35 व्यवस्था से विद्रोह और आज की कविता

डॉ. ओमप्रकाश सिंह

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पाठ का प्रारूप

  • पाठ का उद्देश्य
  • प्रस्तावना
  • साठ का दशक और अकविता
  • धूमिल की कविता
  • लीलाधर जगूड़ी की कविता
  • वेणु गोपाल की कविता
  • कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह की कविता
  • पंकज सिंह की कविता
  • निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • साठ के दशक से हिन्दी कविता के बदलते स्वर को समझ सकेंगे।
  • कविता और अकविता के बारे में जान सकेंगे।
  • व्यवस्था विरोध से जुड़े कवियों और उनकी कविताओं को समझ सकेंगे।
  • विद्रोही कवियों के तर्क को समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

सन् 1960 के बाद हिन्दी कविता में व्यापक परिवर्तन हुआ है। इस दशक की शुरुआत से ही हिन्दी कविता की चिन्ता के घेरे में सत्ता और व्यवस्था की गतिविधियाँ केन्द्रीय स्थान ग्रहण करने लगीं। कवियों ने मनुष्य की नियति के लिए व्यवस्था को दोषी ठहराना शुरू किया। अतः ऐसी व्यवस्था को मिटाना, उससे सम्बन्ध न रखना, उसका विरोध करना कविता का मुख्य विषय बनने लगा। आरम्भिक दौर में इस व्यवस्था विरोध का स्वरूप थोड़ा नकारात्मक था, जिसने हिन्दी में अकविता आन्दोलन को जन्म दिया। उस जमाने की काव्य-रुचियों का निर्माण करने में इस आन्दोलन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

  1. साठ का दशक और अकविता

 

आजादी के बाद जिन लोगों ने देश की सत्ता सँभाली थी, उन लोगों के भाषणों और वक्तव्यों में आदर्शवादी आह्वान रहता था, लेकिन उन लोगों का भोगवाद आदर्शवादी आवरण को फाड़कर सन् 60 के बाद और कुरूप ढंग से बाहर निकला। उसका यह नग्न रूप संवेदना के सामर्थ्य को नष्ट कर देने वाला था। शासक वर्ग के भोगवाद को इन कवियों ने बौद्धिक चिन्ताओं के साथ नहीं देखा, बल्कि उनकी रचनाओं में एक किस्म का भावनात्मक विस्फोट प्रकट हुआ। यह भावनात्मक विस्फोट नकारवादी और अराजक प्रवृत्तियों का पोषक बना।  जातक धर्म  कविता में सौमित्र मोहन ने तर्क दिया–

                        

यहाँ पेशाब करना मना है पढ़कर भी लोग वहीं पेशाब क्यों                                                 

करते हैं? आप इसे असभ्यता कहेंगे पर यह आक्रोश                                                       

का कहीं अच्छा तरीका है सिगरेट कुचलने से।

 

निश्‍चय ही तर्क का यह तरीका पराजय की भावना से ग्रस्त है और उस प्रत्येक ‘बेहूदा’ हरकत के भीतर विद्रोह का अर्थ खोजने का निरर्थक प्रयास भी। इन कविताओं में जीवन मूल्यों, आदर्शों और नैतिकता के प्रति अगम्भीरता का, मखौल उड़ाने का भाव बना रहता है। इस अराजक दृष्टि के मूल में इन कवियों की राजनीतिक अनास्था है। एकाएक राजनीतिक नेताओं से कवियों की आस्था उठ गई और उसका स्थान किसी ने लिया नहीं। सौमित्र मोहन की कविता जातक धर्म  इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण है। कविता बताती है कि हमारी नियति उन लोगों के हाथों में हैं जिन्हें हम जानते नहीं हैं और जो हमारे प्रतिनिधि हैं। इसी तरह जगदीश चतुर्वेदी जनतन्त्र  कविता में लिखते हैं–

                                     शहर सोता है चुपचाप

                                    कुछ नहीं                              होताहै                                                                                                                                                     

                                    सुबह अखबार की सुर्खियों से पता चलता है

                                    रात एक बड़ी मीटिंग हुई थी                                                                         

                                  और अब सरकार बदल गई है                                                                                                                        

  1. धूमिल की कविता

 

धूमिल जैसे कवियों से ही अकविता का फर्क शुरू होता है। धूमिल भी संसद और जनतन्त्र के नाटक का मजाक उड़ाते हैं, लेकिन उन्हें आम जनता की राजनीतिक पहलकदमी पर विश्‍वास है। यही कारण है कि धूमिल प्रगतिशील आन्दोलन के अंग बने और अकवितावादी छिटके हुए तारे की भाँति टिमटिमाकर बुझते रहे।

 

