20 मगध की काव्य-भाषा
डॉ. अनिल शर्मा
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- काव्य-भाषा से तात्पर्य
- मगध की काव्य-भाषा
- 4.1 शब्द लाघव
- 4.2 भाषा में व्यंग्यात्मकता
- 4.3 प्रतीकात्मकता
- 4.4 बिम्ब-विधान
- 4.5 तुक-योजना
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन उपरान्त आप–
- काव्य-भाषा का तात्पर्य जान सकेंगे।
- श्रीकान्त वर्मा कृत मगध की काव्य-भाषा पर विचार कर सकेंगे।
- शब्द लाघव, व्यंग्यात्मकता, प्रतीकात्मकता, बिम्ब-विधान, तुक-योजना के आधार पर मगध की काव्य-भाषा से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
समकालीन हिन्दी कविता के दौर में भाषायी स्तर पर आने वाले बदलाव समाज की बदली हुई परिस्थितियों को दर्शाते हैं। समकालीन कविता में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक-द्वन्द्व, अधर्म, अन्याय, अलगाव आदि की अभिव्यक्ति भाषायी कौशल द्वारा हुई है। श्रीकान्त वर्मा ने यहाँ भाषा के नए-नए प्रयोग किए हैं। ऊपरी तौर पर सपाट दिखाई देने वाली उनकी भाषा अर्थगाम्भीर्य से पूर्ण है। सरल दिखाई देने वाले उनके शब्द वक्रोक्ति से भरे हुए हैं। मगध की भाषा की विशेषता है कि छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से कवि ने सम्भावनाओं के अनेक द्वार खोलकर पाठक के समक्ष रख दिया है। मगध काव्य संग्रह में संग्रहीत कविताओं की भाषा पर विचार करते हुए हम उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार करेंगे।
2. काव्य-भाषा से तात्पर्य
अभिव्यक्ति का प्रथम एवं प्रधान माध्यम भाषा होती है। भाव और विचार के अनुरूप कवि भाषा के शब्द-रूपों का प्रयोग करता है। प्रारम्भ से ही रस, छन्द, अलंकार से परिपूर्ण काव्य को भाषा की कसौटी पर परखा जाता है। आधुनिक काल के कवियों ने धीरे-धीरे काव्य-शास्त्रीय परम्परा के रूप में परिवर्तन किया। प्रयोगवाद, प्रगतिवाद, नई कविता, समकालीन कविता के दौर में काव्य-प्रवृत्तियों के बदलने से काव्य-भाषा एवं शिल्प में भी बदलाव आया। अनुभूति और कल्पना के समन्वय द्वारा समसामयिक विषयों पर काव्य-रचना की जाने लगी। काव्य-भाषा को लाक्षणिकता, बिम्ब-विधान, प्रतीकात्मकता, व्यंग्यात्मकता के साथ सीधे-सीधे जोड़ा गया। हर युग की अपनी भाषा संरचना होती है। कविता को काव्य-भाषा की कसौटी पर परखने के पैमाने अब बदल गए हैं। कविता जनसामान्य से निकलकर शब्दाकार ग्रहण करती है, और फिर जनसामान्य के बीच वापस चली जाती है। इसलिए इस युग की कविता की अभिव्यक्ति में सादगी है परन्तु इस सादगी में भी भाषा की वक्रता निहित है। आधुनिकता बोध से पूर्ण आधुनिक काव्य में काव्य-भाषा का नया रूप देखने को मिलता है। यही नया रूप श्रीकान्त वर्मा की काव्य-भाषा में भी है।
3. श्रीकान्त वर्मा कृत मगध की काव्य-भाषा
अपने युग के प्रति सजग रचनाकार इतिहास के उन पात्रों, घटनाओं एवं स्थलों को चुनता है जिनके माध्यम से वह युगीन समस्याओं को उजागर कर सके। श्रीकान्त वर्मा ने मगध में समकालीन सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था को उसकी विडम्बनाओं के साथ प्रस्तुत किया है। भावों और विचारों के अनुरूप बोलचाल के निकट की भाषा को उन्होंने कविता के लिए चुना है। बाहरी रूप में साधारण दिखाई देने वाली उनकी काव्य-भाषा असाधारण और गहन अर्थ ध्वनित करती दिखाई देती है। समकालीन कवियों में श्रीकान्त वर्मा का विशिष्ट स्थान है। प्रयोगशील कवि की भाँति इन्होंने केवल अनुभूति के स्तर पर ही नए-नए प्रयोग नहीं किए बल्कि अभिव्यक्ति के स्तर पर भी नए-नए प्रयोग किए हैं। श्रीकान्त वर्मा ने राजनीतिक चेतना के समग्र बोध को चित्रित किया है। शिल्प की दृष्टि से उन्होंने भाषा में अनूठे प्रयोग किए हैं। बिम्ब, दृश्य, प्रतीक, शब्द लाघव द्वारा उन्होंने काव्य-परम्परा और प्रयोग को नया आयाम दिया है। उनकी भाषा में कहीं-कहीं लक्षित आक्रामकता और तीखापन उनके भाषा-प्रयोग का हिस्सा है।
