18 ‘मगध’ : मिथक और यथार्थ
डॉ. निशा नाग
पाठ का प्रारूप
1.पाठ का उद्देश्य
2.प्रस्तावना
3.साठोत्तरी कविता और श्रीकान्त वर्मा
3.1. ‘मिथक’ : अर्थ और स्वरूप
3.2. समकालीन स्थितियाँ और मगध
4. समकालीन राजनीतिक परिस्थितियाँ और मगध
5. मृत्युबोध और मगध
6. समकालीन राजनीतिक यथार्थ और मगध के मिथकीय प्रयोग
7. निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- साठोत्तरी कविता के मुख्य स्वर को जान पाएँगे।
- श्रीकान्त वर्मा के जीवन और साहित्य के बारे में जान पाएँगे।
- मगध काव्य संग्रह की विशेषताएँ समझ सकेंगे।
- मिथक की परिभाषा और कविता में वर्तमान सन्दर्भों की अभिव्यक्ति हेतु उसकी प्रयुक्तियों से परिचित होंगे।
- प्रस्तावना
श्रीकान्त वर्मा हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठित कवि हैं। साठोत्तरी कविता में उनका विशेष स्थान है। मगध श्रीकान्त वर्मा की चर्चित काव्य कृति है। मगध की कविताएँ मिथक, इतिहास और यथार्थ को एक साथ वहन करती हैं। श्रीकान्त वर्मा ने इस रचना में मिथक को इतिहास में रूपान्तरित कर दिया है। मगध सिर्फ इतिहास नहीं है, वह श्रीकान्त वर्मा की कविताओं में मिथक बनकर आया है, और वर्तमान जीवन की विसंगतियों से पूरी तरह जुड़ गया है।
- साठोत्तरी हिन्दी कविता और श्रीकान्त वर्मा
श्रीकान्त वर्मा साठोत्तरी कविता के काव्य फलक पर आक्रोश एवं विद्रोह की आक्रामक मुद्रा को लेकर उभरे। परन्तु उनका मगध शान्त स्वर में इतिहास में जाकर प्राचीन नगर और गण-राज्यों के माध्यम से वर्तमान राजनीति की कथा कहता है। मगध में इतिहास के प्राचीन गणराज्य वर्तमान प्रजातन्त्र के समकक्ष मिथक बन गए हैं। श्रीकान्त वर्मा की कविता सीधे-सीधे साहित्य के राजनीतिक सरोकारों की कविता है। उन्होंने राजनीति की भीतरी दुनिया को देखा था इसीलिए उनकी कविता राजनीति और समाज में व्याप्त रुग्णवादी प्रवृत्तियों को तीखे स्वर में व्यक्त करती हैं। श्रीकान्त वर्मा की काव्य-यात्रा निरन्तर मोह से मोह भंग की ओर बढ़ी है। यही कारण है कि श्रीकान्त वर्मा के अनुभव-विधान, शिल्प-संगठन में दो बार स्पष्ट परिवर्तन परिलक्षित होता है। प्रथम परिवर्तन ‘मायादर्पण’ की कविताओं में दिखाई देता है, तो द्वितीय परिवर्तन मगध की कविताओं में परिलक्षित होता है,यहाँ के इतिहास-पुरुषों और ऐतिहासिक स्थलों के माध्यम से वे आधुनिक जीवन के तीव्र द्वन्द्वों को व्यक्त करते हैं।
श्रीकान्त वर्मा का जन्म मध्यप्रदेश के छोटे से कस्बे बिलासपुर में हुआ। महत्त्वाकांक्षी होने के कारण दिल्ली आए और राजनीतिक दल से जुड़कर उसके प्रचारक बने। राष्ट्रीय काँग्रेस के प्रचार तन्त्र का हिस्सा बनकर उन्होंने पार्टी के लिए पर्चे-पोस्टर लिखे। इस बात ने उनको भीतर ही भीतर क्षत-विक्षत किया और उन्होंने अपनी डायरी में लिखा “मैं एक चक्रव्यूह में फँस गया हूँ। निकलना चाहता हूँ। रास्ता नहीं मालूम। जिधर से निकलने की कोशिश करता हूँ, सिर दीवार से टकरा जाता है”। श्रीकान्त वर्मा सत्तासीन सरकार में पार्टी प्रवक्ता या एम.पी, अवश्य रहे, पर उन्हें जिस मन्त्री पद की आकांक्षा थी वह उन्हें नहीं मिला। श्रीकान्त वर्मा में जीवन पर्यन्त रचनाकार और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का भयंकर द्वन्द चलता रहा। मगध की इसी भयानक यथार्थ को प्रतिफलित करती हैं। यह काव्य संग्रह भी इतिहास-पुरुषों और स्थलों के माध्यम से अवसादमय स्वर में राजनीति की महत्त्वाकांक्षा, मूल्यहीनता और नियति की गाथा कहता है। प्रस्तुत काव्य संग्रह में श्रीकान्त वर्मा का गहरा सरोकार आत्मसाक्षात्कार और मृत्युबोध भी रहा है। श्रीकान्त वर्मा के मगध में देश काल का विशिष्ट विन्यास है। इतिहास से जन्मे इस संसार को मगध की कविताएँ आज के समय में सम्भव करती हैं। ऐतिहासिक दिक-काल, परिवेश के माध्यम से कवि उन राजनीतिक स्थितियों को परखता है, जो इतिहास से लेकर आज तक एक- सी रही