21 राजकमल चौधरी की काव्य-दृष्टि
प्रो. देवशंकर नवीन
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- राजकमल चौधरी का रचना-सन्धान
- राजकमल चौधरी का सृजन-परिवेश
- अकविता आन्दोलन और राजकमल चौधरी
- कंकावती और राजकमल चौधरी
- दास कविता और राजकमल चौधरी की अन्य कविताएँ
- मुक्तिप्रसंग और राजकमल चौधरी
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- राजकमल चौधरी के प्रारम्भिक रचना-सन्धान की जानकारी हासिल सकेंगे।
- राजकमल चौधरी के सृजन-परिवेश का मूल स्वरूप समझ सकेंगे।
- अकविता आन्दोलन की पृष्ठभूमि समझ सकेंगे।
- अकविता आन्दोलन में राजकमल चौधरी के अवदान से परिचित होंगे।
- राजकमल चौधरी की तीन प्रसिद्ध काव्य-कृतियाँ कंकावती, दास कविता और मुक्तिप्रसंग का महत्त्व जान सकेंगे।
- प्रस्तावना
राजकमल चौधरी मोहभंग के दौर के कवि हैं। आजादी के तत्काल बाद से ही भारतीय जनमानस में स्वर्णिम भविष्य के सपने सजने लगे थे। आम नागरिक के हितैषी के रूप में स्वयं को जवाबदेह मानने वाले बुद्धिजीवियों को लगा कि नए लोकतन्त्र में आम जनता के दुखों का अन्त हो जाएगा। भूख, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजागरी जैसी समस्याओं का निवारण हो जाएगा। लेकिन भारत की आजादी के कुछ ही वर्ष पश्चात् स्वर्णिम भविष्य की आशा और सत्ता के प्रति आस्था टूटने लगी। समस्याएँ कम होने की जगह बढ़ने लगीं। परिवार, समाज, गाँव-शहर नई-नई परिस्थितियों से जूझने लगे। एक छोटी समस्या कई बड़ी-बड़ी समस्याओं की जननी होने लगी। आजाद भारत के रचनाकारों का आजादी से मोहभंग होने लगा। आजाद भारत की यह दुर्दशा उन्हें बेचैन करने लगीं। स्वातन्त्र्योत्तर काल के प्रखर कवि राजकमल चौधरी (सन् 1929-1967) का रचनाकर्म ऐसी ही बेचैन मन:स्थिति की परिणति है। राजनीति और अर्थतन्त्र के चक्रव्यूह में जकड़े आम जनता को देख मोहभंग के दौर के कवि बेचैन हो उठे थे। वे कविताओं के माध्यम से आम जनता की मुक्ति के लिए सत्ता पर आघात करते थे। राजकमल चौधरी का मानना था कि कविता अपनी सीमा और सुविधा के अनुसार आदमी को राजनीतिक और आर्थिक ढाँचे के व्यूह तोड़ने में मदद करती है। फलस्वरूप वे उक्त परिस्थितियों से जूझते नागरिक की मदद हेतु उस मिजाज की कविताएँ लिखने लगे। वे समाज एवं युग की अगुवाई के आग्रही थे। जनता को सही राह दिखाने का दायित्व रचनाकार का है–इस मान्यता के साथ उन्होंने नई दृष्टि के साहित्य-सृजन द्वारा जनता को सावधान करना शुरू कर दिया। इस पाठ में आजादी के बाद भारतीय जनजीवन की दशा को केन्द्र में रखकर रचना करनेवाले राजकमल चौधरी के रचनात्मक उद्देश्य पर विचार किया जाएगा।
- राजकमल चौधरी का रचना-सन्धान
हिन्दी में राजकमल चौधरी की रचनाएँ बीसवीं शताब्दी के पाँचवें दशक के पश्चभाग में तीक्ष्णता से प्रकाश में आने लगी थीं। उनकी पहली हिन्दी कविता (बरसात रात प्रभात) सितम्बर 1956 में नई धारा में, पहली हिन्दी कहानी (सती धनुकाइन) मार्च 1958 में कहानी में और पहला निबन्ध (भारतीय कला में सौन्दर्य-भावना) जून 1959 में ज्ञानोदय में प्रकाशित हुआ। मैथिली में सन् 1954 से ही उनकी रचनाएँ छपने लगी थीं। उनकी अप्रकाशित पाण्डुलिपियों के साक्ष्य से तय है कि सन् 1949-50 से ही वे गम्भीरतापूर्वक सृजन में सक्रिय थे। उनकी रचनाओं के प्रकाश में आने से पूर्व हिन्दी में दूसरा सप्तक प्रकाशित हो चुका था। नए पत्ते (1953) और नई कविता (1954) का प्रकाशन हो चुका था। नए पत्ते और आलोचना के कुछ अंकों में नई कविता की कुछेक मूल स्थापनाएँ दी जा चुकी थीं। कहा गया था कि कुण्ठा और वर्जना से विमुख नई कविता मुक्त यथार्थ का समर्थन करती है, विवेक के आधार पर इस मुक्त यथार्थ का साक्षात्कार वह न्यायोचित समझती है और क्षण तथा समसामयिकता के दायित्व को स्वीकार करती है। विवेचना और विवेक के बल पर जिस वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानवता और यथार्थ-दृष्टि अर्जित होती है, उसका आदर करती है। तीसरा सप्तक (1959) छपते-छपते ध्वनित हुआ कि तार सप्तक में संगृहीत कवि राहों का अन्वेषण करते हुए मंजिल निर्धारित कर चुके। तार सप्तक दरअसल नई कविता की ही घोषणा थी। अर्थात नई कविता को विधिवत मान्यता मिलने के दौरान ही राजकमल की कविताएँ प्रकाश में आने लगी थीं यद्यपि सृजनरत वे चार-छह वर्ष पूर्व से ही रहे थे।
- राजकमल चौधरी का सृजन-परिवेश