3.1. शब्द लाघव
मगध काव्य-संग्रह छप्पन छोटी कविताओं का संग्रह है। थोड़े शब्दों के जरिये कवि ने गहन अर्थ को अभिव्यक्ति दी है। बोल-चाल की सरल भाषा में लिखी गई मगध की कविताएँ अर्थ गाम्भीर्य की दृष्टि से गहरी संवेदना लिए हुए हैं। कविता की सालगिरह सबसे छोटी कविता है, जिसमें केवल नौ शब्द हैं।
जो लिखा, व्यर्थ था
जो नहीं लिखा,
अनर्थ था
साधारण-सी दिखाई देने वाली इस कविता में कवि-हृदय की गहरी टीस दिखाई देती है। यह टीस हाथ से कहीं कुछ हाथ से छूट जाने की है, कहीं लिखे गए की पहचान बनाने की है।
कृपा है, महाकाल की छोटी कविता में कवि ने नए मानवीय मूल्यों के साथ सामाजिक बदलाव महसूस किया है। वे स्पष्ट कहते हैं कि प्रत्येक राज्य अपने को अन्य से बेहतर समझता है। बेहतर होने का अर्थ है, सबसे श्रेष्ठ होना। अधूरे होने का अर्थ हर व्यक्ति अपनी सुविधानुसार लगाता है। किसी के लिए वह पूरे होने के समान है और किसी के लिए आधा होना, उसी प्रकार अधूरा है, जिस प्रकार पूरा होने पर भी निरर्थक होना। शब्द लाघव के जरिये ऐसी गहन संवेदना उनके काव्य की विशेषता है।
मगध उस व्यवस्था का प्रतीक है, जिसमें शान्ति है। उसकी शान्ति भंग करने का दुस्साहस अब कोई नहीं करेगा। कवि चिन्तित हैं, यह सोचकर कि अवन्ती, कोसल और विदर्भ में अब शासक नहीं रहे। इस एक पंक्ति में उस शासनव्यवस्था का पूरा चरमराता ढाँचा हमारे समक्ष उपस्थित हो जाता है। ऐसा भी नहीं है कि वह नगर अब शासकविहीन हो गया है। बल्कि अब वहाँ के शासक इस लायक नहीं रहे कि उन्हें शासक कहा जाए। ‘कोसल में विचारों की कमी है’ अकेली यह एक पंक्ति अव्यवस्था के प्रति गहरे अवसाद के स्वर को उजागर करती है। विचार ही व्यक्ति को बौद्धिक बनाते हैं। जिस राज्य में विचारों की कमी हो, वहाँ सुशासन की बात करना व्यर्थ है।
मगध की कविताओं में ऐसे अनेक शब्द हैं, जो दिखने में तो छोटे और सरल हैं, परन्तु उनके भीतर छिपे अर्थ कवि हृदय का रोष, निराशा, सन्त्रास व्यक्त करते हैं। ऐसे शब्द हैं– जड़, नियम, हस्तक्षेप, सद्गति, मायामृग प्रमाण, सदमा आदि। ये शब्द श्रीकान्त वर्मा ने कविताओं के शीर्षक के लिए चुने हैं। इन शब्दों का प्रयोग जन-साधरण द्वारा कई बार किया जाता है, परन्तु कवि ने विशिष्ट सन्दर्भों में इन शब्दों का प्रयोग किया है। ये विशिष्ट सन्दर्भ हैं समकालीन परिस्थितियों से जुड़ी विसंगतियों के। यहाँ विषय-वस्तु के अनुरूप काव्य-भाषा गढ़ी गई है। शब्द-लाघव के जरिये काव्य-क्षेत्र में अपनी बात कहना उपन्यास, नाटक या अन्य किसी साहित्यिक विधा की अपेक्षा कठिन कार्य है। न्यूनतम शब्दों का प्रयोग कर कवि ने जिस काव्य-सौन्दर्य के साथ अपने विचार अभिव्यक्त किए हैं, वह श्रीकान्त वर्मा ही कर सकते हैं।
3.2. भाषा में व्यंग्यात्मकता
‘व्यंग्य’ शब्द अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुए है। आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, व्यवस्था-अव्यवस्था, जीवन-मृत्यु न जाने कितने ही विषयों पर कवि ने इस काव्य-संग्रह में व्यंग्यात्मक ढंग से अपनी बात रखी है। मगध में समकालीन राजनीति का स्वर प्रमुख है। इतिहास के जरिये कवि ने अपने विचारों को वाणी दी है। इतिहास का उन्होंने पूर्ण ऐतिहासिक रूप में प्रयोग नहीं किया है। अतीत को कवि एक प्रेरणास्रोत के रूप में देखते हैं। स्वातन्त्र्योत्तर भारत की जो तस्वीर एक कवि होने के नाते श्रीकान्त वर्मा को नजर आती है, वह साधारण-सी दिखाई देने वाली आम जनता को नहीं। या नजर भी आती है तो सब कहने का साहस नहीं जुटा पाते। कवि ने बेखौफ होकर, व्यवस्था और समाज के भय से मुक्त होकर, अपनी बात रखी है। बात अव्यवस्था की हो, विसंगति की हो और उसमें व्यंग्यात्मकता न हो, ऐसा असम्भव है। कवि ने आरम्भ में ही व्यंग्य भरे शब्दों में कहा है–
हमारा क्या दोष?
