19 मगध में अभिव्यक्त राजनीतिक चेतना
डॉ. अनिल शर्मा
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- मगध में व्यक्त राजनीतिक चेतना
- 3. 1. इतिहास, मगध और राजनीतिक अभिव्यक्ति
- 3. 2. समकालीन सन्दर्भों में मगध की राजनीतिक चेतना
- 3. 3. वर्तमान सन्दर्भों में मगध की राजनीतिक चेतना
- निष्कर्ष
1. पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- श्रीकान्त वर्मा कृत मगध में उनकी इतिहास-दृष्टि से परिचित होंगे।
- इतिहास के जरिये कविता में आई समकालीन राजनीतिक चेतना के बारे में जान सकेंगे।
- वर्तमान सन्दर्भों में मगध की राजनीतिक चेतना से भी परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
श्रीकान्त वर्मा ऐसे ऐसे प्रतिभाशाली कवि है, जिन्होंने बँधी-बँधाई परिपाटी के बजाय स्वतन्त्र रूप से काव्य-रचना की। उन्होंने मगध की 56 छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से व्यक्ति, समाज और राजनीति का त्रिकोण प्रस्तुत किया है। मगध की सारी कविताओं में बौद्धिकता का सन्निवेश हुआ है। इस काव्य-संग्रह की राजनीतिक चेतना यथार्थ से जुड़ी हुई है। वे कई वर्षों तक राजनीति से जुड़े रहे। वहीं उनका मोह-भंग भी हुआ। मगध में शामिल कविताओं के आधार पर उसमें व्यक्त राजनीतिक चेतना पर यहाँ विचार किया जा रहा है।
- मगध में व्यक्त राजनीतिक चेतना
3.1. इतिहास, मगध और राजनीतिक अभिव्यक्ति
रचनाकार कभी भी अपने परिवेश को अनदेखा कर रचना नहीं कर सकता। परिवेश रचनाकार को अनुभूति प्रदान करता है। इस अनुभूति के सहारे अपनी रचना में वह प्राण डालता है। श्रीकान्त वर्मा ने नए युगबोध और अपनी पैनी दृष्टि से अपने साहित्य को नया आयाम और नई दिशाएँ प्रदान की है। उन्होंने आधुनिक युग के बदलते जीवन और जीवन मूल्यों को इतिहास के साथ जोड़कर देखा है। इतिहास के प्रति नई दृष्टि रखते हुए उन्होंने पाठकों को भी नई दिशा और नए तरीके से सोचने के लिए बाध्य किया है। इतिहास के प्रति उन्होंने एक विशिष्ट चिन्तनशील दृष्टिकोण रखा है। इस काव्य-रचना के पीछे उनका उद्देश्य केवल भारतीय इतिहास का गौरवगान करना नहीं, विभिन्न पात्रों और स्थलों के माध्यम से समकालीन सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों को उजागर करना भी है। आरम्भ में ही मगध शीर्षक कविता में कवि ने यह चिन्ता व्यक्त की है कि मगध कहीं खो गया है। उसे हम गँवा चुके हैं। असल में मगध है तो वहीं, परन्तु उस रूप में नहीं जिस रूप में कभी वह अपनी विशेषताओं के कारण पहचाना जाता है।
तुम भी तो मगध को ढूँढ रहे हो बन्धुओं,
यह वह मगध नहीं
तुमने जिसे पढ़ाहै
किताबों में,
यह वह मगध है
जिसे तुम
मेरी तरह गँवा
चुके हो
स्वातन्त्र्योत्तर काल में जीवन के हर क्षेत्र में बदलाव आया, इस बदलाव को राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक हर स्तर पर देखा जा सकता है। इन्हीं बदलावों को महसूस कर एक संवेदनशील कवि ने इतिहास के पन्ने पलटे। वर्तमान की व्याख्या करने के लिए अतीत की ओर देखा, क्योंकि हमारा वर्तमान और भविष्य दोनों अतीत से जुड़े होते हैं। श्रीकान्त वर्मा के काव्य में व्यक्त ऐतिहासिक स्थल और पात्र उस रूप में ऐतिहासिक नहीं है, जैसा उन्हें इतिहास के सन्दर्भों में जाना-पहचाना जाता है। एक सृजनशील रचनाकार की भाँति उन्होंने सृजनात्मक ढंग से इतिहास को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