राजकमल चौधरी का रचना-काल भारतीय समाज का ऐसा दौर था कि जनता खुद को ठगी हुई-सी, महसूस कर रही थी। सत्ता द्वारा वैज्ञानिक विकास और औद्योगिक क्रान्ति की दुहाई दी जा रही थी। सुविधा-सम्पन्न नागरिक-जीवन बहाल करने की बात की जा रही थी, पर सच्चाई कुछ और थी। उत्पादनधर्मी व्यवस्था की बागडोर पूँजीपतियों के हाथ में ही रही। कृषि-कर्म की जीवनी-शक्ति से अनुप्राणित अधिसंख्य जनता मजदूर बन गई। उत्पादन, विपणन, वितरण के औजार के रूप में जनता का उपयोग होने लगा। श्रमशक्ति का मूल्य-मान घटता जा रहा था, मुट्ठी भर पूँजीपति उसके नियामक, नियन्ता अब भी बने हुए थे। आर्थिक वैषम्य की इस विशाल खाई से आजाद भारत में जिस समाजवाद की संकल्पना की गई थी उसका रास्ता अवरुद्ध हो गया था। वर्गहीन समाज की संकल्पना आहत हो चुकी थी।
- अकविता आन्दोलन और राजकमल चौधरी
जनतान्त्रिक पद्धति की विद्रूपताओं से राजकमल चौधरी आक्रान्त थे। बड़ी पैनी नजर से वे भारतीय जनजीवन की उक्त परिस्थितियों का जायजा ले रहे थे। सन् 1960 आते-आते उनके धैर्य की सीमा टूट गई। तब तक नई कविता स्थापित और सर्वस्वीकृत हो गई। पर आजादी के तेरह वर्षों बाद भी भारतीय जनजीवन सहज नहीं हो पाया था। छठे दशक के प्रारम्भ में ही वे उन स्थितियों पर कई कविताएँ लिख चुके थे। सन् 1960-61 के आसपास यथार्थभोग की तीक्ष्णता इतनी वेधक हो गई कि स्थापित काव्यधारा की सीमा लाँघकर दृढ़तापूर्वक बात रखने की जरूरत आन पड़ी। ‘अकविता’ आन्दोलन उसी जरूरत का आविष्कार है। आजादी के इतने दिनों बाद भी सत्तासीन लोगों को सामान्य नागरिक के दुख-दर्द का एहसास नहीं हुआ। देश की बदहाली में भी वे अपना ऐश्वर्य बनाने में तल्लीन रहे। उनकी इस गैरमुनासिब आश्वस्ति पर तीखे प्रहार की जरूरत के रूप में अकविता का प्रवेश हुआ। कुछ लोगों का मानना है कि अकविता आन्दोलन एलेन गिन्सबर्ग के बिटनिक आन्दोलन और पश्चिम बंगाल की भूखी पीढ़ी की संगति का परिणाम था, किन्तु कुछ विचारकों की नजर में वह सत्ताधीशों के प्रति उत्पन्न नागरिक अनास्था, क्षोभ और विद्रोह से उत्पन्न प्रखर व्यक्तिवाद की अभिव्यक्ति था। ध्यातव्य है कि ‘अकविता’ का व्यक्तिवाद ‘नई कविता’ के व्यक्तिवाद की तरह आत्मकेन्द्रित नहीं था। अपनी प्रयुक्ति में वह बहुत विस्तार पा जाता था, निजी भोग को भी कवि समष्टि के रूप में भोगता था, शारीरिक व्याधि तक को राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय व्याधि के रूप में देखता था।
क्यों एक ही युद्ध मेरी कमर की हड्डियों में और कभी
वियतनाम में
जैसी पंक्तियों के साथ राजकमल चौधरी अन्तर्राष्ट्रीय अमानवीयता को शारीरिक व्याधि की तरह झेलने लगे। कैलाश वाजपेयी सोचने लगे कि –
नीन्द और मृत्यु से अलग छटपटाकर
ढोई है मैंने
पूरी दशाब्दी
अब जब कि सब कुछ असाध्य है
सोचता हूँ सोचना भी छोड़ दूँ
असम्भव है दुनिया के उच्छिष्ट चेहरे पर
भोलापन लौटाना…
ऐसे वैयक्तिक अनुभवों के कारण अकविता आन्दोलन के कवियों के व्यक्तिवाद में बाहर-भीतर का भेद समाप्त हो गया था। घनघोर निराशा के क्षण में इन उग्र अभिव्यक्तियों ने उन्हें न्यूनतम कुछ कर पाने का तोष दिया था। राजकमल चौधरी इस काव्यधारा के अगुआ कवि थे। उनके सहचिन्तक जगदीश चतुर्वेदी, गंगाप्रसाद विमल, विष्णुचन्द्र शर्मा, सौमित्र मोहन, धूमिल, कैलाश वाजपेयी, विजेन्द्र, वेणुगोपाल, मोना गुलाटी, श्याम परमार, परेश, आलोकधन्वा, कुमार विकल, लीलाधर जगूड़ी उस धारा के प्रमुख कवियों में शामिल थे। इन कवियों की कविताई सातवें दशक के पूर्वार्द्ध की उन परिस्थितियों और वातावरणों की उपज थी जहाँ उन्हें संजोकर रखने लायक कुछ भी नहीं दिख रहा था। व्यवस्था की उन दुर्गन्धियों से मुक्ति की कामना ही अकविता आन्दोलन का मूल स्वर था। दुश्चिन्ताओं और संशयों से आक्रान्त समय में व्यवस्था के प्रति उग्र क्रोध एवं विरोध के कारण ये वर्जनामुक्त कविगण पूरी तरह नकार भाव से भर उठे थे। विसंगतियों से आक्रान्त नागरिक-परिदृश्य में उन्हें व्यवस्था के किसी भी आचरण में सकारात्मकता नहीं दिखती थी। परिवेश की वीभत्सता सही-सही दर्ज करने हेतु इन कवियों को अपने कथन को तल्ख बनाना था। इसलिए स्थापित काव्य-विधानों की पद्धतियाँ छोड़कर उन लोगों ने अत्यन्त नग्न प्रतीकों का उपयोग किया; यौन-प्रतीकों के खुले उपयोग में भी उन कवियों ने कोई कोताही नहीं की। वैश्विक परिदृश्य में भारत की स्थिति देखते हुए राजकमल चौधरी ने लिखा–
जिसे बेडौल टुकड़ों में बाँटकर अलग-अलग चाहते हैं
भोग करना बनिये-सौदागर
इस दुनिया की सबसे नंगी सबसे मजबूत औरत का नाम है वियतनाम
** ** **
इन्दिरा गाँधी का हिन्दुस्तान
और मलय रायचौधुरी का हिन्दुस्तान
इस दुनिया की प्रत्येक मजबूत औरत नंगी और दो टुकड़ों में बँटी हुई
यह औरत मेरी माँ और मेरी बीवी मेरा देश और मेरी जिन्दगी
** ** ** **
और बाकी शहरों में राजनीतिक वेश्याओं ने पीला मटमैला अन्धेरा फैला रखा है
अपनी देह को उजागर करने के लिए
नई दिल्ली में और ढाका-कराँची में अब कोई फर्क नहीं है
दरअसल उस भयावह परिदृश्य पर संयमित मन:स्थिति से विचार करना सम्भव नहीं था। राष्ट्र, धर्म, नीति, नैतिकता, मानवीय सम्बन्ध किसी भी प्रसंग का कोई निर्धारित और नैतिक अर्थ नहीं रह गया था। भारतीय स्वाधीनता राजकमल चौधरी को लहूलुहान और रोती हुई दिख रही थी–