अकवितावादी कवि परम्परागत विचारप्रणाली का विरोध तो करते हैं, लेकिन संगत और वैज्ञानिक विचार प्रणाली के निर्माण का प्रयास नहीं करते, यहाँ तक कि वे उसे निरर्थक भी मानते हैं। इन लोगों ने अपने लिए दुनिया का अलग ही विश्‍लेषण कर रखा है। इनका मानना है कि समाज में इनके जैसे लोगों की प्रतिभा का उपयोग नहीं होता और उनकी छिपी हुई यही प्रतिभा ‘समाज से विद्रोह’ के रूप में फूटती रहती है। इन कुछ लोगों के अलावा दुनिया में ऐसे अनेक मनुष्य रहते हैं जो खाते-पीते, सम्भोग करते और इतिहास में अनाम रहकर मर जाते हैं। इन लोगों ने इस व्यवस्था से समझौता कर लिया है। इनमें मुख्यतः भेड़ चाल और दासवृति मिलती है। इनके अलावा कुछ मुठ्ठी भर लोग अत्याचारी, खोखले, बदबूदार, हिंसक और चालाक हैं। ये लोग देश और समाज के नेता हैं। कवि इनसे चिढ़ता है, घृणा करता है; लेकिन इनका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। अराजक कवि अपने बारे में सोचता है कि वह अपनी शक्ति का, जन्मजात प्रतिभा का क्या करे? कवि की दृष्टि में नेता और जनता दोनों हिंसक और मूर्ख हैं, अर्थात दोनों गलत हैं। दोनों कवि को ‘सिरफिरा’ समझते हैं। कवि की प्रतिभा को कोई नहीं पहचानता। अतः कवि निराश होता है और दोनों को बद्दुआएँ देता है। इस बौखलाहट, खीज, अपमान, क्रोध, झुंझलाहट और पीड़ा की अनेक अभिव्यक्तियाँ अकविता में बिखरी हुई हैं।

 

एक लंगड़े आदमी की बखान  कविता में जगदीश चतुर्वेदी लिखते हैं–

चूहों की जनसंख्या बढ़ रही है शहरों में,

बक्शों में, दफ्तरों में, नालियों में,

अखबार के कार्यालयों में और नेताओं में।

 

इन पंक्तियों से देश की जनता के बारे में अकवितावादियों की समझ का पता चल जाता है।

 

अकवितावादियों की कविता जो इतने आत्मविश्‍वास और धड़ल्ले से राय देती चलती है, उसके मूल में यह स्थिति है कि जिन घटनाओं, स्थितियों और लोगों के बारे में कविता राय देती है, उनके प्रति वह जरा भी सम्बन्ध-भावना महसूस नहीं करती। अच्छाई हो या बुराई वह सबको एक ही ‘दार्शनिक मुद्रा’ में बक देती है। यहाँ सर्वज्ञानी की मुद्रा में अज्ञानी बैठा हुआ लगता है।

 

यह दोष जगदीश चतुर्वेदी का ही नहीं है, बल्कि उस पीढ़ी का है जो गाँधी और नेहरू बनने का स्वप्‍न देखती हुई बड़ी निष्ठा से गणित के पहाड़े रट रही थी, और जिसे या तो बेरोजगारी की कष्टदायी यन्त्रणा झेलनी पड़ी थी, या जिसे क्लर्क बनने पर मजबूर कर दिया गया था। इस निजी फ्रस्ट्रेशन की अभिव्यक्ति इस ‘सर्वज्ञानमय’ बकवास में हुई है। यही अकविता की मानसिकता है और समाज के युवा वर्ग में अब भी यह मानसिकता विभिन्‍न रूपों में व्यक्त होती रहती है।

 

अकविता की इस मानसिकता को प्रगतिशील कवियों ने तोड़ा और उनके व्यवस्था विरोधी स्वर को नई दिशा दी। सन् 1964 में मुक्तिबोध का देहान्त हो गया था। उनकी ज्यादातर रचनाएँ उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुईं किन्तु उनका सृजन पहले ही हो चुका था। उनके बाद जिन कवियों ने सातवें दशक का अन्त होते-होते इस ऐतिहासिक उपक्रम में योगदान दिया, उनमें धूमिल एक महत्त्वपूर्ण नाम हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में जीवन यथार्थ को नए ढंग से प्रस्तुत किया है। सन् 60 में जिस मोहभंग की शुरुआत होती है, उसकी अभिव्यक्ति धूमिल इन शब्दों में करते हैं –

 

हाँ, यह सही है कि कुर्सियाँ वहीं हैं

सिर्फ, टोपियाँ बदल गई हैं

और  सच्‍चे मतभेद के अभाव में

लोग उछल-उछल कर

अपनी जगहें बदल रहे हैं

 