राजनीतिक क्षेत्र में श्रीकान्त वर्मा ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे और भोगे। मार्क्सवाद के बदलते रूप को देखकर वे निराश हो चुके थे। पूँजीवाद का वर्चस्व और मानव स्वाधीनता में बाधा उन्हें किसी रूप में मंजूर नहीं था। डॉ. लोहिया की मृत्यु, कांग्रेस-विभाजन, देश में आपातकाल लागू होना, अवसरवाद, भ्रष्टाचार जैसी अनेक विपरीत परिस्थितियों ने कवि-हृदय को आन्दोलित किया। उन्हें महसूस हुआ कि हम अपना इतिहास भूल चुके हैं। भविष्य और वर्तमान के बीच अतीत सेतु की तरह काम करता है। उन्होंने न तो इतिहास के साथ कोई छेड़छाड़ की, न ही ऐतिहासिक परम्परा के साथ छल किया। नई कविता के दायरे से स्वयं को मुक्त कर उन्होंने समकालीन कविता के प्रांगण में सृजनात्मक ढंग से प्रवेश किया। राजनीतिक व्यवस्था को उसके अव्यवस्थित रूप से रू-ब-रू कराने का आईना है मगध। इसमें शामिल कविताएँ गहरी अवसाद से भरी हुई है। समकालीन राजनीतिक चेतना से मगध की कविताएँ समाज के सम्मुख अनेक प्रश्न रखती हैं। ये प्रश्न व्यक्ति और नगर के अस्तित्व से तो जुड़े हैं ही, उस राजनीतिक वातावरण को भी उजागर करते हैं जहाँ इन दोनों (व्यक्ति और नगर) का अस्तित्व सुरक्षित नहीं है। समकालीन राजनीतिक जीवन में व्याप्त विसंगतियाँ व्यक्ति को मोहरे की तरह इस्तेमाल करती हैं। शतरंज की तरह बिछी राजनीतिक बिसात पर मोहरे की तरह दो खेमों में बँटे लोगों को सम्भावनाओं के दो द्वार तो दिखाई देते हैं, परन्तु असमंजस की स्थिति तब आती है जब उनमें से किसी एक को चुनने का प्रश्न सामने आता है–
मैं कल तक रास्ता दिखा रहा था
यह कहकर कि
सावधान! यह रास्ता उज्जयिनी को जाता है
मैं आज भी रास्ता दिखा रहा हूँ
यह कहकर कि
सावधान! यह रास्ता उज्जयिनी को नहीं जाता
अर्थात् जीवन में क्या सही है ओर सही नहीं है? इसका निर्णय बदलता रहता है। यह परिवर्तन त्रासद भाव को जन्म देता है। मगध का वर्तमान जैसा है वैसा पहले नहीं था। यही वजह है कि मगध की ओर जाने वाले मार्ग पहचाने नहीं जा रहे हैं। मगध अपना सारा धन-वैभव, समरसत्ता, सुख-शान्ति गँवा चुका है। आज वह स्वयं को पहचान नहीं पा रहा है। मगध की ऐसी हालत क्यों हुई? इस प्रश्न का उत्तर जानने की जिज्ञासा सभी के हृदय में हिलोरें मार रही है–
क्या हुआ, मगध में?
महराज नहीं रहे?
अथवा महरानी ने पुनः कन्या जन्म दिया?
क्या फिर हुई, युद्ध की घोषणा?
क्या फिर निषेधाज्ञा जारी हुई?
क्या हुआ?
यह अनिश्चय और आशंका जितनी ऐतिहासिक मगध में थी उतनी ही वर्तमान सत्ता केन्द्र में भी है। दरअसल दिल्ली ही मगध है। प्रश्न दरअसल किसी एक जगह को छोड़कर दूसरी जगह जाने का नहीं है, बल्कि सवाल है जगह के प्रति मोह का। मगध से कोसल या कोसल से मगध की ओर जाने में ऊपरी तौर पर कोई फर्क नहीं आता, परन्तु यह फर्क उनको अवश्य पड़ता है जो इस जगह को छोड़कर नहीं जाना चाहते हैं। जिनका इस जगह के साथ सान्निध्य मोह है। आवागमन कविता में कवि ने कुछ इसी तरह के विचार रखे हैं। कवि भले ही अपनी समकालीन परिस्थितियों से सन्तुष्ट नहीं हैं, फिर भी निराश-हताश नहीं हैं। उनका मानना है कि किसी के मत्थे मढ़ने वाला कभी कुछ गढ़ नहीं सकता। मौलिक या नवीन रूप से रचना नहीं कर सकता। जीवन संघर्ष के मार्ग को उत्साह के साथ पार किया जा सकता है। निराश होकर, हाथ पर हाथ रखकर बैठने से काम नहीं चलेगा। कराहने वाला कभी भी जीवन का सही रूप में निर्वाह नहीं कर सकता। शायद यही वह ताकत है जो कवि को शासन-व्यवस्था के समक्ष जिन्दादिली से खड़े रहने की प्रेरणा देती है। कवि सहज रूप में यह भी स्वीकार करता है कि मनुष्य की सोच के साथ जिन्दगी में कई तरह के बदलाव होते हैं और ये बदलाव मनुष्य के समक्ष कई प्रश्न रखते हैं, परन्तु सबसे अन्तिम प्रश्न है –
सवाल यह है
इसके बाद कहाँ जाओगे?