अचानक एक रात ब्लैकआउट में बेहोश इस नगर के आदिम अन्धेरे में
मैंने उसे देख लिया शहीद-स्मारक के नीचे
रोते हुए वह नंगी थी और खून से लथपथ थी और वह
कराहती हुई भागी जा रही थी
गलियों में मरघट में और राजभवनों में पुकारती हुई मेरा ही नाम बार-बार
गिरती हुई ठोकरें खाती हुई हँसती-खिलखिलाती हुई
मैंने उसे देखा उसके कटे हुए दोनों स्तनों को जोड़कर बनाया गया है
पृथ्वी का गोलाम्बर
और वह बुझे हुए लैम्प पोस्टों को जलाने की कोशिश में
लहूलुहान हो गई है मैंने उसे देखा
और बार-बार उसके मुँह से अपना ही नाम सुन कर मैं अपने कमरे में
भाग आया
मैं अपनी किताबों और अफीम-गाँजे में बन्द हो गया
सवा दशक पूर्व आजादी पाए जिन भारतीयों को मशीन-तन्त्र, राजनीति-तन्त्र और अर्थ-तन्त्र ने चूहों, मच्छरों की हैसियत में तब्दील कर दिया था; जहाँ प्राण-रक्षा हेतु टुकड़ा भर रोटी के लिए चीखती हुई नारी कहे– मुझे खरीद लें/फटे कोट की तरह टाँग दें दीवार पर/भले ही न पहनें/पर, मुझे खरीद लें/मैं भूखी हूँ, प्यासी हूँ, हूँ बीमार/यम के हाथों से मुझे छीन लें…। दूसरी ओर–शीला हर सातवें दिन, अपने कल-कारखानों से गायब रहती है/लीला तुम अपने बैग में क्या रखती हो?/अपने दोस्त के घर की चाबी रखती है/शीला! तुम/सेक्नल? (अनिर्णय: सात कविताएँ)– ऐसा प्रस्ताव स्पष्टता से देने और ऐसा प्रश्न बेखटके पूछने की स्थिति जहाँ आ जाए, वहाँ, और वैसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में किस तरह धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सत्ता के प्रति आस्था रखी जा सकती थी? नारी के मान-सम्मान, मर्यादा-महत्त्व का गायन-भाषण हिन्दू धर्म में पुराकाल से किया जाता रहा है। लेकिन इस स्वाधीन लोकतन्त्र में भारतीय नारी श्रीमती और लुलू इस निष्कर्ष पर पहुँचीं कि यदि समाज न चाहे तो वह अपना कौमार्य और अपनी नैतिकता लाख दृढ़ता के बावजूद सुरक्षित नहीं रख सकती है (अग्निस्नान)।
जिस देश का बचपन– पाँवों में चिथड़े लपेटकर/फैलाए हुए अपने दोनों नन्हें हाथ…मन्दिरों के सामने भीख माँगे, जिस देश की अनाथ कन्या– अपनी जाँघों का कच्चा माँस बेचती हुई (मुक्ति के विषय में आसक्ति की एक परिकल्पना) रोती रहे, जिस देश के युवक बहिर्जगत की चिन्ता छोड़कर गज-गामिनी कामिनी आगमन-प्रतीक्षा (मैथिली कविता) करने लगे, जहाँ की–भीड़ अब खाने के लिए गेहूँ/और सो जाने के लिए किसी भी गन्दे बिस्तरे के सिवा कोई बात/नहीं कहती है (मुक्ति प्रसंग, पृ.7), जहाँ–लोकसभा में अन्न-मन्त्री कहते हैं, बसते हैं कोई पाँच अरब चूहे/इस देश में, (अर्थात, या तो भारत देश की जनता को चूहा समझा जा रहा है, अथवा चूहे के कारण गोदाम में अनाज का अभाव होता जा रहा है)…उस देश में कविता तो क्या, साधारण बोलचाल में भी रुखाई, तीक्ष्णता और सच की नग्नता आ जानी चाहिए। अकविता आन्दोलन के दौरान हिन्दी में लिखी जाने वाली कविता की जैसी संरचना थी, वस्तुतः उसी की आवश्यकता भी थी और राजकमल चौधरी के साथ उस दौरान अन्य कई समर्थ कवियों ने इस दिशा में पूरी दमदार रचनाएँ कीं।
कहा जाता है कि इस कविताधारा में दृष्टिकोण की अस्थिरता थी, प्रदर्शन की भंगिमा थी, भूखी और आहत पीढ़ी के प्रभाव के प्रति स्वीकार-अस्वीकार का द्वन्द्व था, इस करण इसकी अकाल-मृत्यु हो गई। पर सच्चाई है कि नई कविता के बाद आविर्भूत इस काव्यन्दोलन ने हिन्दी साहित्य में खूब धूम मचाई। प्रारम्भ और अभिव्यक्ति में इस धारा की कविताओं एवं तद्विषयक अनेक लेखों का प्रकाशन हुआ। उससे पूर्व ही सन् 1960-61 में प्रकाशित नई कविता के संयुक्तांक में इसका आह्वान हो चुका था। इस काव्यधारा का प्रभाव इतना ताकतवर था कि घोषणा-काल से ही उसे व्यापक स्वीकृति मिल गई। सन् 1963 में जगदीश चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित पुस्तक प्रारम्भ में चौदह कवियों की कुछ-कुछ कविताएँ संकलित हुईं। इनमें सन् 1960-61 के बीच लिखी, राजकमल चौधरी की उन्नीस कविताएँ प्रकाशित हुईं। उन कविताओं में सामाजिक यथार्थ की वीभत्स स्थिति नग्नतापूर्वक प्रस्तुत हुई। गौरतलब है कि बिम्बों-प्रतीकों की नग्नता के बावजूद वे कविताएँ उतनी नग्न नहीं थीं, जितना नग्न वह यथार्थ था। उल्लेखनीय है कि जिस अकविता पर अराजक होने; निराशा, हताशा, आनास्था से भरे होने; विद्रोह और व्यक्तिवाद के पक्षपाती होने, यौन जुगुप्सा उत्पन्न करने तथा नारी को मात्र देह समझने का तोहमत लगाया गया; उसी अकविता के प्रमुख कवि राजकमल चौधरी को प्रख्यात जनकवि नागार्जुन और शमशेर ने देश की समकालीन परिस्थिति की उपज माना। सच्चाई है कि वहाँ कहने की तरकीब अघातक थी, विद्रोह उनका मुख्य स्वर था। जमाने भर के गुस्से के साथ खड़ी हुई इस पीढ़ी ने अपने काव्यान्दोलन का नाम पश्चिम की तर्ज पर ‘एण्टी-पोइट्री’ अर्थात ‘अकविता’ दिया। पर अकविता का विद्रोही स्वर बहुत दिनों तक टिका नहीं रहा। शीघ्र ही परिवर्तन की जरूरत दिखने लगी।