इसी कारण धूमिल के काव्य-नायक को लगता है कि चारों ओर जो कुछ है वह गलत है, सड़ा हुआ है। दूसरे, उसे समाज में ऐसी शक्तियाँ नजर नहीं आ रही हैं, जो इस सडाँध को दूर कर सकें। इस निराशाजनक स्थिति में कोई संवेदनशील व्यक्ति क्या कर सकता है? यानी तब वह यही कहेगा कि ‘कविता घेराव में किसी बौखलाए हुए आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।’ इसी से उसे लगता है कि आसपास जो कुछ है उसको बनाने या बनने देने में उसकी कोई भूमिका नहीं है। ऐसी स्थिति में वह स्वयं को सारी परिस्थितियों से ऊपर उठा लेता है, ताकि इन सब स्थितियों पर हँस सके। यही वह जमीन है जहाँ से धूमिल सामाजिक यथार्थ का चित्रण करते हैं। मुक्तिबोध का ‘अपराध-बोध’ यहाँ नहीं दिखाई देता। धूमिल की कविता का हास्य-व्यंग्य और गुस्सा अपनी इसी युगीन मानसिकता की उपज है।

 

सन् 60 के बाद की कविता में और विशेषकर धूमिल की कविता में ‘व्यवस्था’ एक पात्र बनकर आने लगी। कहीं वह मोचीराम का जूता है, जिसकी नाप के बाहर कोई व्यक्ति नहीं है। कहीं मकान है जिस पर स्वागत है’ लिखा है, जिसका फाटक किसी आदमखोर के जबड़े की तरह खुलता है और जिसके भीतर देखते ही देखते एक समूचा मुस्कराता हुआ आदमी नमक के ढेले-सा घुल जाता है। कविता का विषय ‘व्यवस्था’ न भी हो, तो भी पृष्ठभूमि में व्यवस्था बराबर बनी रहती है। कविता चाहे  राजकमल चौधरी के लिए  हो या  प्रौढ़शिक्षा,  मोचीराम  हो या  पटकथा, व्यवस्था का ही प्रतीक है। अनेक अन्य कवियों की तरह धूमिल की कविता की व्यवस्था कोई अमूर्त्त और वायवीय नहीं है, बल्कि उसके ठोस सामाजिक सन्दर्भ हैं।

 

चौराहे पर कवायद करते हुए

ट्रैफिक पुलिस के चेहरे पर

मुझे हमेशा जनतन्त्र का नक्शा

नजर आया है।

 

राजनीति के इस अवसरवादी चरित्र के बारे में यह व्यंग्य दृष्‍टव्‍य है कि काँख भी ढँकी रहे और विरोध में उठे हुए हाथ की मुठ्ठी भी तनी रहे। यही सुविधावादी राजनीति इस बात पर टूटती है कि बुरों में ‘जो कम से कम बुरा’ हो उसे चुन लिया जाए और धूमिल का इसी राजनीति से विरोध है।

 

इस व्यवस्था में मानव के निरन्तर अमानवीय होते जाने की प्रक्रिया को धूमिल ने बड़े साफ शब्दों में अंकित किया है। व्यवसायीकरण का हाल यह है कि मोचीराम के लिए ‘हर आदमी एक जोड़ी जूता है।’ इसके साथ ही पेशेवर हाथों और फटे हुए जूतों के बीच ‘एक अदद आदमी’ है, जिस पर टाँके पड़ते हैं। उसी ‘एक अदद आदमी’ की चेतना का सम्बल धूमिल को प्राप्त है और धूमिल की कविता इसी स्तर पर–

 

शब्दों की अदालत में

मुजरिम के कटघरे में खड़े

बेकसूर आदमी का

हलफनामा है।

 

यही वह ‘एक अदद आदमी’ है जिसके सामने से कथा के पट खुलते हैं, सारे जनतन्त्र का मेला गुजरता है। यह मनुष्य अपने परिवेश के बारे में अत्यन्त सजग है। वह अपने परिवेश के प्रति जरा भी भावुक नहीं है, वह शिकार है लेकिन हारा नहीं है, इसीलिए वह या तो व्यावहारिक है या बौद्धिक। कविता की यही बौद्धिक चेतना धूमिल के विराट कवि व्यक्तित्व से जुड़कर तेजस्वी रूप धारण कर लेती है।

 