मगध शान्त व्यवस्था का प्रतीक है और यह व्यवस्था अपनी शान्ति किसी कीमत पर भंग नहीं होने देना चाहती। अपनी बात कहना, हक के लिए बोलना, दर्द पर चीखना, यानी मुँह खोलना अब शान्त व्यवस्था को भंग करने जैसा है। मगध को बनाए रखना है तो वहाँ शान्ति भी बनाए रखनी होगी। शान्ति भंग हुई नहीं कि मगध की व्यवस्था में दखल पड़ जाती है। बड़े ही व्यंग्यात्मक ढंग से श्रीकान्त वर्मा ने हस्तक्षेप कविता में दिखाया है कि जहाँ जीवित मनुष्य प्रश्न करने का साहस नहीं कर पाते हैं, वहीं जीवितों के समक्ष शान्ति, व्यवस्था को भंग करके मुर्दा प्रश्न करने का साहस करता है। उसका यह हस्तक्षेप प्रतीकात्मक रूप में समाज के समक्ष एक चुनौती की तरह दिखाई देता है। निम्न मध्यम वर्ग के बीच से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले इस कवि ने परमाणु संस्कृति के ध्वंसात्मक परिणाम भी देखे और चीनी आक्रमण भी। इनके मोहभंग का कारण ये युद्ध ही नहीं, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियाँ भी थीं।
युद्ध में अपना सर्वस्व गँवा चुके लोगों की मानसिक दशा को भी श्रीकान्त वर्मा ने बखूबी उजागर किया है। इसका बड़ा ही मनोवैज्ञानिक वर्णन रोहिताश्व कविता में मिलता है। यहाँ एक पिता युद्ध में अपने पुत्र के मारे जाने पर यह स्वीकार नहीं कर पाता कि अब उसका पुत्र नहीं रहा। वह मार्ग में आते-जाते हर व्यक्ति को अपना पुत्र समझ बैठता है और कवि उसकी पीड़ा को स्वयं भोगते हुए समाज से यह प्रश्न करता है कि क्या यह विश्वास दिला सकते हो कि तुम रोहिताश्व नहीं हो। वास्तव में युद्ध चाहे हथियारों के बलबूते लड़ा जाए या नीतियों के, दोनों ही सूरत में आम जनता दो पाटों के बीच में पिसती है। यही राजनीति है, जो आम जनता के हित को नजरन्दाज कर चाल चलती है। शासक आते हैं और चले जाते हैं। एक के बाद दूसरे द्वारा गद्दी सँभाली जाती है, परन्तु उस बीच जनता क्या भोगती है, किस दर्द और पीड़ा को सहती है, इसकी परवाह न पिछले शासकों ने की, न आगामी ने। जिस प्रजा ने मगध के वैभव को करीब से देखा और भोगा, वही प्रजा उसके पराभव पर आँसू न बहाए, यह असम्भव है। प्रजा को अशोक की कलिंग-यात्रा, चन्द्रगुप्त का तक्षशिला प्रस्थान, बिम्बिसार और अजातशत्रु की छवियाँ सब कुछ याद है। परन्तु आज स्थिति यह है कि मरने पर हड्डियाँ पहचानी भी नहीं जा रही हैं कि ये चन्द्रगुप्त की हैं या बिम्बिसार की। वातावरण पूर्ण रूप से शोक मग्न है। एक राष्ट्र की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अस्मिता को बनाए रखने में प्रजा के साथ-साथ शासक की भी महत्त्वूपूर्ण भूमिका होती है। बदलते परिवेश में मनुष्य की नई नियति को राजनीति रेखांकित करती है। आधुनिक मनुष्य का द्वन्द्व, संशय, निराशा, व्यक्तित्व की पहचान, अजनबीपन, सही मार्ग का चुनाव और युद्ध जैसे विषयों का रचनात्मक प्रयोग मगध में देखने को मिलता है। मगध के लोग कविता में कवि ने दर्शाया है कि किस प्रकार जीवित लोगों की नगरी आज किसी श्मशान से कम नहीं लग रही है। यहाँ केवल मृत शरीरों की हड्डियाँ पड़ी हैं। जिन लोगों की अपनी एक विशिष्ट ऐतिहासिक पहचान थी, वह उनकी मृत्यु के साथ जैसे धूमिल-सी होने लगी है। आज उनके मृत शरीर की पहचान करना असम्भव लग रहा है।
मगध में लोग
मृतकों की हड्डियाँ चुन रहे हैं
कौन-सी अशोक की है?
और चन्द्रगुप्त की?