धीरे-धीरे ‘अकविता’ के दौर का क्षोभ और क्रोध समरस पर आ गया। सन् 1962 में चीन और सन् 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए सीमा संघर्ष ने देश की स्थिति-परिस्थिति बदल दी। चीन के विश्वासघाती हमले ने भारत के बौद्धिक समाज को झकझोर दिया। नए ढंग से वस्तुबोध का विकास हुआ। एक बार फिर से नएपन की, प्रहारक शब्द-प्रयोग से बात को असरदार बनाने हेतु गणितीय शब्द-संस्कार की जरूरत हुई। फलस्वरूप अकविता आन्दोलन का स्वर बदला। साथ ही राजकमल चौधरी की काव्य पद्धति बदल गई। उनका काव्य-विधान सदा ही स्थान, काल, पात्र के करीब बना रहा; राष्ट्रीय आपदाओं और सामान्य जन के आहत सपनों का साक्षी बना रहा।
- कंकावती और राजकमल चौधरी
सन् 1964 में लिखी राजकमल चौधरी की पनचानवे कविताओं का पहला संकलन कंकावती प्रकाशित हुआ। उस संकलन की मात्र पचास प्रतियाँ ही छपीं। इस संकलन की भूमिका का शीर्षक कवि ने ‘कंकावती-1964’ रखा और पुराण से लेकर शब्द-कोश तक में उल्लिखित कंकावती के विभिन्न सन्दर्भों की चर्चा करते हुए कहा कि ‘कंकावती में ये सारे कोशगत शास्त्र-रूप, सन्दर्भ, गुण, अर्थ समग्र रूप में उपस्थित हुए हैं।’ इस संकलन की कविताएँ कई मायने में व्याख्येय हैं। भाषा, शिल्प, कथन, शैली, कविताओं की प्रस्तुति, वाक्य संरचना, शब्द संयोजन, वर्णों और पदों के विखण्डन, यति-विराम की प्रयुक्ति, पंक्तियों की नाप-जोख, व्यक्तिपरक एवं पौराणिक-मिथकीय बिम्बों, प्रतीकों के नए प्रयोग आदि के कारण यह संकलन हिन्दी कविता में नए अध्याय का समावेशन है। कंकावती की कविताएँ पद्य और गद्य की चौखटे तोड़कर उद्दाम प्रवाह वाली नदी की तरह बहती हैं और कवि की आत्मस्वीकृतियाँ होने के बावजूद ये समकालीन समाज के एक खास हिस्से का सामूहिक सच लगती हैं। मानवीय सम्बन्धों के बिगड़ते स्वरूप, खण्डित होती मानवीयता, अलगाव को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा–
सात हजार वर्षों में एक आदमी ने बना
ए हैं साढ़े तीन सौ करोड़ परिवार। परि
वारों की रक्षा के लिए मकान। मकानों
की रक्षा के लिए दीवारें। सात हजार
बरसों में एक आदमी ने बनाई हैं, साढ़े
तीस सौ करोड़ दीवारें। (कंकावती/ऑडिट रिपोर्ट)
शब्दों के स्वरूप को परिवर्तित कर उसमें नए अर्थ भरकर, नए-नए प्रयोग से कविता की प्रेषणीयता में निखार लाया गया है। नपे-तुले शब्दों के प्रयोग और शब्द तथा शब्द-समूहों की पुनरावृत्ति से भी कविता की ताकत में उत्कर्ष आया। विकास के रास्ते मनुष्य भटक-भटककर कहाँ पहुँच गए; किस-किस तरह अपने अर्थ, अपनी परिभाषा, अपनी विशिष्टता खोई– इसका इससे बेहतरीन चित्रण और कुछ नहीं हो सकता। ये पंक्तियाँ एक तरफ बेतहाशा वर्द्धिष्णु हमारी जनसंख्या का स्वरूप दिखाती हैं, तो दूसरी तरफ मानवीयता की प्रांजल चादर पर खड़ी दुरावों और अलगावों, वैमनस्यों की अडिग दीवार की झाँकी देती हैं। शिल्प के स्तर पर यहाँ एक बात खास तौर से गौरतलब है। शब्दों का अंग-भंग कर कवि ने यह दिखाने की चेष्टा की है कि अक्षर (जिसका क्षरण न हो) जैसे अनश्वर चीज भले नष्ट हो जाएँ, पर व्यवस्था नहीं बिगड़नी चाहिए। कंकावती संकलन अपने शिल्प के लिए भी एक अनूठी उपलब्धि का उदाहरण है।
मनुष्य को जिन्दगी चाहिए, जीने के लिए समाज और संसाधन चाहिए। भौतिक युग में जीना है, तो पैसे चाहिए। पैसे के लिए रोजगार; रोजगार सुरक्षित रखने के लिए नियोजक की खुशी। समाज, सम्बन्धियों और आश्रितों की अपेक्षाओं की पूर्ति हेतु सामाजिक मान्यताओं की सलामती…तमाम सलामती को अंजाम देने हेतु विश्वविद्यालय, सचिवालय और अन्य कार्यालयों में भी काम करती हुई युवती दिन-भर परेशान होती है। बॉस के सामने प्रफुल्ल चेहरा लेकर जाने के लिए ‘सारीडान’ की गोली खाती है और वहाँ से गृहस्थी का सामान खरीदती हुई घर लौटकर समाज को अपनी यौनशुचिता का प्रमाण देने के लिए काण्ट्रासेप्टिव्स की गोली खाती है…
… नौकरी, फैशन और सिर
सलामत रखने के लिए शान्तिनि के
तनी बैग में चन्द गोलियाँ; सारीडन की,
काण्ट्रासेप्टिव्स की– जहर
की नहीं…।
यह कामकाजी युवती घर, परिवार, समाज, सामाजिक व्यवस्था…सब की अपेक्षाओं के लिए गुंजाइश बनाती है, परन्तु–
अपने लिए? अपने लिए एक बद
तमीज लड़का, जो दूसरे शहर में
रहता है।… (कंकावती-4)
इस विद्रूपता का क्या हो कि घुटन भरा जीवन ढोती हुई युवती अपने शान्तिनिकेतनी बैग में गर्भनिरोधक और सिरदर्द की गोलियाँ रख लेती है; लेकिन जहर की गोली नहीं रख पाती। जीवन की तंगहाली की इस पराकाष्ठा के चित्रण हेतु कैसी भाषा हो?
