33 समकालीन कविता और जनतन्त्र
प्रो. राजेन्द्र प्रकाश गौतम
पाठ का प्रारूप-
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कविता की प्रवृत्तियाँ
- समकालीन कविता की पृष्ठभूमि
- जनतन्त्र : एक नई संकल्पना
- स्वप्न और उनसे मोहभंग
- जनतन्त्र और शोषण के विरोध की कविता
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
● समकालीन हिन्दी कविता में अभिव्यक्त, जनतन्त्र की अवधारणा समझ सकेंगे।
● कविता से लोकतान्त्रिक व्यवस्था के रिश्ते समझ सकेंगे।
● जन के मन में स्वतन्त्रता प्राप्ति और जनतन्त्र की स्थापना के साथ जो आकांक्षाएँ उदित हुई थीं, उन्हें पहचान सकेंगे।
● कविता द्वारा समकालीन समस्याओं की निर्वहन प्रक्रिया जान सकेंगे। 2. प्रस्तावना
बीसवीं शताब्दी पूरे विश्व में मानवाधिकारों की स्थापना की शताब्दी कही जा सकती है। लोकतन्त्र वह व्यवस्था है, जिसमें मानवाधिकारों की सुरक्षा की सर्वाधिक सम्भावना है। जनतान्त्रिक संघर्ष द्वारा बीसवीं शताब्दी में विश्व के अनेक देशों ने औपनिवेशिक शिकंजे से मुक्ति पाई थी। इन जनतान्त्रिक संघर्षों से वर्षों से दबे-कुचले सामान्य जन को एक आवाज मिली। इन्हीं जनतान्त्रिक संघर्षों ने भारत को राष्ट्रीयता का रंग-बिरंगा संसार दिया। राष्ट्रीयता और आधुनिकता का नाभिनाल सम्बन्ध विदित है। बीसवीं शताब्दी के हिन्दी साहित्य पर आधुनिकता के विशेष प्रभाव के परिणामस्वरूप उसमें राष्ट्रीयता के साथ-साथ जनतान्त्रिक भावनाओं की अभिव्यक्ति को विशेष रूप से देखा जा सकता है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के साथ ही जनतन्त्र राष्ट्र के लिए नवीन आकांक्षाएँ लेकर आया था। फलस्वरूप स्वातन्त्र्योत्तरकालीन राष्ट्रीयता केवल एक भावात्मक मूल्य न रह कर जनतन्त्र की आकांक्षाओं की पूर्ति का दायित्व लेकर आई है।
- स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कविता की प्रवृत्तियाँ
साहित्यिक प्रवृत्तियों में कभी भी यान्त्रिक बदलाव नहीं हुआ करता। किसी प्रवृत्ति का आरम्भ न तो खास मुहूर्त्त में बटन दबाकर शुरू किया जा सकता है और न ही ऐसी प्रक्रिया द्वारा किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का समापन होता है। सामान्यतः जहाँ साहित्य पर परिवेश का क्रमशः एवं परोक्ष प्रभाव पड़ता है, वहीं बड़ी एवं आकस्मिक घटनाएँ साहित्य धाराओं में भी नया एवं आकस्मिक मोड़ ला देती हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति का दिन 15 अगस्त 1947 स्वयं में ही बहुत बड़ी घटना है, लेकिन देश के अपने संविधान के साथ गणतन्त्र की शुरुआत इस घटना को सार्थक मोड़ देती है। इस दृष्टि से 26 जनवरी 1950 को संविधान का लागू होना स्वतन्त्रता प्राप्ति क़ी घटना से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। गणतन्त्र के साथ ही ‘भारत राष्ट्र’ का रथ जन के सपनों की पूर्ति के लिए संकल्पबद्ध होकर एक नई यात्रा आरम्भ करता है। साधारण जन की आकांक्षाओं को साकार करने वाली इस यात्रा में भटकाव न आए, इसके लिए साहित्य की पहरेदारी तो जरूरी थी। साथ ही साहित्य से ऐसी रचनात्मक भूमिका की भी अपेक्षा थी, जो जनाकांक्षाओं को एक सार्थक दिशा दे सके। इस दिशा में हिन्दी कविता का अवदान भी विशिष्ट है। इन पैंसठ वर्षो में हिन्दी कविता के स्वर विविधतामय हैं, लेकिन इसमें सन्देह नहीं कि पहरेदारी और रचनात्मक भूमिका– दोनों प्रकार के स्वर इस दौर की कविता में सुनाई देते हैं। कभी ये स्वर तीव्र हुए हैं और कभी मन्द, लेकिन अस्तित्वहीन वे कभी नहीं हुए। यह भी सच है कि ऐसे दौर भी आते रहे हैं, जब लगने लगा कि सत्ता द्वारा जन की आवाज अनसुनी की जाने लगी है, लेकिन तब भी साहित्य की रचनात्मक भूमिका को नकारा नहीं जा सका।
