17 रघुवीर सहाय की काव्य यात्रा
डॉ. सुधा उपाध्याय
पाठ-सामग्री
1. पाठ का उद्देश्य
2. प्रस्तावना
3. हिन्दी आलोचना में रघुवीर सहाय
4. कविता की अवधारणा 5. निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- साठोत्तरी कविता में असन्तोष और अस्वीकृति का स्वर और रघुवीर सहाय के बारे में जान सकेंगे।
- रघुवीर सहाय की प्रतिबद्धता और निर्भीकता से सनी हुई कविताओं के बारे में जान सकेंगे।
- रघुवीर सहाय का समग्र आकलन कर सकेंगे।
- रघुवीर सहाय की कविताओं में प्रयुक्त भाषा, मीडिया और स्त्री स्वर को समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
रघुवीर सहाय का समग्र लेखन सत्ता और शक्ति के विरोध का लेखन है। उनके लेखन में समाज का असली चेहरा मौजूद है। इसलिए तमाम घुसपैठियों, धर्म के ठेकेदारों, कुटिल राजनीतिज्ञों, क्रूर पुलिस और उसकी ताक़त को रघुवीर सहाय नापसन्द करते हैं। रघुवीर सहाय के समग्र साहित्य को संगठन के खिलाफ, समर्थ के खिलाफ और सफल के खिलाफ देखा जा सकता है। आत्महत्या के विरुद्ध (सन 1967), हँसो हँसो जल्दी हँसो (सन 1975), लोग भूल गए हैं (सन 1982) और आखिरी संग्रह कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ (सन 1989) लगातार रामलाल, कमला, मुसद्दी, रमेश, मैकू, रामू, रामदास, चन्द्रकान्त, दयाशंकर, दयावती जैसे साधारण पात्रों को अपने असाधारण दर्द में शामिल कर हमें विचलित करते रहे हैं। ये अपनी ही स्थितियों में जीते मरते लोगों की व्यथा है। इन दबे कुचले लोगों का कोई उदात्त रूप प्रस्तुत करना रघुवीर सहाय की मंशा नहीं है बल्कि वे साधारण लोग, अपने छोटे-छोटे प्रयासों से, पूरी समाज व्यवस्था से मुठभेड़ और जिरह करते दिखाई देते हैं। सत्ता और राजनीति की बर्बरता के सामने मामूली लोगों की अमानवीयता से जूझने की कूबत ठीक ऐसे ही है जैसे तोप के सामने छोटी सी पेंसिल रख दी जाए और अचानक ही तोप हास्यास्पद नज़र आने लगे।
- हिन्दी आलोचना में रघुवीर सहाय
एक सफल कविता में हमेशा किसी खटके, किसी शंका और सन्देह का इशारा रहता है। वस्तुत: अन्धेरे में जो विस्तार है, उसे उसकी तहों में धँसकर ही जाना जा सकता है। अत: कवि के साथ-साथ समीक्षक की जिम्मेदारी या कह लें भागीदारी बढ़ जाती है। कोई दूसरा हम पर क्यों नज़र रखे, क्यों न हम ही अपने आत्मनिर्वासन से बाहर निकल आएँ। कालजयी कविता वही होती है जो रत्ती भर भी राहत न दे।
कबीर कह गए थे–“अवधू अगनी जलय की काठ?”, कविता का भी बुनियादी काम यही है। कविता हमारी स्मृतियों का संग्रहालय है। हर कवि का अपना-अपना सच होता है, पर वह सच तब तक अधूरा रहता है जब तक सहृदय समाज उसमें अपना सच न मिला दे। दुनिया में न मालूम कितने ऐसे वंचित हैं, अनसुने रह गए स्वर हैं, न जाने कितनी अनादृत ध्वनियाँ हैं, कविता उन सबको पकड़ने का प्रयास करती है। कविता का पहला दायित्व यही है कि वह आवाज़ दे। कवि से अधिक जोखिम आलोचक को उठाने पड़ते हैं। वह कई बार अन्धेरे को काबू में करने की चेष्टा में अन्धेरे से घिर जाता है। समकालीन कविता में समसामयिकता एक असुविधाजनक चुनौती है। यह हमें ठोस सार्थक शब्दों में सोचने को मजबूर करती है। रघुवीर सहाय कहते हैं–