नहीं, नहीं,
ये बिम्बिसार की नहीं हो सकती
अजातशत्रु की है
किसी राज्य पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए दो शासकों का परस्पर युद्ध करना आम बात है। इस आम बात से आम जनता को कितना फर्क पड़ता है, उनकी जिन्दगी पर इसका कितना गहरा असर होता है, इसकी किसी ने भी कभी चिन्ता नहीं की। क्या कभी किसी शासक ने जनता से सीधे संवाद करते हुए यह पूछने की कोशिश की कि क्या जनता युद्ध चाहती है? एक पाटलीपुत्र के लिए आजातशत्रु, बिम्बिसार, चन्द्रगुप्त सभी लड़ते रहें, परन्तु वहाँ रहने वाली प्रजा ने जो पीड़ा भोगी, वह निःसन्देह अवर्णनीय है। यही राज्यभार सँभालने वाले शासक की अनदेखी है जो हर युग में किसी न किसी रूप में अपनी सत्ता बताए रखने के लिए करते हैं। विजय-तिलक केवल तिलक नहीं होता, उस तिलक के पीछे असंख्य बेगुनाहों का रक्त बहा होता है। शासक कभी भी रक्तपात के बारे में नहीं सोचता। उसे केवल विजय और उसके परिणाम स्वरूप प्राप्त गद्दी से मतलब है। शासक और शासन कुछ भी सुस्थिर नहीं है। यह सचाई केवल पाटलीपुत्र की नहीं है वरन् कवि की समकालीन स्थितियों की भी है। या इसे यूँ कहें कि आज के सन्दर्भों में भी सटीक बैठती है। चारों ओर सम्पन्न होने का केवल भ्रम मात्र है। राजा स्वयं भी इस भ्रम में जीता है और जनता को भी जीने के लिए मजबूर करता है। हर युग में शासक सदैव संदेह यह जताने के प्रयास करने में लगे रहते हैं कि उनके राज्य में सब सुव्यवस्थित व सुचारू ढंग से चल रहा है। कवि ने अपनी युगीन परिस्थितियों से उत्पन्न क्षोभ, निराशा, तनाव को मगध के माध्यम से व्यक्त किया है।
चिन्ता का भाव उम्र के उस पड़ाव से सम्बन्धित है जहाँ मनुष्य क्षीणकाय हो जाता है। शारीरिक बल उसका धीरे-धीरे साथ छोड़ देता है। वह राहगीर से रास्ता पार कराने की गुहार लगाता है। रास्ता पार करना जनता के हित से जुड़ा है ताकि जनता अपनी वास्तविक पहचान बना सके और राजनीति के दलदल में फँसकर केवल धँसती न चली जाए। प्रमाण कविता में श्रीकान्त वर्मा स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि अपनी पहचान वहाँ छोड़ें, जहाँ आपके व्यक्तित्व की कद्र हो। बालू अपने आगे किसी को ठहरने नहीं देता है। बालू पर पड़े निशान या पदचिह्न या तो स्वयं मिट जाते हैं या मिटा दिए जाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे मगध के लोगों को भूलकर अवन्ती का हो जाना होगा। लोगों का समूह सीधे-सीधे कहता है कि उन्हें मगध को भूल जाना होगा और अवन्ती को अपनाना पड़ेगा। परन्तु समस्या यह है कि वे अवन्ती में रहकर भी अवन्ती के नहीं हो पाते हैं, क्योंकि मगध की स्मृतियाँ ही उन्हें मगध से जोड़े हुए हैं। व्यवस्था में आए बदलावों को वर्मा जी ने गहरी संवेदना के साथ अनुभव किया है। मगध की कविताओं में अनास्था, निराशा, चाटुकारिता, स्वार्थ सिद्धि, अन्याय, अत्याचार, आत्मग्लानि आदि के स्वर प्रमुख हैं। राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं ने सदैव आम आदमी के जीवन के साथ खिलवाड़ किया है। कवि के भीतर का द्वन्द्व समकालीन राजनीति के साथ जुड़कर व्यक्त हुआ है।
अव्यवस्थित रूप से चलने वाला शासन किसी भी तरह से जनता को सन्तुष्ट नहीं कर सकता है। जनता को सामूहिक विश्वास, सांस्कृतिक आस्थाओं और अनुभूतियों से खिलवाड़ करके केवल नियम और कानून थोपे जाते हैं, उन्हें लागू नहीं किया जाता। मूक जनता शव की तरह उन्हें ढोने के लिए मजबूर होती है। किस प्रकार आपसी रंजिश के चलते भरी-पूरी हस्तिनापुर नगरी बिखरकर रह गई? महाभारत कभी भी लड़ा गया हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है तो केवल उन्हें जो उससे जुड़े थे। बार-बार इधर-उधर बिखरे शवों का जिक्र करके कवि उस विध्वंस के दुष्परिणामों को सामने रख रहे हैं, जिन्हें भावी पीढ़ियाँ बिना किसी गलती के भोगने को विवश हैं। कवि इन सबके माध्यम से कहीं-न-कहीं निप्रेमश्चित रूप से यह सन्देश देना चाहते हैं कि शान्ति सदैव सांस्कृतिक विकास का द्योतक है और युद्ध निःसन्देह विनाश का। इसी जीवन-सत्य को उद्घाटित करने के लिए उन्होंने इतिहास का सहारा लिया है। समाज में निरन्तर शोषक और शोषित की परम्परा से अकेलापन, कुण्ठा, निराशा, घुटन जैसे मनोविकार जन्म लेते हैं? क्षिप्रा नदी की बाढ़ में शवों का बहकर आना इस ओर ही संकेत करता है। एक समय था जब