कवि-आलोचक विजेन्द्र ने ठीक ही कहा कि हमारा संविधान हमें जीवन के तीन बड़े मूल्य देता है। वे मूल्य हैं– लोकतन्त्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता। पिछले पैंसठ वर्षों के समूचे हिन्दी साहित्य का सर्वेक्षण करें तो पाते हैं कि इस दौरान रचा गया सार्थक एवं प्रासंगिक साहित्य वही है, जिसमें संविधान-प्रदत्त इन तीन मूल्यों की या तो स्थापना हुई या इन्हें पाने की जद्दोजहद है अथवा इनके छिन जाने के प्रति चिन्ता व्यक्त की गई है। प्राय: विरोध के स्वर को राष्ट्र-विरोधी मान लिया जाता है, किन्तु वास्तविकता यह है कि जनतान्त्रिक मूल्यों का राष्ट्रीयता से विरोधात्मक सम्बन्ध नहीं है। यह बात दूसरी है कि स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रीयता की परिकल्पना जिस रूप में की गई थी, आगे चल कर उसमें एक युगानुरूप परिवर्तन दिखाई देता है। बल्कि नए सन्दर्भों में ये संवैधानिक मूल्य ही राष्ट्रीयता के स्वरूप को निर्धारित करते हैं। स्वतन्त्रता संग्राम के समय राष्ट्र की परिकल्पना भावात्मक अधिक थी। भारत माता के रूप में पूजनीय भाव के साथ की गई राष्ट्र की कल्पना के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक आधार भी स्पष्ट थे। आजादी के बाद इस अवधारणा को पूरी तरह विस्मृत नहीं किया गया। वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपने निबन्धों में राष्ट्रीयता की वैदिक परिकल्पना ‘माताभूमिः पुत्रोऽहम् पृथिव्याः’ को सामने रख कर साकार किया था। राष्ट्रीयता को सांस्कृतिक चेतना के साथ जोड़कर जन के सम्मुख प्रस्तुत करने की आवश्यकता रामधारी सिंह दिनकर को भी हुई थी। लेकिन शीघ्र ही यह धारा एक नया मोड़ लेती है। यह नई दिशा जनाकांक्षाओं के सपनों का उद्घाटन करती है। भारतीय गणतन्त्र की स्थापना के साथ ही हिन्दी में उपन्यास, कहानी, निबन्ध और कविता में आंचलिक सन्दर्भों का व्यापक चित्रण है। आंचलिकता की यह प्रवृत्ति लोक की प्रतिष्ठा तो है ही, जनतन्त्र का एक नया अध्याय भी रचती है। अन्य विधाओं के समानान्तर समकालीन हिन्दी कविता में जनतान्त्रिक मूल्यों की स्पष्ट रूप में अभिव्यक्ति हुई है। आगे इसी अभिव्यक्ति की पहचान का प्रयास किया जाएगा।
- समकालीन कविता की पृष्ठभूमि
भारतीय गणतन्त्र की स्थापना के बाद की कविता की एक पीढ़ी वह थी जो स्वतन्त्रता संग्राम के दौर से रचनारत ही नहीं थी, बल्कि वह मानक शिखरों का आरोहण भी कर चुकी थी। इनमें कुछ बड़े नाम थे– सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंशराय बच्चन, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, केदारनाथ मिश्र प्रभात, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, सोहनलाल द्विवेदी, गोपालसिंह नेपाली आदि। निराला की भारती जय विजय करे की प्रतिध्वनि उनके स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद के साहित्य में भी सुनाई देती है, लेकिन गणतन्त्र के सपनों के साथ उभरने वाले उनके स्वर विशिष्ट हैं। इन नए स्वरों को हम सान्ध्यकाकली, अर्चना और आराधना के गीतों में सुन सकते हैं। बहुत पहले वे लिख चुके थे– ‘दलित जन पर करो करुणा’। गणतन्त्र के उदय के साथ उनकी चिन्ताएँ और बढ़ जाती हैं, और वे प्रार्थना करते हैं:
माँ, अपने आलोक निखारो,
नर को नरक त्रास से वारो।
आजादी के बाद दिनकर की कविता में भी गणतान्त्रिक भारत की चेतना की अनुगूँजें सुनाई देती हैं। चौथे दशक के आरम्भ में ही आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने संस्कृत में बन्दी मन्दिरम् काव्य लिखकर एक उद्बोधन भरा स्वर फूँका था, लेकिन नई चुनौतियों के साथ उनकी चिन्ताएँ भी बदल गईं। उन्होंने एक नया बादल राग जनतन्त्र के नए परिवेश के प्रति सजग रह कर लिखा ‘ऊपर ही ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं।’ उन्होंने शोषण के पूरे तन्त्र को बेनकाब किया–
गेहूँ काटने गई है अम्मा
बाप गया बेगारी में।