हैं। ए वे स्थितियाँ हैं, जिनका उत्स राजनीति में सदैव रहा है और सत्ताएँ निरन्तर जिन्हें अपनाती रही हैं। श्रीकान्त वर्मा इन स्थितियों को प्राचीन ऐतिहासिक गणराज्यों, जैसे मगध, अवन्ती, कौसल, पाटलिपुत्र, उज्जयिनी, नालन्दा और ऐतिहासिक पात्रों के द्वारा स्पष्ट किया है। ए पात्र ऐसे हैं जो सत्ता-लोलुप रहे और सत्ता पाने के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहे, किन्तु अन्त में उन्हें सत्ता की असारता का बोध हुआ। अशोक, अजातशत्रु, अज्ञात अश्वारोही आदि पात्रों के माध्यम से कवि ने इस स्थिति को अभिव्यक्त किया है। इतिहास के इन पात्रों को श्रीकान्त वर्मा ने मिथक रूप में प्रस्तुत किया है।
3. 1. मिथक : अर्थ और स्वरूप
आधुनिक हिन्दी कविता में ‘मिथक’ शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के Myth के समानान्तर किया जाता है। ‘मिथ’ मूलत: ग्रीक भाषा के शब्द ‘मिथॉस’ से उपजा है, जिसका अर्थ है- वाणी का विषय या मौखिक कथा अर्थात कहानी, आख्यान। ए वे गाथाएँ और प्रतीक हैं, जो प्राचीन काल में सत्य माने जाते थे और कुछ रहस्यमय अर्थ देते थे। मिथक को प्रागैतिहासिक मनुष्य का एक सामूहिक स्वप्न माना जाता रहा है। मिथक के अन्तर्गत पुराण कथा, देवकथा, पुराख्यान तत्त्व, पुराकथा आदि का सृजन होता रहा है। ‘मिथ’ शब्द प्राय: तर्क के विपरीत कोरा कल्पनाधर्मी अधिक माना जाता रहा है, जबकि मिथक अलौकिकता का पुट रखते हुए भी लोकानुभूति का वाहक होता है।
मिथक शब्द को पश्चिमी समाजशास्त्रियों और दार्शनिकों ने विस्तार दिया। इनसाक्लोपीडिया ऑफ़ सोशल साईंसेज में मिथक को लोकजीवन के अनुरूप आशाओं, आकांक्षाओं, स्वप्न, सम्भावनाओं और धारणाओं के समान माना है। इस प्रकार मिथक में विविध पात्रों, घटनाओं के माध्यम से मानव मन की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति हुई है। काव्य या कथा मात्र अलौकिक या पौराणिक नहीं रहती, बल्कि आज के मनुष्य और उसके जीवन सन्दर्भ में सार्थक बन जाती है। मिथक कोरी कल्पना न होकर कल्पना के खोल में अपने समय का एक सामाजिक यथार्थ है। भाषावैज्ञानिक मिथकों का अध्ययन भाषा के स्तर पर करते हैं। मैक्समूलर ने मिथक को भाषा का राग कहा। उनके अनुसार भाषा जब असमर्थता के कारण एक के स्थान पर साम्य या भ्रान्ति के कारण, दूसरे शब्द को ग्रहण कर लेती है और अर्थ विषयक परिवर्तन भी पैदा कर देती है तब मिथक का जन्म होता है।
3. 2. समकालीन स्थितियाँ और मगध
श्रीकान्त वर्मा की कविताओं में वर्तमान समय में मौजूद शासन सत्ता और राजनीति की स्थितियाँ शाश्वत और चिरन्तन से जुड़ती हैं। सत्ताओं का चरित्र हर युग में एक-सा रहा है जिसे श्रीकान्त वर्मा ने इतिहास के माध्यम से मिथक में बदला है। मिथक कथाओं द्वारा अभिव्यक्त कविताएँ सशक्त रूप से राजनीति की स्थितियों को अभिव्यक्त करती हैं। मगध की कविताओं में इतिहास की स्मृतियों, ऐतिहासिक स्थल, ऐतिहासिक व्यक्तित्व– जीवन्त चरित्रों की भूमिका में दिखाई देते हैं। श्रीकान्त वर्मा ने यहाँ उन तमाम ऐतिहासिक प्रसंगों को समकालीन बनाकर प्रस्तुत किया है। सत्ता की क्रूर कर्मा शक्तियाँ, सत्ता की निस्सारता, बडे़-बडे़ नगरों का भविष्य़, हिंसा का सहारा लेकर अपने-आपको स्थापित करने वाले राजनीतिज्ञ, मिथकीय पात्र प्रतीकों द्वारा यहाँ पर उजागर हो गए हैं। मगध काव्य-संग्रह की पहली कविता में ‘नान्दीपाठ’ की तरह कवि प्रस्तुत करता है–
गुनगाहक/ गुनसागर/ गुननिधान
बहुत वर्षों बाद आपके दरवाजे आया हूँ
इस कविता के प्रकाशन के लम्बे अन्तराल के बाद मगध का प्रकाशन हुआ। अपने व्यक्तित्व की खोज और अपूर्णता को सन्दर्भित करने के लिए श्रीकान्त वर्मा ने अपने-आपको पुन: सृजनात्मक संसार से जुड़ने की कोशिश की है। इसी तरह ‘अवन्ती में अनाम’ कविता में कवि गहरे विषाद के स्वर में कहता है–
‘क्या इससे कुछ फर्क पडे़गा
अगर मैं कहूँ
मैं मगध का नहीं
अवन्ती का हूँ?