- दास कविता और राजकमल चौधरी की अन्य कविताएँ
सन् 1965 में राजकमल चौधरी ने दास कविता लिखनी शुरू की थी। कई पृष्ठों की इस लम्बी कविता का काफी हिस्सा लिखा जा चुका था, किसी कारण वह पूरी न हो सकी। उनकी सर्वप्रसिद्ध कविता मुक्ति प्रसंग 15 अगस्त 1966 को प्रकाशित हुई। कहना समीचीन होगा कि दास कविता मुक्ति प्रसंग का ही पूर्वांश है। जहाँ दास कविता दारुण अतीत एवं भयानक-वीभत्स वर्तमान के प्रति स्वीकार भाव है, और तन-मन-प्राण पर उसके बोझिल जंजाल का दबाव है, वहीं मुक्ति-प्रसंग तमाम विसंगतियों और विकृतियों से मुक्ति की कामना है। दास कविता में जहाँ पानी को मथकर घी निकालती इस व्यवस्था में हम/धर्मादर्श और कानून-नियम बनाने वालों के/दासों के–दासों के–दासानुदास हैं… कवि घोषणा करते हैं कि–
इन्कलाबी साथियो! तुम्हारे साथ मैं दास हूँ–
सत्ता और समाज के बीच घोषित-अघोषित शर्तनामों का दास
मैं अगर हूँ उस शर्तनामे का दास
अपनी रोटी, शराब, सिगरेट, पतलनू, हँसी और कोठरी और कलम के लिए
तो तुम भी मेरी तरह, महज देशवासी की तरह, जीने और राजनीति करने के लिए
उसी शर्तनामे की सत्ता, व्यवस्था, गुंजाइश, छोटी-बड़ी सुविधा के दास हो!
अगली दुनिया के अन्वेषको!
हमारी दुनिया तो यही है–
प्रभुता से नियन्त्रित, दासता से अभिशप्त, बर्वर अमानवीय ताकतों से
अनुशासित
अनियामक जनता की दुनिया, इसे तोड़ो–।
उत्तम पुरुष भाषा-विधान में देश के राजनीतिज्ञों का व्यंग्यात्मक चित्र समकालीन समुदाय की दृष्टि खोल देता है–
अन्त में राजनीति को मैंने जीने का कारण
बनाया था
लेकिन उससे पहले मैं बीमा कम्पनी का
एजेण्ट हुआ करता था
इतना लम्बा है राजनीति का राजमार्ग कि रंगशाला के
अन्तरंग में पहुँच जाने पर
अपने सुख, अपने व्यक्तित्व अपने राग-विराग
अपने संगीत के सिवा
और कोई बात याद नहीं रह जाती है…(कई नागरिक चित्र: पटना)
वे फिर कहते हैं–
हमारी बातचीत हमेशा राजनीति से सम्बन्धित होगी
और हमारी भंगिमाएँ
मुद्राएँ टेबुल के किनारे कोयले का
कीमती लाइसेन्स जैसी दिखती हुई उस कुरूप स्त्री से
सम्बन्धित
वह स्त्री जनता नहीं है, केवल है जनता की अपनी
विकृत मनःस्थिति… (कई नागरिक चित्र: पटना)
जब देश की जनता की यह स्थिति हो कि उसके प्रतिनिधि उससे झूठे वादे कर स्वर्ण महल में पहुँचें और वहाँ से पुनः याद न आने वाली शकुन्तला की तरह भूलकर उसे कुरूप स्त्री समझ लें तो एक संवेदनशील कवि अपना दायित्व कैसे निभाए? समाज की इस वंचना वृत्ति पर वे लिखते हैं– ‘समाज नंगापन तो चाहता है मगर उजाले का नंगापन नहीं चाहता है। वह चाहता है अन्धेरे में, चाहता है एकान्त में, गुफाओं, कन्दराओं, जंगलों में, बन्द कमरों में, मसहरी लगे बिस्तरों में।’ ऐसी परिस्थिति में वे अपनी नंगी जिन्दगी को समाज की जिन्दगी से जोड़कर आडम्बर और मुखौटों की मानसिकता पर तर्क करते हैं। व्यक्ति के रूप में भी वे समाज की जिन्दगी जीते थे। अपनी आत्मा को समुदाय से जोड़ते हुए उन्होंने पहले ही कह दिया था–
मेरी आत्मा की यह विक्षिप्त खामोशी सब लोगों की है
तुम्हारा, उनका और उनका, सभी का है मेरा यह आत्मदहन
सबकी उदासी का रहबर हूँ, मालिक हूँ मैं…(मसूरी हिल्स: जुलाई 1, 1956)
ऐसी स्थिति में समाज की खामोश मानसिकता, समाज की चुप्पी को देखते हुए उन्होंने व्यंग्य किया–
चुप रह जाओ, मौसम
चुप रहने से ही बदलता है।
यों भी, आजकल
बेवफाई है शोरगुल करना;
चुप रहो, हे प्रजाजन
जो कुछ भी कहना है अपने प्रभु से
चुप रहकर ही कहो…(अगस्त’65 की आखिरी कविता)
व्यंग्य राजकमल की रचना की आत्मा है। कविता हो, कथा हो या फिर उपन्यास, निबन्ध ही क्यों न हो, जब वे अपनी चरम अर्थ-सीमा में प्रवेश करते हैं, तो उनकी अनुभूति का गहनतम स्वरूप और उसकी व्यंग्यात्मकता निखरकर सामने आती है।
जिन मध्यवर्गीय परिस्थितियों को उन्होंने नजदीक से देखा, उनमें चीख और ठहाकों की विसंगतियाँ दिख रही थीं, उसके सम्पूर्ण भोक्ता के रूप में अपनी कविता में आकर उन्होंने उसके प्राण-तत्त्व को उत्कर्ष दिया है–
मैं
सोए हुए शहर की नस-नस में
किसी मासूम बच्चे की तरह, जिसकी माँ खो गई है
भटकता रहता हूँ
(मेरी नई आजादी और मेरी नई मुसीबतें…उफ्!)