गत साठ वर्षों की हिन्दी कविता का एक बहुत बड़ा हिस्सा वह है, जिसमें राष्ट्र के नागरिक के सुख-दुख एवं लोकतन्त्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को सुलभ बनाने की चिन्ता व्यक्त हुई है। यह कविता मुख्यतः आत्मालोचन की कविता है, क्योंकि इन कवियों का दायित्व बोध बहुत मुखर है। केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन शास्त्री, गजानन माधव मुक्तिबोध, धूमिल, दुष्यन्त, केदारनाथ सिंह या इनके बाद आने वाले कवि मंगलेश डबराल, उदय प्रकाश, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति, विजेन्द्र आदि रचनाकारों की एक बड़ी पंक्ति वह है, जो लोक के साथ खड़ी है, उनकी कविता की सबसे बड़ी पहचान जन-प्रतिबद्धता ही है। इस युग के काव्य में तीव्र आलोचना और विश्लेषण का स्वर प्रबल हो जाता है। जनतन्त्र की परीक्षा एक बड़ी चुनौती बनती है। इसी प्रयास के कारण गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताएँ सत्ता तथा राजनीति के कुचक्र में पिसती असहाय मानवता का दस्तावेज बन जाती हैं। तब वे अपनी और लोकतन्त्र की गहरी समीक्षा करते हैं। अन्धेरे में वे रचनाकार से भी उसके दायित्व का सवाल खड़ा करते हैं।
भारतीय गणतन्त्र के उद्भव के साथ देश के विभाजन का सदमा जुड़ा है। साम्प्रदायिकता का दंश और विभाजन की पीड़ा अनेक साहित्यिक कृतियों में प्रकट हुई है। आजा़दी मिलने के साथ होने वाली इस त्रासदी को रेखांकित करते हुए भारतीय गणतन्त्र में रचे जाने वाले साहित्य की दिशाओं का सटीक निर्देश दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रकाशन भारतीय साहित्य : एक परिचय की भूमिका में इस प्रकार किया गया है–
‘‘स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान जो संघर्ष-चेतना आई थी, जिन मूल्यों की स्वीकृति हुई थी, जो मानदण्ड निर्मित हुए थे, उन्होंने परवर्ती साहित्य पर पर्याप्त असर डाला। आजा़दी मिलने के साथ विभाजन का गहरा घाव भी लगा था। उर्दू, हिन्दी और पंजाबी साहित्य में भारत-विभाजन की पीड़ा खास तौर से दर्ज की गई। हिंसा, घृणा, धार्मिक उन्माद और तमाम तरह के शोषणों के विरुद्ध समूचे भारतीय साहित्य ने संघर्ष छेड़ा। स्वतन्त्र भारत के साहित्य ने अपने लिए दो लक्ष्य निश्चित किए – आधुनिकीकरण और जनतन्त्रीकरण। भारतीय समाज के लिए ये दोनों ही प्रक्रियाएँ बुनियादी महत्त्व की हैं। समकालीन भारतीय साहित्य इन प्रकियाओं को बदले सन्दर्भों और नई परिस्थितियों के अनुरूप आगे बढ़ा रहा है। उसकी कार्यसूची में ये प्रक्रियाएँ प्राथमिक बनी हुई हैं।’’ (भारतीय साहित्य : एक परिचय, भूमिका)
- जनतन्त्र : एक नई संकल्पना
किसी भी दौर का साहित्य अपने समाज से गहरे रूप से जुड़ा होता है। साहित्य और समाज में एक जटिल सम्बन्ध पाया जाता है। कभी समाज साहित्य को एक दिशा प्रदान करता है, तो कभी साहित्य भविष्य के समाज की रूपरेखा तैयार करता है। साहित्य की सही समझ तभी विकसित हो सकती है, जब हम उस समाज की संरचना, अन्तर्निहित शक्तियों और परिवर्तन की पदचाप को सुन पाते हैं। उस स्थिति को बहुत सतर्कता एवं सूक्ष्मता से समझने की आवश्यकता होती है, जिसे ‘साहित्य की सामाजिकता’ कहा जाता है। सामाजिक परिवर्तन का महत्त्वपूर्ण आधार विचारधारात्मक हुआ करता है। यही कारण है कि जब मानवीय शोषण से मुक्ति, श्रम की महत्ता, उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व को समाप्त करने के रूप में मार्क्सवादी विचारधारा सामने आई, तो वह विश्व भर में औपनिवेशिक सत्ता से पीड़ित राष्ट्रों की मुक्ति का एक ठोस आधार बनी। मार्क्सवादी विचारधारा के लगातार दबाव के कारण पूँजीवादी विचारकों ने अपनी विचारधारा में परिवर्तन कर एक नई संकल्पना को सामने रखा। वही नई संकल्पना लोकतन्त्र के नाम से अभिहित हुई। यह परिवर्तन की संकल्पना पहले से ज्यादा उदारवादी, समाजवादी एवं मानवीय सरोकार को लिए हुए थी। इस बदलाव में हम मार्क्सवादी विचारों की भूमिका और उनके वैचारिक प्रभाव को स्पष्ट तौर से देख सकते हैं।
