन्तु जीवन की इन तमाम वस्तु-स्थितियों को जो एक चीज चारों और से घेरे हुए है, वह है–एक प्रकार का डर, एक आशंका कि शायद जल्द ही इस देश में एक प्रकार की तानाशाही, एक निरंकुश तन्त्र स्थापित होने जा रहा है। इस संग्रह की पहली कविता से ही इस बात का संकेत मिलना आरम्भ हो जाता है। कवि की यह आशंका कोई अमूर्त विचार मात्र नहीं है बल्कि जीवन स्थितियों के ठोस विश्लेषण पर आधारित है। इस सन्दर्भ में दो कविताएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं–आने वाला खतरा और बड़ी हो रही है लड़की । कवि लिखता है–
कविता न होगी साहस न होगा
एक और ही युग होगा जिसमें ताकत ही ताकत होगी
और चीख न होगी
(बड़ी हो रही है लड़की–हँसो हँसो जल्दी हँसो, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृ. 23)
निश्चय ही ताकत के खिलाफ चीख तक न होने की यह स्थिति भयावह है। किन्तु रघुवीर सहाय की यह आशंका निर्मूल नहीं थी। सन् 1974 में उन्होंने आने वाला खतरा लिखा और जून, सन् 1975 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी। सन् 1967 से सन् 1974 तक की अवधि में लिखी गयी इस संग्रह की कविताओं में जिस खतरे की आशंका अभिव्यक्त हुई थी वह जैसे अचानक-ही सिद्ध हो गयी। रघुवीर सहाय उन विरले कवियों में से हैं जिन्हें अपने समय के समाज के नब्ज की बहुत सही पहचान है। हँसो हँसो जल्दी हँसो की कविताओं में व्याप्त डर और आशंका की सच्चाई यदि आपातकाल की घोषणा में फलित हुई तो इसकी उत्कृष्ट काव्यात्मक परिणति इस संग्रह की रामदास कविता में देखने को मिलती है। इस कविता के लय की एकरसता में जिस सर्द और नसों को जमा देने वाले वातावरण का निर्माण हुआ है वह हिन्दी कविता में अद्वितीय है। अपने समय के समाज में व्याप्त खतरे की आशंका और डर को काव्यात्मक रूप देने के कारण यह अपने समय की प्रतिनिधि और कालजयी रचना है।
5. बाद के दौर में
इस दौर में रघुवीर सहाय के दो काव्य-संग्रह आए– लोग भूल गये हैं और कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ । सन् 1982 में लोग भूल गये हैं काव्य-संग्रह प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष ‘जो आदमी हम बना रहे हैं नाम से रघुवीर सहाय की अब तक प्रकाशित कहानियों का सम्पूर्ण संकलन भी प्रकाशित हुआ। इस कहानी संग्रह की भूमिका में रघुवीर सहाय ने लिखा–“…यथार्थ की हमारी समझ इस समझ के बिना अधूरी है कि लोक में आदर्श की इच्छा इसी यथार्थ को किस रूप में जानकर जाग्रत हो सकती है।” (जो आदमी हम बना रहे हैं, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.10) निश्चय ही यह वक्तव्य लेखक की बदली हुई मनःस्थिति का परिचायक है। नकारवाद के साठोत्तरी दौर में भी रघुवीर सहाय ने सर्वभंजक नकार के आत्महंता खतरे के प्रति सावधान करते हुए आत्महत्या के विरुद्ध की कविताएँ लिखी थीं। अस्सी के दशक में मोहभंग की मानसिकता से भी मुक्ति मिली। लोग भूल गये हैं में कवि ने अपने काव्य-संग्रह की भूमिका में पूरे आत्मविश्वास के साथ लिखा–“जहाँ तक हृदय का सवाल है कम से कम मुझे दृढ़ आस्था है कि लोग न्याय और बराबरी के जन्मजात आदर्श को नहीं भूलते : इतिहास के दौर में कुछ लोग अवश्य इन्हें भूल जाते हैं पर इन्हें याद कराने के लिए उनसे कहीं बड़ी संख्या में मनुष्य