न हम सभा बुलाते हैं
न फैसला सुनाते हैं
वर्ष में एक बार
काशी आते हैं –
सिर्फ यह कहने के लिए
कि सभा बुलाने की भी आवश्यकता नहीं
हर व्यक्ति का फैसला
जन्म के पहले हो चुका है।
कवि ने व्यंग्यात्मक ढंग से उन सभाओं और उनमें लिए जाने वाले फैसलों के प्रति तीखा रुख अपनाया है। जनता यहाँ मूक दर्शक से बढ़कर कुछ नहीं है। यह फैसला लिया नहीं, थोपा जाता है। इस फैसले को कवि ने पूर्व निर्धारित माना है, क्योंकि हैरानी की बात यह है कि यह फैसला जन्म से पहले ही हो चुका है। सभासद फैसला थोपकर चले जाते हैं और जनता मूक दर्शक बनी मुँह लटकाए रह जाती है। लोकतन्त्र, प्रजातन्त्र जैसे शब्दों के अर्थ और पैमाने ही बदल गए हैं। इतना ही नहीं लोग न्याय-अन्याय की परिभाषा भूल चुके हैं। चिल्लाता कपिलवस्तु में श्रीकान्त वर्मा ने फिर व्यंग्य के जरिये अपनी बात कही है। उज्जयिनी में न्याय की सोच रखने का कोई फायदा नहीं हैं। कवि की नजर में तो अब उज्जयिनी इस लायक ही नहीं रही कि उस पर शासन किया जाए। किसी में न दया है न हया। इन्सानियत दम तोड़ चुकी है। लोग स्वार्थी हो गए हैं। मगध में भी ठीक ऐसा ही है। वहाँ न कोई ताकतवर है, न कोई कमजोर। काशी की स्थिति तो इससे भी बदतर है। यहाँ जीवित और मृत के बीच का अन्तर भुलाकर मानवता की हत्या हो चुकी है। कपिलवस्तु के लिए चिल्लाना वास्तव में उस सुख की कल्पना के लिए चिल्लाना है, जहाँ मनुष्य को मनुष्य समझा जाए। वहाँ इन्सानियत जिन्दा हो और लोग भले-बुरे के बीच का अन्तर समझते हों। मिथिला क्यों नहीं कविता के माध्यम से शासकों पर उनके कर्तव्यबोध को लेकर व्यंग्य कसा गया है। ये ऐसे शासक हैं जो राज्य में कवि, गायक, मूर्तिकार के न होने से चिन्तित हैं। यहाँ व्यंग्यात्मक स्वर में यह बताने का प्रयास किया गया है कि एक राज्य में इन तीनों के बगैर तो काम चल सकता है; परन्तु सम्पत्ति, सेना और मन्त्रिपरिषद् के बिना काम नहीं चल सकता है। इन तीनों से मिलकर एक राज्य सुदृढ़ बनता है। उसकी नींव मजबूत होती है। इसलिए शासक को केवल भोग-विलास के सुख-साधनों के विषय में न सोचकर, समग्र राज्य के सुख के लिए चिन्तित होना चाहिए। यह चिन्ता केवल राजा की नहीं, उसके राज्याधिकारियों की भी होनी चाहिए। धर्म की मर्यादा अगर भुला दी जाती है, तो केवल विनाश होता है जैसा हस्तिनापुर में महाभारत के रूप में हुआ।
हस्तिनापुर में सुनने का रिवाज नहीं –
जो सुनते हैं
बहरे हैं या
अनसुनी करने के लिए
नियुक्त किए गए हैं।
यहाँ उस पूरी भ्रष्ट व्यवस्था पर व्यंग्य कसा गया है जहाँ केवल अन्धे, गूँगे, बहरे लोग हैं। उन्हें देखने, कहने, सुनने का अधिकार नहीं है। किसी को नियुक्त किया जाता है, तो रक्षा करने के लिए, परन्तु यहाँ अनसुनी करने के लिए नियुक्त किया गया है। कवि ने तीखे शब्दों में ऐसी शासन-अव्यवस्था पर व्यंग्य से प्रहार किया है। यह केवल हस्तिनापुर, उज्जयिनी या मिथिला की समस्या नहीं बल्कि आज के भारतीय समाज की भी है। जनता के सुख-दुःख की अनदेखी करना शासन-व्यवस्था का अनिवार्य अंग बन गया है। राजनीतिक मोहभंग से उत्पन्न क्षोभ और निराशा यहीं समाप्त नहीं होती है। शासक को खुश करने वाले चापलूसों के विरुद्ध भी कवि-हृदय में तीखा रोष है। रोष इसलिए क्योंकि यही वर्ग प्रजा के सुखी होने की झूठी खबर शासक तक पहुँचाता है। राजा सुनी-सुनाई बात पर विश्वास भी कर लेता है।