जनतन्त्र के केन्द्र में जन अर्थात लोक है। ‘इसलिए जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन’ के रूप में जनतन्त्र को परिभाषित किया जाता है। जनतन्त्र एक ऐसी संकल्पना है, जो मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों को सुरक्षित रखते हुए, उसे ऐसी परिस्थितियाँ उपलब्ध कराती है, जिससे वह अपना सर्वांगीण विकास कर सके। जिसमें उसके मूल अधिकार– स्वतन्त्रता, समानता, एवं बन्धुत्व सुरक्षित रहें। धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति, इतिहास में अपने को तलाशने का नाम जनतन्त्र है। इस तरह जनतन्त्र एक व्यापक अवधारणा है। सन 1950 के आस-पास विश्व के कई राष्ट्र औपनिवेशिक सत्ता से आजाद हुए और उन्हें अपनी शासन प्रणाली को निर्धारित करने का अधिकार मिला। जिसमें ज्यादातर देशों ने जनतन्त्रात्मक प्रणाली को अपने यहाँ लागू किया। यही वह दौर था जब भारत में जनतन्त्रात्मक संसदीय प्रणाली के शासन की शुरुआत हुई।
- स्वप्न और उनसे मोहभंग
सन् 1951 के प्रथम आम चुनाव में देश के प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू के निर्वाचन से भारतीय जनमानस में आशा की एक नई किरण दिखाई पड़ी।नई आर्थिक नीतियाँ, जमीन्दारी उन्मूलन, प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, राष्ट्रीय कृषि नीति आदि को लेकर भारतीय जनता में एक उत्साह था। इस दौर में नए विद्यालयों की स्थापना, कृषि विकास के लिए किसानों को उन्नत बीज, उर्वरक, सिंचाई आदि की व्यवस्था, सूती उद्योग के साथ-साथ देशी उद्योगों, लघु एवं कुटीर उद्योगों और हथकरघा की विकास की नीतियों से आशा का एक नया संचार हुआ। परन्तु जल्दी ही जब शासन की स्वार्थ लिप्तता, भ्रष्टाचार, सत्ता का सुख, रिश्वतखोरी आदि का बोलबाला बढ़ा तो जनता का सरकार से मन उचट गया और यही मोहभंग की स्थिति की शुरुआत थी। जिसने जनतन्त्रात्मक प्रणाली की कमजोरियों को उजागर करना शुरू किया। यही कारण है कि इस दौर में लिखी गई कविताओं में जनतन्त्र की मुखर आलोचना दिखाई पड़ती है। जनतन्त्र एक व्यापक राजनीति से संचालित होने लगा। जो स्वार्थपरता के अन्धकूप में जा गिरी। जिससे राजनीति को अच्छे लोग नजरअन्दाज करने लगे। राजनीतिज्ञ निजी और सार्वजनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए छोटे-छोटे ठेकेदारों से, भ्रष्ट प्रशासन से, या फिर काले व्यापारियों से चन्दा लेने लगा। जो कालान्तर में पूँजीपतियों के साँठ-गाँठ में तब्दील हो गई। व्यापारी आम जनता का शोषण कर अपनी तिजोरियाँ भरने लगे।इससे भारतीय जनतन्त्र का खोखलापन सामने आ गया।यही कारण है कि इस समय के कवियों– नागार्जुन, मुक्तिबोध, त्रिलोचन शास्त्री, केदारनाथ अग्रवाल आदि ने अपनी कविताओं में जनतन्त्र की मानव विरोधी नीतियों की आलोचना की और साथ ही मानवतावादी प्रवृत्ति की कविताएँ लिखीं।
- जनतन्त्र और शोषण के विरोध की कविता
हिन्दी में साठोत्तरी कविता के साथ जो दौर शुरू हुआ, उसमें जनतान्त्रिक अधिकारों की रक्षा का स्वर सबसे प्रबल है। उस दौर के ज्यादातर कवियों का स्वर अन्याय पर प्रहार की तरह सुनाई देता है। नागार्जुन ने सपाट रास्ता त्याग कर व्यंग्य को अपना हथियार बनाया। उन्होंने जनतन्त्र पर सीधा व्यंग्य कर खिल्ली उड़ाई। जनतन्त्र की हवा-हवाई बातें, दिवास्वप्न आदि पर बड़ी ही मार्मिक चोट उन्होंने अपने व्यंग्यों से की। उन्होंने लिखा–
कागज की आजादी मिलती है
ले लो दो – दो आने में।
उसी समय त्रिलोचन भी कविता लेखन में सक्रिय हुए। उन्होंने ग्रामीण परिवेश को अपनी कविताओं का आधार बनाया और गँवई लोगों के शहरों में नौकरी की तलाश में आने और वहाँ पर यन्त्रवत जीवन व्यतीत करने पर मजबूर करने वाली पूँजीवादी व्यवस्था की असलियत का बड़ा ही सटीक चित्रण किया। पूँजीवादी व्यवस्था में प्यार, मोहब्बत, दया, स्नेह, करुणा आदि भाव धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं वे अमानवीय और संवेदनहीन हो रहे हैं –
अपनी मुक्ति-कामना लेकर लड़ने वाली
जनता के पैरों की आवाजों में मेरा
हृदय धड़कता है। पग में गड़ जाने वाली
नोकें काटों की, कोमल चमड़े का घेरा
मेरा फाड़ दिया करती हैं। जहाँ अन्धेरा
सदियों का है, वहाँ जो न घट जाए वही कम।
गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताएँ सत्ता तथा राजनीति के कुचक्र में पिसते असहाय मानव का दस्तावेज हैं। अन्धेरे में कविता में वे रचनाकार से भी उसके दायित्व का सवाल खड़ा करते हैं–
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया !!