उज्जयिनी पूर्ण रूप से बसी हुई नगरी थी। यही वह नगर था जहाँ कालिदास रहते थे। यहाँ का वातावरण प्रेम व सौहार्दपूर्ण था। परन्तु आज यहाँ भी सब कुछ बदल गया है। यही बदलना कवि के मन को उद्वेलित और आन्दोलित करता है। कवि इसी समस्या को पाठक के समक्ष रखता है कि उज्जयिनी जाने वाले रास्ते वहीं हैं, परन्तु अब लगता है जैसे वे उज्जयिनी की ओर नहीं जाते। असमंजस का भाव है कि ऊपर से उज्जयिनी को पहचानकर भी पहचानना असम्भव है। शायद यह आधुनिक मानव की पीड़ा और निराशा का मुख्य कारण है। विस्थापन की पीड़ा व्यक्तिगत पहचान के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। अवन्ती में अनाम कविता इसी दर्द को मार्मिक शब्दों में व्यक्त करती है। मगध से अवन्ती में आने के लिए मगध को भूलना पड़ेगा। यह वजूद को भूलने की पीड़ा से कम नहीं है। उससे भी ज्यादा अफसोस की बात यह है कि अब अवन्ती में कोई पहचानेगा नहीं। कोई अपना मानेगा नहीं। यही व्यक्तित्व की तलाश का प्रश्न है। ऐसा ही कुछ अमरावती नगरी के साथ हुआ। कोई और अमरावती में कवि ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि किस प्रकार अमरावती अकेली और सूनी रह गई है। उसका दर्द बाँटने वाला आज कोई नहीं है। यही वह नगरी है जो कभी किसी के लिए गर्व की बात हुआ करती थी। परन्तु आज स्थिति कुछ और है। आज दूसरों को शरण देने वाली अमरावती स्वयं लाचार और बेबस दिखाई दे रही है। भरी-पूरी अमरावती सूनी और शान्त हो गई है। उससे सम्बन्धित अब कोई स्मृति शेष नहीं है। न वहाँ गणिकाएँ है, न मंच, न ही नायक और नायिकाएँ। वजह फिर वही – ‘युद्ध।’ युद्ध ने सब बदलकर रख दिया है। शहरों का पूरा भूगोल बदल दिया है। किसी नगर के उजड़ जाने की त्रासदी को भोगती जनता उस नगर की स्मृतियों में खोई रहती है।
कवि इतना भावुक हो गया है कि उन उजड़े हुए नगरों के उजड़ने का दर्द भी वह महसूस कर पा रहा है। वह नगर के विलाप को भी सुन पा रहा है। मथुरा, अवन्ती, हस्तिनापुर, मगध, उज्जयिनी आदि नगरों के उजड़ने और उनके होने की स्मृतियाँ कवि-हृदय में टीस उत्पन्न कर रही हैं। किसी भी नगर का वजूद उसके साथ-साथ उसमें रहने वाले लोगों से भी होता है। कुछ खास व्यक्तियों द्वारा किए गए कार्य नगर को विशिष्ट पहचान दिलाते हैं। और किसी नगर के लिए यह गौरव का विषय है कि सभी उसे जानते हैं और उसी नगर के लिए यह दुःख का विषय भी होता है कि कोई उसे नहीं पहचानता। कवि दुविधा में है कि किस तरह यह तय किया जाए कि कौन उसे जानता है और कौन नहीं। साफ-सी बात है, जिनका जुड़ाव नगर के प्रति होता है वे ही उसे जानने-पहचानने में दिलचस्पी दिखाते हैं। और जिन्हें उस नगर से कोई मतलब नहीं वे उसे देखकर भी अनदेखा करते हैं। व्यवस्था की यह अनदेखी ही अव्यवस्था को जन्म देती है जिसे जनता को हर हाल में भोगना होता है। इसी रूप में कवि ने इतिहास को प्रस्तुत किया है। उन्होंने इतिहास की कड़ियों से समकालीन कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया है। यही कवि की सृजनात्मकता है जिसका उपयोग उन्होंने इस काव्य-रचना में किया है। इस रचना की कविताएँ विचार प्रधान हैं। ऊपरी तौर पर कभी-कभी अटपटी जरूर लगती हैं, परन्तु इनके भीतर छिपे विचार, कवि और समाज का दर्द उस अटपटेपन को इतिहास और यथार्थ से मिलाकर दूर कर देता है।। सत्ता-विमर्श से जुड़ी ये कविताएँ गहन चिन्तन को आधार बनाकर राजनीतिक-चेतना को दर्शाती हैं।
3. 2. समकालीन सन्दर्भों में मगध की राजनीतिक-चेतना
समकालीन कवियों में मगध की रचना द्वारा श्रीकान्त वर्मा ने अपनी सृजनशीलता और वैचारिकता को पहचान दी। उनकी विशिष्टता है कि मगध में संकलित सभी कविताएँ अपने युग से आगे की बात करती हैं। कहा जा चुका है कि इतिहास को उन्होंने उसके पूर्ण ऐतिहासिक रूप में नहीं लिया, बल्कि इतिहास को मौलिक रूप में समकालीन राजनीति से जोड़ते हुए प्रस्तुत किया। यह काव्य-संग्रह समग्र समकालीन विसंगतियों के साथ व्यवस्था विमर्श को केन्द्र बिन्दु बनाकर लिखा गया है। जिस प्रकार मगध की शान्ति और समरसता भंग हुई, ठीक उसी प्रकार भारतवासियों की भी। इस संग्रह की कविताएँ समकालीन राजनीति पर सीधे प्रहार करती हैं। बिलासपुर से दिल्ली आना और दिल्ली आकर बिलासपुर को न भूल पाने का दर्द ठीक वैसे ही है, जैसे मगधवासियों का मगध छोड़कर अवन्ती आने का दर्द। अवन्ती अनाम कविता में वे दर्द इस तरह बयाँ हुए हैं –