महाराज, बिना कहे कोई
किस तरह
सुखी रह सकता है
सोचा है आपने?
एक-एक शब्द में तीखा व्यंग्य छिपा है। सीधे शासक से सम्वाद किया गया है कि कोई बिना कुछ कहे भी सुखी रह सकता है, अर्थात् जहाँ जनता को बोलने का, कुछ कहने का अधिकार नहीं वहाँ कोई सुखी कैसे रह सकता है? जब व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बाधित होती है, तो वह चेतन से जड़ हो जाता है। और जड़ का सुखी या दुःखी होना कोई मायने नहीं रखता है। चारों तरफ यही भ्रम है कि प्रजा सुखी है। एक झूठ के बल पर शासक खुशफहमी में जीता है।
जो शासक मदिरा, प्रमाद, आलस्य में घिरे हैं; कवि ने तीखे शब्दों में उनकी कटु आलोचना की है। ऐसे शासकों का होना न होना बराबर है। शासक के न होने का अर्थ है, धर्म का न होना; कानून व्यवस्था का न होना। ऐसे शासकों के अधीन होकर नगर भी अपने वजूद के लिए चिन्तित है। इतिहास को कवि ने प्रसंगानुकूल बनाकर अनेक मौलिक परिवर्तन किए हैं। विरोधी परिस्थितियों में पात्रों, स्थलों और घटनाओं का संघर्ष दिखाते हुए सही मार्ग खोजने का प्रयास दिखाया है। यह मार्ग खोजना दरअसल उस व्यक्ति का मार्ग खोजना है जो इस भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा है। इन विचारों की अभिव्यक्ति कवि ने सीधी-सपाट किन्तु तीखे तेवर वाली व्यंग्यात्मक भाषा में की है।
श्रीकान्त वर्मा ने उन नगरों की पीड़ा को भी व्यंग्यात्मक स्वर में उभारा है जिनका वजूद अब न के बराबर रह गया है। ऐसे नगरों की रखवाली के लिए सैनिक भी तैनात हैं वे सुरक्षा के उद्देश्य से दुर्ग के इधर-उधर चक्कर भी लगा रहे हैं। यहाँ व्यंग्य उस व्यवस्था के प्रति है जिसमें जिन्हें सुरक्षित रखा जाना चाहिए वहाँ उनकी सुरक्षा के लिए कोई नहीं है। जहाँ सुरक्षित रखने के लिए कुछ भी नहीं बचा वहाँ सिपाही घूम-घूमकर सुरक्षा दे रहे हैं। ये व्यंग्य ठीक उसी प्रकार हैं। जिस प्रकार अन्धायुग में सूने गलियारों में सैनिक तैनात है। जहाँ रक्षा के लिए अब कोई नहीं बचा। तक्षशिला एक नगर है, जो अपने उजड़ने पर पछता रहा है। कवि ने मानवता के उजड़ने का दर्द महसूस किया है। उन नगरों के उजड़ने का दर्द भी करीब से महसूस किया है। जर्जर, निस्सहाय दिखने वाली तक्षशिला प्रश्न करती है कि अगर मुझे उजाड़ना ही था तो मुझे रचा क्यों गया? उस समाज के प्रति उस शासन के प्रति यह कितना तीखा व्यंग्य है, जो अपने नगर की रक्षा करने लायक भी नहीं है।
सिर्फ एक ठोंका
रह-रह कर
चिल्लाता है
किसने मुझे
रचा है
यह न सुरक्षित होने का दर्द समकालीन भारत में भी है। आज भी वह दर्द डर के रूप में, किसी-न-किसी विडम्बनापूर्ण विसंगति के रूप में, भारत की सुख-शान्ति को आहत कर रहा है? कवि ने राजनीतिक जीवन व अव्यवस्था से उत्पन्न विसंगतियों का उपहास उड़ाया है। इससे पाठकों को समस्याओं पर गम्भीरता से विचार करने के लिए एक नई दृष्टि, नया नजरिया मिला है। व्यंग्यात्मक भाषा द्वारा मगध में प्रशासनिक, राजनीतिक, धार्मिक विषयों को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया गया है।
3.3 प्रतीकात्मकता