ज्यादा लिया दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम !!
शमशेर की अनेक कविताएँ प्रगतिशील चेतना से जुड़ी हैं। आजादी के नाम पर साधारण जनता को जो स्वप्न दिखाए गए, उनके मन में आशा का जो संचार हुआ, आजादी के बाद वह धूमिल पड़ने लगा। शमशेर ने अपनी कविता में शोषित और पीड़ित जनता के दुःख-दर्द को अनदेखी करने वाली सरकारों को बदलने के लिए जनता से अपील की–
सरकारें पलटती हैं जहाँ हम दर्द से करवट बदलते हैं
हमारे अपने नेता भूल जाते हैं, हमें जब,
भूल जाता है जमाना भी उन्हें, हम भूल जाते हैं
उन्हें खुद।
और तब
इनकलाब आता है।
उनके दौर को गुम करने।
भवानी प्रसाद मिश्र गाँधीवादी दर्शन से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने आम जनता के ख्याल से बहुत ही महत्त्वपूर्ण कविताएँ लिखीं। उन्होंने शासन के विकेन्द्रीकरण में पंचायती राज के महत्त्व को रेखांकित किया। साथ ही जनतन्त्र में जनता को सर्वोपरि मानने को ही सही ठहराया। गाँधी सप्तसती, गीत फरोश, बुनी हुई रस्सी, अँधेरी कविताएँ, कालजयी आदि उनके महत्त्वपूर्ण कविता संग्रह हैं। ये काव्य मानवीयता, सह-अस्तित्व, अहिंसा, जनता का शासन आदि को केन्द्र में रखकर रचे गए हैं–
मेरी शस्य श्यामला माँ के
बेटे भूख लिए बैठे हैं
कभी संजीवन मूर मिली थी
अब तो जहर पिए बैठे हैं।
रघुवीर सहाय की कविताएँ जनतन्त्र की कमियों को बड़ी ही तटस्थता और बेबाकी से प्रस्तुत करती हैं। वे अपने समय और समाज को बड़ी सूक्ष्मता से देखते हैं। आजादी के बाद के भारतीय समाज में गैर बराबरी के सामन्ती मूल्य की पड़ताल करते हुए उन्होंने दिखाया कि इस सोच से लोकतन्त्र या जनवाद का विकास नहीं हो सकता, अधिनायकवाद सिर उठाता है। आत्महत्या के विरुद्ध कविता संग्रह की अधिनायक कविता इसी ओर संकेत करती है–
राष्ट्र गीत में भला कौन वह
भारत भाग्य विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है
कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।
रघुवीर सहाय ने दिखाया कि असमानता के कारण ही अधिनायकवादी ताकतें लोकतन्त्र में शोषण की परम्परा जारी रखने में सफल हैं। जनतन्त्र की आड़ में जारी शोषण, दमन, अन्याय के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई और आम आदमी के हक़ में अपनी आवाज बुलन्द की। उन्होंने सामाजिक अन्याय और असमानता पर आधारित हर व्यवस्था का विरोध किया है। उन्होंने गरीबी के मूल में असमानता को ही पाया, जिससे एक वर्ग बहुत धनी और दूसरा बहुत निर्धन है। उन्होंने जात-पाँत, ऊँच-नीच का विरोध किया। व्यंग्य भरी भाषा में उन्होंने समाज के बनावटी शिष्टाचार और उसकी बेबसी की बहुत ही सार्थक अभिव्यक्ति दी–
राष्ट्र को महासंघ का यह सन्देश है
जब मिलो तिवारी से…हँसो…क्योंकि तुम भी तिवारी हो
जब मिलो शर्मा से…हँसो…क्योंकि वह भी तिवारी है
जब मिलो मुसद्दी से
खिसियाओ
जातपाँत से परे
रिश्ता अटूट है
राष्ट्रीय झेंप का।
रघुवीर सहाय मनुष्य की समानता और सामाजिक न्याय की लडाई के पक्षधर हैं। वे हर अमानवीय और अन्यायपूर्ण आवाज के खिलाफ उठ खड़े होते हैं, जिससे समानता, स्वतन्त्रता एवं बन्धुत्व जैसे जनवादी मूल्य स्थापित हो सकें। हिन्दी साहित्य में मोहभंग की जो अभिव्यक्ति हुई है, रघुवीर सहाय सीधे तौर पर उससे जुड़ते हैं। इस समय की उनकी कविताएँ लोगों को जनतन्त्र विरोधी लग सकती हैं। परन्तु वास्तव में वे जनतन्त्र के समाज-विरोधी मूल्यों से आहत थे। वे शासकों की कारगुजारियों, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, स्वतन्त्रता का हनन आदि पर कुपित थे। उन्होंने इन्दिरा द्वारा आरोपित ‘इमरजेंसी’ पर एक व्यंग्य कविता लिखी –
संसद एक मन्दिर है जहाँ किसी को द्रोही कहा नहीं जा सकता