हमको तो अपने हक सब मिलने चाहिए
हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन
‘कम से कम’ वाली बात न हमसे कहिए
यह वही प्रतिबद्धता है जिसकी ‘माँग’ नागार्जुन किया करते थे। यही ‘प्रतिबद्धता’ कविता के होने के प्रति सचेतनता या उसको बनाए रखने के लिए छटपटाहट है। नितान्त समसामयिकता के साथ कवि धर्म के प्रति भी ईमानदार बने रहना ज़रा मुश्किल है। समसामयिक तेवर लिए ईमानदार बयान देती कविता में ही दूर तक चलने का साहस होता है। हर दौर में असन्तोष और अस्वीकृति कविता की उत्पत्ति का सबसे बड़ा कारण होती है। इसी तरह रचना की आलोचना सबसे संघर्ष का काम है। आलोचक को और लोकतान्त्रिक होना पड़ेगा, क्योंकि लगातार शब्दों के अर्थ बदल रहे हैं। वे अपने मायने खोते जा रहे हैं। ऐसे में केवल भाषा या शिल्प को साधने से ज्यादा ज़रूरी काम शब्द की पूरी परम्परा को साधना है। इसलिए आज ज़रूरत है गम्भीर कविता की। क्योंकि कविता के पास तमाम जटिल प्रश्नों का उत्तर है। कविता लिखने और कविता पर बात करने के लिए साहस जुटाना वस्तुत: एक गम्भीर प्रशिक्षण की माँग करता है।
आलोचना जगत में सहमति से बढ़कर असहमतियों का स्वागत होना चाहिए। हिन्दी आलोचना में रघुवीर सहाय पर कुछ सवाल उठाए गए हैं –
- रघुवीर सहाय के यहाँ आतंक तो दिखता है, पर उसका प्रतिकार कहाँ और कैसा है? रघुवीर सहाय खतरे का कोई निदान नहीं खोजते? उनके यहाँ कथ्य गड्डमड्ड है। वे समय की दुखती रग पर ऊँगलियाँ रख देते हैं पर समाधान नहीं ढूँढते।
- रघुवीर सहाय चेतावनी के कवि हैं। यह चेतावनी उनकी परम्परा में इतनी जटिल हो जाती है कि किसी काम की नहीं रहती। रघुवीर सहाय पर यह आरोप लगता है कि उन पर मीडिया का दबाव था।
- उनकी कविता अहिंसक होकर मधुर निवेदन हो जाती है।
- रघुवीर सहाय की कविताएँ शुष्क शोकगीत हैं, जो व्यक्ति और समाज से निरपेक्ष हैं।
रघुवीर सहाय के सामने जनता का शोषण, लोकतन्त्र का अन्त, भष्टाचार और लाचारी… ऐसे बहुत से अहम मसले हैं। वे उसे जिस अंदाज में कहते हैं, वे शब्दों को अर्थ के विरुद्ध कर उन संकल्पनाओं को बेमतलब कर देते हैं, जहाँ तक रघुवीर सहाय के यहाँ कथ्य के गड्डमड्ड होने हा सवाल है, कविता में समाधान न मिलने का मसला है, उस पर विचार जरूरी है। कथ्य का सीधा अर्थ है उन वस्तुओं और घटनाओं के भीतर और बाहर के सम्बन्धों का जाल जो उन्हें सजीव बनाता है और उनकी विशिष्ट सत्ता को बनाए रखते हुए बाहरी शक्तियों और सत्ताओं के साथ जूझता है। रघुवीर सहाय की कविताएँ पारिभाषिक साहित्यिक अर्थ में साहित्यिक कविताएँ नहीं हैं। वे वस्तु और घटना की जीवन्त वास्तविकता के पक्ष में कविता न होने का खतरा उठाकर भी साहित्यिक और प्रचलित काव्य रीतियों को स्वीकार नहीं करतीं।
बड़ी हो रही लड़की जब वह कुछ कहती है
उसकी आवाज़ में एक कोई चीज़
मुझे एकाएक औरत की आवाज लगती है
जो अपमान बड़े होने पर सहेगी
वह बड़ी होगी डरी और दुबली रहेगी
और मैं न होऊँगा