अवश्य पडे़गा
तुम अवन्ती के मान लिए जाओगे
मगध को भुलाना पडे़गा’
और एक समय ऐसा भी आएगा जब
मगध के माने नहीं जाओगे
अवन्ती में पहचाने नहीं जाओगे
यहाँ पर अवन्ती और मगध दोनों ही कवि अस्तित्व के दो भाग हैं। इन दोनों मिथकीय नगरों के माध्यम से कवि का अन्तर्द्वन्द्व व्यक्त हुआ है। दोनों में से एक सृजनात्मकता का क्षेत्र है, तो दूसरा राजनीति का। इसी तरह कवि ने ‘अमरावती’ के माध्यम से पहचान का संकट अभिव्यक्त किया है।कवि कहते हैं–
कृपा सिन्धु
भूल जाएँ अमरावती आपकी थी,
थी भी
तो उसके लिए कोई लड़ने को तैयार नहीं
प्रच्छन्न रूप से यह अमरावती राजनीति की महत्त्वाकांक्षा भी है जो सृजन क्षेत्र के व्यक्ति के लिए असम्भव है। कविता और राजनीति इन दो विपरीत ध्रुवों को साधते हुए कवि का व्यक्तित्व विभाजित हुआ था। अपने रचनात्मक जीवन में संकट से गुजरते हुए श्रीकान्त वर्मा ने कहा, “मैं असल में अपने भीतर चौबीसों घंटे एक लड़ाई लड़ता हूँ और इसमें कोई जख्मी नहीं होता, कोई मेरे हाथों मारा नहीं जाता, सिर्फ मैं लहूलुहान होता हूँ। कभी कविता राजनीति पर हमला करती है, कभी राजनीति कविता पर। मैं इन दोनों का द्वन्द्व रोकने की प्रक्रिया में जख्मी होकर रह गया हूँ। जख्मी मगर अपंग नहीं।” समकालीन जीवन के इसी यथार्थ को श्रीकान्त वर्मा ने ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।
- समकालीन राजनीतिक परिस्थितियाँ और मगध
कविता की स्वतन्त्रता और स्वायत्तता के पक्षधर श्रीकान्त वर्मा, राजनीति की विचारधारा और नीतियों के प्रवक्ता के रूप में जाने जाने लगे, इससे उनके विभक्त व्यक्तित्व की कई फाँके दिखने लगीं। उनका यह द्वन्द्व मगध की कविताओं में बार-बार दिखाई देता है। अश्वारोही कविता में कवि कहता है–
अश्वारोही
जो कलिंग को जाता है
क्या वह कलिंग से वैसा का वैसा आता है ?
क्या कहते हैं लोग-
विजयी या हत्यारा?
