22 साठोत्तरी हिन्दी कविता और धूमिल
डॉ. रसाल सिंह
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- साठोत्तरी काव्य-परिवेश
- साठोत्तरी हिन्दी कविता की मूल-प्रवृत्तियाँ
- साठोत्तरी हिन्दी कविता और धूमिल
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य-
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- साठोत्तरी काव्य परिवेश से परिचित हो सकेंगे।
- साठोत्तरी हिन्दी कविता की मूल प्रवृत्तियाँ समझ सकेंगे।
- साठोत्तरी हिन्दी कविता में धूमिल का स्थान निर्धारित कर सकेंगे।
2. प्रस्तावना
सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’ स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के सर्वाधिक चर्चित और पठनीय कवियों में से हैं। वे साठोत्तरी कविता के प्रमुख कवि हैं। उनके मात्र तीन कविता संग्रह प्रकाश में आए हैं, जिनके शीर्षक हैं- संसद से सड़क तक, सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र और कल सुनना मुझे । धूमिल ने इन तीनों संग्रहों के जरिए भारतीय लोकतन्त्र और संसद की पूरी प्रक्रिया का बेहतरीन जायजा लिया है। हरेक सृजनात्मक साहित्य अपने समय, समाज और परिवेश की निर्मिति होता है। युगबोध ही रचनाकार की चेतना का स्वरूप निर्धारित करता है। समकालीन राजनीति, अर्थव्यवस्था, सांस्कृतिक परिवेश और उसके घटकों से युगबोध निर्मित होता है एवं रचनाकार की चेतना में इन सबका प्रतिफलन होता है।
3. साठोत्तरी काव्य-परिवेश
‘साठोत्तरी कविता’ मूलत: सन् 1967 के बाद की कविता को कहा जाता है। ‘नई कविता’, ‘नवगीत’, ‘प्रगतिवादी कविता’ जैसी तमाम पूर्ववर्ती काव्य-प्रवृत्तियों के साथ साठोत्तरी कविता या अकविता समानान्तर चल रही थी। अज्ञेय, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, गिरिजाकुमार माथुर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, धर्मवीर भारती, श्रीकान्त वर्मा, प्रभाकर माचवे, केदारनाथ सिंह, राजेन्द्र गौतम, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, शमशेर, नागार्जुन आदि नई कविता, नवगीत और प्रगतिवाद के कवि साठोत्तरी युवा कवियों के साथ-साथ रचनाशील दिखाई पड़ते थे।
साठोत्तरी हिन्दी कविता में अकविता, शुद्ध कविता, ठोस कविता, सहज कविता, ताज़ी कविता, सपाट कविता, युयुत्सु कविता, बीटनिक कविता, अस्वीकृत कविता, आक्रोशित कविता आदि तमाम प्रवृत्तियाँ एक साथ विद्यमान हैं। यही कारण है कि सन् 1967 के बाद की इन तमाम काव्यप्रवृत्तियों को नामांकित करने के लिए एक समग्र नाम दिया गया- साठोत्तरी कविता। इस आन्दोलन से जुड़े राजकमल चौधरी, धूमिल, जगदीश चतुर्वेदी, कैलाश वाजपेयी,चन्द्रकान्त देवताले, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, कुमार विकल, मुद्राराक्षस, वेणु गोपाल, परेश, मनिका मोहिनी, प्रयाग शुक्ल, राजीव सक्सेना, मोना गुलाटी, कमलेश, नर्मदा प्रसाद त्रिपाठी, स्नेहमयी त्रिपाठी, रमेश गौड़, श्याम परमार, ममता अग्रवाल, नरेन्द्र धीर और केशुजैसे कवियों ने आजादी के बाद 20 वर्षों के इस कड़वे अनुभव को कविता का केन्द्रीय विषय बनाकर स्वातन्त्रयोत्तर भारत के सत्ताप्रतिष्ठानों का पोस्टमार्टम करना शुरू किया।
