6 नागार्जुन और शमशेर
डॉ. रेखा उप्रेती
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- उद्देश्य
- 1 शमशेर बहादुर सिंह
- 2 नागार्जुन
- काव्यवस्तु / काव्य कथ्य / काव्य संवेदना
- 1 विचारधारा के प्रति आस्था
- 2 नागार्जुन की कविता का केन्द्रीय स्वर : लोक और राजनीति
- 3 शमशेर की काव्य संवेदना : प्रेम और सौन्दर्य
- 4 प्रकृति
- काव्य-शिल्प
- निष्कर्ष
1.पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- शमशेर और नागार्जुन की काव्य संवेदना समझ सकेंगे ।
- दोनों की विचारधारा से परिचित हो सकेंगे।
- दोनों के काव्य में प्रेम और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति के साम्य-वैषम्य से परिचित हो सकेंगे।
- प्रकृति चित्रण में दोनों की भिन्नता समझ सकेंगे।
- दोनों के काव्य शिल्प की भिन्नता समझ पाएँगे।
2.प्रस्तावना
शमशेर बहादुर सिंह (सन् 1911-1993) और नागार्जुन (1911-1998) आधुनिक हिन्दी कविता के दो ऐसे महत्त्वपूर्ण कवि हैं जो समवयस्क और समकालीन होते हुए भी कविता के दो नितान्त भिन्न धरातलों का आस्वादन कराते हैं। ‘कला कला के लिए’ और ‘कला जीवन के लिए’ इन दो सिद्धान्तों का विश्लेषण करना हो तो शमशेर और नागार्जुन की कविताएँ एक-दूसरे के आमने-सामने रखकर देखी जा सकती हैं। शमशेर और नागार्जुन एक ही युगधारा के बीच उपजे रचनाकार है। लेकिन उनकी कविताएँ दो अलग-अलग छोरों का स्पर्श कराती हैं। यद्यपि दोनों की प्रतिबद्धता मार्क्सवाद के प्रति रही है लेकिन जहाँ नागार्जुन जन कवि हैं, वहाँ शमशेर की कविता मन के अन्तर्संसार में विचरती है। नागार्जुन का काव्य-फलक विस्तृत है, जन जीवन के विविध रूपों रंगों से खचाखच भरा हुआ। जबकि शमशेर की कविता चुने हुए जीवन अनुभवों का सांकेतिक चित्र मात्र है, उसमें न विस्तार है न वर्णन की स्फीति। नागार्जुन को उनकी तुलना में बड़बोला कहा जा सकता है और शमशेर को मितभाषी, पर अपनी-अपनी विशिष्टताओं और सीमाओं के बावजूद दोनों कवि आधुनिक हिन्दी कविता में अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
3. उद्देश्य
शमशेर और नागार्जुन की परस्पर तुलना का उद्देश्य किसी एक को दूसरे के मुकाबले बेहतर या कमतर सिद्ध करना नहीं है। दोनों के काव्य-व्यक्तित्व का विश्लेषण कर यह जानने का प्रयास किया गया है कि एक के प्रकाश में दूसरे की विशिष्टता को परखा जा सके। समानान्तर अध्ययन कर यह जाना जा सके कि किस कवि का कौन-सा पहलू विशिष्ट है, किस कवि की काव्य-प्रतिभा जीवन के किन-किन आयामों का उद्घाटन करती है, अभिव्यक्ति के कौन-से उपकरण इस्तेमाल करती है। इस इकाई के माध्यम से हम दोनों कवियों की काव्यगत विशेषताओं को परख कर उनके बीच साम्य और वैषम्य को रेखांकित कर सकेंगे.