वे किताबें वे उम्मीदें न होंगी
जो उसके बचपन में थीं
कविता न होगी
साहस न होगा
एक और ही युग होगा
जिसमें ताकत की ताकत होगी और चीख न होगी
कविता की इन पंक्तियों में जीवित वास्तविकता और व्याकुल अनुभूति है जिसे सिर्फ कविता लिखकर निपटा देना असम्भव है। रघुवीर सहाय अपने कविकर्म के भीतर आरम्भ से ही चीजों को कविता में निपटा देने की अपर्याप्तता महसूस करते रहे हैं और आसान तथा कवि के स्टेटस को बनाए रखने वाले तथाकथित गम्भीर और सूक्ष्म रास्तों को सबसे पहले नकारते हैं। रघुवीर सहाय लगातार कठिन किन्तु सही रास्तों को अपनाते रहे। ऐसे कवि पर यह आरोप कि वे समाधान नहीं ढूँढते, सही नहीं है।
रघुवीर सहाय खुद कहा करते थे– एक ही रास्ता है कि सभी मोर्चों पर एक साथ लड़ा जाए। कविता भी उनमें से एक है और कविता के मोर्चे पर लड़ी जाने वाली लड़ाई दूसरे मोर्चों पर चल रही लड़ाई के साथ ही है–
यानी की आप ही देखें कि जो कवि नहीं हैं
अपनी एक मूर्ति बनाता हूँ और ढहाता हूँ
और आप कहते हैं कि कविता की है
क्या मुझे दूसरों को तोड़ने की फुर्सत है?
इस मूर्ति बनाने और ढहाने में वस्तुत: आदमी की आज़ादी और सत्ता के बीच रिश्ते खोजते और बनाते, ढहाते रहने का अनवरत तनाव है। यही वह तनाव बिन्दु है, जहाँ वैयक्तिक सत्ता और राज्य तथा समाज की नियामक सत्ता के बीच तनाव उभरता है। रघुवीर सहाय की कविताएँ जीवन विरोधी इन्हीं स्थितियों की पहचान कराती हैं और उससे मुठभेड़ के लिए हमें ताकत देती हैं।
रघुवीर सहाय चेतावनी के कवि हैं। यही उनकी कविताओं की सबसे बड़ी ताकत है। इस समय और समाज में इसी चेतावनी की सबसे बड़ी कमी है। क्या कारण है कि दहशत का अनुभव घनीभूत होता चला जाता है और चीजों को बदलने का उद्देश्य स्पष्ट होते हुए भी कर्म को जीवन दर्शन मानते हुए भी चीजें नहीं बदल रही हैं? लोगों से एक ही साथ नफरत और प्रेम करने वाला कवि ही रघुवीर सहाय हो सकता है– ‘कुछ होगा/ कुछ तो होगा अगर मैं बोलूँगा’– की चेतावनी देने वाला यह कवि सही और गलत, पक्ष और विपक्ष, असमंजस और अन्तर्विरोध सब कुछ पहचान रहा है और हमें चेता रहा है–
वे मेरे शब्दों की ताक में बैठे हैं
जहाँ सुना नहीं, गलत अर्थ लिया
और मुझे मारा
इसलिए कहूँगा मैं
मगर मुझे पाने दो पहले ऐसी बोली
जिसके दो अर्थ न हों।
ये मौके के मुताबिक अवसरवादी ढंग से इस्तेमाल न होने की चुनौती है। उन्होंने राजनीतिक उथल-पुथल, सामाजिक परिवर्तन, असुरक्षा, डर और अवसाद के साथ हमारे समय के आदमी को पहचाना कि वह कितनी तरह से उलझा हुआ, कितना विवश और कितना अकेला है।
रघुवीर सहाय की कविता को शुष्क शोकगीत कहने वाले, उन्हें व्यक्ति और समाज से निरपेक्ष समझने वाले आलोचकों को ध्यान देना चाहिए कि राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष को रघुवीर सहाय ने मानवीय ऊर्जा के लिए अनिवार्य माना। कला परम्परा, भाषा और शिल्प को उन्होंने इतनी गरिमा दी कि वह किसी के मातहत न हो सके। वे मानते थे कि हर मनुष्य जन्म से ही अद्वितीय होता है लेकिन जन्म के बाद जीवन में बहुतों से उनके अद्वितीय होने का अधिकार छीन लिया जाता है। अधिकार छीनने वालों के प्रति रघुवीर सहाय का रवैया देखिए–