चीख और ठहाके
एक साथ मेरे कलेजे में उभरते हैं।
(नीन्द में भटकता हुआ एक आदमी)
आजादी खुशी की चीज होनी चाहिए थी, किन्तु उसके साथ नई मुसीबतें लगी हुई मिलीं। वर्ग-विशेष के लिए वह ठहाके की वस्तु साबित हुई पर सामान्य जनता के लिए वह जिम्मेदारियों से लदी एक जिन्दगी, और गूँगा-बहरा बनकर उसे ढोते रहने की मजबूरी तथा नए किस्म की साजिश बनी–
अपना माथा ऊँचा करूँ या सिर झुकाए
चलता रह जाऊँ
असंख्य उत्तरदायित्व डाले गए हैं मुझ पर (असंख्य प्रश्न)
–कविता के कारण
जिस व्यवस्था में मनुष्य की जिन्दगी बोझ ढोनेवाली टूटी टायर-गाड़ी बन गई हो, समस्याओं के प्रश्न का अजगर पूरी मानवता को निगल जाना चाहता हो। ऐसे परिवेश से प्रतीक और विशेषण के रूप में उभरे उनके शब्द–बेचैन मुस्कुराहट, लावारिस जख्मी कुत्ते, क्षत उत्तप्त स्तन, जर्जर चुम्बन, हतवीर्य ऋषि पुरुष, भूखा अधमरा साँप, काली बदसूरत गर्भहीन धरती, टूटे हुए पुल, कँटीली झाड़ियाँ आदि उनकी सूक्षमतर दृष्टि, भोग की सम्पूर्णता, यथार्थ की मौलिकता और कवि की अन्तःप्रेरणा के सबूत साबित होते हैं।
नागरिक जीवन की कुण्ठा, विकृति, विसंगति, घृणा, क्षोभ…इत्यादि ने राजकमल चौधरी के अन्तर्मन को मथ रखा था। आजाद भारत की समाज व्यवस्था और सामाजिक परिवेश की विकृतियों का सिलसिला देखकर उन्हें स्पष्ट हो चुका था कि–
सच के अनुसन्धान की फैक्टरियों में
न्याय-अमन की कचहरियों में
यू.एन.ओ. में, यूनेस्को में
शैतान अड़ा है पाँव जमाए! (बीत गई है रात/13.12.1953)
कविताओं में शब्द प्रयोग की उनकी आक्रामकता देखते बनती है–
जहरीले मवाद और रक्त मिश्रित पेशाब की
गन्ध से अर्थात लोकतन्त्र से
और राशन कार्डों से
मैं अपने बच्चों और विधवाओं को
कैसे मुक्ति दे जाऊँ… (पीले कागज की सतह…)
मवाद और पेशाब—जैसे शब्दों के प्रयोग में भी राजकमल विराट और चमत्कारिक अर्थध्वनियाँ भर देते हैं।
‘नई शब्दावली और नए शिल्प के काल्पनिक सत्यों और बीते हुए मूल्यों की कविता प्रस्तुत करूँ–मुझसे यह नहीं हुआ। अपने पूर्वकालीनों को दुहराते रहना भी सम्भव नहीं है।…क्योंकि मुझे मालूम है गंगा नदी में चन्द्रमा नहीं तैरता, केवल अवैध गाँजा, अवैध चावल, अवैध अफीम और अवैध गेहूँ ढोने वाली नावें तैरती हैं।’ (साठोत्तारी पीढ़ी का घोषणा-पत्र, लहर: फरवरी-1968)
भारत की राजनीतिक परिस्थितियों पर उनकी नजर बड़ी पैनी थी। सन् 1967 के चुनाव परिणाम के बाद राजकमल को स्पष्ट लगा ‘…केवल टोपियों की अदला-बदली हुई है…सरकारी व्यवस्था नहीं बदल सकी है…। इससे पहले वे कह चुके थे कि ‘देश में स्वाधीनता आई सन् 1947 में, किंतु अब सन् 1960 में आकर हमलोग समझते हैं और निर्णय करते हैं कि स्वाधीनता हमलोगों के लिए नहीं, सत्ताधारी वणिक सम्प्रदाय और राजनीतिज्ञों के लिए आई है। सब कुछ रहते हुए भी, कुछ तो नहीं है, हमलोगों का अपना…मानव जीवन की सबसे बड़ी सफलता है मिनिस्टरी दल का एम.एल.ए. बन जाना। कविता और साहित्य है जीवन की सबसे बड़ी असफलता और मृत्यु।’
मृत्यु और (अ)सफलता की इस व्यंग्यात्मक परिभाषा से पद मान्यता उपलब्धियों की चकाचौंध में लीन बौद्धिकों पर सांघातिक चोट की चेष्टा देखी जा सकती है।
- मुक्तिप्रसंग और राजकमल चौधरी
मुक्ति प्रसंग उनकी बहुचर्चित दीर्घ कविता है। इसमें कवि नागरिक की जीवनानुभूति और देश दशा का दाग-दाग चित्र चौंका देता है। जागतिक घटनाओं पर सावधानी एवं राजनीतिक समझ की गहनता का बेहतरीन सन्दर्भ वहाँ स्पष्ट दिखता है। पूरी कविता उनके यथार्थ भोग की प्रामाणिकता तथा काव्य कौशल के उत्कर्ष को समर्थन देती है। हर व्यक्ति का शरीर, समाज की न्यूनतम इकाई है। लेकिन व्यक्ति का दैहिक भोग, भाषा का योग पाकर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय व्याधि में तब्दील हो जाता है। ऑपरेशन टेबल पर पड़ा कवि का रुग्ण शरीर, शब्द-संयोजन के परिपाक से, देश के विकृत परिवेश का बिम्ब बन जाता है। शारीरिक व्याधि और रुग्ण शरीर की दुर्दशा से देश की दुर्दशा को रेखांकित करने का यह विलक्षण कौशल है; जहाँ देश की कुरीतियाँ, विसंगतियाँ, उनकी अँतड़ियों की गन्दगी है, जनमानस की विडम्बनाएँ उनके जख्म और मवाद हैं। ऑपरेशन टेबुल पर इतिहास पुस्तक की तरह खुले पड़े कवि डॉक्टर के प्रतीक से सफेदपोशों को चेतावनी देते हैं–