परिचय
शमशेर और नागार्गुन के कवि व्यक्तित्व का तुलनात्मक विश्लेषण करने से पूर्व दोनों के कृतित्व पर एक दृष्टि डालना उपादेय रहेगा।1
4. शमशेर बहादुर सिंह
शमशेर का कवि व्यक्तित्व कई मायनों में विशिष्ट रहा है। विचारों से प्रगतिशील और कविकर्म में प्रयोगशील रहे शमशेर की कविता का अवगाहन करने में आलोचक भी अपनी असमर्थता व्यक्त करते रहे हैं। मुक्तिबोध और नामवर सिंह जैसे विद्वानों ने भी स्वीकार किया है कि ‘शमशेर की आत्मा ने अपनी अभिव्यक्ति का जो प्रभावशाली भवन अपने हाथों तैयार किया है, उसमें जाने से डर लगता है। ‘‘उसकी गम्भीर प्रयत्नसाध्य पवित्रता के कारण’’ (मुक्तिबोध)। यह सच भी है कि शमशेर की अधिकांश कविताएँ सहज संवेद्य नहीं है, मगर उनमें ऐसा आकर्षण अवश्य है कि उनकी उपेक्षा करना या उनसे बिना जूझे आगे बढ़ जाना असम्भव है। अपनी कविताओं के विषय में शमशेर की भले ही यह कामना हो कि ‘‘बक रहा हूँ जुनू में क्या कुछ/कुछ न समझे खुदा करे कोई’’ मगर उनके काव्य का मर्म बहुत खरा और गहरा है। इसीलिए उन्हें ‘कवियों का कवि’ तथा ‘शुद्ध कवि’ जैसे विशेषणों से नवाजा गया है। शमशेर के प्रकाशित काव्य संकलन हैं–
- उदिता
- बात बोलेगी
- कुछ कविताएँ
- कुछ और कविताएँ
- चुका भी हूँ नहीं मैं
- इतने पास अपने
- काल तुझसे होड़ है मेरी
- कहीं बहुत दूर से सुन रहा हूँ (मरणोपरान्त प्रकाशित)
अज्ञेय द्वारा सम्पादित दूसरा सप्तक में भी शमशेर की कविताएँ संकलित रही हैं। इसके अतिरिक्त हिन्दी में ग़जल को एक विधा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी शमशेर को जाता है। शमशेर की ग़जलें और सुकून की तलाश संकलनों में उनकी ग़जलें प्रकाशित हुई हैं। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने शमशेर के काव्य व्यक्तित्व का परिचय देते हुए कहा है– ‘‘शमशेर का काव्य-व्यक्तित्व अपने में असाधारण है। उर्दू और पाश्चात्य काव्य धाराओं से उन में जितना प्रभाव आया है, उतने वे मौलिक हुए हैं। यूरोपीय प्रतीकवादियों के संस्पर्श ने उन्हें और ठेठ बनाया है।’’
5 नागार्जुन
नागार्जुन ने स्वयं को ‘जनकवि’ कहा है और उनकी लोकप्रियता और विशिष्टता का आधार भी यही है कि उनकी कविता में भारतीय जनसमाज का सीधा-सच्चा जीवन प्रतिध्वनित होता है। ‘कलम ही मेरा हल है कुदाल है’ मानने वाले नागार्जुन ने कविता के माध्यम से अपने समय और समाज की सतहों को खोद-खोद कर अपने युग का जीवन्त दस्तावेज रच डाला है। अपनी प्रखर राजनीतिक चेतना, प्रगतिवादी विचारधारा और लोकचेतना के साथ-साथ उन्होंने प्रकृति के भी मनोरम चित्र अपनी कविताओं में उकेरे हैं। विविधता, व्यापकता और सहज सम्प्रेषणीयता उनके काव्य की उल्लेखनीय विशेषता है। कवि के रूप में नागार्जुन का रचनाकाल सन् 1929 से 1997 तक, लगभग सड़सठ वर्ष का रहा। इसका कालावधि में प्रकाशित उनके प्रमुख काव्य संग्रह है–
- युगधारा
- सतरंगे पंखों वाली
- प्यासी पथराई आँखें
- तुमने कहा था
- हजार-हजार बाँहों वाली
- पुरानी जूतियों का कोरस
- रत्न गर्भ