इस प्रक्रिया को समझने से ही साठोत्तरी कविता के व्यंग्य और उसके सौन्दर्य बोध को समझा जा सकता है जो भद्दी वस्तुओं में ही सौन्दर्य खोजता है। जब राजनीतिक स्तर पर आस्था रखने लायक जगह है नहीं, अमानवीयकरण बढ़ रहा है, लोग अपने पेशों से बाहर सोच नहीं पाते, तब ऐसे में विरोध होगा ही, उसमें झल्लाहट की मात्रा ज्यादा होगी ही। अकवितावादियों का विद्रोह इसी सांस्कृतिक संकट की उपज था। कविता में यही वह जमीन है जो धूमिल को राजकमल चौधरी से जोड़ती है। उस युग की कविता में ही नहीं, गद्य में भी बौखलाए हुए और झल्लाए हुए नायक देखने को मिल जाएँगे। श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी का हास्य-व्यंग्य इसी युगीन आस्था की उपज है। इसी संकट का परिणाम अस्तित्ववाद का व्यापक प्रभाव है। सन् 1964 ई. में मुक्तिबोध की चाँद का मुँह टेढ़ा है अकारण ही सबसे महत्त्वपूर्ण काव्य नहीं माना जाने लगा। वह उनकी कविता का व्यवस्था-विरोधी स्वर है, जो इस युग के कवियों की निजी चेतना के अनुकूल पड़ता है।

 

इस युग के कवियों में एक और चीज भी मिलती है। उन्हें इस बात का बोध है कि आसपास के परिवेश में गन्दगी है, लेकिन अधिकांश भद्र लोग उस गन्दगी को साफ-सुथरे कपड़ों में छिपाए रखना चाहते हैं। चरित्र के इस द्वैत को धूमिल और उनके समकालीन रचनाकार नंगा ही नहीं करते, उघाड़ते हैं और वही उघड़ी हुई तस्वीर लोगों के सामने रखते हैं, जिसे देखकर भद्र लोग नाक भौं सिकोड़ते हैं और अन्दर ही अन्दर तिलमिलाते हैं। धूमिल की पीढ़ी के कवियों को इस रूमानी शालीनता का विरोध करने के लिए या उसे मुँह चिढ़ाने के लिए अभद्र और फूहड़ वस्तुओं के बिम्ब सामने रखने पड़े। राजकमल चौधरी आदि कवियों ने यही काम सबसे ज्यादा किया। धूमिल में भी यह प्रवृत्ति मिलती है, जहाँ पर वे कहते हैं कि हमारी आँखों के ठीक नीचे नाक हैं। इस रूमानियत विरोध का ही परिणाम है कि धूमिल ने नारी के उस रूप को काफी चित्रित किया है जब उसके पेट में बच्‍चा होता है। सौन्दर्य की प्रतिमा, किशोरी नायिका धूमिल की कविताओं में नहीं है।

 

चिकोटी काटने वाले इस भाव का प्रभाव धूमिल की कविता के शिल्प पर भी पड़ा है। वे कुछ ऐसा कहना चाहते हैं, जिसे सुनकर आप चौंकें। कई बार वे कुछ पंक्तियाँ चौंकाने वाली उक्ति की भूमिका स्वरूप कह जाते हैं और फिर अन्त में सूक्ति आती है।  संसद से सड़क तक  के बाद धूमिल के दो और काव्य संग्रह प्रकाशित हुए- कल सुनना मुझे  (1979) और सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र  (1984)। दूसरी पुस्तक में सन् 70 के बाद की धूमिल की चुनी हुई कविताओं को सम्मिलित किया गया हैं। यूँ तो इन कविताओं में भी धूमिल के काव्य के उसी परिचित अन्दाज और जानी-पहचानी भाषा के दर्शन होते हैं, फिर भी इनमें कवि ने ज्यादा परिपक्वता से और थोड़े धैर्य से कविताएँ लिखी हैं। कविताएँ अनावश्यक रूप से लम्बी नहीं हैं और शब्दों का चमत्कार भी अपेक्षाकृत कम हैं।

 

धूमिल की कविताओं में संसद और संसदपरस्त राजनीति की निरन्तर आलोचना मिलती है। उनकी दृष्टि में आम आदमी की भूख और बदहाली के लिए हमारे देश की संसद जिम्मेवार है। उनकी कविता में भाषा, भूख, आग, जंगल, रोटी, जनता और जनतन्त्र पद का प्रयोग बहुत हुआ है। इनको धूमिल ने विशेष अर्थ दे दिया है। कवि की दृष्टि में भाषा अभिव्यक्ति, चिन्तन और विचार की वाहक है। अपने दुःख के प्रतिकार का साधन भाषा है, शब्द हैं। ‘भूख’ मनुष्य की बुनियादी जैविक आवश्यकता है। इसको शान्त करने के संघर्ष में आदमी डूबा रहता है। रोटी के जुगाड़ में उसकी तमाम मानवीय सम्भावनाएँ चुक जाती हैं। इसके कारण आम आदमी कोई बड़ा काम नहीं कर पाता। यहाँ तक कि वह अपनी भाषा को भी गँवा बैठता है। धूमिल की कविता में ‘भाषा और भूख’ कई बार साथ-साथ आते हैं। कवि मानता है कि जब जनतन्त्र आम आदमी को रोटी नहीं दिला सकता, तब इसकी सार्थकता क्या है? धूमिल ने लिखा है –