दूध पिए मुँह पोछे आ बैठे जीवन दानी गोंद
दानी सदस्य तोंद सम्मुख धर
बोले कविता में देश प्रेम लाना हरियाना प्रेम लाना
आइसक्रीम लाना है।
नागार्जुन ने भी इमरजेंसी पर इन्दिरा गाँधी की तीखी आलोचना की। कभी सीधे शब्दों में, तो कभी व्यंग्य के माध्यम से। नागार्जुन की कविताएँ स्वतन्त्र भारत के राजनीतिक घटनाक्रम का कोलाज तैयार करती हैं। उनकी ‘प्रतिबद्धता’, ‘सम्बद्धता’, ‘आबद्धता’ सिर्फ आम जनता के प्रति ही नहीं; मनुष्यों के सहचर जीव-जन्तुओं, यहाँ तक कि प्रकृति के साथ भी है। उन्होंने हमेशा मानव प्रेम, मानवीयता से ओत-प्रोत, मानवीय समानता, शोषण से मुक्ति जैसे मूल्यों से परिपूर्ण कविताएँ लिखीं। यही कारण है कि नागार्जुन को ‘जनकवि’ कहा गया। सही अर्थों में जो जन के दुःख–दर्द, आशा-आकांक्षा, इच्छा–अनिच्छा, शासन-कुशासन आदि को जन की नजर से देखता-समझता है, वही जन कवि कहलाता है।
भारतीय जनतन्त्र के ऐसे ही प्रतिपक्षी, भारतीय जनमानस की आकांक्षा के रचनाकार धूमिल हैं। जब भी वे मानवीय आशा-आकांक्षा पर प्रहार देखते हैं, खीज उठते हैं। उनकी यह खीज सम्पूर्ण व्यवस्था से है, जिसमें आदमी लगातार पिस रहा है। उन्हें हमेशा याद रहता है कि –
पेशेवर हाथों और फटे हुए जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक अदद आदमी है।
कहना न होगा कि धूमिल की कविता के केन्द्र में एक अदद आदमी है, जो ‘अंगुली की चोट छाती पर हथौड़े की तरह सहता है।’
धूमिल पूँजीवादी जनतन्त्र की कमियों को बखूबी समझते हैं। वे इसका विरोध करने के लिए जनता की एकजुटता पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। धूमिल ने संसदीय लोकतन्त्र में जनता और सरकार के विरोधाभास को उद्घाटित किया है। संसदीय सरकार में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि शासन करते हैं। ये सामान्यतः पाँच वर्षों के लिए चुने जाते हैं। एक बार निर्वाचित हो जाने पर वे पाँच वर्षों तक जनता के हितों के स्थान पर अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं, क्योंकि इन पाँच वर्षों के दौरान जनता उन्हें अपदस्थ नहीं कर सकती। इसी तरह निर्वाचित प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कालाबाजारी आदि में लिप्त होने पर भी जनता उन्हें हटा नहीं सकती। ऐसी ही तमाम खामियों के कारण धूमिल लगातार जनतन्त्र के इन समाज विरोधी मूल्यों का विरोध करते रहे। उन्होंने कभी चमत्कृत कर देने वाली शैली का प्रयोग कर ध्यान आकृष्ट किया, तो भी व्यंग्य की तेज धार से। धूमिल जनतन्त्र के अन्तर्विरोधों को उद्घाटित कर लोगों में जनतन्त्र के भ्रम को तोड़ना चाहते थे। वे प्रश्न करते हैं –‘यह कैसा जनतन्त्र है, जहाँ जिन्दा रहने के लिए घोड़े और घास को एक जैसी छूट है।’ जहाँ ‘जनतन्त्र जिसकी रोज सैकड़ों बार हत्या होती है।’ जहाँ की सुबह– ‘सिर कटे मुर्गी की तरह फड़कते हुए जनतन्त्र / सिर्फ चमकते हुए रंगों की चालबाजी है।’
धूमिल जनतन्त्र के विरोधी नहीं थे, वे मानवीय सरोकारों से दूर होते जा रहे लिप्साग्रस्त प्रतिगामी जनतान्त्रिक मूल्यों के विरोधी थे। धूमिल ने जनतन्त्र शीर्षक से कई कविताएँ लिखीं– जनतन्त्र के सूर्योदय में, किस्सा जनतन्त्र, प्रजातन्त्र के विरुद्ध, सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र, जनतन्त्र एक हत्या सन्दर्भ आदि। उदाहरण के लिए–
दरसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।
फिर वे संसद के विषय में लिखते हैं –
अपने यहाँ संसद –
तेल की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है–
और यदि यह बचा नहीं है
तो वहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का
मलाल क्यों है ?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है ?