साठोत्तरी कविता में स्वातन्त्रयोत्तर भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों की भरपूर अभिव्यक्ति है। हालाँकि साठोत्तरी कविता को लेकर हिन्दी आलोचना जगत में खूब खरी-खोटी कही गई है। इस कविता और इसकी प्रवृत्तियों पर खूब आरोप लगाए गए हैं। एक हद तक इसे कविता तथा इसके कवियों को कवि मानने से ही इनकार किया गया है। लेकिन साठोत्तरी कविता निराला और मुक्तिबोध की ही परम्परा का विकास है। निराला और मुक्तिबोध का स्वर साठोत्तरी कवियों तक पहुँचते-पहुँचते व्यंग्य और विद्रोह में परिवर्तित हो गया। साठोत्तरी कविता अपने समय का जीवन्त दस्तावेज प्रस्तुत करती है।इस धारा के युवा कवि चारो ओर व्याप्त अस्थिरता, अस्तव्यस्तता, अराजकता और टूटन के परिदृश्य को रेखांकित करते हैं। इस प्रकार साठोत्तरी कविता धीरे-धीरे एक आन्दोलन का रूप धारण कर लेती है।
4. साठोत्तरी हिन्दी कविता की मूल प्रवृत्तियाँ
साठोत्तर युवा कवियों के काव्य में उनके निजी स्वर अपने मूल प्रवृत्तियों के साथ अभिव्यक्त हुए हैं। इन युवा कवियों ने इसी स्वर के बल पर परम्परा की रूढ़ अभिव्यक्तियों को तोड़ा है और समकालीन समाज, राजनीति तथा व्यवस्था से मोहभंग की स्थिति को उजागर किया है। तत्कालीन आलोचकों और कवियों को साठोत्तरी कविता में युवा कवियों द्वारा समकालीन मनुष्य की मानसिक स्थिति को रूपायित करने के दावे बेमतलब जान पड़ते हैं। जबकि साठोत्तरी कविता समाज की मृत मान्यताओं, टूटती हुई परम्पराओं और सामाजिक, राजनीतिक भ्रष्टाचार से क्षुब्ध युवा मानस की अभिव्यक्ति है। उसे आज की बिखरी हुई दोहरी जिन्दगी और बदलते मानवीय सम्बन्धों की अभिव्यक्ति कहा जाता है। अगर कविता जुलूस, नारे, लाठीचार्ज, कर्फ्यू, चुनाव, मतदान, भीड़ और संसद की बात करती है तो इसलिए कि वह मनुष्य को सही परिवेश में रखना चाहती है। जाहिर है ऐसे में साठोत्तरी युवा कवि कविता में दूर की कौड़ी लाने के बजाए अपने समय के यथार्थ से मुठभेड़ करते हैं। वे चारो ओर व्याप्त सामाजिक, राजनीतिक भ्रष्टाचार और व्यवस्था की गन्दगी को सामान्य जन के सामने रखने और उसको साफ़ करने के लिए उसका सहयोग प्राप्त करने के लिहाज से अपनी कविता में आक्रोश, विरोध, विद्रोह, क्षोभ, उत्तेजना, तनाव और छटपटाहट को वाणी प्रदान करते हैं। इसको केवल बगावत, अराजकता, आक्रोश और दिखाऊ बड़बोले विद्रोह कहकर खारिज कर देना कहाँ तक जायज है ?
स्वतन्त्रता के बाद भारत में तिभागा, तेलंगाना, नक्सलबाड़ी जैसे आन्दोलनों को कुचल देने, दबा देने और उसकी जमीन पर ‘ग्रीन हन्ट’ का नारा देकर हाशिये के लोगों को प्रताड़ित करने की घटनाओं ने युवा मानस को झकझोर दिया था। देश का हर जागरूक व्यक्ति इससे आहत हुआ। मौजूदा विडम्बना का साक्षात्कार करते हुए वह खुद से सवाल करने लगा। सन् 1972 में लिखी गई आलोक धन्वा की प्रसिद्ध कविता गोली दागो पोस्टर इसी सवाल की तरफ संकेत करती है–
क्या उन्नीस सौ बहत्तर की इस बीस अप्रैल को
मैं अपने बच्चों के साथ एक पिता की तरह रह सकता हूँ ?
स्याही से भरी दवात की तरह, एक गेंद की तरह
क्या मैं अपने बच्चों के साथ
घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूँ ?