 

और कर्फ्यू में शान्त ठण्डी सड़क पर सैनिक दस्तों के जूतों से

कितनी सफेद और मार्मिक ध्वनि निकल रही है…

जनतन्त्र… जनतन्त्र… जनतन्त्र… जनतन्त्र।

 

किसी कवि ने आपातकाल के बाद संसद और जनतन्त्र की इतनी तीखी आलोचना नहीं की जितनी धूमिल ने की। धूमिल बड़े आराम-से निश्‍च‍िन्त भाव से संसद और संसद की कार्यवाही की निन्दा करते हैं, मानो वह हास्य का आलम्बन हो।

  1. लीलाधर जगूड़ी की कविता

 

धूमिल की इसी परम्परा का विकास लीलाधर जगूड़ी की कविताओं में हुआ है। धूमिल का ‘गंवई बड़बोलापन’ जगूड़ी को ‘मुँहफट’ बना देता है। जगूड़ी साहित्य और कविता को सामाजिक परिवर्तन का साधन मानते हैं और इस तरह वे कलावादी साहित्य के विरोधी हैं। चूँकि प्रगतिशील कविता पक्षधर कविता होती है, जगूड़ी ने भी समाज को दो भागों में बाँटकर रखा है – सुविधा प्राप्त लोग और सुविधा वंचित लोग। जगूड़ी ने भी अन्य अनेक समकालीन कवियों की भाँति उपभोक्ता वर्ग, जिसकी आवश्यकताएँ बिना किसी परेशानी से पूरी हो जाती हैं, को ही व्यंग्य का पात्र बनाया है। यह शत्रु पक्ष है। दूसरे पक्ष में वे लोग आते हैं जो नंगे हैं, भूखे हैं, जिनके पास मकान, फ्रिज और टी.वी नहीं है, समुचित शिक्षा के लिए धन नहीं है– अर्थात ये लोग उन सभी ‘सुविधाओं’ से वंचित हैं, जिन्हें दूसरे पक्ष के लोग भोगते हैं। कवि के अनुसार समाज में धन का बँटवारा इस तरह होता है कि बहुसंख्यक जनता ‘वंचित’ रह जाती है। जगूड़ी की कविता उदार मानवतावादी दृष्टि के साथ सुख-सुविधाओं के वितरण में सामाजिक समानता की माँग करती है। जगूड़ी इस लुटे हुए बहुसंख्यक ‘वंचित’ समुदाय के पक्षधर रचनाकार हैं। उनकी बलदेव खटिक  कविता में हर किस्म की सुविधाओं से हमेशा वंचित रहा सिपाही बलदेव खटिक पुलिस स्टेशन में एक मार खाए हुए आदमी को देखता है-

एक मार खाया हुआ आदमी चिंचियाता है

             xxx     xxx    xxx

देखिए, मुझे कितनी चोटें आयी हैं

मेरा दर्द–दर्ज करो

इस मटीले कागज पर मेरा दर्द – दर्ज करो।

 

दीवान पूछता है कि चाँदी की कलम से दर्ज करूँ या सोने की कलम से? लेकिन बलदेव खटिक की तरह हमेशा ‘वंचित’ रहा वह आदमी किसी भी सूरत में कानून की कलम से रिपोर्ट लिखवाना चाहता है। दीवान कहता है “कल आना, साथ में गवाह लाना, और किसी डॉक्टर से यह भी लिखवा लाना/ कि तुमने मार खायी–ही-खायी है…। इसी तरह  तथाकथित महान लोग  कविता में महान लोगों का मतलब सुविधा प्राप्त वर्ग के लोगों से है। इनकी दिनचर्या मध्यवर्गीय व्यक्ति से बहुत मिलती है, जैसे–

                                     कुछ महान लोग रात के कपड़े बदलते हैं                                                                     

                                    और फिर से महान होने के लिए

                                    सुबह का इन्तजार करते हैं

                                    या उनकी सुबह

                                    टूटे हुए बटनों के मुआवजे से शुरू होती है                                                          

                                   उनकी सुबह                                                                                     

                                    ढकने और छिपाने से शुरू होती है।

इस वंचित व्यक्ति का आक्रोश लीलाधर जगूड़ी की कविताओं का मूल स्वर है।

 