धूमिल का यह प्रश्न वास्तव में जनतन्त्र की असली पहचान का ही सवाल है–
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ–
‘यह तीसरा आदमी कौन है ?’
मेरे देश की संसद मौन है।
चन्द्रकान्त देवताले, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, अरुण कमल जैसे कवि भी जनतन्त्रात्मक प्रणाली से जुड़ते हैं। चन्द्रकान्त देवताले अपने प्रतीकों एवं बिम्बों की मदद से व्यक्ति की दिनचर्या का एक खाका तैयार करते हैं। वे प्रश्न करते हैं– ‘वह कौन सी चीज है, जो आदमी को आदमी नहीं रहने देती ?’ वे आगे कहते हैं कि शासकों की बिरादरी चाहे जो हो, चाहे वह राजा हो, राजनेता हो, साहू हो सेठ हो, उसे शोषण का अधिकार कौन देता है ? अगर यह अधिकार उन्हें जनता से मिलता है, तो जनता यह अधिकार छीन भी सकती है। परन्तु वे ‘शोषित’ लोग जो हार मानकर बैठ गए हैं, उन्हें उद्वेलित करते हुए कवि पूछता है–
कब तक तुम सिर्फ घास छीलते रहोगे
सिर्फ कटनी काटते रहोगे
जब कि छीलने और काटने को
और भी कितना कुछ है दुनिया में।
इसी तरह राजेश जोशी ने जनतन्त्र के तीन आधार स्तम्भों-विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका में से न्यायपालिका पर व्यंग्य करते हुए लिखा है–
कई बार तो पेसी चक्कर पर चक्कर काटते
ऊपर की अदालत तक पहुँच जाता है आदमी
और नहीं हो पाता इनकी अदालत का फैसला–
इन्हें जल्दी जाना है।
आज भी न्यायपालिका की स्थिति कमोबेश यही बनी हुई है। लम्बित मामले इतने अधिक हैं कि उन्हें निबटाने में बहुत ज्यादा समय लग जाता है। यहाँ तक कि वादी या प्रतिवादी के मृत्यु के बाद भी मामले निपटते नहीं।
लीलाधर जगूड़ी इस जनतन्त्र में जिसकी नींव स्वतन्त्रता और समानता पर टिकी हुई है, प्रत्येक दुर्बल व्यक्ति की जुझारू चेतना को जगाना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि कोई व्यक्ति अन्धेरे में जिए। वे मानते हैं कि यदि कोई समूची हड्डियों के साथ अत्याचार के खिलाफ खड़ा हो जाए, तो उसकी हड्डियों में वज्र की योग्यता आ सकती है। हिम्मत और उत्साह जगाते हुए भी वे साधारण मनुष्य की असली समस्या पर उँगली रख देते हैं–
हमने सोचा था कि पलट डालेंगे
मगर भूख आदमी को कायर बना देती है
मैंने भी सोचा था कि खुद को क़त्ल कर दूँ
लेकिन खुद को मारना
भूख को मारने का इलाज नहीं है।
अरुण कमल एक ऐसे रचनाकार हैं, जो जनतन्त्र की आलोचना भर नहीं करते बल्कि वास्तविक जनतन्त्र की स्थापना की आशा का दीप भी इनके कारण प्रज्ज्वलित है। इनके काव्य संग्रह नए इलाके में, सबूत, अपनी केवल धार अधिक चर्चित रहे हैं। नए इलाके में मानवीय संवेदना के भोथरे हो जाने का विरोध किया गया है। मुख्यतः इसमें शहरी जीवन की यान्त्रिकता से ऊबे और बौखलाए मनुष्य का चित्रण हुआ है। अरुण कमल जनतन्त्र के नाम पर हो रहे नेताओं के अत्याचार को और उनकी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को अपनी कविताओं में उद्घाटित करते हैं। सत्ता की नियति और षड्यन्त्र तथा उसके जनविरोधी चरित्र को वे घोषणा शीर्षक कविता में उद्घाटित करते हैं। वे बताते हैं कि जनता के प्रतिनिधि का चरित्र इस तरह होना चाहिए कि वे जनता के दुःख-दर्द और उसकी समस्या को गहराई से समझे। उसके निराकरण के लिए हर सम्भव कदम उठाए, परन्तु आज के प्रतिनिधि तो उनके जीवन में समस्या उत्पन्न करते हैं। वे लिखते हैं–