जीवित रहते हैं।” (लोग भूल गए हैं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 8) कवि का यह वक्तव्य महज वक्तव्य नहीं है, बल्कि उनके काव्य-संग्रह में यह दृढ़ आस्था कई रूपों में फलित हुई है। हँसो हँसो जल्दी हँसो में रघुवीर सहाय ने ‘हँसने की क्रिया’ को लोगों, सत्ताधारी लोगों के चरित्र में आए बदलाव का सूचक बना दिया था। लोग भूल गए हैं में यह हँसने की क्रिया अपने मानवीय रूप में पहली बार आयी है–एक लड़की की हँसी सुनकर कवि लिखता है–
एक यज्ञ है उसकी हँसी
पूर्ण करती है हमको
ध्यान से सुनो कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है उस हँसी में
वह हमें मोहित नहीं मुक्त करती है
(प्रेम–लोग भूल गए हैं, पृ. 30)
एक तरह की विलक्षण आंतरिकता है इस कविता में–करुणा की धारा यहाँ भी अंतःसलिल है, किंतु उसका रूप कितना भिन्न है–कितना हार्दिक और कितना प्रेममय।
हँसो हँसो जल्दी हँसो काव्य-संग्रह में ‘सत्ता’ की ताकत का आतंक इतना सर्वव्यापी है कि पूरा परिवेश हताश और पस्त दिखता है। यहाँ तक कि नई पीढ़ी भी कोई उम्मीद नहीं जगाती है–
बड़ा हो रहा है लड़का
उन औजारों के बिना
जिनसे वह बनाता और तोड़ता हुआ बड़ा होता
वह सिर्फ बड़ा हो रहा है
(बड़ा हो रहा है–हँसो हँसो जल्दी हँसो, पृ. 11)
किन्तु लोग भूल गए हैं में स्थिति इतनी बुरी नहीं है। हिंसा कविता में कवि वर्णन करता है कि सत्तासीन बूढ़ों के काइयाँपन के बावजूद युवकों की दुर्निवार प्रश्नाकुलता मरती नहीं। पिछले दौर में सिर्फ आम लोग ही आतंकित और डरे हुए दिखते थे, लेकिन अब सामान्य जनता ही नहीं सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ व्यक्ति भी डरा हुआ दिखता है। निश्चय-ही यह ‘डर’ आम जनता से है कि पता नहीं लोग कब उसे और उसकी सत्ता को नष्ट कर दें, इसलिए वह स्वयं भी डरे हुए व्यक्ति की अनिश्चित मनःस्थिति में जी रहा है।
आशावाद का यह तत्त्व रघुवीर सहाय के तीसरे दौर के रचनाकर्म की एक खास विशेषता है, जो उसे पिछले दौर से अलग करता है। यह इस बात का भी सूचक है कि कवि ने बदले हुए ऐतिहासिक सन्दर्भ के साथ अपने भावबोध की संगति टूटने नहीं दी है।
रघुवीर सहाय के इस दौर के रचना-संसार की एक और खास विशेषता है–मृत्यु-बोध, जो कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ (सन् 1989) काव्य-संग्रह में विशेष रूप से उभरी है। रघुवीर सहाय ने अज्ञेय की तरह एक भाव तरल दृष्टि से अपने जीवन के अंतिम चरण में ‘मृत्यु’ को स्थान दिया है। लोग भूल गए हैं काव्य-संग्रह से ही इसकी शुरुआत पहचानी जा सकती है–
मैंने यह रूप पहले नहीं देखा था
तुमने यह प्यार पहले नहीं पाया था
अब यह भय पहचानेंगे हम दोनों जने
कि अब से अपना अतीत अनजाने बदलेगा
(अधेड़ औरत –लोग भूल गए हैं, पृ. 61)
इस कविता में आया ‘भय’ शब्द मृत्यु-भय की ओर स्पष्ट संकेत करता है। किन्तु महत्त्वपूर्ण यह भय नहीं है, भय से बदलने वाली वह दृष्टि है, जो वर्तमान के सम्बन्ध का रूप ही नहीं बदलती बल्कि अतीत और भविष्य का बोध भी बदल देती है। यह ‘भय’ रघुवीर सहाय की कविता में जीवन का निषेध नहीं करता, बल्कि उसके महत्त्व और सार्थकता की फिर से पहचान कराता है। रघुवीर सहाय के जीवन-बोध की ही तरह उनका मृत्यु-बोध भी अज्ञेय जैसे कवियों की तरह ऐकांतिक किस्म का नहीं है–यह उन्हें अकेला नहीं बनाता। उनका मृत्यु-बोध भी सामाजिक सम्बन्धों के ताने-बाने में रचकर आता है और मानव सम्बन्धों की एक नई समझ दे जाता है। यह मृत्यु का ‘भय’ भी रूढ़ अर्थ में सिर्फ भय ही नहीं है। मृत्यु को कवि ने जिस भाव तरल दृष्टि से स्वीकृति प्रदान की है, वह शायद इसलिए कि अन्ततः मृत्यु जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करती है–