ये पंक्तियाँ मनुष्य की विडम्बना, व्यवस्था की विद्रूपता और शासनव्यवस्था से मोहभंग को बखूबी रेखांकित करती हैं। जब भी हम साठोत्तरी कविता की चर्चा करते हैं तो कुछ शब्द जैसे मोहभंग, सिनिसिज्म, पलायन, आक्रोश आदि अनिवार्य रूप से आते हैं। दरअसल इन शब्दों में समकालीन मनुष्य की पीड़ा है। उसके कष्ट, दुर्दशा, खीज, क्षोभ, दुर्गति के साथ ही शासन व्यवस्था और भ्रष्टाचार की कथा भी इनमें छिपी हुई है। अब ‘सत्य’ शब्द अपना अर्थ खो चुका है। साठोत्तरी युवा कवि कैलाश वाजपेयी इसी ‘सत्य’ शब्द की नियति बयाँ करते हुए कहते हैं –
सत्य शब्द का
उच्चारण
अब केवल अरथी
ले जाने में होता है।
स्वातन्त्रयोत्तर भारत के इतिहास में ‘मोहभंग’ की स्थिति अचानक पैदा नहीं हुई। आजाद भारत में जनतन्त्र के नाम पर मूल्यविहीन राजनीति, अपराधीकरण, लूटमार, भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ। इसके परिणामस्वरूप दिनों-दिन मानवीय संवेदना का ह्रास और अभिजात निरंकुशता का बोलबाला हो गया। लोकतन्त्र में सबसे आवश्यक है विपक्ष का होना। लेकिन राजनीति में हुए मानवीय संवेदना के ह्रास और लगातार हावी होती चली गई अभिजात निरंकुशता ने स्वातन्त्रयोत्तर भारत में दो-तीन दशकों तक विपक्ष को उभरने ही नहीं दिया। इस राजनीतिक परिदृश्य का जायजा लेते हुए रजनी कोठारी लिखते हैं – “देश को न तो अंग्रेजों की तर्ज पर नौकरशाह चला रहे हैं और न ही पश्चिमी लोकतन्त्र की तर्ज पर कोई दो दलीय प्रणाली। यहाँ तो एक विलक्षण पार्टी प्रणाली चल रही है, जिसकी ख़ास बात है- एक पार्टी का वर्चस्व और विपक्ष का न के बराबर महत्त्व।” (राजनीति की किताब : रजनी कोठारी का कृतित्व, सम्पादक: अभय कुमार दुबे, पृ. 60) स्वतन्त्रता के 68 वर्ष बीत जाने पर भी वही प्रणाली शासन चला रही है जिसमें विपक्ष बिलकुल गायब है। लोकतांत्रिक पूँजीवाद ने सत्ता और उसकी ताकत की केन्द्रीयता को बनाए रखने के लिए सन् 1947 से लेकर आज तक सामाजिक और राजनीतिक संकट का माहौल तैयार कर मनुष्य को सांस्कृतिक शून्य के बहुत बड़े विभ्रम में फँसा रखा है। साठोत्तरी कविता के युवा कवि कुमार विकल जल्द ही इस भ्रम को पहचानने लगते हैं-
हमारे हिस्से के शहर में कभी भी आग नहीं जलती
सिर्फ राजमहल की आग की आँच पहुँचती है
इसलिए हमारी रोटियाँ कच्ची रह जाती हैं
हमारे कपडे देर से सूखते हैं
हमारी नसों में दौड़ता खून जम जाता है
हमारे खून के खिलाफ
यह राजमहल की साजिश है
कि हमें आग नहीं
आग का भ्रम दिया जाता है।
आग का यह भ्रम आज भी लोकतन्त्र की बुनियादी संरचना को तोड़ रहा है। इस कालखण्ड में तेलंगाना, श्रीकाकुलम, नक्सलबाड़ी से लेकर जे.पी. आन्दोलन तक हम जनसंघर्ष को निरन्तर तीव्र होते देखते हैं। एक बार फिर सत्ता ने लोकतांत्रिक तरीके को छोड़कर दमन का रास्ता अपनाया। ऐसे में साठोत्तरी कविता का जनवादी कवि हाथ पर हाथ धरे बैठ नहीं पाया और निडर होकर सत्ता के विरोध में खड़ा हुआ। लीलाधर जगूड़ी की पंक्तियाँ यहाँ इसी बात की परिचायक हैं-
वहाँ गोलियाँ महज इस बात पर चल पड़ीं क्योंकि वे जीना चाहते थे।