- इस गुब्बारें की छाया में
- भूल जाओ सपने पुराने
- खिचड़ी विप्लव देखा हमनें
- ऐसे भी हम क्या, ऐसे भी तुम क्या
- आखिर ऐसा क्या कहा दिया मैंने
- अपने खेत में
- भस्मांकुर (खण्डकाव्य)
नागार्जुन की काव्यभूमि का विवेचन करते हुए नामवर सिंह की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है –‘‘जो वस्तु औरों की संवेदना को अछूती छोड़ जाती है, वही नागार्जुन के कवित्व की रचना-भूमि है। इस दृष्टि से काव्यात्मक साहस में नागार्जुन अप्रतिम हैं……..उनकी कविता का संसार वस्तुतः वह लोक सामान्य जीवन ही है, जिसे अति सामान्य समझकर अन्य कवि आँखें मूँद लेते हैं।’’
6 काव्यवस्तु / काव्य कथ्य / काव्य संवेदना
विचारधारा के स्तर पर नागार्जुन और शमशेर में कमोबेश साम्य दिखाई देता है पर काव्य वस्तु के स्तर पर दोनों दो अलग-अलग धरातलों पर स्थित हैं। अगर साम्यवादी विचार-दर्शन से जुड़ी कविताओं को छोड़ दिया जाए तो दोनों कवियों की मनोभूमि और रचना शिल्प में जमीन-आसमान का अन्तर है। शमशेर आद्यन्त प्रेम और सौन्दर्य के सृजन में अपने कवि कर्म का निर्वाह करते हैं, तो नागार्जुन देश-विदेश की राजनीतिक-सामाजिक हलचल को अपने काव्य में प्रश्रय देते हैं। शमशेर की कविता में उनके वैयक्तिक जीवन का राग-विराग मुखरित हुआ है, जबकि नागार्जुन की कविता में निजी जीवन की अपेक्षा जनजीवन की पीड़ा के स्वर अधिक अभिव्यक्त हुए हैं।
7 विचारधारा के प्रति आस्था
विचारधारा के स्तर पर नागार्जुन और शमशेर एक ही दिशा के पथिक रहे हैं। मार्क्सवादी चिन्तन, साम्यवादी विचारधारा दोनों ही कवियों के दर्शन को आधार देती है। शमशेर की कविता वाम वाम वाम दिशा में साम्यवाद ही जीवन को आलोक प्रदान करता दिखाई देता है–
हीन भाव, हीन भाव
मध्यवर्ग का समाज, दीन।
किन्तु उधर
पथ-प्रदर्शिका मशाल
कमकर की मुट्ठी में किन्तु उधर
आगे आगे जलती चलती है
लाल-लाल
…………..
लोकतन्त्र पूत वह
दूत, मौन कर्मनिष्ठ
जनता काः
मुक्ति का धनंजय वह
चिर विजयी वय में वह
ध्येय धीर
सेनानी
अविराम
वाम-पक्षवादी है
समयः साम्यवादी
नागार्जुन के काव्य में साम्यवाद के प्रति निष्ठा अधिक दृढ और मुखर है। शमशेर की तुलना में नागार्जुन की यह प्रतिबद्धता कहीं अधिक व्यापक-विस्तृत और गहरी है। नवयुग का आरम्भ कविता में वे पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से साम्यवाद का यशोगान करते हैं–
‘बढ़े सहयोग भेद मिट जाए, मिटे शोषण का नाम निशान
ढहे अन्यायों की दीवार, सुखी होते मजदूर किसान
खण्डहरों पर गाँव बसाते चले जा रहे
धरती के ये लाल प्रगति के गीत गा रहे’
नागार्जुन की लाल भवानी शीर्षक कविता में बुर्जुआ वर्ग के लिए स्पष्ट चेतावनी है–
‘होशियार, कुछ देर नहीं है लाल सवेरा आने में
लाल भवानी प्रकट हुई है सुना कि तेलगांने में’
स्टालिन कविता में वे स्टालिन लेनिन का ही जयगान नहीं करते, बल्कि साम्यवादी देशों के जन समाज का भी जयघोष करते दिखाई पड़ते हैं–
‘जय लेनिन। जय जय हे स्टालिन
स्वप्न तुम्हारे पूर्ण करेंगे
कोटि कोटि हैं हम, हम अनगिन
……………..