अश्वारोही यहाँ पर तेज गति से आगे की ओर बढ़ने वाले महत्त्वाकांक्षा से भरे युवक का मिथकीय प्रतीक है, तो कलिंग राजनीति के ध्रुव का। इन दो मिथकों के माध्यम से कवि ने अपने जीवन के यथार्थ को व्यक्त किया है। आत्म साक्षात्कार करते हुए कवि यह महसूस करता है कि मनुष्य की जिजीविषा और आकांक्षा को वे इतिहास के माध्यम से परिभाषित करे। चन्द्रगुप्त, बिम्बिसार, आम्रपाली आदि इतिहास प्रसिद्ध नायक-नायिकाएँ मानव की उन आकांक्षाओं के मिथकीय प्रतीक हैं, जो मृगमरीचिका की भाँति उसे लुभाती हैं, लेकिन उसके हाथ में विफलता ही लगती है। इतिहास और अनुभव तथा वर्तमान का यथार्थ, दोनों यहाँ पर मिथकों के माध्यम से उपस्थित हैं।
मगध की कविताओं में इतिहास की स्मृतियाँ, ऐतिहासिक स्थल, ऐतिहासिक व्यक्तित्व, जीवन्त चरित्रों की भूमिका में हैं, कवि ने उनके माध्यम से राजनीतिक यथार्थ को प्रस्तुत किया है। मगध मनुष्य़ की एक आकांक्षा है। गौरवमय अतीत है। मगध एक विचार है, जो किसी भी कीमत पर अपनी शक्ति और भ्रम बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है। वह सत्ता के केन्द्र का प्रतीक है। प्रकारान्तर से इसे वर्तमान सत्ता के केन्द्र की जगह रखकर देखा जा सकता है। अपने अन्तिम काव्य संग्रह ‘गरुड़ किसने देखा है’ में कवि कहता है ‘अब मगध नहीं होगा’। मगध की कविताएँ काल की एक झाँकी हैं, जो इतिहास की निरन्तरता रखकर शाश्वत सत्य अर्थात मिथक में बदल जाती हैं। मगध वास्तव में सत्ता की केन्द्रीयता का प्रतीक और अतीत का एक स्मारक है। संग्रह की प्रथम कविता पारंपरिक सूत्रधार की भाँति इस तथ्य की ओर संकेत करती है।
जन्म जन्मान्तरों की कथाएँ
नगर नागरिकों की व्यथाएँ लाया हूँ?
रचनात्मकता के साथ कवि ने समस्त ऐतिहासिक प्रसंगों को समकालीनता प्रदान की है। यहाँ पर अतीत और वर्तमान एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हैं। इस जादुई वातावरण में सारे ऐतिहासिक पात्र सक्रिय नजर आते हैं। मिथकीय आवरण में उभरे इस वातावरण में एक नया लोक रचा जाता है, किन्तु यह लोक समकालीन राजनीति का जीवित दस्तावेज है। उदाहरण के लिए उनकी कविता तीसरा रास्ता को देखा जा सकता है, जहाँ पर कवि कहते हैं–
मगध में शोर है कि मगध में शासक नहीं रहे
जो थे
वे मदिरा प्रमाद और आलस्य के कारण
इस लायक नहीं रहे
कि उन्हें हम
मगध का शासक कह सकें
लगभग यही शोर है
अवन्ती में
यही कोसल में
यही / विदर्भ में / कि शासक नहीं रहे
यह कविता समकालीन राजनीति पर एक टिप्पणी बनकर सामने आती है। इसी तरह आवागमन कविता में मगध से कोसल जाना या कोसल से मगध आना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लोगों के इस प्रश्न से बचा नहीं जा सकता कि कहाँ से कहाँ जा रहे हो, या कोसल और मगध में किसे ढूँढ़ रहे हो? यहाँ पर मगध, अवन्ती, कौशल, विदर्भ केवल ऐतिहासिक नगर गणराज्य नहीं हैं, जो अब मिथक बनकर भारतीय चेतना में कहीं लोकतन्त्र, तो कहीं साम्राज्यों को वहन करने वाले नगरों का प्रतिनिधित्व करते हैं, बल्कि यथार्थ में वे उस प्रजातन्त्र या सत्ता का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो आज नश्वर है। किसी भी सूरत में सत्ताओं का अन्त अवश्यम्भावी है। सत्ताएँ पहले भी नहीं रहीं, अब भी नहीं रहेंगी। राजनीति की दिशाहीनता के सन्दर्भ मे यहाँ रास्ते की तलाश स्पष्ट है। अश्वारोही, तीसरा रास्ता, अवन्ती में अनाम, उज्जयिनी का रास्ता’ इसी तरह की कविताएँ हैं। समकालीन राजनीति पर सीधे प्रहार करता हुआ कवि कहता है कि ‘माथे पर रक्त का टीका है / राज्याभिषेक का / यही तरीका है’। ‘कोसल में विचारों की कमी है’ की एक पंक्तियाँ चेतावनी देती हुई महसूस होती हैं और इतिहास में स्थित कौसल जैसा गणराज्य वर्तमान सत्ता का प्रतीक बन जाता है। कवि कहता है–
कोसल अधिक दिन तक नहीं टिक सकता
कोसल में विचारों की कमी है
श्रीकान्त वर्मा ने अनेक कविताएँ ‘रास्ते की तलाश’ पर लिखी हैं। प्रश्न यह उठता है यह कौन-सा रास्ता है। रास्ते पर चलना और कहीं भी न पहुँच पाना यही मनुष्य़ की नियति है।
नालन्दा जाने वाले मित्रो
प्राय:/ यही होता है / बताए गए /
रास्ते / वहाँ नहीं जाते / जहाँ हम / पहुँचना चाहते हैं ?