मगध की कविताएँ ऐतिहासिक परिवेश से जुड़कर भी समय और समाज से सीधे सम्वाद करती दिखाई देती हैं। समकालीन विसंगतियों एवं विडम्बनाओं को यहाँ केवल तीव्र प्रखरता से उद्घाटित ही नहीं किया गया, बल्कि मनुष्य को उन विसंगतियों और विडम्बनाओं से निजात दिलाने का भी प्रयास किया गया है। वैज्ञानिक, तकनीकी युग में भाववाद का स्थान बुद्धिवाद ने ले लिया है। ऐसे में अतीत की ओर जाकर एक सुखद भविष्य की कामना का स्वप्न देखा गया है। कवि ने ऐतिहासिक मिथक को लेकर प्रतीकात्मक और सांकेतिक रूप में भी अपने विचार प्रकट किए हैं। प्रतीकों का सीधा सम्बन्ध मनुष्य से है, जो सांकेतिक रूप में युगीन समस्याओं को उद्घाटित करते हैं। मगध पूर्णतः मिथकीय और प्रतीकात्मक काव्य नहीं है। किसी भी लेखक या कवि की सबसे बड़ी विशिष्टता यह होती है कि वह लक्षित परिवेश की गहराई से उतरकर समकालीन समस्याओं को उद्घाटित करने में समर्थ हो। श्रीकान्त वर्मा ऐसे ही कवि हैं। कवि ने इतिहास से उन नगरों के नामों को प्रतीकात्मक रूप में लिया है, जो कभी अपनी विशिष्ट पहचान रखते थे पर, आज उनका पूरा भूगोल बदल गया है। तक्षशिला, अवन्ती, मगध, मथुरा, मिथिला, उज्जयिनी, नालन्दा, अमरावती ऐसे ही नगर हैं, जिनके दर्द को प्रतीकात्मक रूप में व्यक्त किया गया है। आज ये नगर अपने वजूद को तलाशते नजर आ रहे हैं। जहाँ कभी प्रेम व सौहार्दपूर्ण वातावरण हुआ करता था। उनके अस्तित्व के कहीं खो जाने की पीड़ा स्वयं कवि ने अनुभूत की है। आज ये नगर सूने हैं, लाचार हो गए हैं। यहाँ केवल भोग-विलास का वातावरण है। कोई और अमरावती में कवि ने इस दर्द को भोगते हुए प्रतीकात्मक स्वर में लिखा है–
इसके लिए कोई लड़ने को तैयार नहीं
कोई नहीं चिल्लाता
दाँव पर लगा दिया
मैंने स्वयं को
अमरावती के लिए।
प्रतीक रूप में आज भारत की यही स्थिति है। इसकी रक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने वाले न तो कोई नेता हैं, न राज्याधिकारी। वोट की राजनीति की जाती है। अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग जैसा राजनीतिक वातावरण हो गया है। यह देखने-सुनने में जितना अटपटा लगता है, उससे कहीं ज्यादा उसकी अनुभूति लगती है। ‘कोसल मेरी कल्पना में एक गणराज्य है’ कहने के पीछे कवि का विशिष्ट प्रयोजन है। स्वातन्त्र्योत्तर भारत में भी भारतवासियों ने एक सुखद गणराज्य की कल्पना की थी, परन्तु वह कल्पना कल्पना ही रह गई। देश स्वतन्त्र जरूर हुआ, परन्तु मुक्त नहीं हो सका। भारत का अपना गौरवान्वित इतिहास रहा है। उसी इतिहास को प्रतीकात्मक रूप में कवि ने पाठकों के समक्ष रखा। नागरिकों का जुआ खेलना, ऊँघना, पुलकित न होना, उनकी निराशा, हताशा और सन्त्रास को दर्शाता है। जहाँ चारों ओर अव्यवस्था का माहौल है वहाँ की स्थिति को कवि ने प्रतीकात्मक रूप में अभिव्यक्त किया है।
कोसल में विचारों की कमी कविता में ‘विचार’ शब्द का प्रतीकात्मक प्रयोग किया गया है। विचारहीन होने का अर्थ है मनुष्य का क्रियाशील न रहना। शासन-व्यवस्था में तालमेल का अभाव है। संगठनहीनता की स्थिति में विचारों की बात हास्यास्पद लगती है। वसन्तसेना में ‘सीढ़ियाँ’ ऊपर और नीचे जाने का प्रतीक हैं। ‘सीढ़ियाँ’ शब्द केवल उन सीढ़ियों के लिए प्रयोग में नहीं लाया गया जो मकान में नीचे से छत या ऊपर तक ले जाने का काम करती हैं, बल्कि ये सीढ़ियाँ उन्नति और अवनति, मान-अपमान, हार-जीत, आशा-निराशा