रूस चीन पूर्वी योरप के
जागृत जन समाज की जय हो’
वस्तुतः प्रगतिवाद से जितना गहरा और घनिष्ट रिश्ता नागार्जुन का है, उतना शमशेर का नहीं। प्रगतिवाद के प्रति स्वयं शमशेर का मत है कि ‘जहाँ तक वह मेरी निजी उपलब्धि है, वहीं तक मैं उन्हें, दूसरों के लिए मूल्यवान समझता हूँ।’ शमशेर ने मार्क्सवाद में आस्था रखते हुए भी उसे खुद पर हावी होने नहीं दिया, अपनी कविता में उसे उतना ही स्थान दिया, जितना उन्होंने संवेदन के स्तर पर अनुभव किया। विचारधारा के नाम पर कविता को नारा या प्रचार बना देना उनकी प्रकृति में नहीं रहा। जबकि नागार्जुन वामपन्थ के प्रति पूर्णतः समर्पित रहे हैं, किसानों, मजदूरों के प्रति सहानुभूति, धनकुबेरों के प्रति वितृष्णा और क्रान्ति का आह्वान उनकी कविताओं में व्यापक रूप से दिखाई पड़ता है। वे जन आन्दोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेते रहे और कई बार जेल भी गए। अपनी प्रतिबद्धता की घोषणा वे स्वयं इस शब्दों में करते हैं–
प्रतिबद्ध हूँ जी हाँ प्रतिबद्ध हूँ
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ
…………….
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ शतधा प्रतिबद्ध हूँ।
इस प्रकार नागार्जुन और शमशेर दोनों ने सामाजिक चेतना से युक्त कविताएँ रची है पर अनुपात में समान नहीं। नागार्जुन की सामाजिक चेतना के आगे शमशेर की सामाजिक प्रतिबद्धता से जुड़ी कविताएँ बेहद कम हैं। नागार्जुन की सामाजिक चेतना में पीड़ा, दुख, खीझ, आक्रोश, व्यंग्य आदि विविध भावों का समावेश है तो शमशेर के यहाँ करूणा की भावना प्रमुख रही है। उनकी दो प्रमुख चर्चित– कविताएँ बैल और अमन का राग में आद्यन्त करुणा का स्वर सुना जा सकता है।
“मुझे वह इस तरह निचोड़ता है
जैसे धानी में एक-एक बीज कसकर दबाकर पेरा जाता है।
मेरे लहू की एक-एक बूँद किसके लिए समर्पित होती है।
यह तर्पण किसके लिए होता है?
सुबह के अन्न देव के लिए?
शाम के अन्न देव के लिए?
जिसका नाम चारा है|”
साम्यवाद के प्रति प्रतिबद्धता रखते हुए जहाँ दोनों कवियों ने उसकी प्रशस्ति में कविताएँ लिखी हैं वहीं चीन-भारत युद्ध के दौरान नागार्जुन और शमशेर दोनों ने ही देश के प्रति गहरी अनुरक्ति और चीन के प्रति घृणा मिश्रित आक्रोश को अभिव्यक्ति दी है। दोनों की कविताओं का भाव साम्य देखने योग्य है। नागार्जुन की कविता का शीर्षक है– पुत्र हूँ भारत माता का, और कुछ नहीं–
‘‘नहीं, नहीं, कामरेड नहीं
आज तो दुश्मन हूँ तुम्हारा
पुत्र हूँ भारत माता का
और कुछ नहीं, हिन्दुस्तानी हूँ महज
कल का वामपंथी कम्युनिस्ट
…………….