आखिर साठोत्तरी कवि ऐसा कहने को क्यों विवश हुए? वे विरोध और विद्रोह पर क्यों उतारू हुए ? इन कारणों की तलाश करने पर हम पाते हैं कि जनतन्त्र में साम्राज्यवादी ताकतों और हथकण्डों का इस्तेमाल जनता और जनतन्त्र के बीच के संवाद को कुचल देता था। लोकतन्त्र की हत्या कर देता था। ऐसे में एक जागरूक और संवेदनशील व्यक्ति गोली-बारूद और विद्रोह की बात न करे तो फिर क्या करे ? कुमारेन्द्र की एक महत्त्वपूर्ण कविता है- गोली और गुलाब । वे लिखते हैं-
गुलाब धरती से आसमान को मिलाते हैं
और जब अपना संगीत छेड़ते हैं
गोलियाँ अक्सर मेरे जेहन से उतर जाती हैं
गोली मैं तब चुनूँगा
जब धरती से आसमान का संवाद टूट जाएगा
और भाषा अन्धकार में ले जाकर हमारा साथ छोड़ देगी
मगर ऐसा नहीं होगा।
इस उद्धरण की आखिरी पंक्ति पर ज़रा गौर करें- ‘मगर ऐसा नहीं होगा’। यहाँ भारतीय संविधान और लोकतन्त्र के प्रति साठोत्तरी कवियों की अटूट और अगाध आस्था स्पष्ट है। जीवन और सौन्दर्य के प्रति अराजक और विद्रोही कविता का अनुराग स्पष्ट है। जीवन और सौन्दर्य के प्रति आस्थावान और जागरूक कवि यथास्थिति को बदलने और मानवीय मूल्यों के संरक्षण के लिए छोटे-छोटे लोगों की छोटी-छोटी बातों पर निगाह रखते हैं और उनके लिए संघर्ष करते हैं। कुमार विकल लिखते हैं-
मुझे लड़नी है एक छोटी-सी लड़ाई
छोटे लोगों के लिए
छोटी बातों के लिए।
भारत में जबसे लोकतन्त्र स्थापित हुआ, भारतीय जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि निरन्तर जनता की उपेक्षा करते रहे। यह जनता उन्हें ‘बहुत छोटे लोग’ लगी तथा उसकी बातें, उसकी जायज माँगें उनसे भी छोटी। लेकिन उनकी नजर में ‘छोटे-छोटे लोग’ दिखने वाली यह जनता संगठित होकर बहुत खतरनाक हो सकती है। कुमारेन्द्र इसी बात का संकेत करते हुए लिखते हैं-
उपेक्षित होने से बहुत
खतरनाक हो जाता है
नंगे माथ नंगे पाँव आदमी।
अंग्रेजों और साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ जिस तरह भारतीय जनता संगठित और आन्दोलित हुई थी, बाद के दिनों में कभी आजाद भारत में उस विकराल रूप में संगठित और आन्दोलित नहीं हुई। यदि वह दोबारा फिर से उसी रूप में संगठित और आन्दोलित हो गई और सत्ता के खिलाफ विद्रोह कर बैठी, जनता ने उससे डरना बन्द कर दिया, तो सत्ता और उसके भ्रष्ट-अमानवीय ठेकेदारों के सारे हथियार-हथकण्डे, ‘गोला-बारूद, पुलिस, फ़ौज’ घुटने टेक देंगे। गोरख पाण्डेय जनता की ताकत को रेखांकित करते हुए लिखते हैं-
वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस फ़ौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना बन्द कर देंगे।
साठोत्तर कवि अपनी कविताओं के माध्यम से उसकी ताकत की याद जनता को दिलाना चाहते हैं। इस प्रक्रिया में उनकी कविता में आक्रोश, आवेश, उत्तेजना, क्षोभ, खीज, अराजकता, विद्रोह आदि का स्वर दिखता है। साथ ही जीवन और मनुष्य, संविधान और जनतन्त्र, गाँव और शहर, खेत और जंगल, परिवार और पशु, सौन्दर्य और उम्मीद के प्रति अटूट आस्था का स्वर भी उनकी कविता में विद्यमान है।
5. साठोत्तरी हिन्दी कविता और धूमिल