और सबसे महत्त्वपूर्ण जय-पराजय की प्रतीक हैं। ‘बालू’ प्रतीक है उनका जो अपने समक्ष किसी को ठहरने नहीं देते। बालू की तरह जो अपने में समेट लेते हैं। ‘रास्ता’ शब्द मगध में कई कविताओं में प्रयुक्त हुआ है। कवि ने कई जगह कहा है कि मगध, हस्तिनापुर, कौशाम्बी, उज्जयिनी जाने वाले रास्ते अब वहाँ नहीं जाते। इसका अर्थ आधुनिक समय में यह नहीं कि अब वहाँ जाने के मार्ग परिवर्तित हो गए हैं, बल्कि प्रतीक रूप में अर्थ यह है कि अब ये नगर वैसे नहीं रहे जिस रूप में कभी इनकी पहचान हुआ करती थी। समकालीन भारत में जिस घोर निराशा को जनमानस झेल रहा था, कहीं न कहीं ये रास्ते उनकी स्थिति को भी उजागर कर रहे हैं। कवि स्पष्ट कहता है कि यह वह मगध नहीं जिसे तुमने किताबों में पढ़ाया। यह वह मगध है जिसे तुम मेरी तरह गँवा चुके हो। प्रतीकात्मक रूप में यह संकेत मगध के जरिये सीधे समकालीन भारत की ओर इशारा करता नजर आता है।
प्रतीकात्मक रूप में इतिहास सृजनात्मक ढंग से कवि की कविताओं का हिस्सा बना है। ये कविताएँ समग्र रूप से प्रतीकात्मक नहीं हैं। मगध की काव्य-भाषा की यह विशेषता है कि इसमें मौलिक प्रयास करके कवि ने कई रंग भरे हैं।
3.4. बिम्ब-विधान
बिम्ब का सीधा सम्बन्ध मानस-पटल से है। किसी भी वस्तु को देखने, सुनने के बाद मनुष्य के हृदय में, उसके मस्तिष्क पर उसका एक बिम्ब-सा उभर जाता है। बिम्ब का उद्देश्य केवल चाक्षुष दृश्य उपस्थित करना नहीं है वरन् अनुभूति के स्तर पर सजीवता प्रदान करना भी है। श्रीकान्त वर्मा ने भाव, चित्रात्मकता और उपयुक्त शब्द चयन के सामन्जस्य द्वारा मगध में बिम्ब को प्रभावोत्पादक ढंग से प्रयुक्त किया है। सदमा कविता में कवि ने दर्पण और अपने ‘आप के’ टूटने की बात कही है। समय के साथ-साथ दोनों बिखर गए। अन्धकार में पूर्णिमा के चाँद ने कुछ झीनी-सी रोशनी दिखाई। चारो ओर पसरे सन्नाटे में जैसे सब कुछ खामोश हो गया है।
पूर्णिमा थी। चन्द्रमा था। / दर्पण था। / दर्पण पर / हूबहू / चन्द्रमा-सा था / चन्द्रमा का / अक्स / देर तक / टिकने के बाद / खिसकता हुआ / चन्द्रमा / चौखट के / बाहर / जा चुका / था।
कल्पना और बिम्ब का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। कवि ने प्रकृति को इस रूप में दर्शाया है कि चन्द्रमा का दरवाजे से बाहर जाने का बिम्ब कल्पित हो जाता है।
बुद्धकालीन गणिका का स्वप्न भंग में बिम्ब-प्रयोग द्वारा सजीव चित्रात्मक वर्णन किया गया है।
हाथ फेरते ही ठनकते हैं, / स्तन / नाभि से उठती है, सुगन्ध / जंघा पर / होते हैं सवार / केवल बलिष्ठ / उतारते हैं / नदी में अश्व / … मालती, / कल यह नहीं होगा / पीव में / भरे होंगे / स्तन, / जंघाएँ / स्मारकों की तरह / टूटी पड़ी होगी।
मगध में जिन काव्य-बिम्बों के सहारे कवि ने अपने भावों-विचारों को अनुभूति की तीव्रता के साथ व्यक्त किया है, वे मानवीय-संवेदना को गहराई तक स्पर्श करते हैं। ये बिम्ब चाक्षुष बिम्ब के साथ-साथ अनुभूतिपरक बिम्ब भी हैं। बिम्ब भाषा की चित्रशक्ति के रूप में कार्य करते हैं। अमूर्त्त संवेदनाओं को मूर्त्त करने का कार्य बिम्ब द्वारा भली-भाँति हो जाता है। छाया’ कविता में छाया के सम्बन्ध में जिस काव्य-बिम्ब के जरिये कवि ने अपनी बात कही है, वह किसी शब्द-चमत्कार से कम नहीं है।