तब तुम दुहराओगे
मैं अवन्ती का नहीं
मगध का हूँ
और कोई नहीं मानेगा
बिलबिलाओगे –
‘मैं सच कहता हूँ
मगध का हूँ
मैं अवन्ती का नहीं’
और कोई फर्क नहीं पड़ेगा
मगध के माने नहीं जाओगे
अवन्ती में
पहचाने नहीं जाओगे।
दिल्ली में आने के बाद श्रीकान्त वर्मा ने सक्रिय राजनीति से जुड़कर राजनीतिक गलियारों को करीब से झाँका। राजनीतिक षड्यन्त्रों को उन्होंने स्वयं भोगा भी। बदलती राजनीतिक परिस्थियों ने उनके लिए यह नींव तैयार की जिस पर उन्होंने इस काव्य-संग्रह की इमारत खड़ी की। हस्तिनापुर का रिवाज कविता में महाभारत के दुष्परिणामों को सामने रखा गया। हस्तिनापुर में किसी ने एक-दूसरे की बात नहीं सुनी। राजनीतिक, कूटनीतिक चालों ने सत्ता के गलियारों में दखल देकर रिश्तों को दाँव पर लगा दिया। वहाँ लोग बहरे होने का दिखावा करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि उन्हें सत्ता के समक्ष हर हाल में झुकना है। इसी अनसुनी के लिए उन्हें नियुक्त किया गया है। कवि ने तीखे व्यंग्य के साथ विचार को शत्रु कहा है। समकालीन राजनीति ने धर्म को दरकिनार कर नैतिकता और अनैतिकता की परिभाषा बदल दी है। इसी पर बल देते हुए वे इस कविता में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि लोग नहीं जानते जहाँ धर्म नहीं है वहाँ विनाश है। जैसा कौरवों-पाण्डवों के साथ हुआ। अफसोस इस बात का है कि अपने अतीत से भी सब सीख नहीं लेते हैं। विचार जनता के बीच तेजी से दौड़ रहा है और यही सनातन समस्या है कि इस विचार ने सबको महामारी की तरह अपना ग्रास बना लिया है। यह विचार ही है जो लोगों की मानसिकता बदलता है। वे प्रतीकात्मक रूप में कहते हैं कि महामारी जब फैलती है तो कितने ही लोग मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं। ठीक उसी तरह से विचार की महामारी फैलने से लोगों में दुश्मनी बढ़ रही है, और यही शत्रुता युद्ध को आमन्त्रित करती है। इसी विचारों की लड़ाई ने समकालीन दौर में भी राजनीतिक उथल-पुथल पैदा की है। चिल्लाता कपिलवस्तु में कवि ने स्पष्ट रूप से कहा कि अब उज्जयिनी इस लायक नहीं रही कि उस पर शासन किया जाए। वजह यह कि वहाँ न्याय-अन्यान की परिभाषा लोग भूल चुके हैं। ठीक यही स्थिति मगध की भी है जहाँ न ताकतवर है न कमजोर। वहाँ न किसी में दया है न हया; क्योंकि इनसानियत मर चुकी है। लोग स्वार्थी हो गए हैं। काशी की स्थिति इससे भी बुरी है। यहाँ मृत लोगों के शवों पर तो राजनीति हो रही है, जीवित लोगों की सुध लेने वाला भी कोई नहीं है। लोग जीवित और मृत के बीच का अन्तर भुलाकर सबको एक तराजू में तौल रहे हैं। मिथिला में लोग अधर्मी हो गए हैं। उन्हें किसी का भय नहीं है। काफी हद तक यही स्थिति समकालीन भारत की थी। जहाँ न्याय-अन्याय की परिभाषा बदल चुकी थी। सन् 1978 की बाढ़ में भी मृत लोगों पर हुई राजनीति की ओर भी संकेत इस संग्रह की कविताओँ में मिलता है। कवि कपिलवस्तु के रूप में ऐसे राज्य का स्वप्न देखते हैं जहाँ जाकर मनुष्य सुखी हो और वहाँ से वापिस आना ही भूल जाए।
किसी राज्य को गणराज्य कहने का अर्थ है वहाँ के नागरिक अधिकार के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का भी उचित निर्वाह करें। कोसल भले ही एक गणराज्य कहलाता है, परन्तु वहाँ के नागरिक अपने ऐशो-आराम और मनोरंजन के लिए ही अपना जीवन जीते हैं। उनका ध्येय राज्य को बेहतर या उन्नत बनाना नहीं है। क्रियाशील होना सचेतन होने की निशानी है। विचारों का ताना-बाना बुनकर क्रियाशील बना जा सकता है। कोई भी राज्य बिना विचारों के कभी तरक्की नहीं कर सकता। वहाँ की जनता पूर्ण रूप से सन्तुष्ट नही रह सकती।
कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता
कोसल में विचारों की कमी है।
इन्हीं विचारों की कमी कवि को स्वातन्त्र्योत्तर भारत में नजर आती है। स्वतन्त्रता के मायने सबके लिए अलग-अलग हो गए हैं। लोग संवेदनहीन हो चुके हैं। उनका संवेदनहीन होना कहीं न कहीं सीधे तौर पर शासन और राज्याधिकारों से जुड़ा है। जिस दिन प्रजा बेझिझक होकर राजा से अपने सुख-दुःख साझा करेगी और जिस दिन जनता से भयमुक्त होकर शासक अपनी बात कहने की आज्ञा देगा उस दिन एक सुखद और सुदृढ़ राज्य की नींव रखी जाएगी। ऐसे ही भारत का स्वप्न कवि ने देखा है। परन्तु जल्द ही मोहभंग की तरह उसका यह स्वप्नभंग हो जाता है। क्योंकि राजा इस झूठे दिखावे में प्रसन्न रहता है कि उसके राज्य में जनता कितनी सुखी है। परन्तु सच यह है कि कवि और समाज का जो स्वप्न भंग हुआ है वह यह कि न जाने वह दिन कब आएगा जब सच में शासक कहेगा कि प्रजाजन सुखी रहिए और समवेत स्वर में जनता कहेगी कि ‘हम सुखी हैं।’