मैं इतिहास पुस्तक की तरह खुला पड़ा हुआ हूँ
लेकिन मेरा देश मेरा पेट मेरा ब्लाडर मेरी अँतड़ियाँ खुलने से
पहले सर्जनों को यह जान लेना होगा
हर जगह नहीं है जल अथवा रक्त अथवा माँस अथवा मिट्टी
केवल हवा कीड़े जख्म और गन्दे पनाले हैं
अधिक स्थानों पर इस देश में
जहाँ सड़कर फट गई हैं नसें वहाँ हवा तक नहीं
ऊपर की त्वचा चीरने पर आग नहीं निकलेगी न ही धुआँ
जठराग्नि दावानल
सब बुझ गए हैं अचानक पन्द्रह अगस्त की पहली रात के बाद
अब राख ही राख बच गया है पीला मवाद…(मुक्ति प्रसंग/पृ.14)
इस कविता के केन्द्र में कवि स्वयं खड़े हैं। सर्वत्र उनका ‘मैं’ मुखर है। अपने लिए चुने गए सर्वनामों से भरी हुई उनकी रचनाएँ उनके यथार्थ-भोग की मौलिकता का परिचय देती हैं। इस दीर्घ-कविता का प्रारम्भ कवि की व्याधि से होता है। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, मानसिक रुग्णताओं एवं विकृतियों के साथ अपने रुग्ण शरीर का सम्बन्ध जोड़कर कवि इस व्याधि से मुक्त होना चाहते हैं, सम्पूर्ण समाज और पूरे देश को इन विसंगतियों से मुक्त करना चाहते हैं। राजकमल की शारीरिक रुग्णता देश की राजनीतिक रुग्णता से तालमेल स्थापित कर इस कविता को उत्कर्ष देती है। उनका दृष्टिकोण विषय फलक को उनकी शैली में काफी विस्तार देता है। शब्दों की पुनरावृत्ति, वाक्यों की पुनरावृत्ति एक अर्थ में दोष मानी जा सकती है पर यही प्रक्रिया इस कविता में रचना के उत्कर्ष का कारण बन जाती है। पौराणिक, ऐतिहासिक शब्दों के नए बिम्बों से वाक्य में अर्थ-नूतनता भरना; जैविक, प्राकृतिक, वैज्ञानिक, व्यापारिक सन्दर्भों से परिवेश निर्मित करना; प्रयोगात्मक चातुर्य से शब्दों को नया बनाना; वैयक्तिक सन्दर्भों को प्रयोगगत संस्कार से अभिभूत कर सम्प्रेषणीयता को बढ़ाना; मिथकीय चर्चा से प्रभावोत्पादकता में चमक लाना; ध्वन्यात्मक शब्दावली से रचना की नाटकीयता बढ़ाकर उसको रोचक बनाना; व्यंग्य निरूपित कर भाषा को तीक्ष्ण, धारदार तथा प्रभावकारी बनाना… उनकी रचनाधर्मिता के कुछ स्मरणीय पक्ष हैं। उन्हें यह भी स्पष्ट हो चुका था कि–
भिखमंगों अफीमचियों रण्डियों की काली और अन्धी दुनिया में मसानों में
अधजली लाशें नोचकर
खाते रहना श्रेयस्कर है जीवित पड़ोसियों के खा जाने से (मुक्ति प्रसंग)
एक समर्थ और सफल कवि के रूप में उन्होंने एक सुलझी हुई जीवन दृष्टि सुनिश्चित कर ली थी जिसमें यह बात साफ थी कि आम नागरिक वंचनाओं का शिकार हुआ है। उसके जीने की बुनियादी शर्तों तक के लिए व्यवस्था-पतियों के मन में कहीं कोई आग्रह नहीं है। तय बात है कि सामान्य नागरिक के जीवन का सबसे बड़ा धर्म, सबसे बड़ी अभिलाषा, सबसे बड़ा नारा, सबसे बड़ा आन्दोलन, सबसे पहली प्रतिबद्धता अन्न और बिस्तर है। इसकी पूर्ति के बाद ही किसी मनुष्य को भय, लोभ, और नैतिकता की याद आती है। जिन्दगी और मौत के बीच निहत्थे सिपाही की तरह जूझते हुए सामान्य नागरिक की तमाम मुसीबतों को राजकमल चौधरी ने वैयक्तिक मुसीबत, और अपनी शारीरिक व्याधि की तरह झेला है और उन्हें अपनी रचनाओं में उकेरा है। मानव जाति की अदम्य जिजीविषा और परिस्थितियों को अनुकूल बनाने का अपार धैर्य उनकी तमाम रचनाओं में देखा जा सकता है।
अपनी रचनाओं में राजकमल चौधरी ने कहीं सृजन का देवता होने की कोशिश नहीं की। सृष्टि करते हुए भी वे अपनी सृष्टि के भीतर-बाहर से परे रहे। अपनी रचनाओं में उन्होंने कहीं उपदेशक की भूमिका नहीं अपनाई। संस्थापित व्यवस्थाओं से ‘मोह-भंग’ राजकमल चौधरी के रचना संसार का मूल स्वर है। भारतीय लोकतन्त्र के खोखले आदर्शों से चिढ़कर ही उन्होंने कहा कि–
आदमी को तोड़ती नहीं लोकतान्त्रिक पद्धतियाँ केवल पेट के बल
उसे झुका देती हैं धीरे-धीरे अपाहिज
धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए उसे शिष्ट राजभक्त देश-प्रेमी
नागरिक बना लेती है
बेचैन होकर उन्होंने अपना निर्णय सुनाया–
हम लोगों को अब शामिल नहीं रहना है
इस धरती से आदमी को हमेशा के लिए खतम कर देने की
साजिश में… (मुक्ति प्रसंग)
दास कविता में जहाँ कवि ने घोषणा कि कि–
इन्कलाबी साथियो! तुम भी मेरी तरह, महज देशवासी की तरह, जीने और राजनीति करने
के लिए
उसी शर्तनामे की सत्ता, व्यवस्था, गुंजाइश, छोटी-बड़ी सुविधा के दास हो!