मैंने रौंदा / कराही / बुलाया / शरमाई / डपटा / पिण्डलियों से / लिपट गई / कहा / पीछा छोड़ो / ठिठकी।
पढ़ते-पढ़ते पूरा चित्र आँखों के समक्ष आ जाता है। एक-एक शब्द के साथ तादात्म्य स्थापित कर कवि की दिखाई गई दुनिया में हम प्रवेश कर जाते हैं। विचार प्रधान इस काव्य-भाषा की एक विशेषता यह भी है कि कवि ने जहाँ जरूरत पड़ी, वहाँ अपने विचारों को सीमित दायरे में बिम्ब द्वारा सम्प्रेषित भी किया है।
5 तुक-योजना
ध्वन्यात्मक समानता ही काव्य-शास्त्रीय सन्दर्भ में तुक-योजना कहलाती है। मगध की कविताओं में वैसी तुकबन्दी देखने को नहीं मिलती, जैसी अन्य कवियों के काव्य में। श्रीकान्त वर्मा अपने युग के ऐसे कवि हैं, जिन्होंने न केवल अनुभूति के स्तर पर नए-नए प्रयोग किए, अपितु अभिव्यक्ति के स्तर पर भी नवीन प्रयोग किए हैं। इन्होंने तुक-योजना के परम्परागत रूप को नहीं अपनाया, बल्कि शब्दों की तुकबन्दी से ज्यादा अनुभूति और अभिव्यक्ति की तुकबन्दी इनके काव्य में दिखाई देती है। फिर भी कुछ कविताओं में तुक-योजना बीच-बीच में नजर आती है। परन्तु इनकी कविताओं की विशिष्टता यह है कि सपाटबयानी के बीच में कुछ क्षण के लिए कवि तुक-योजना के द्वारा चमत्कार उत्पन्न कर देते हैं।
जो आता है।
दुःख पाता है
जो जाता है
दुःख जाता है
ऐसी ही तुक-योजना लिच्छवि कविता में देखने को मिलती है –
हाट सजेंगे
बोली होगी
भिक्षा होगी
भिक्षुक होंगे
इच्छा होगी
इच्छुक होंगे
श्रीकान्त वर्मा ने जिस तुकयोजना का सहारा लिया है, वह उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम होने के साथ-साथ उनकी अनुभूति का अंग भी है। ये तुक वास्तव में उस सम्पूर्ण विडम्बना को उजागर करते हैं जिसके बारे में कवि थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कहना चाहता है। मगध की तुक-योजना में काव्य-तनाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जो भाव के स्तर पर तो है ही, अभिव्यक्ति के स्तर पर भी है। उन्नति-अवनति, अवसान-अभिमान, मढ़ेगा-गढे़गा, धर्म-शर्म ऐसे अनेक शब्द हैं, जिनकी तुक मिलती है। ये शब्द काव्य-पंक्तियों में तुकान्त रूप में नहीं आए हैं, बल्कि काव्य-पंक्तियों के बीच में आए हैं। लेकिन इतना तय है कि इनकी तुक-योजना द्वारा कवि ने पीड़ा, निराशा, अवसाद और उन अभिप्सित मूल्यों को स्वर प्रदान किया है, जो कवि हृदय को उद्वेलित कर रहे हैं। बंधी-बंधाई लीक से हटकर की गई तुकबन्दी इन्हें समकालीन कवियों की एक विशिष्ट श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है।
काव्य-भाषा सम्बन्धी इन विशेषताओं के अतिरिक्त मगध की काव्य-भाषा से जुड़ी कई अन्य बातें भी हैं, जिन पर विचार करना आवश्यक है। पढ़ने में सरल और साधारण दिखाई देने वाली इन कविताओं में गहरी अर्थ-सम्भावनाएँ हैं। इतना ही नहीं, इन कविताओं में जो भाषावक्रता है, वह अपने आप में इसके काव्य-सौन्दर्य में चार चाँद लगाती है। काशी का न्याय, अवन्ती में अनाम आदि ऐसी कविताएँ हैं, जिनमें भाषा-वक्रता के उदाहरण देखे जा सकते हैं। कभी-कभी वे एक पाठ में सही अर्थ तक नहीं पहुँचने देते हैं, कभी-कभी कुछ कविताएँ अटपटी लगती हैं। परन्तु इसी भाषा-वक्रता के कारण इन्हें जितनी बार पढ़ी जाए, एक नए अर्थ, नई सम्भावना के द्वार खुलने लगते हैं।