धूमिल साठोत्तरी हिन्दी कविता के बेहद महत्त्वपूर्ण कवियों में से हैं। उनका काव्य स्वातन्त्रयोत्तर भारत के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक इतिहास का एक जीवन्त दस्तावेज है। उनकी कविताएँ समकालीन मनुष्य की मानसिक स्थिति की तस्वीर पेश करने वाली प्रभावशाली कविताएँ हैं। धूमिल ने अपनी कविताओं के जरिए न सिर्फ अपने समय, समाज और राजनीति को प्रभावित किया बल्कि पूरे वेग से हिन्दी कविता की अभिव्यक्ति को ही बदल दिया। धूमिल ने अपनी कविताओं में उन विद्रूपताओं का चित्रण किया है जिनके कारण स्वातन्त्रयोत्तर भारत के सामाजिक जीवन में धर्म, जाति, भाषा, प्रदेश, वेशभूषा और खानपान के स्तर पर भेदभाव कायम होता जा रहा था। उच्च वर्ग, मध्यवर्ग, निम्नवर्ग; शहरी और ग्रामीण का अन्तर बढ़ता जा रहा था। देश में एकता, प्रेम, सहयोग, भाईचारा, करुणा जैसे मानवीय मूल्यों का ह्रास तेजी से होता जा रहा था और समाज विघटन के कगार पर आ खड़ा हुआ था। साम्प्रदायिक दंगे, भाषिक आन्दोलन, प्रान्तीयता और क्षेत्रीयता विष की तरह समाज की नसों में फैलते जा रहे थे। लिहाजा समाज के जागरूक और संवेदनशील युवा वर्ग का व्यवस्था के प्रति मोहभंग होना स्वाभाविक था।जागरूक और संवेदनशील युवा कवि धूमिल की चेतना भी इन सब परिस्थितियों में निर्मित हो रही थी।धूमिल जैसे कवि वैसी व्यवस्था के प्रति आक्रोश, आवेश, उत्तेजना, खीज, क्षोभ, अराजकता और विद्रोह का तेवर न दिखाते तो भला क्या करते? दरअसल धूमिल की कविता में समाज में फैली अव्यवस्था का पर्दाफाश तथा राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक एवं प्रणयगत कुरूपताओं का सही चित्र सामने आया है। आधुनिक कविता में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को छोड़ दें तो धूमिल से पहले किसी भी कवि ने अपनी कविता में इतनी भयानक, कुरूप और विद्रूप परिस्थितियों और चरित्रों को शायद ही जगह दी हो।
सवाल यह है कि इस युवा कवि को इतनी कुरूपता दिखाने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? दरअसल आजाद भारत में आजादी के साथ ही संसदीय लोकतन्त्र की स्थापना हुई लेकिन कुछ ही दिनों में पूरी की पूरी जनतान्त्रिक प्रक्रिया विफल होने लगी। सत्ता पर आसीन नेता और मन्त्री अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के प्रति उदासीन होकर भ्रष्ट और लालची होने लगे। इस संसदीय लोकतन्त्र के भीतर ही बाहुबलियों, धनपशुओं और साम्प्रदायिक ताकतों ने झूठ और अपराध का सहारा लेकर ताण्डव करना शुरू कर दिया। आम जनता के सपनों और उम्मीदों को धीरे-धीरे कोरे वायदों और बेमानी योजनाओं की आड़ में तोड़ा जाने लगा। ऐसे में धूमिल जैसा युवा कवि इस बेबस और लाचार जनता का प्रतिनिधि बन बैठा और शासन व्यवस्था के खिलाफ कविता के माध्यम से विद्रोह का बिगुल बजाने लगा। यही कारण है कि धूमिल को हिन्दी कविता के प्रचलित मुहावरों और अभिव्यक्तियों को तोड़कर एक नया भाषिक मुहावरा और नए प्रकार का अभिव्यक्ति कौशल ईजाद करना पड़ा। धूमिल का यह नया मुहावरा खूब चला क्योंकि यह उस समय की जरूरत थी। साठोत्तरी कविता का मकसद क्या है या क्या होना चाहिए इस पर हिन्दी आलोचना और उसके आलोचकों ने अनेक व्याख्याएँ या फतवे जारी किए हैं लेकिन धूमिल इन सबसे बेअसर होकर वही करते रहे जो उन्हें करना था। कविता के मकसद पर चल रही माथापच्ची के बीच धूमिल ने लिखा-
इस ससुरी कविता को
जंगल से जनता तक
ढोने से क्या होगा ?
आपै जवाब दो
मैं इसका क्या करूँ ?
तितली के पंखों में पटाखा बाँधकर
भाषा के हलके में
कौन–सा गुल खिला दूँ ?