आक्रोश में व्यक्ति कड़वी और निर्मम बातें कहता है। वह ‘सत्य’ नहीं कहना चाहता, बल्कि विरोधी का दिल दुःखाना चाहता है। इस कारण उसके कथन में एक आवश्यक अतिरंजना होती है। इन अतिरंजित वक्तव्यों से उसका आक्रोश शान्त होता रहता है। ऐसे रचनाकार को यदि ‘बोलने’ से मना कर दिया जाए, तो यह उसके लिए बहुत बड़ी सजा है। सेंसर ने जगूड़ी को संयत भाषा में बोलने के लिए बाध्य किया। यह ‘संयत भाषा’ उनके क्रोध को तीखा और काव्यात्मक बना देती है। इससे जगूड़ी की कविता में नया सौन्दर्य आया है। सम्भवतः यही कारण है कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ को लेकर सबसे ज्यादा कविताएँ उन्होंने लिखी हैं। उच्‍चेश्रवा  में उन्होंने लिखा है–

 

 मौन है हिन्दुस्तान जब तक नक्शे में है                                                               

और नक्शा फाईल में है                                                                           

तो बताइए बचाया किसको जाना चाहिए?                                                                      

इतनी पर्वताकार हो गई है सरकार…

 आजकल की हवा में दम लेना                                                                                 

मुश्किल हो गया है

  1. वेणु गोपाल की कविता

 

व्यवस्था विरोधी कविताओं का एक रूप वेणु गोपाल की कविताओं में भी मिलता है। जहाँ तक विरोध और विद्रोह का सवाल है, वेणु गोपाल जगूड़ी से अधिक प्रखर एवं स्पष्ट हैं। वेणु गोपाल की कविताओं में  चट्टानों का जलगोत  (1980),  हवाएँ चुप नहीं रहतीं  (1980) में आन्तरिक कशमकश दिखाई देती है। इस व्यवस्था को मात्र कविता के माध्यम से बदला नहीं जा सकता, उसके लिए दूसरे औजार व दूसरी संगठित तैयारी चाहिए। तब इस कविता की राजनीतिक सार्थकता क्या है- यह चिन्ता उनकी कविता की बुनावट में बसी हुई है। यह चिन्ता जगूड़ी की कविताओं में भी मिलती है, लेकिन जगूड़ी में व्यवस्था के प्रति आक्रोश भाव व्यक्त होकर रह गया है, जबकि वेणु गोपाल इसे राजनीतिक चिन्ता मानते हैं। ऐसी राजनीति की चिन्ता जो सुविधा एवं सुधार तक अपने को सीमित नहीं रखती, बल्कि व्यवस्था के बुनियादी ढाँचे में परिवर्तन की कामना करती है। लेकिन इस राजनीतिक चिन्ता के साथ-साथ कविता की कलात्मकता का तालमेल भी होना चाहिए। कलात्मकता की चिन्ता और कविता तथा राजनीति के सम्बन्धों के प्रति गम्भीरता ने वेणु गोपाल की कविता के ढाँचे को ही नया स्वरूप दे दिया। यह चिन्ता उन्हें अ-सामाजिक, अ-राजनीतिक अनुभवों की ओर ले गई। चट्टानों का जलगीत  जैसे उनके परवर्ती काव्य संग्रहों में पेड़, फूल, पत्थर, समन्दर, पत्तियाँ और प्यार-मुहब्बत की अनेक कविताएँ आयीं। उनकी प्रेम कविताओं का एकान्त अनुभव प्राकृतिक और आदिम रूप में व्यक्त हुआ है। इस अनुभव-सम्पदा का कवि राजनीतिक उपयोग करना नहीं भूलता और यहीं उनकी रचना संकट में पड़ जाती है। इस संकट से उबरने की रचनात्मक कोशिश इन दोनों संग्रहों में मिलती हैं।  घर लौटते हुए  कविता दृष्टव्य है –

  और मैं

मार सैकड़ो सड़कों को रौंदता हुआ                                                                        

घर को ही ढोया करता हूँ

दरअसल उससे दूर भागने की कोशिश में

दुनिया-जहान की सैर कराता हुआ उसे

 शाम जंगल में होती है तो भी माँ की

डाँट सुन लेता हूँ।

रात होती है तो पत्नी का बुलावा

हस्बे मामूल।

इस कविता में कहीं-कहीं प्रेम और राजनीति का प्रभावशाली सामंजस्य हो गया है। यहाँ थकान और उत्साह से भरा हुआ, आदिम आवेगों से शक्ति संचित करता हुआ प्रेम व्यक्त हुआ है।

 

वेणु गोपाल की कविताओं में दुश्मन राजसत्ता है, जिसके आतंककारी रूप का वर्णन उनकी कविताओं में दिखाई देता है। इस आतंक के साथ-साथ इससे संघर्ष करने की चेतना भी उनकी कविताओं में व्यक्त हुई है। लेकिन इन कविताओं में राजसत्ता का स्वरूप अस्पष्ट है, यहाँ तक कि सत्ता के वर्गीय स्वरूप को भी रेखांकित नहीं किया गया है। इस सत्ता के खिलाफ कवि का संघर्ष भी वैयक्तिक है, वर्गीय नहीं। कह सकते हैं कि इनमें सत्ता के आतंक का वैयक्तिक विरोध प्रकट हुआ है।