फिर रात आ रही है
फिर वक्त आ रहा है
जब नींद दुःख दिन को
सम्पूर्ण कर चलेंगे
एकांत उपस्थित हो, ‘सोने चलो’ कहेगा
क्या चीज दे रही है यह शान्ति इस घड़ी में ?
एकांत या कि बिस्तर या फिर थकान मेरी ?
या एक मुड़े कागज पर एक घिसी पेंसिल
तकिए तले दबा कर जिसको कि सो गया हूँ ?
(घिसी पेंसिल –कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 30)
6. निष्कर्ष
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि पूर्व पीढ़ी से प्रेरणा ग्रहण करने के बावजूद रघुवीर सहाय ने अपने काव्य जीवन के आरम्भिक दौर में ही रोमांटिक भावबोध के दायरे को तोड़ते हुए एक नया रास्ता निकाला। जीवन और जगत की वास्तविकताओं को निरन्तर आत्मसात करने का उनका आग्रह साठोत्तरी दौर की रचनाओं में विशेष रूप से प्रतिफलित हुआ। इस युग के जटिल यथार्थ का जैसा बहुआयामी वर्णन रघुवीर सहाय की कविताओं में सम्भव हुआ है वैसा अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। सत्ता के अन्यायी चरित्र की निरन्तर पड़ताल और उसके छल-छद्म का उद्घाटन उनकी कविताओं की केंद्रीय विशेषता है। इन कारणों से रघुवीर सहाय मोहभंग-युग के प्रतिनिधि और प्रमुख कवि हैं।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- रघुवीर सहाय संचयिता, कृष्ण कुमार(सम्पा.), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- आत्महत्या के विरुद्ध, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- लोग भूल गए हैं, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- हँसों हँसों जल्दी हँसों, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- प्रतिनिधि कविताएँ, रघुवीर सहाय, सुरेश शर्मा(सम्पा.), राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
- रघुवीर सहाय का कवि कर्म, सुरेश वर्मा, पीपुल्स लिटरेसी,दिल्ली
- अर्थात: रघुवीर सहाय, हेमंत जोशी(सम्पा.), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- रघुवीर सहाय की काव्यानुभूति और काव्यभाषा, अनंतकीर्ति तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
- सीढ़ियों पर धूप में: रघुवीर सहाय, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’(सम्पा.), भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी
- समकालीन काव्य-यात्रा, नन्दकिशोर नवल, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
- कविता के नए प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
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- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF
- http://www.hindisamay.com/writer/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF-.cspx?id=1183&name=%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF-
- https://www.youtube.com/watch?v=ZICMdGjptbo