अद्वितीय हर एक है मनुष्य/और उसका अधिकार अद्वितीय होने का/छीनकर जो खुद को अद्वितीय कहते हैं/उनकी रचनाएं हों या उनके हों विचार/पीड़ा के एक रसभीने अवलेह में लपेटकर/परसे जाते हैं/ तो उसे कला कहते हैं।
रघुवीर सहाय ऐसी कला बुद्धि के धुर विरोधी हैं। वे इसे आडम्बर मानते हैं। सुरक्षित कोनों का विरोधी कवि अपने लिए कैसे सुरक्षा खोह बनाएगा! ताज्जुब है कि क्या कला समाज बदल सकती है! जहाँ बहुत कला होगी परिवर्तन नहीं हो पाएगा।
हत्यारे सक्रिए और सजग हैं। यही कारण है कि शब्द और भाषा के प्रति रघुवीर सहाय अपने सभी समकालीनों में सर्वाधिक सचेत दिखाई देते हैं–
वे जब हत्यारे सारे शब्दों को तोड़ लेंगे
तब वे अपने-अपने मित्रों को मार देंगे
रघुवीर सहाय कहते थे– “विराट भीड़ों के समाज को बदलने का आज सिर्फ एक साधन है, वह है सत्ता का उपयोग। जो समुदाय का एक-एक व्यक्ति अलग-अलग निर्णयों से कुछ हाथों में देता है। सरकार जो राज्य की प्रतिनिधि है, जैसी भी हो अधूरी, टूटी, नकली, मिलावटी या मूर्ख। अकेला कारगर साधन भीड़ के हाथ में है और मैं इस साधन के अधिक से अधिक सही इस्तेमाल के लिए लड़े बिना नहीं रह सकता।” ऐसा जुझारू कवि समाज व्यवस्था के बीच साधारण मनुष्य, अरक्षित और असहाय के साथ जीने का संघर्ष कर रहा है। यही उनकी अधिकांश कविताओं का कथ्य है।
भारतीय लोकतान्त्रिक पद्धति में मतदाताओं की अरक्षित असहाय जिन्दगी की खबरें उन्होंने अपनी कविताओं में लिखीं–
“फिर जाड़ा आया/ फिर गर्मी आई /फिर आदमियों के पाले से लू से मरने की खबर आई/न जाड़ा ज्यादा था न लू ज्यादा/तब कैसे मरे आदमी/ वे खड़े रहते हैं तब नहीं दिखते/मर जाते हैं तब लोग जाड़े और लू की बात बताते हैं”
खबरों का यह रूप कविता में अभिव्यक्त हो सकता है, ऐसा कभी किसी ने सोचा न था। फिर भी यह कहना कि रघुवीर सहाय खबरों का कोई चरित्र नहीं गढ़ते, बेमानी है।
- कविता की अवधारणा
रघुवीर सहाय हमेशा प्रतिपक्ष के कवि रहे हैं। साथ ही यह भी कि प्रतिपक्ष की वैचारिक तथा नैतिक दायित्वों की नासमझी और विसंगतियों को भी वे उभारते हैं। यानी वे न तो शक्ति सत्ता के साथ रहे हैं और न ही भीड़-भड़क्के के साथ। वे कमज़ोर दलीय राजनीति से भी दूर रहे और सतत जनता के सही प्रतिनिधित्व के लिए जन पक्षधर कवि के रूप में लिखते रहे। आने वाला ख़तरा कविता में वे लिखते हैं–
एक दिन इसी तरह आएगा रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जाएगी रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय रमेश
ख़तरा होगा ख़तरे की घण्टी होगी
पर उसे बादशाह बजाएगा रमेश।
सन 1974 में इमरजेंसी पर लिखी गई रघुवीर सहाय की चेतावनी भरी कविता हँसो हँसो जल्दी हँसो अपनी दूरदृष्टि के कारण आज भी प्रासंगिक है। आज भी कमोबेश वही सब हो रहा है। अन्धा क्रोध तो होता है विरोध नहीं होता। अर्जियाँ लिखीं जाती हैं समाधान नहीं होते। हर तरफ एक ख़तरा होता है, पर ख़तरे की घण्टी बजाने वाला कोई ‘असहाय’ नहीं होता। आज हर तरफ एक आज़ाद दिमाग की कमी है, जो आदतन खुशामद न करता हो। जो अपनी ग़रीबी को स्वाभिमान से जीता हो और क्रूर हिंसक सत्ता से आँख मिलाने का साहस रखता हो–