  1. कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह की कविता

वेणु गोपाल की भावभूमि के कवि कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह हैं। इतिहास का संवाद  (1979) उनका प्रथम काव्य-संग्रह है। इसमें पिछले बीस वर्षों में लिखी गई कविताएँ संकलित हैं। इन कविताओं में मानव विरोधी समाज का तीव्र और भावुक विरोध मिलता है। इस भावपूर्ण विरोध से कविता धीरे-धीरे ललकार बन जाती है, जहाँ कवि पाठक की सक्रियता का आह्वान करता है। एक शोषणहीन समाज की स्थापना और लाल क्रान्ति की आशा, विश्‍वास और इसको पूर्ण बनाने का आह्वान इन कविताओं में मिलता है। रचनाकार मध्यवर्ग का है। कुमारेन्द्र ने इसे छिपाया नहीं है और इस तरह उन काव्य छलों से अपनी कविताओं को बचाया है, जिनसे अनेक कवि अपने चेहरे को ढके रहते हैं।

कुमारेन्द्र की कविताएँ कविता की असमर्थता का तीव्र एहसास पैदा करती हैं। कुमारेन्द्र कविता के पाठकों को ‘क्रान्ति’ का सिपाही बनाना चाहते हैं। इस कार्य में भाषण और राजनीतिक संगठन ज्यादा उपयोगी साबित होते हैं। फिर इस कमजोर माध्यम कविता की उपयोगिता और सार्थकता का सवाल कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह की कविताएँ पढ़ते हुए बार-बार मन में उठता है।

  1. पंकज सिंह की कविता

व्यवस्था विरोध की दृष्टि से पंकज सिंह की कविताएँ भी रेखांकन की माँग करती हैं। उनके काव्य संग्रह  आहटें आसपास  (1981) में व्यवस्था विरोधी स्वर मुखर रूप में मौजूद है। पंकज सिंह ने अकविता के दौर की समाप्ति के समय से अपनी रचनायात्रा की शुरुआत की है। उन्होंने अपनी कविताओं में इस व्यवस्था के मूल चरित्र को उपस्थित किया है, जो उनकी दृष्टि में आततायी है। कवि को लगता है कि इस परिवेश में लगातार धीमी-धीमी क्रूर और ठण्डी मौत है – जो यहाँ पर सबको मिल रही है। क्रमिक क्षय की दहशतपूर्ण अभिव्यक्ति इन कविताओं में मिलती है।  राजधानी में अपनी एक वर्ष-गाँठ पर कविता  में उन्होंने लिखा–

 

खतम हुआ एक और साल एक और मैली गाँठ लगी                                               

इस तिलस्मी नगर में

जहाँ से फाइलों में बन्द आदर्शों के कुल्हाड़े चलते हैं

और किसी जंगम भूमैया और किसी किश्ता गौड़ की गर्दन पर

‘खच्‍चकी डरावनी आवाज के साथ गिरते हैं।

 

इन कविताओं में व्यक्त राजसत्ता आततायी तो है, लेकिन उसका स्वरूप अदृश्य और लगभग रहस्यमय-सा है। सत्ता के संचालन के नियम कविता से बाहर हैं। कविता की सीमा में सत्ता की कार्य प्रणाली नहीं, बल्कि उसका आतंक आता है। रचना विधान की दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि इन कविताओं में सिर्फ कवि बोलता है, शेष परिवेश दृश्य रूप में आता है। कवि इस दृश्य को देखता है, महसूस करता है, उसे समझता-समझाता है, उससे डरता है, अपनी डायरी लिखता है। चिन्तन-मनन करता है, आत्मीय बातचीत करता है और कुछ निर्णय लेता है। ऐसा लगता है कि ये कविताएँ किसी ‘बाहरी’ पाठक को नहीं, बल्कि ‘स्व’ को सम्बोधित है। अतः इन कविताओं के पास पहुँचने के लिए पाठक को कुछ शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं।

 

पंकज सिंह की कविताओं की एक विशेषता यह है कि उसमें एक विशेष किस्म की भावनात्मक पक्षधरता मिलती है। पंकज सिंह हर उस दृश्य को इस तरह से देखते हैं कि यदि इसे माँ देखती तो कैसे देखती? कवि की रचना-मानस में माँ की यह उपस्थिति विरल है। बहुत सारी बातें हैं, जो कवि माँ को नहीं लिखता, फिर भी वह उसी को सम्बोधित करते हुए कहता है–

 

मैं तुम्हें नहीं लिखूँगा कि मेरी आँखें खराब हो गई हैं                                                           

मैं नहीं लिखना चाहता कि एक जुलूस में पिटने के बाद  

मेरे दाहिने घुटने में लगातार-दर्द रहता है

 