श्रीकान्त वर्मा ने मगध की कई कविताओं में वैयक्तिक, आत्मपरक शैली अपनाई है। मगध को मेरी तरह गँवा चुके हो, मैं फिर कहता हूँ, धर्म नहीं रहेगा, तो कुछ नहीं रहेगा, मैं मगध का नहीं, अवन्ती का हूँ, यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता कि मैं घर आ पहुँचा, मैं बूढ़ा हो चुका लाठी पकड़ता… ऐसी अनेक पंक्तियाँ इस काव्य-संग्रह में हैं, जहाँ कवि सीधे-सीधे पाठकों के समक्ष अपने विचार रखते हैं। इतना ही नहीं मैं शैली में अपनी बात कहकर जिन विसंगतियों, मोहभंग, स्वप्नभंग की बात कवि वैयक्तिक रूप में कहते हैं वह सब ऐसा लगता है, मानो स्वयं उनका भोगा हुआ संसार हो।
मगध की काव्य-भाषा की एक विशेषता यह भी है कि कवि केवल अपने विचार ही नहीं रखते, बल्कि अपने साथ-साथ पाठक वर्ग के मन-मस्तिष्क को भी आन्दोलित करते हैं। इन कविताओं में समय-समय पर प्रश्न किए गए हैं। फलस्वरूप विचार-मन्थन के लिए पाठक, कवि का सहयात्री बन जाता है। श्रीकान्त वर्मा इतिहास के सहारे समस्याएँ रखते हैं, उनकी वजह, उनके सूत्रधार…सबकी खबर पाठकों के समक्ष रखते हैं। काशी नगरी में बहते आते हुए शव देखकर कवि प्रश्न करते हैं– ‘पूछो तो, किसका है यह शव?’ मगध से कोसल जाते हुए भी कवि राहगीर को बार-बार सचेत करते हैं, कि वह तय कर ले कि उसे किस ओर जाना है। वे पूछते हैं ‘कोसल से होते हुए मगध जा रहे हो या मगध से होते हुए कोसल?’ अंतःपुर का विलाप में कवि चिन्ता व्यक्त करते हैं कि जब चारों ओर सब सलीके से रह रहे हैं, उत्कर्ष है, हर्ष है फिर ऐसा क्या हुआ कि वहाँ के लोग प्रलाप कर रहे हैं।
निष्कर्ष
मगध की कविताओं में सपाटबयानी के साथ-साथ भाषा की आक्रामकता, वक्रता, तीखापन भी है। नए ढंग का शिल्प इन कविताओं में देखने को मिलता है। तुक-योजना का प्रयोग कवि ने विडम्बना और विसंगति को उभारने के लिए किया है। अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए जिस प्रकार इतिहास का नए सन्दर्भों में, नए रूप में कवि ने प्रयोग किया है ठीक उसी प्रकार उन्होंने भाषा के नए प्रयोग द्वारा अपनी सृजनात्मक प्रतिभा को भी दर्शाया है।
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अतिरिक्त जानें पुस्तकें-
- मगध, श्रीकान्त वर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- मगध: संवेदना और समकालीनता, चंद्रशेखर रावल, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली
- श्रीकान्त वर्मा की कविता, श्रीकान्त वर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- बीसवीं शताब्दी के अँधेरे में, श्रीकान्त वर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- संचयिता: श्रीकान्त वर्मा, सम्पादक- उदयन वाजपेयी राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- मायादर्पण- श्रीकान्त वर्मा, सम्पादक- लक्ष्मीचंद्र जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी
- आधुनिक कविता का इतिहास, नंदकिशोर नवल, भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली, प्रथम
- आधुनिक कविता युग और सन्दर्भ, शिवकुमार मिश्र, स्वराज प्रकाशन दिल्ली
वेब लिंक्स
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- https://www.youtube.com/watch?v=XGFN2UL7p7k