लोकतन्त्र का मज़ाक बनते
देख रहे हैं बेहद बूढ़े
कुछ कम बूढ़े कहें कि क्या यह लोकतन्त्र है
इनसे भी कम बूढ़े कहते हैं कि मार दो
बेहद कम बूढ़ों को नफ़रत है इस लोकतन्त्र से
बाक़ी सब को एक दूसरे से नफ़रत है
मनुष्य पर आने वाले संकटों के बारे में रघुवीर सहाय सचेत हैं। ये बात इनसे पहले मुक्तिबोध की कविता में नज़र आती है। रघुवीर सहाय की पूरी कविता आज़ादी से लेकर हमारे आज के हालात को समेटने में सक्षम है। यह चेतावनी की कविता है। किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में मूल्यों के लगातार नष्ट होते जाने, लोकतन्त्र का मखौल बनते रहने, लोकतन्त्र से भी घृणा और आपस में घृणा करते लोगों की आबादी बढ़ते रहने की व्यथा कथा है। अब कौन कहेगा कि ये चालीस साल पुरानी कविता है।
दिन ब दिन राजा सुरक्षित होता जा रहा है, क्योंकि समाज मर रहा है। रघुवीर सहाय के पहले कविता संग्रह सीढ़ियों पर धूप में प्रकृति, धूप, पेड़, फूल, खुशबू, पानी और कुछ प्रेम पर कविताएँ हैं। लेकिन ये सभी अपने प्रचलित अर्थों में कहीं नज़र नहीं आते।
देखो वृक्ष कुछ रच रहा है
किताबी होगा वह कवि जो कहेगा
हाय पत्ता झर रहा है
ब्रेस्ट का कथन है– “वह जो सामने हँस रहा है, तो सिर्फ इसीलिए कि अभी तक बुरी ख़बर उस तक नहीं पहुँची है।” ठीक उसी प्रकार रघुवीर सहाय भी भावना के कवि नहीं हैं। बल्कि कहीं कहीं तो उसकी खिल्ली उड़ाते से नज़र आते हैं। भावुकता की दुनिया उन्हें घुटन और लाचारी के अहसास से भर देती है। भावुकता अधूरा अनुभव है, जब तक कि वह सामाजिक विचार बनकर न आ जाए। पीड़ा भोगने से पहले उसे समझना ज़रूरी है। इसीलिए वे कह जाते हैं–
यह क्या है जो इस जूते में गड़ता है
यह कील कहाँ से रोज़ निकल आती है
इस दुख को रोज़ समझना क्यों पड़ता है
दुख को बिना समझे अभिव्यक्त न करना, रघुवीर सहाय की नैतिकता है।
रघुवीर सहाय का फ्रेम ऑफ रिफरेंस बहुत ज्यादा व्यावाहारिक है। वे किसी विचारधारा या किसी किताब या किसी श्रेष्ठ व्यक्ति के आधार पर आश्रित नहीं हैं। रघुवीर सहाय के रंग ढंग तेवर न तो प्रगतिवादियों से मेल खाते हैं, न ही उनके समय के दूसरे कवियों से। वे फॉर्मूलावादी कवि नहीं हैं। रघुवीर सहाय समाज व्यवस्था और उसके अवयवों की पहचान में एक खोजी की तरह लगे हुए थे–
कुछ होगा कुछ तो होगा
अगर मैं बोलूँगा
न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का
मेरे अन्दर एक कायर टूटेगा
टूट मेरे मन टूट
अब अच्छी तरह से टूट
झूठ मूठ मत अब रूठ
रघुवीर सहाय समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया के विचारों से बहुत प्रभावित थे, किन्तु उन्होंने कभी भी किसी की विचारहीन पूजा नहीं की। उनका समाजवाद मार्क्स और एंगेल्स वाला समाजवाद नहीं है, बल्कि भारतीय सन्दर्भों में जनतान्त्रिक समाजवाद है।