इसी तरह उज्जयिनी को जाने वाले रास्तों की तलाश कवि की उन मूल्यों की तलाश है जो खो गए हैं। कवि कहता है—
मैं कल तक रास्ता दिखा रहा था
यह कहकर कि
सावधान। यह रास्ता उज्जयिनी को जाता है
मैं आज भी रास्ता दिखा रहा हूँ / यह कहकर कि
सावधान यह रास्ता उज्जयिनी को नहीं जाता
यह केवल मूल्यहीनता और रास्ते की तलाश नहीं है, बल्कि मूल्यों की संकटग्रस्तता ने कवि को गहरे नैतिक बोध का एहसास कराया है। इसीलिए कवि कहते हैं यह रास्ता, जो उज्जयिनी को जाता भी है, और नहीं भी, अर्थात राजनीति का ध्रुव व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षा का कारण बनता है और टूटन का भी। किन्तु विफलताओं के मध्य भी कवि रास्ते को खोजता है और कहता है ‘मित्रो, तीसरा / रास्ता भी है –मगर वह / मगध / अवन्ती / कोसल / विदर्भ / होकर नहीं / जाता’।
राजनीति से मोह भंग इस काव्य-संग्रह का मुख्य सरोकार है। पहले मोह भंग की प्रक्रिया बाहरी थी परन्तु अब वह भीतरी है। यहाँ पहुँचकर क्रोध और आक्रोश भयंकर मोह-भंग की मुद्रा में प्रकट हुए हैं। इसी मोह-भंग का परिणाम है कि श्रीकान्त वर्मा जैसा तीव्र स्वभाव वाला कवि अवसाद में डूबा नजर आता है। मोह-भंग से जुड़कर क्रोध, आवेग, आक्रोश, पश्चाताप का रूप इकहरा नहीं रह गया है– इसलिए वह सब एकाएक आकस्मिक रूप से फट नहीं पड़ता। धीरे-धीरे प्रकट होता है और फिर अनेक स्थलों पर प्रतिफलित होता है। श्रीकान्त वर्मा का मोह-भंग उनके स्व तक ही केन्द्रित नहीं है, बल्कि मोह-भंग को उन्होंने विराट परिप्रेक्ष्य में देखा है। समाप्त हो चुके विविध नगर राज्य–-हस्तिनापुर, उज्जयिनी, मगध, श्रावस्ती, कोसल, अवन्ती, मिथिला इसी मोह-भंग के मिथकीय पर्याय हैं। कवि इनके माध्यम से ऐतिहासिक मोह-भंग की पूरी दुनिया का पता देता है। मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी की त्रासदी को झेलते हुए श्रीकान्त वर्मा ने राजनीति में कदम रखा और अपने काव्य में राजनीति के साथ जिरह की। इसी क्रम में अपने जीवन और चिन्तन में भारतीय इतिहास से उत्पन्न विविध समस्याओं और प्रश्नों से जूझे और ऐतिहासिक मिथकीय नगरों तथा पात्रों द्वारा मनुष्य़ के अस्तित्व को प्रकट किया। मगध में विविध राजनीतिक प्रसंगों के यथार्थ को संयम और गम्भीरता से श्रीकान्त वर्मा ने देखा है तथा राजनीति के यथार्थ को मिथक के माध्यम से प्रकट किया है। उदाहरण के लिए काशी का न्याय कविता में कवि कहता है–
सभा बर्खास्त हो चुकी
सभासद चलें
जो होना था सो हुआ
अब हम मुँह क्यों लटकाए हुए हैं?
– फैसला हमने नहीं लिया – हमारा क्या दोष ?
न हम सभा बुलाते हैं
न फैसला सुनाते हैं
वर्ष में एक बार काशी जाते हैं –
सिर्फ यह कहने के लिए
कि सभा बुलाने की भी आवश्यकता नहीं
हर व्यक्ति का फैसला
जन्म से पहले हो चुका है
समकालीन मनुष्य की स्थिति और नियति को काशी की सभा के द्वारा कवि ने अभिव्यक्त किया है। खत्म होता हुआ लोकतन्त्र और उसके न रहने पर यह अहसास की यह फैसला किसी और ने लिया है ‘काशी के सभासदों’ के ब्याज से कवि वर्तमान राजनीति का आख्यान कर रहे है।
- मृत्युबोध और मगध