ऐसी कविताओं की आलोचना असम्भव हो जाती है, क्योंकि इनका विरोध, माँ के तर्क का विरोध क्रूरता और अमानवीयता है। ये कविताएँ कवि को ‘आत्म औचित्य’ का अवसर प्रदान कर देती हैं और इसी कारण पाठक की आलोचनात्मक सजगता भ्रमित हो जाती है। वह कवि की भूमिका के बारे में कोई सवाल नहीं पूछ पाता।

  1. निष्कर्ष

 

उक्त विश्‍लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि साठ के दशक के साथ हमारे सपनों के टूटने का जो क्रूर यथार्थ उद्घाटित हुआ, उसने समकालीन कविता में व्यवस्था विरोध को जन्म दिया। मुक्तिबोध की कविता में यह स्वर पहले ही दिखाई दे रहा था किन्तु यह बृहद रूपाकार साठ के दशक में ही ग्रहण करता है। यह व्यवस्था विरोध विभिन्‍न भावधाराओं से मिलकर विभिन्‍न रूपों में अभिव्यक्त हुआ। कहीं इसकी परिणति निराशा में थी, कहीं आत्मप्रवंचना में, कहीं पलायन में तो कहीं मुखर संघर्ष में। इस कविता की भाषा और शिल्प नई विशेषताओं से ओत-प्रोत थी। इस नए स्वर में लोकप्रिय बनने की बहुत सम्भावनाएँ विद्यमान थीं। इसका सबसे मुख्य कारण यह है कि बहुतायत जनता अपने देश की सरकार और व्यवस्था से असन्तुष्ट थी। ऐसे में जो कवि जन असन्तोष की भावनाओं को व्यक्त करता, उसकी कविता उतनी ही लोगों को अपील करती। लेकिन समस्या यह थी कि यहीं इस कविता में छद्म की गुंजाइश आ जाती। कई बार कवि सृजन के स्थान पर भावानुवाद करने लगते। प्रचलित भावों का नाट्य रूपांतरण करने लगते। ऐसे में व्यवस्था विरोध की कविताओं में कुछ ऐसे भी स्वर पैदा हुए जिनमें कविता से उनका ‘स्व’ पृथक होता दिखाई देता है। उसमें व्यक्ति की प्राथमिकताएँ अलग दिखाई देती हैं और ‘कवि’ की प्राथमिकताएँ अलग। इस द्वन्द्व के कारण ही कई बार यह देखा गया है कि व्यवस्था से विद्रोह का स्वर मुखरित करने वाले अनेक कवि-कलाकार अन्ततः व्यवस्था में ही आसानी से फिट हो गए हैं। इसलिए इस विषय पर विचार करते हुए हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वास्तव में विद्रोही और पक्षधर कवि में फर्क होता है। इसी फर्क की समझ के कारण वैज्ञानिक विचारधारा से लैस कवि मुक्तिबोध खुद इस व्यवस्था का सुख नहीं चाहते, बल्कि जनता को ‘सुखी, सुन्दर और शोषणमुक्त’ करने का प्रयास करते हैं। हमें इस अन्तर की समझ विकसित करनी होगी कि उनकी रचनात्मक प्राथमिकताएँ वैसी ही नहीं हैं, जो धूमिल की परम्परा के कवियों की हैं। नागार्जुन की कविता में जहाँ जन-जीवन की झाँकी मिलती है, वहीं लीलाधर जगूड़ी की कविता में आक्रोश।

 

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अतिरिक्त जानें

पुस्तकें

  1. समकालीन हिन्दी कविता- संपादक-परमानन्द श्रीवास्तव, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
  2. कविता के नए प्रतिमान- नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
  3. आधुनिक कविता का इतिहास, नंदकिशोर नवल, भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली
  4. आधुनिक कविता युग और सन्दर्भ, शिवकुमार मिश्र, स्वराज प्रकाशन दिल्ली
  5. संसद से सड़क तक- धूमिल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. समकालीन बोध और धूमिल का काव्य- डॉ. हुकुमचंद्र राजपाल,वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली
  7. अनुभव के आकाश में चांदे- लीलाधर जगूड़ी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  8. महाकाव्य के बिना- लीलाधर जगूड़ी, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
  9. वे हाथ होते हैं – वेणु गोपाल, अनादि प्रकाशन, इलाहाबाद
  10. नहीं- पंकज सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  11. काव्य भाषा का वाम पक्ष- कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, विभूति प्रकाशन, दिल्ली
  12. पत्थरों के गीत- कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

 

वेबलिंक्स

  1. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2
  2. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B2%E0%A5%80%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A4%97%E0%A5%82%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80