जब तक रचनाकार सामाजिक और राजनीतिक कष्टों और दबावों को झेले नहीं तब तक वह पीड़ा व्यक्त करने लायक नहीं होता। करुणा भी रघुवीर सहाय की रचनाओं में विचार की शक्ल में आई है। उन्हें दया और आत्मदया से घृणा है। करुणा और दया इन्सान को अपनी निगाह से गिरा देते हैं और वह महज इस्तेमाल की वस्तु बनकर रह जाता है। दया करने वाली सत्ता उसके भीतर से विरोध की क्षमता छीन लेती है। ऐसी सहानुभूति, दुख और करुणा से न केवल रघुवीर सहाय खुद बचते हैं बल्कि हमें भी बचाते हैं। भाषा के पुजारियों और पण्डों के प्रबल विरोधी रघुवीर सहाय हिन्दी में रचनात्मकता और नवीन सम्भावनाओं की लगातार खोज करते हैं। उन्हें अन्य भारतीय भाषाएँ भी उतनी ही प्रिय हैं, जितनी की हिन्दी। इसलिए वे भाषा में नए रूपक प्रतीक गढ़कर उन्हें सामाजिक सम्बन्धों से जोड़ते हैं। सत्ता और जनता की एक ही भाषा नहीं होती। उन्होंने लिखा है–
मुझे मालूम था मगर इस तरह नहीं कि जो ख़तरे मैंने देखे थे वे सब सच होंगे
तो किस तरह उनकी चेतावनी देने की भाषा बेकार हो चुकी होगी
एक नई भाषा की दरकार होगी
चाहे भाव हो या भाषा दोनों को लेकर रघुवीर सहाय के विचार बिलकुल साफ हैं। वे लेखक होने के लिए और कुछ नहीं तो संवेदना की सच्चाई को जानना जरूरी मानते हैं। रघुवीर सहाय के व्यक्तित्व में साहित्यकार और पत्रकार का योग होने के साथ-साथ एक ऐसा विजन भी है जो हर चीज़ को नए तरीके से देखना जानता है। यथार्थ को अपनाने से पहले वे उसे नए ढंग से खोजते, जाँचते और परखते हैं। बिना किसी फॉरमैट के नए भाव और विचार को अपनाने में अपने समकालीन तमाम कवियों के अपेक्षाकृत रघुवीर सहाय अधिक उदार हैं। रघुवीर सहाय के पास बना बनाया साँचा या खाँचा नहीं है। यही कारण है कि वे पुरानी अवधारणाओं और शास्त्रीय सिद्धान्तों से मुक्त रहे। निरन्तर शोधधर्मी रघुवीर सहाय यथार्थ में मनुष्य और मनुष्य के यथार्थ को एक दूसरे में आवाजाही करने देते हैं। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जितनी गड़बड़ियाँ बढ़ेंगी, राजनीति जितनी बिडम्बनाग्रस्त होगी, उतना ही और उतनी ही बार रघुवीर सहाय की कविता की ओर लौटना पड़ेगा।
रघुवीर सहाय ने तमाम काव्य विषयों, भाषा और वैचारिक संगठनों के साथ खूब छेड़छाड़ की है। उनकी शोध दृष्टि तो आधुनिक है पर वे आधुनिकतावादी कहलाना पसन्द नहीं करते थे। वे क्रान्तिवादी थे, लिजलिजे सुधारक नहीं। वे परिवर्तन के पक्षधर थे। लोग भूल गए हैं में रघुवीर सहाय स्वीकार करते हैं–
“आज अन्याय और दासता की पोषक और समर्थक शक्तियाँ मानवीय रिश्तों को बिगाड़ने पर तुली हैं। अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले जन मानवीय अधिकार की अपनी हर लड़ाई को एक पराजय बनता हुआ पा रहे हैं। संघर्ष की रणनीतियाँ उन्हीं के आदर्शों की पूर्ति करती दिखाई दे रही है, जिनके विरुद्ध ये सारा संघर्ष है, क्योंकि संघर्ष का आधार नए मानवीय रिश्तों की खोज नहीं रह गया है।”
- निष्कर्ष