मगध की कई कविताएँ उस दौर की हैं, जब कवि हृदयाघात के बाद मृत्यु का सन्त्रास झेल रहा था। यह सत्य है कि मृत्यु से मुठभेड़ जीवन के प्रति दृष्टिकोण को परिवर्तित कर देती है। श्रीकान्त वर्मा की आक्रोश से भरी कविता यहाँ पहुँचकर गम्भीर हो जाती हैं। मगध में कवि इतिहास प्रसिद्ध नामों का स्मरण करते हुए उनकी नश्वरता की ओर इंगित करता है। मगध वस्तुत: वह गणराज्य है, जो सत्ता का केन्द्र रहा है, वैभवशाली रहा है, किन्तु आज वह कहीं भी नहीं है। उज्जयिनी, श्रावस्ती, मगध, काशी सभी की एक-सी नियति रही है। गहरे मृत्युबोध से उपजी जीवन की निस्सारता को व्यक्त करने वाली अनेक कविताएँ यहाँ पर हैं। मगध के लोग मृतकों की हड्डियाँ चुन रहे हैं। काशी में शव आते हैं और जाते हैं। कपिलवस्तु चिल्ला रहा है। बुद्धकालीन गणिका का स्वप्न भंग हो चुका है। काशी, आम्रपाली, कपिलवस्तु, कौशाम्बी यहाँ जीवन की निस्सारता के मिथक हैं। इन ऐतिहासिक मिथकीय स्थलों को आधार बनाकर श्रीकान्त वर्मा ने उन्हें नवीन अर्थवत्ता प्रदान की है। ‘मित्रो, / तुमने तो देखी है काशी,/ जहाँ, जिस रास्ते / जाता है शव उसी रास्ते / आता है शव /’ इस मृत्युबोध ने श्रीकान्त वर्मा की कविता को नई अर्थवत्ता प्रदान की है। मृत्यु को कवि ने भले ही जीवन और जिजीविषा की ओर से देखा है। मृत्युबोध, जिजीविषा और सम्भावना–-जीवन की नश्वरता कवि को एक नया बोध देती है। श्रीकान्त वर्मा के यहाँ एक सतत अन्तर्द्वन्द्व मिलता है। जिस राजनीति से उन्हें घृणा थी, वह उसी राजनीति का साथ देते रहे। किन्तु सतत एक अन्तर्द्वन्द्व को झेलते रहे। यही अन्तर्द्वन्द्व और गहराई मे जाकर मृत्यु के भय और जिजीविषा का संघर्ष है। इस भय का ठोस कारण भी था श्रीकान्त वर्मा को दो बार मृत्यु से जूझना पड़ा। जिसने उनके काल-सम्बन्धी चिन्तन को विशेष दिशा दी। जिसके फलस्वरूप श्रीकान्त वर्मा ने जरा, मरण, नियति, माया पर चिन्तन किया। कवि चिल्लाता कपिलवस्तु कविता में कहता है– उज्जययिनी, मगध, काशी, मिथिला सभी समाप्त हो चुके हैं। विदेह के शासन में अब सन्देह शासन करता है। विश्वामित्र वशिष्ठ कोई नहीं रहा। ‘चलना ही है तो कपिलवस्तु चलिए / जो जाता है कपिलवस्तु / लौटकर नहीं आता / जो नहीं जाता कपिलवस्तु /जीवन गुजारता है कपिलवस्तु / कपिलवस्तु चिल्लाता’।‘कपिलवस्तु’ जीवन की उस निस्सारता को परिभाषित करता है, जिसे बुद्ध ने महसूस किया था। श्रीकान्त वर्मा का कहना था “मृत्यु जीवन का अन्त नहीं,बल्कि साथ-साथ चलती समानान्तर धारा है।आदमी केवल जीवन नहीं जीता वह मृत्य भी जीता है।दूसरे शब्दों में आदमी जीवन भर मरता है”।(अपोलो का रथ)मृत्यु की भयावहता का अनुभव श्रीकान्त वर्मा ने व्यक्तिगत स्तर पर किया था।किन्तु उन्होंने इस बोध को व्यापक स्तर पर रखकर देखा है। श्रीकान्त वर्मा अपनी डायरी में लिखते हैं “अशोक,चन्द्रगुप्त, बिम्बिसार,वसन्तसेना,आम्रपाली,कलिंग,कौशल,चम्पा,श्रावस्ती,अवन्ती, उज्जयिनी,कपिलवस्तु उन जालों की तरह हैं जिन्हें काल ने ही रचा और तोड़ दिया,अब केवल स्मृति ही है। उन ऐतिहासिक पात्रों और स्थलों के माध्यम से जीवन और मृत्यु की स्थायी स्थितियों को परिभाषित किया है, जो अब सत्ता और महत्त्वाकांक्षा के मिथक बन चुके हैं। वर्तमान स्थितियाँ, ध्वंस और कटुता कवि को अतीत के खण्डहरों में ले गई हैं।ये मिथक हमें अनन्तता का बोध देते हैं।श्रीकान्त वर्मा ने हमें अपनी व्यक्ति नियति को वृहत्तर सांस्कृतिक–पौराणिक मिथकों के द्वारा परिभाषित, नियति बोध से जोड़कर देखने का प्रयत्न किया है।यह अनायास नहीं है कि मगध में ऐतिहासिक और मिथकीय दोनों तरह के पात्र आएँ हैं।भारतीय चिन्तन में मिथक और इतिहास अलग-अलग नहीं हैं, क्योंकि भारतीय चिन्तन में इतिहास ज्ञात तथ्यों को ही इतिहास नहीं माना गया अपितु पुराण और मिथक को भी इतिहास कहा गया है।ये दोनों तथ्य या तथ्य से परे ही नहीं हैं, बल्कि सम्पूर्ण जातीय अस्मिता को भी वहन करते हैंजिसका निर्माण मिथक और इतिहास दोनों के द्वारा होता है।