X X X X X
साठोत्तरी कवियों द्वारा कविता में ऐसे वीभत्स बिम्बों का प्रयोग और कुरूपता का चित्रण एक मकसद के साथ सामने आया। ऐसे प्रयोगों से कवि न केवल स्वातन्त्रयोत्तर भारत की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की दर्दनाक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं बल्कि साहित्य और कविता को अपने दायित्व, अपने मकसद और अपने प्रयोजन के प्रति भी आगाह करते हैं। यही कारण है कि धूमिल स्वातन्त्रयोत्तर भारत की कविता और कवियों को चाटुकारिता और उदासीनता की राह से मोड़कर सही रास्ते पर लाने की जद्दोजहद करते हैं। धूमिल रूढ़ियों को तो तोड़ते हैं लेकिन उनकी कविताओं में परम्परा के प्रति आस्था भी है। गौरतलब है कि धूमिल में हिन्दी कविता की परम्परा की पहचान है। वे जानते हैं कि पहले कविता मनुष्य की एक चीख सुनकर, मनुष्य की थोड़ी-सी पीड़ा के कारण उत्पीड़क के खिलाफ तुरन्त सम्मन जारी करती थी लेकिन आज स्थिति बदल गई है। आज कविता किसी विद्रूपता के खिलाफ बौखलाए मनुष्य का एकालाप है। वे लिखते हैं-
वह बहुत पहले की बात है
जब कहीं, किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीखती थी और
सारा नगर चौंक पड़ता था
मगर अब
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है।
इन पंक्तियों से हमें यह न समझना चाहिए कि धूमिल की कविता की अवधारणा मात्र यही है। वे लिखते हैं-
एक सही कविता-
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है।
धूमिल कविता और मनु्ष्य के सम्बन्ध को नए परिप्रेक्ष्य में रेखांकित करते हैं। इस सन्दर्भ में धूमिल की कविता मुनासिब कार्रवाई बेहद उल्लेखनीय और महत्त्वपूर्ण है। धूमिल लिखते हैं कि-
कविता क्या है ?
कोई पहनावा है ?
कुर्ता-पाजामा है ?
ना, भाई, ना
कविता – –
शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का
हलफनामा है।
धूमिल के लिए कविता एक मकसद है, एक मुकाम है, एक प्रयोजन है, एक हथियार है। धूमिल के लिए कविता केवल बौखलाहट, बड़बड़ाहट, आक्रोश, आवेश, उत्तेजना और उदण्डता ही नहीं है बल्कि उनके लिए ‘कविता, भाषा में, आदमी होने की तमीज’ है। इसी कविता में धूमिल लिखते हैं-
क्या यह व्यक्तित्व बनाने की-
चरित्र चमकाने की-
खाने-पकाने की-
चीज है ?
ना, भाई, ना,
कविता – –
भाषा में
आदमी होने की तमीज है।
इस धारणा के साथ धूमिल जब साठोत्तरी कविता में प्रवृत होते हैं तब केवल स्वतन्त्रयोत्तर भारत के जलते-धधकते यथार्थ का अनुभव ही नहीं करते, समाज और राजनीति की भद्दी और कुरूप अवस्था का चित्रण ही नहीं करते बल्कि गहन विचारशीलता और कलात्मकता के साथ गम्भीर से गम्भीर सन्दर्भों को सामान्य भाषा में हमारे सामने रख देते हैं। धूमिल की कविता की पंक्तियाँ पढ़ने पर बहुत सामान्य-सी जान पड़ती हैं लेकिन जब हम थोड़ा ठहरकर गहराई में उतरते हैं और हमारी संवेदना का उन पंक्तियों से साक्षात्कार होता है तब हम उन सामान्य पंक्तियों की गिरफ्त में आने लगते हैं। हमें साधारण में असाधारण का अहसास होने लगता है। कारण कि धूमिल अपनी सामान्य-सी कविताओं में भी फतवेबाजी, फिकरेबाजी और दार्शनिकता को हावी नहीं होने देते। बहुत ही साधारण शब्दों में असाधारण बात कह जाते हैं। मोचीराम कविता की ये पंक्तियाँ इसी बात की परिचायक हैं
और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है, जहां कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है।
धूमिल पर निराला और मुक्तिबोध की काव्य परम्परा का स्पष्ट प्रभाव लक्षित किया जा सकता है। धूमिल की मोचीराम और पटकथा जैसी कविताओं को पढ़ते हुए पाठक को निराला की भिक्षुक और मुक्तिबोध की अन्धेरे में कविताओं का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। धूमिल की लम्बी कविता पटकथा उनके काव्योत्कर्ष का चरम है जो धूमिल को स्वतन्त्रता के बाद के श्रेष्ठ कवियों की पंक्ति में ला खड़ा करती है। इस लम्बी कविता को हिन्दी आलोचकों ने बहुत बार असफल कविता करार दिया है। ऐसे आलोचकों में शिवकुमार मिश्र के साथ-साथ अशोक वाजपेयी जैसे आलोचक भी शामिल हैं। धूमिल की पटकथा जैसी कविता को असफल और अन्धेरे में कविता की अधकचरी नकल बताने वाले आलोचक इस कविता के बेजोड़ शिल्प और संवेदनशील अन्तर्वस्तु को पकड़ने में शायद चूक जाते हैं। यही कारण है कि उन्हें इस कविता में विराट विजन और रचनात्मक तनाव का अभाव नजर आता है। मुक्तिबोध की फैण्टेसी और उस फैण्टेसी से निर्मित भाषा की अपेक्षा धूमिल सहज भाषा और शिल्प में अपना काम कर जाते हैं। यही उनका निजी स्वर है। यही उनकी उपलब्धि है।