प्रजा का जड़ या चेतन होना शासक पर निर्भर करता है। सब कुछ सामान्य होने पर जनता का मुँह न खोलना, चुप्पी साध लेना, कवि के मन को बार-बार आहत करता है। कई बार कवि स्वयं जनता के रूप में चक्रव्यूह के बीच फँसा है। बोलने की स्वतन्त्रता बाधित हुई है। किसी भी राज्य के कानून, समाज, धर्म की बागडोर शासक के हाथ में होती है। शासक के दिग्भ्रमित होने पर पूरी व्यवस्था सिर से पाँव तक भंग हो जाती है। ऐसे में असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि क्या करें क्या न करें। कवि जनता के समक्ष चुनाव के तीन रास्ते रखता है– यथास्थितिवाद, क्रान्ति, और परिवर्तन। कवि लोगों में नव उत्साह पैदा करना चाहते हैं, शासक के प्रति मोहभंग की स्थिति बदलना चाहते हैं–
प्राण तो
सभी छोड़ते है
व्यर्थ के लिए
हम
प्राण नहीं छोड़े
श्रीकान्त वर्मा ने भारत की न्याय-प्रणाली, राजनीतिक सभाओं आदि पर भी करारा व्यंग्य किया है। उन सभाओँ और उन फैसलों का कवि के लिए कोई अर्थ नहीं जिनका जनता से कोई लेना-देना नहीं। जनता केवल मूक दर्शक बनी उनका अपने पर थोपा जाना देख रही है। शासक सर्वेसर्वा है। जनता की इच्छा कोई मायने नहीं रखती। सभासद अपने मत और मतभेद रखते हैं। जनता उन पर क्या राय रखती है, इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। हिंसा, द्वेष, विचारहीनता, स्वार्थ, किंकर्त्तव्यविमूढ़ता ने पूरी व्यवस्था को भ्रष्ट बना डाला है। आजादी के बाद के भारत की तस्वीर भी काफी हद तक ऐसी ही है। जनता के जीवन से सत्ताधारियों को कोई सरोकार नहीं। राजनेता केवल अपने अधिकारों का दुरुपयोग करके स्वार्थ सिद्धि में लगे हुए हैं। चारों तरफ दरिद्रता, भूखमरी, निराशा का माहौल है। व्यवस्था जनता की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाई है। इसी समकालीन राजनीतिक विडम्बना को कवि ने ऐतिहासिक जामा पहनाकर उजागर किया है।
कवि ने राजनीति में अहम् भूमिका निभाने वाले चापलूस चाटुकारों पर भी व्यंग्य किया है। ये चाटुकार तक्षशिला के उन सैनिकों की तरह हैं जिनका काम सिर्फ एक दुर्ग से दूसरे दुर्ग तक जाना है। तक्षशिला अपने-आप पर पछता रही है कि अगर उसे उजड़ना ही है, तो उसे रचा क्यों गया? आज वह जर्जर और निस्सहाय दिखाई पड़ती है। राजनीतिक बिसात पर सब कुछ धराशायी हो गया है। कवि फिर भी निराश नहीं है। वह फिर से कल्पना करता है एक नए भारत के निर्माण की –
महलों में रौनक होगी
अन्तःपुर में
दोबार कंगन खनकेंगे
हाट सजेंगे
बोला होगी
भिक्षा होगी
भिक्षुक होंगे
इच्छा होगी
इच्छुक होंगे
वसन्त सेना कविता में सीढ़ियों के जरिये प्रतीकात्मक रूप में कवि ने दर्शाया है कि जो सीढ़ियाँ ऊपर जाती है, वही नीचे की ओर भी आती हैं। ऊपर जाना उन्नति का और नीचे आना अवनति का सूचक है। प्रगति पथ पर अग्रसर होकर मनुष्य सीढ़ियों से जाता है, जो सीमाहीन, असंख्य है। कोई मनुष्य अवसान की सीढ़ियाँ उतरता है, जो असंख्य और सीमीहीन हैं। सीढ़ियाँ कभी किसी की विजय या पराजय नहीं सुनती। उनका काम सिर्फ ऊपर पहुँचना और नीचे उतारना है। समाज किस रूप में सीढ़ी का प्रयोग कर रहा है, यह कवि के लिए चिन्ता का विषय है। मिथिला क्यों नहीं कविता में उन्होंने साफ शब्दों में कहा है कि चिन्ता व्यक्ति को धीरे-धीरे क्षीण और निस्तेज कर देती है। शासक की विशेषता इसी में है कि वह अपने राज्य के हित को लेकर सदैव चिन्तित दिखाई दे। कवि कहते हैं कि मिथिला में अवन्ती की भाँति कवि या मूर्तिकार नहीं है। कोई गायक नहीं है। अगर ये तीनों न भी हों तो क्या फर्क पड़ता है? फर्क पड़ता है तो सेना, सम्पत्ति और मन्त्रिपरिषद् से, जो जनता के सुख-दुःख की चिन्ता करती है। कवि उन कवियों, कलाकारों पर कटाक्ष करते हुए प्रतीकात्मक रूप में कहता है कि अगर कोई भी कलाकार मृत्यु के भय से अपने दायित्व भूल जाए तो उसका जीवन किस काम का। वर्मा जी ने तीखे शब्दों में राज्याधिकारियों को उनके दायित्व का बोध कराते हुए लिखा है–
फर्क पड़ता है सम्पत्ति से,
सेना से, मन्त्रिपरिषद् से!