श्रीकान्त वर्मा ने ऐतिहासिकता के समक्ष मिथक को रखा है, क्योंकि दोनों में अभिव्यक्त जातिगत विश्वास एक ही है। मिथक किसी कालखण्ड में निबद्ध नहीं होते वे सार्वकालिक होते हैं। लौकिक साक्ष्य रखते हुए भी कई इतिहास सम्मत कथाएँ मिथकाश्रित हो जाती है।श्रीकान्त वर्मा ने ऐतिहासिक पात्रों और मिथकों के माध्यम से समकालीन चेतना को सार्वकालिक बनाकर प्रस्तुत किया है। इसीलिए आधुनिक गणराज्य की विसंगतियों को उन्होंने ऐतिहासिक नगरों के माध्यम से प्रकट किया है।इन सबका अर्थ आधुनिक व्यक्ति के जीवन से उद्भूत है।मिथकीय पात्र यहाँ पर मूल्यान्धता की समस्या, व्यक्ति की अस्मिता,संशय की स्थितिराजनीतिक मूल्य विघटन, अलगाव,उपेक्षा का सन्त्रास और जीवन की विडम्बनाओं से युक्त मानव की प्रतिष्ठा की है।राजनीति की महत्त्वाकांक्षा का होना और उसका भंग होना ‘हस्तिनापुर’ के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ है।
सम्भव है
तो सोचो
हस्तिनापुर के बारे में
जिसके लिए
थोड़े-थोड़े अन्तराल में लड़ा जा रहा है महाभारत
और किसी को फर्क नहीं पड़ता
उस व्यक्ति को छोड़
जो आता है हस्तिनापुर
और कहता है नहीं, नहीं, यह हस्तिनापुर नहीं हो सकता
राजनीति के दबाव में पिसते व्यक्ति की छटपटाहट और उसकी चीत्कार को यह कविता अभिव्यक्त करती है। श्रीकान्त वर्मा ने 31 दिसम्बर 1984 की डायरी में लिखा– “छले जाने की अनुभूति तो होती ही है, इसलिए नहीं कि मुझे काम का पुरस्कार नहीं मिला, बल्कि इसलिए कि निकम्मों को निकम्मेपन का पुरस्कार मिला। हम इसी भ्रम में जीते चले जाते हैं कि स्वप्न हकीकत में बदलेगा, मगर ऐसा होता कभी नहीं। मेरा अनुभव सिर्फ इतना है, स्वप्न देखा, स्वप्रसंग भी देखा”। मगध की कविताएँ मिथकों के माध्यम से स्वप्न और स्वप्रसंग दोनों को सामने रखती हैं। श्रीकान्त वर्मा ने लिखा- “मेरी कविताएँ स्वप्न और स्वप्रसंग का, एक अजीबोगरीब, एक नाटकीय, एक जादुई मिलन हैं। सत्ता के केन्द्र मे बने रहना श्रीकान्त वर्मा की महत्त्वाकांक्षा थी, किन्तु परिस्थितिवश वे केन्द्र से हाशिए पर आ गए। यही मोह-भंग मगध की अनेक कविताओं में परिलक्षित किया जा सकता है।
- समकालीन राजनीतिक यथार्थ और मगध के मिथकीय प्रयोग
समकालीन मनुष्य की स्थिति और नियति को ये कविताएँ गहराई के साथ व्यक्त करती हैं जिनमें ऋग्वेद, उपनिषद, गीता की अनेक अनुगूँजें सुनाई देती हैं।
मिथकीय चेतना उन चीजों को व्यक्त करती है, जिनका एक समय और स्थान पर होना अविश्वसनीय लग सकता है। कवि जब कहते हैं ‘यह वह मगध नहीं / तुमने जिसे पढ़ा है / किताबों में, / यह वह मगध है / जिसे तुम / मेरी तरह गँवा चुके हो’। तब गणराज्य का स्वप्न और उसे खोने की पीड़ा सघन होकर पाठक के मन में उतर जाती है। मगध के मिथक में निहित देशकालातीत राग-तत्व अर्थात गणराज्य के सत्य तक पहुँचकर कवि अपने समय के सत्य को अभिव्यक्त करता है। सभी पुरातन विशाल राज्य यहाँ पर राजनीति की दिशाहीनता और रास्ते की तलाश बनकर आए हैं। श्रीकान्त वर्मा ने जिन मिथकों को लिया है, वे मानव पीड़ा के वाहक हैं। उनके काव्य में देवीकथा की भाँति मिथक मनोरंजन नहीं करते, बल्कि उस विवेक का परिचय देते हैं, जो जानता है इनका विकल्प और कोई नहीं है। बुद्धकालीन गणिका का स्वप्नभंग कविता में श्रीकान्त वर्मा ने गणिका के वर्तमान में सौन्दर्य और वृद्धावस्था में होने वाले सौन्दर्य के विरूपीकरण के माध्यम से मनुष्य जीवन के सत्य का आख्यान कहा है। रोहिताश्व कविता अस्तित्व के प्रश्न को तीव्रता के साथ प्रस्तुत करती है। मनुष्य के अस्तित्व पर चलने वाली बहस यहाँ निरन्तर दिखाई देती है इसीलिए “हँसते हैं / काशी के पण्डित अवन्ती के ज्ञान पर / अवन्ती के लोग काशी के