माओ-शाओ-याओ-चेन
कल तुम साथी थे।
लगते थे सहज सहोदर
आज तुम शत्रु हो’’
एक अन्य कविता में नागार्जुन कहते है–
‘‘लाल चीन, लाल चीन, सब ठीक, लेकिन
काहे का मार्क्स, काहे का एंजेल्स, काहे का लेनिन
चले गए वे दिन, लद गए वे दिन’’
ठीक इसी प्रकार की विरक्ति और आक्रोश शमशेर की कविता सत्यमेव जयते में व्यक्त हुआ है–
‘‘अगर तोपो के मुँह में जबान है सच्चाई की
और बमबार ही भाई-भाई को पहचानेंगे
तो मार्क्स को जला दो, लेनिन को उड़ा दो
माओ के क्यून-ल्यून को प्रशान्त महासागर में डुबा दो’’
8 नागार्जुन की कविता का केन्द्रीय स्वर : लोक और राजनीति
नागार्जुन की कविता का फलक व्यापक और विस्तृत है। स्वानुभूति से लेकर, विश्व पटल पर होने वाली हर सामाजिक, राजनीतिक गतिविधि, प्रकृति से लेकर इतिहास-पुराण तक उनकी लेखनी के दायरे में सिमट आए हैं। उनका रचना फलक इतना विस्तृत है कि किसी एक फ्रेम में उसे कैद करना सम्भव नहीं। उनकी कविता का केन्द्र लोक है पर उसकी परिधि देशकाल के हर छोर को छूती है। उनकी चेतना सिर्फ लोकोन्मुखी नहीं है, वह लोक के बीचों-बीच उभरती है। लोक का हर्षोल्लास हो या उनके अभावों की पीड़ा, नागार्जुन की कविता सबको वाणी देने का दमखम रखती है। शिशु की दन्तुरित मुस्कान, नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ, ठहाके लगाते, सुरती फाँकते कुली मजदूर, रिक्शा चलाते फटी बिवाइयों वाले पैर, पकी सुनहरी फसलों की मुस्कान, इस तरह के सैकड़ों जन-जीवन के चित्र उनकी कविता में हैं। इस विषय में नागार्जुन की स्पष्ट राय है–
‘‘तुच्छ से अति तुच्छजन की जीवनी पर हम लिखा करते
कहानी, काव्य रूपक गीत
क्योंकि हमको स्वयं भी तो तुच्छता का भेद है मालूम
कि हम पर सीधे पड़ी है गरीबी की मार’’
गरीबी की मार झेलते लोक की व्यथा-कथा कविता में उभरती है तो एक नई ऊर्जा का संचार करती है। नागार्जुन का कवि कर्म जन-जन में ऊर्जा भर देने का मानो संकल्प है–
‘‘जन-जन में जो ऊर्जा भर दे, मैं उद्गाता हूँ उस रवि का’’
नागार्जुन की कविता का एक अन्य पहलू है स्वदेशी शासकों पर व्यंग्य की कठोर मार। आज़ादी के बाद देश की राजनीति का आँखों देखा हाल जैसे उनकी कविता में सिमट गया है। एक-एक कर सभी राजनेताओं की पोल खोल कर रख देना उनका प्रिय विषय रहा है–
‘‘जा जाकर दिल्ली-लन्दन
बुर्जुआ शिष्टता सीख-सीख कर
अपनी सामंती संस्कृति में
पश्चिम के विज्ञानवाद की छोंक मारकर
वायुयान से वापस आओ
हमें सीख दो शान्ति और संयत जीवन की
अपने खातिर करो जुगाड़ अपरिमित धन की’’
विश्वभर की राजनीतिक सामाजिक हलचल पर भी नागार्जुन की दृष्टि रही है, चीन, कोरिया, वियतनाम, सोवियत संघ, पूर्वी यूरोप के समाजवादी देश, अफ्रीका, एशिया अमेरिका तक के देशों की नीतियों और स्थितियों पर उन्होंने कविताएँ लिखी हैं–
‘गली गली में आग लगी है घर घर बना मसान
लील रहा कोरिया मुलुक को अमरीकी शैतान’’
नागार्जुन की बहुत-सी ऐसी कविताएँ हैं, जो देश-विदेश की तात्कालिक घटनाओं की प्रतिक्रियावश लिखी गई हैं। ऐसी कविताएँ इतिहास की दृष्टि से भले ही महत्त्पूर्ण मानी जाए पर कला की दृष्टि से महत्त्वहीन हैं। जबकि शमशेर की कविता कलात्मक दृष्टि से काल से होड़ लेती हैं। वे सामयिक नहीं है उनकी अर्थवत्ता देशकाल की सीमा से परे है, स्वयं शमशेर काल को चुनौती देते कहते है–
“काल तुझसे होड़ है मेरीः
अपराजित तू-तुझमें अपराजित मैं वास करूँ।”
3 शमशेर की काव्य संवेदना : प्रेम और सौन्दर्य
शमशेर की काव्य संवेदना का मूल उत्स प्रेम है। इस प्रेम में ऐन्द्रियता, माँसलता और रोमनियत है, साथ ही वह उदात्त भाव भी, जो व्यक्तिगत प्रेमानुभूति से पैदा होकर वैश्विक प्रेम भाव में तब्दील होता नज़र आता है। शमशेर की कविता में प्रेम एक व्यापक जीवनमूल्य के रूप में उभरता है–
‘‘चुका भी हूँ मैं नहीं
कहाँ किया मैंने प्रेम
अभी
जब करूँगा प्रेम
पिघल उठेंगे
युगों के भूधर
उफन उठेगें
सात सागर’’
उनके प्रेम में गहराई है, एकान्त समर्पण है और तीव्र वेदना भी–
“मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार
जिसके स्वर गीले हो गए हैं
छप् छप् छप् मेरा हृदय कर रहा है…..