रघुवीर सहाय की सारी रचनाधर्मिता सन उन्नीस सौ पचास से नब्बे के बीच रही। यही कारण है कि भारतीय राजनीति, आज़ादी के बाद का मोहभंग, बुर्जुआ लोकतन्त्र, मध्यमवर्गीय चरित्र, स्वाधीन भारत की बिडम्बनाओं पर रघुवीर सहाय ने सबसे अधिक लिखा। उनके सभी चरित्र चाहे वह जूता पॉलिस करने वाला लड़का हो या अख़बार बेचने वाला बूढ़ा, रिक्शा चलाने वाला जवान हो या गर्भवती मजदूरिन, सब के स्वर में सवाल और जिरह है। वे सभी मानवीय अधिकारों और अस्मिता के प्रति संघर्षशील हैं। इनके यहाँ ग्रामीण चरित्रों का लगभग अभाव है। अपनी रचनात्मकता से रघुवीर सहाय उन चरित्रों को गढ़ते हैं जो उपेक्षित तो हैं पर नागर स्वभाव लिए हुए हैं। उनके यहाँ लोकतन्त्र अपनी तमाम प्रतिध्वनियों में पहचाना जा सकता है। आज़ाद भारत की हिंसक क्रूर नीतियाँ पहचानी जा सकती हैं। रघुवीर सहाय की कविताओं में पराधीनता और पराजय की कई परतें हैं। कहीं रामदास सरीखे हिंसा के शिकार चरित्र हैं तो कहीं जन प्रतिनिधियों की गूँज भरी हँसी भी हिंसक है। रघुवीर सहाय यहाँ क्रोध से अधिक घृणा को मज़बूत बनाते हैं ताकि प्रतिरोधी शक्तियाँ जन्म ले सकें। उनकी कविताओं में अकेलापन कटता नहीं है, काटने दौड़ता है।
अपनी निर्भीकता और प्रतिबद्धता के लिए रघुवीर सहाय का स्पष्ट कहना था– “प्रतिबद्धता एक ऐसी नागफाँस है, जो व्यक्ति को मात्र कुण्ठित करती है। उसे एक दायरे में कैद करती है। फिर चाहे वह दायरा राजनीति का हो या सामाजिक मर्यादाओं का और कभी-कभी तो साहित्य चिन्तन का भी। मैं अपनी प्रतिबद्धता को इनसे अलग देखता हूँ। क्योंकि पूँजीवादी सभ्यता व्यक्ति के मन में कुण्ठा भर रही है और धीरे-धीरे उसकी रचनात्मकता ही नहीं जिजीविषा को भी खत्म कर देती है।”
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- आत्महत्या के विरुद्ध, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- लोग भूल गए हैं, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- रघुवीर सहाय संचयिता, संपादक- कृष्ण कुमार, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- रघुवीर सहाय का कवि कर्म, सुरेश वर्मा, पीपुल्स लिटरेसी,दिल्ली
- निराला से रघुवीर सहाय तक, कृष्णनारायण कक्कड़, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- रघुवीर सहाय की काव्यानुभूति और काव्यभाषा, अनंतकीर्ति तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
- यथार्थ यथास्थिति नहीं:यथार्थ सम्बन्धी लेख और भेंटवार्ताएं/रघुवीर सहाय, संपादक: सुरेश शर्मा, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
- कविता के नए प्रतिमान– नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- समकालीन हिन्दी कविता, परमानन्द श्रीवास्तव(संपा.), साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF
- http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF
- http://www.hindisamay.com/writer/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF-.cspx?id=1183&name=%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF
- https://www.youtube.com/watch?v=ZZGpKHOXUsE
- https://www.youtube.com/watch?v=jelRXM5uvls