राजा चुपके से काटता है चक्कर रात में
नए-नए भेष में अलग-अलग घात में
जो सोए उनके माथे से तकिया खींचता
फेकता खलिहान में लुकाठी
मसोमात के खेत से मूली उखाड़ता
खोलता बदरू की पाटी
गुद्दा गदक फेकता आँगनों में आँठी
जीवन में नींद नहीं।
इन सबके बाद भी अरुण कमल को वास्तविक जनतन्त्र की स्थापना की आशा है। वे लिखते हैं–
ख़त्म हो जाएगा एक दिन मूर्खों का राज
पकवानों का भोग चहकता महन्त
हथगोलों बारूद का ढेर गिनता संघ
और माफिया गिरोहों के डॉन
नष्ट हो जाएँगे एक दिन
तब जिनकी आत्मा सबसे पवित्र है
तब, जो जगे हैं, रात भर बेचैन ओस से भरे
वे ही आएँगे आगे
और ले चलेंगे सबको प्रकाश की ओर।
गत तीस वर्षों की कविता में हाशिए की अस्मिताओं को रेखांकित करने का प्रयास भी लोकतन्त्र के एक पक्ष को सामने रखता है। इनमें स्त्री अस्मिता, दलित अस्मिता और आदिवासी अस्मिता विशेष रूप से शामिल हैं। राष्ट्र की समग्र काया का अस्तित्व इन अस्मिताओं के समावेश के बिना सम्भव नहीं। कात्यायनी, सविता सिंह और अनामिका की कविताओं में स्त्री अस्मिता को रेखांकित किया गया है।
- निष्कर्ष
भारतीय गणतन्त्र के साठ वर्ष जन संघर्ष के साठ वर्ष हैं और इन साठ वर्षों की हिन्दी कविता ‘जन’ की ही अधिवक्ता है, जन-जीवन की ही प्रस्तोता है। साठोत्तरी कविता के साथ जो दौर शुरू हुआ, उसमें जनतान्त्रिक अधिकारों की रक्षा का स्वर सबसे प्रबल है। ज्यादातर कवियों का स्वर अन्याय पर प्रहार का ही सुनाई देता है। समकालीन कविता यह भी प्रमाणित करती है की जनतन्त्र में साहित्य एक सशक्त और सच्चा विपक्ष होता है, वह जन-अधिकारों का प्रहरी होता है। यह भी महत्त्वपूर्ण है की संवेदना के धरातल पर जुड़े होने के कारण इसका प्रभाव राजनीतिक तात्कालिकता का नहीं होता, अपितु वह जन-मन को स्थाई रूप से प्रभावित करता है।
you can view video on समकालीन कविता और जनतन्त्र |
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- आधुनिक कविता का इतिहास, नन्दकिशोर नवल, भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली
- आधुनिक कविता युग और सन्दर्भ, शिवकुमार मिश्र, स्वराज प्रकाशन दिल्ली
- आलोचना की सामाजिकता, मैनेजर पाण्डेय,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
- संकलित निबन्ध, मैनेजर पाण्डेय, नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया,नई दिल्ली
- प्रतिनिधि कविताएँ, गजानन मा० मुक्तिबोध, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
- प्रतिनिधि कविताएँ, रघुवीर सहाय, सुरेश शर्मा(सम्पा.), राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
- प्रतिनिधि कविताएँ, शमशेर बहादुर सिंह, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
- प्रतिनिधि कविताएँ, नागार्जुन, नामवर सिंह (सम्पा.), राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
- समकालीन हिन्दी कविता, विश्वनाथ तिवारी, लोकभारती प्रकाशन,इलाहबाद
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%97%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A8_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%B5_%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%A7
- https://www.youtube.com/watch?v=2AUDJ4s4WEA
- https://www.youtube.com/watch?v=XGFN2UL7p7k