वहीं ‘मुक्ति प्रसंग’ में घोषणा की कि–
अपनी देह-सीमाओं के विषय में ईश्वर के प्रति
एक ही प्रार्थना हो सकती है आधुनिक मनुष्य की व्यक्तिगत प्रार्थना
अपनी मुक्ति के लिए–
संगठन और संस्थाओं के विरुद्ध हो जाना अर्थात शासन-तन्त्र और सेनाओं के
विरुद्ध हो जाना अपनी इकाई बचाने के लिए एक ही प्रार्थना
वास्तविक जीवन और कविता में…
जीना, जीने की मजबूरियों को समझना और मजबूरियों की त्रासदी से मुक्ति पाना ही राजकमल चौधरी के जीवन और लेखन का मूल लक्ष्य रहा।
- निष्कर्ष
राजकमल चौधरी ने कहानी, कविता, उपन्यास, निबन्ध, नाटक…सभी विधाओं में रचना की और हर विधा की रचना में अपनी उदात्त चेतना, विलक्षण प्रतिभा, सृजनात्मक कल्पनाशीलता, गहरी अनुभूति का परिचय दिया। कवि राजकमल, सदा कविता के वर्तमान में जीते रहे। इस पद्धति में उनके जीने का कारण उनकी भाषागत सीमा नहीं, बौद्धिक विस्तार था। रचनाएँ चाहे हिन्दी की हों अथवा मैथिली की–उनकी अनुभूति, सृजनधर्मिता से प्राणवन्त हो उठी है। कविता को उन्होंने व्यक्ति सत्य को स्थित और स्थापित करने का साधन कहा है। कंकावती से लेकर इस अकालवेला में और विचित्रा तथा ऑडिट रिपोर्ट तक की समस्त कविताओं में इन प्रवृत्तियों को ढूँढा जा सकता है।
लगभग दो दशक की आजादी के दौरान भारत देश में आई व्याधियों को व्यक्त करने हेतु कवि ने मुक्ति प्रसंग में इतिहास, पुराण, मिथक, यथार्थ, विश्व घटना-चक्र आदि के सहारे बिंब गढ़े और निजी बीमारी का उपयोग किया। कवि को स्वाधीनता ‘पानी और अनाज के देवताओं से भीख माँगती’ दिखती है, ‘नंगी’ और ‘खून से लथपथ’ दिखती है। अपने खुले हुए पेट की बीमारियाँ, मवाद, दुर्गन्ध, देश की व्यवस्था में व्याप्त व्याधियों और विकृतियों जैसी लगती हैं और कवि इन तमाम व्याधियों से मुक्ति चाहता है, मुक्ति शारीरिक व्याधि से और राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय व्याधि से। विज्ञान-तन्त्र, अर्थ-तन्त्र और राजनीति-तन्त्र जैसी प्रभु सत्ता के कारण देश और देश की आजादी जिन आपदाओं के बीच अटक गई, उस सत्ता से संघर्षरत और युद्धरत होना तथा निरर्थक वर्जनाओं और थोपी गई व्याधियों से मुक्ति पाना मात्र ही राजकमल चौधरी का काम्य रहा, शरीर के लिए भी और देश के लिए भी।
भाषिक विशेषता, शब्द-प्रयोग, शिल्प की मौलिकता एवं नवता, प्रतीक नियोजन, अनुकरणात्मक ध्वनि-प्रयोग, अलंकारों की छटा आदि से कंकावती की कविताएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन पड़ी हैं और अपने समय की कविताओं पर भारी पड़ती हैं। वस्तुतः यह टेलीग्राम की भाषा में देश समाज की स्थिति-परिस्थिति पर दी गई गम्भीर टिप्पणियों का संकलन है। शब्दों की कलाबाजी का जादुई असर और शब्दों के सहारे चमत्कारिक बिम्ब प्रतीकों का सृजन पाठकों को उनकी कविताओं के जादू-नगर में बाँधे रहता है। स्थापित अर्थ-ध्वनियों के चौखटों से बाहर निकालकर शब्दों में नए अर्थ भरते हैं—बन्ध्या ऋतु, नपुंसक सूचनाएँ, आदमकद घड़ी, राजनीतिक वेश्याओं, सामुद्रिक स्वाद, प्रज्ज्वलित श्मशान, हिमखण्ड आपरेशन टेबल, नकाबपोश नकली ईश्वर, अपाहिज बेशर्म आवाज, घायल खरगोश, प्रदग्ध क्षण, बीमार जलन, भूख से अधमरा साँप, हतवीर्य पुरुष,…आदि पदबन्धों में शब्दों को जो नया अर्थ मिला है उससे बने हुए बिम्बों से दृश्यों को ज्यादा प्रभावी बनाने का कौशल राजकमल की कविता की खास विशेषता है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- डबरे पर सूरज का बिम्ब, चन्द्रकान्त देवताले (सं.), नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा
- आधुनिक परिवेश और नवलेखन, शिव प्रसाद सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद
- आलोचना और आलोचना, देवी शंकर अवस्थी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- रचना और आलोचना, देवी शंकर अवस्थी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- विवेक के रंग, देवीशंकर अवस्थी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- कविता के नए प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- छठवाँ दशक, विजयदेव नारायण साही, हिन्दुस्तानी एकेडमी
- नए कवियों के काव्यशिल्प सिद्धान्त, दिविक रमेश, पराग प्रकाशन
- राजकमल चैधरी: शैली तात्त्विक विवेचन, कल्पना, आलोक प्रकाशन, अजमेर
- साठोत्तरी हिन्दी कविता: परिवर्तित दिशाएँ, विजय कुमार, प्रकाशन संस्थान
- साठोत्तरी हिन्दी कविता में जनवादी चेतना, नरेन्द्र सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- राजकमल चौधरी रचनावली, देवशंकर नवीन राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
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