सही है कि धूमिल पटकथा में मुक्तिबोध के अन्धेरे में से बहुत कुछ लेते हैं लेकिन नकल के तौर पर नहीं। मुक्तिबोध की अन्धेरे में कविता में आए सभी चरित्रों जैसे डोमाजी उस्ताद के पीछे चलने वाले पत्रकार, वकील, सैनिक, ब्रिगेडियर और जनरल जो अपने काले लिबास के चलते पहचान में नहीं आते पर धूमिल पटकथा में उन सभी चरित्रों पर रोशनी डाल देते हैं। अन्धेरे में के ये सभी चरित्र पटकथा में आते-आते पूरी तरह परिभाषित कर दिए जाते हैं। तभी तो धूमिल लिखते हैं –
वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं।
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक
हैं। लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि –
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।
धूमिल सच्चे अर्थों में जनता के कवि हैं। वे हर परिस्थिति में जनता के साथ खड़े हैं। जनता की भावनाओं के साथ संगति बिठाना उनका उद्देश्य है। इसके लिए वे डट कर खड़े हैं। सजा भुगतने को भी तत्पर हैं। एक आत्मकथ्य में उन्होंने कहा है- “ईमानदार होने की अपेक्षा ‘संगत’ होना मेरे लिए अधिक सहज है। आप वही चुनें जितना आपके लिए आवश्यक है। अपनी शर्म के नीचे अपमानित होने के लिए अपनों को छोड़कर भागना और सजा सुनते वक्त कानों को बन्द कर लेना, बचने की सही तरकीब नहीं है।’’(पुस्तक-वार्ता (द्वैमासिक पत्रिका),अंक-55, वर्ष-2014, पृ.13) इस संगति के साथ धूमिल अपने देश की असहाय और विडम्बनाग्रस्त जनता के साथ डटकर खड़े रहते हैं और झकझोर देने वाली भाषा में मार्मिक सच्चाई को कहने लगते हैं जिसे पढ़-सुन कर सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी अपनी नसों में बिजली की कौंध महसूस करने लगता है। धूमिल लिखते हैं-
सुनो !
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूं
जिसके आगे हर सच्चाई
छोटी है। इस दुनिया में
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
रोटी है।
मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
यदि सही दूरी नहीं है
तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो
क्योंकि पशुता – –
सिर्फ पूँछ होने की मजबूरी नहीं है।
धूमिल रेखांकित करते हैं कि भारत आजाद नहीं हुआ है, भारत में केवल सत्ता का हस्तान्तरण हुआ है। यही कारण है कि आजादी से पूर्व जो बर्बरता और अमानवीयता विदेशी शासकों द्वारा की जाती थी वही आजादी के बाद भी जारी है। आजादी के सपने, वायदे, उम्मीद सब विफल हो गए हैं।
धूमिल का समय बीत गया है, पटकथा भी पुरानी पड़ चुकी है लेकिन उसका कथ्य आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण हो चुका है। धूमिल का बेबाक ठेठपन और असहाय जनता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अप्रत्याशित और लीक से हटकर है जिसे बार-बार दुहराया जाना चाहिए।
पटकथा के बाद मोचीराम धूमिल की सबसे महत्त्वपूर्ण कविता है। धूमिल ने इस कविता में ऐसे चरित्र को गढ़ा है जो उनसे पहले शायद ही किसी ने गढ़ा हो। धूमिल का कविता के लिए ऐसे विषय का चुनाव उनको निराला की परम्परा में ला खड़ा करता है। आजाद भारत में भी व्यवस्था के चरित्र को रेखांकित करने और गरीब जनता की मनःस्थिति को रेखांकित करने के लिए अनेक कवियों ने ऐसे विषयों और चरित्रों को गढ़ा है। रघुवीर सहाय की रामदास कविता इसी का उदाहरण है। लेकिन धूमिल ने एक मोची को केन्द्र में रख कर जो अभिव्यक्ति की है, वह सर्वथा नवीन और संवेदनशील है। अपनी दृष्टि और संवेदना के सहारे वे एक मोची जैसे सामान्य चरित्र में पैठ जाते हैं और उसके बाद उनकी जुबान से जो बातें कविता में आती हैं वे स्वातन्त्रयोत्तर मनुष्य की व्यथा-कथा और सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था के नंगेपन को और नंगा कर देती हैं। मोचीराम कविता का नायक मोचीराम बड़े सरल और सहज स्वभाव से जब कहता है-