देखना पड़ता है,
प्रजा सुखी है या नहीं?
एक कवि होने के नाते इन्होंने अपने दायित्व का पूर्ण रूप से निर्वाह किया। अपनी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का परिचय देते हुए उन्होंने निर्भीक होकर राजनीतिक विसंगतियों को उजागर किया। सन् 1984 में मगध का प्रकाशन हुआ और उसके करीब एक वर्ष बाद उन्हें कांग्रेस पार्टी के महामन्त्री पद से हटा दिया गया। श्रीकान्त वर्मा का काव्य-संसार स्वतन्त्र भारत की बुनियादी समस्याओं को अपने में समेटे हुए है।
3.3. वर्तमान सन्दर्भों में मगध की राजनीतिक चेतना
कवि युगद्रष्टा और युग-प्रवर्तक होते हैं। वे अपनी रचना के माध्यम से अपनी युगीन परिस्थतियों को उद्घाटित करने का प्रयास करते हैं। श्रीकान्त वर्मा और उनका काव्य-संग्रह मगध प्रासंगिक है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी भारत की राजनीतिक स्थिति अस्थिर थी और आज भी अस्थिर है। जिस मानव-हित और विश्व कल्याण की भावना को लेकर भारत आजाद हुआ था, वह भाव धीरे-धीरे दुर्भावना में बदलता चला गया। मगध एक कालजयी कृति है, जिसकी प्रासंगिकता हर युग में बनी रहेगी। किसी कृति की विशेषता यही होती है कि वह अपने युग से आगे जाकर बात करे और प्रतीकात्मक रूप में हर युग का प्रतिनिधित्व करे। कवि ने ऐतिहासिक पात्र, स्थलों के समीकरण से बदलते राजनीतिक भावबोध को परिस्थितियों के अनुरूप चुनकर समाज को सही दिशा की ओर अग्रसर करने का प्रयास किया है। वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता और अव्यवस्था का अन्दाजा आए दिन होने वाले बलात्कार, अपहरण, डकैती, लूटमार, हत्या आदि से लगाया जा सकता है। न्याय-व्यवस्था का क्या आलम है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। परन्तु भ्रम में जीना कि राजा और प्रजा दोनों सुखी हैं, शायद राजनीतिक जरूरत बन गया है। प्रजा पूर्ण रूप से यान्त्रिक बन गई है जिसे शासन संचालित करता है, क्योंकि स्वयं शासक भी संवेदनहीन हो चुके हैं। जनता की इच्छा, उत्साह, जोश, भावनाएँ सब कुछ मर-सा गया है। हैरानी की बात यह है कि फिर भी शासक को खुशफहमी है कि जनता उसके राज में सुखी और प्रसन्न है। जैसी अशान्ति मगध की कविताओं में दिखाई देती है, ठीक वैसी ही अशान्ति आज चारों ओर फैली हुई है और इन सबको नजरअन्दाज कर भ्रम में जीना आज शासक और शासित की नियति बन गया है।
- निष्कर्ष
कहा जा सकता है कि मानव-जीवन से जुड़ी विभिन्न राजनीतिक समस्याओँ को कवि ने अतीत और वर्तमान के बीच एक रिश्ता कायम करके प्रस्तुत किया है। मगध की सभी कविताओँ में एक विद्रोह, चीत्कार, निराशा, संशय का स्वर सुनाई देता है। शासक न तो जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतरता चाहता है और न ही वे खरा उतरने की क्षमता रखते हैं।
you can view video on मगध में अभिव्यक्त राजनीतिक चेतना |
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- मगध, श्रीकान्त वर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- मगध: संवेदना और समकालीनता, चंद्रशेखर रावल, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली
- श्रीकान्त वर्मा की कविता, श्रीकान्त वर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- बीसवीं शताब्दी के अँधेरे में, श्रीकान्त वर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- संचयिता: श्रीकान्त वर्मा, सम्पादक- उदयन वाजपेयी राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- मायादर्पण- श्रीकान्त वर्मा, सम्पादक- लक्ष्मीचंद्र जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी
- आधुनिक कविता का इतिहास, नंदकिशोर नवल, भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली, प्रथम
- आधुनिक कविता युग और सन्दर्भ, शिवकुमार मिश्र, स्वराज प्रकाशन दिल्ली
वेब लिंक्स
- http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=1569&pageno=1
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%AE%E0%A4%97%E0%A4%A7_/_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4_%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4_%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE
- https://www.youtube.com/watch?v=2AUDJ4s4WEA
- https://www.youtube.com/watch?v=XGFN2UL7p7k