अनुमान पर /” मनुष्य के अस्तित्व की सार्थकता और निरर्थकता पर बहस करते लोग एक-दूसरे को मूर्ख समझते हैं। इसी तरह जड़ कविता में कवि प्रश्न करता है– ‘चुप क्यों हो मित्रों / मृणाल पाँडे ने दिनमान में लिखे एक लेख में कहा “कभी भय तो कभी घृणा, कभी करूणा तो कभी विषाद से भरी एकालापी बड़बड़ाहट, भी धीमे-धीमे हमारे भीतर इन ऐतिहासिक रूपकों की मार्फत कहीं एक विषादमय निस्संगता को जन्म देती है। जिसके ऊपर यह रहस्यमय काल लगातार एक खूँखार पैनी नजर वाली चील की तरह चक्राकार गति से मँडराता है। मगध काव्य संग्रह में श्रीकान्त वर्मा ने इतिहास तथा भूगोल की सीमाओं का अतिक्रमण कर प्रतीकों की योजना की है और गहरे आन्तरिक संगठन तथा युग सन्दर्भ की दृष्टि से व्यापक स्तर पर सम्वेदना को सार्थक किया है। रमेश चन्द्र शाह के अनुसार मूल्यों के विघटन को प्रस्तुत करने के लिए ही कवि को दूरबीनी कविताएँ रचनी पड़ी हैं। स्वयं श्रीकान्त वर्मा के शब्दों में ‘बीसवीं शताब्दी की दुनिया में इतना आग और धुआँ है कि उसे नंगी आँखों से देख पाना सम्भव नहीं। (अपोलो का रथ, पृ.87)
- निष्कर्ष
मगध एक ऐसा काव्य संग्रह है जिसमें मिथक और यथार्थ का अद्भुत सम्मिलन दिखाई पड़ता है। श्रीकान्त वर्मा अपने समय और परिस्थियों से गहरे सरोकार रखने वाले कवि हैं। अपने समकालीन यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने इतिहास को मिथकीय स्वरूप प्रदान किया है। इतिहास की मिथकीय चेतना यहाँ समकालीन यथार्थ को व्यक्त करने की युक्ति भर ही नहीं है, बल्कि कवि ने उसके माध्यम से अपने सम्पूर्ण राजनीतिक परिवेश को सार्थक किया है। युग-बोध, परम्परा और युग सत्य को एक साथ सन्निविष्ट करते हुए श्रीकान्त वर्मा ने मिथक और इतिहास के माध्यम से ऐसे संसार की कल्पना की है जहाँ अनन्तता सहज लगती है और कवि की जूझती अस्मिता ‘स्व’ से उपर उठकर ‘सह’ के साथ तादात्म्य स्थापित करती है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें–
- मगध, श्रीकान्त वर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- आधुनिक कविता का इतिहास, नन्दकिशोर नवल, भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली
- आधुनिक कविता युग और सन्दर्भ, शिवकुमार मिश्र, स्वराज प्रकाशन दिल्ली
- कविता से साक्षात्कार, मलयज, सम्भावना प्रकाशन, हापुड.
- मिथकीय कल्पना और आधुनिक काव्य, डॉ, जगदीश प्रसादश्रीवास्तव, विश्वविद्यालयप्रकाशन, वाराणसी.
- शब्द और मनुष्य, परमानन्द श्रीवास्तव ,राजकमल प्रकाशन, दिल्ली.
- वागर्थ, रमेशचन्द्र शाह, सम्भावना प्रकाशन, हापुड़.
- श्रीकान्त वर्मा का रचना संसार, मिश्र ,प्रभात प्रकाशन दिल्ली.
- हिन्दी नई कविता-मिथक कविता ,अश्विनी पाराशर ,दीर्घा साहित्य संस्थान, दिल्ली
- आलोचना, अप्रैल 1954
- कलावार्ता : फरवरी – मार्च 1985
- दिनमान, अंक- 31 मार्च-3 अप्रैल 85
- पूर्वग्रह , अंक 63, 64, 66, 67
- समकालीन साहित्य, अंक : 36
वेब लिंक्स
- http://www.kavitakosh.org/kk/%E0%A4%AE%E0%A4%97%E0%A4%A7_/_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4_%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4_%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE
- http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=1569&pageno=1
- http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=1098&pageno=1
- http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=1574&pageno=1
- https://www.youtube.com/watch?v=2AUDJ4s4WEA
- https://www.youtube.com/watch?v=XGFN2UL7p7k