बाबू जी ! सच कहूँ– मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिए खड़ा है।
बातों-बातों में ही मोचीराम जो बात हमसे कह जाता है वह जनतान्त्रिक व्यवस्था के भीतर हो रहे अत्याचार, उदासीनता और बीमारू माहौल को सामने रख देने के लिए पर्याप्त है। ऐसे चरित्र का निर्माण करने में धूमिल सफल हुए हैं तो सिर्फ इसलिए कि शहर के साथ-साथ ग्रामीण संस्कार भी उनमें रचा-बसा है। इसी कारण धूमिल आजाद भारत के हर तबके में पैठ बना लेते हैं। वे हर तबके की वस्तुस्थिति और उस तबके पर व्यवस्था द्वारा कसे गए शिकंजे और कुचक्र में पिस रही जनता की हालत को देख पाते हैं। इन हालात को मोचीराम रूपी चरितनायक के शब्दों में वे लिखते हैं –
और बाबूजी। असल बात तो यह है कि जिन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर या रण्डियों की
दलाली कर के रोजी कमाने में
कोई फर्क नहीं है।
धूमिल के काव्य संसार की भाषागत विशेषताओं में सबसे पहली विशेषता है- धूमिल का अपने युगबोध के अनुरूप अपनी कविता में नए भाषिक मुहावरे का प्रयोग। इस प्रयोग के अनुरूप उनकी नवसृजित भाषा। उनकी भाषा में अत्यन्त प्रचलित और आमफहम शब्दों का प्रयोग है। ऐसे शब्द जो शहराती और ग्रामीण दोनों ही संस्कारों से लबरेज हैं। धूमिल की कविता में कचहरी से सीधा सम्बन्ध दिखता है, इसलिए उनकी कविता में इससे जुड़े तमाम शब्द मसलन अपराधी, हलफनामा, कारागार, मुजरिम, अदालत आदि अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ आते हैं। इसके साथ ही लम्बी कविता का शिल्प गठन, उसके अनुरूप नाटकीयता, चरितनायक आदि का चुनाव धूमिल ने अपनी कविताओं में किया है। असाधारण बात को साधारण शब्दों और भाषा के बल पर कह जाना धूमिल की प्रतिभा का प्रमाण है। इसके साथ ही धूमिल की कविता में व्यंग्य का प्रयोग देखने में तो सामान्य-सा लगता है लेकिन उसकी धार बहुत तीखी और पैनी है।
7. निष्कर्ष
धूमिल स्वातन्त्रयोत्तर भारत के सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश और उसकी विद्रूपता, समकालीन मनुष्य की मानसिक स्थिति, उसकी लाचारी और विडम्बना को बड़ी बेबाकी से बेपर्दा कर देते हैं। यही उनकी शैलीगत सम्पन्नता और काव्यगत विशिष्टता है। धूमिल को किसी परम्परा का गुलाम बनना गवारा नहीं था। बन्धन उन्हें पसन्द नहीं थे। उनके लिए कविता एक प्रयोजन है, एक उपकरण है, जिसका वे गलत से लड़ने के लिए सन्दर्भानुसार सृजन करते हैं।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- संसद से सड़क तक– धूमिल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- समकालीन कविता और धूमिल, डॉ. मन्जुल उपाध्याय,अनामिका प्रकाशन,इलाहबाद
- समकालीन बोध और धूमिल का काव्य, डॉ. हुकुमचन्द्र राजपाल,वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली
- सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र, धूमिल, रत्नशंकर(सम्पा.), वाणी प्रकाशन, दिल्ली
- कविता के नए प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- आधुनिक कविता का इतिहास, नन्दकिशोर नवल, भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली
- आधुनिक कविता युग और सन्दर्भ, शिवकुमार मिश्र, स्वराज प्रकाशन दिल्ली
- आलोचना की सामाजिकता, मैनेजर पाण्डेय,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
वेब लिंक्स
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- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4_%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE
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- https://www.youtube.com/watch?v=MXh2LacLCS0
- https://www.youtube.com/watch?v=gIG5atE0N4E