छप् छप् छप्”
शमशेर की प्रेम कविताएँ एकान्त क्षणों के अकेलेपन में रची गई स्वानुभूति की कविता है। जहां वे स्वयं में घिरे, स्वयं से एकालाप करते दिखाई देते हैं, या अपनी प्रेयसी से संवाद–
“खुश हूँ कि अकेला हूँ
कोई पास नहीं है
बजुज एक सुराही के,
बजुज एक चटाई के
बजुज़् एक ज़रा से आकाश के,
जो मेरा पड़ोसी है मेरी छत पर
(बजुज़़ उस के, जो तुम होती– मगर हो फिर भी यहीं कहीं अजब तौर से।)”
माना जाता है कि यह कविता उन्होंने अपनी दिवंगत पत्नी की स्मृति में रची है। नागार्जुन की भी एक प्रसिद्ध कविता है– सिन्दूर तिलकित भाल जिसमें नागार्जुन पत्नी का स्मरण करते हैं। पर नागार्जुन की इस कविता में पत्नी की स्मृति से कहीं अधिक पूरे सामाजिक परिवेश का अभाव अधिक उभर कर आता है। प्रेयसी के प्रेम या विरह की पीड़ा से ज्यादा प्रवासी होने का दर्द और अपने सामाजिक परिवेश से कटे होने की पीड़ा इस कविता में व्यंजित हुई है–
‘‘कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज
कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज
…………
तभी तो तुम याद आती प्राण
हो गया हूँ मैं नहीं पाषाण
याद आते स्वजन……
याद आता मुझे अपना वह ‘तरउनी’ ग्राम
याद आती लीचियाँ वे आम
याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग
याद आते धान’’
शमशेर ने प्रेम और सौन्दर्य को जिन बिम्बों के माध्यम से उभारा है, उनमें ऐन्द्रियता है, दैहिक आकर्षण और आवेग है। हिन्दी कविता में बहुत कम ऐसी प्रेम कविताएँ लिखी गई है, जिनमें प्रेम और सौन्दर्य का ऐसा माँसल चित्रण हुआ हो–
“तुम्हारा सुडौल बदन एक आबशार है
जिसे मैं एक ही जगह खड़ा देखता हूँ
ऐसा चिकना और गतिमान
ऐसा मूर्त सुन्दर उज्ज्वल।”
4 प्रकृति
शमशेर का सौन्दर्य बोध जहाँ एक ओर स्त्री देह के अनावृत अकुण्ठ रूप का उद्घाटन करता है तो दूसरी ओर प्रकृति के प्रति रागात्मकता और उसके सौन्दर्य के विविध आयामों को भी चित्रित करता है। प्रकृति जैसे उनकी निजी संवेदना से एकाकार हो कविता में साकार हो उठती है–
‘‘चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
जल रहा है आसमान
एक दरिया उमड़ कर पीले गुलाबों का
चूमता है बादलों के झिलमिलाते
स्वप्न जैसे पाँव’’
उनकी कविताओं में प्रकृति और मनोभाव एक-दूसरे में संक्रमित हो जाते हैं, दोनों में द्वैत नहीं रह जाता–
“पी गया हूँ दृश्य वर्षा काः
हर्ष बादल का
हृदय में भरकर हुआ हूँ हवा-सा हलका|”
नागार्जुन ने भी प्रकृति पर अनेक कविताएँ लिखी हैं। वर्षा, चाँदनी, खेत, पहाड़, बादल – प्रकृति के विविध रंगों रूपों को अपनी कविता में जीवन्त किया है लेकिन नागार्जुन प्रकृति से अभिभूत होते हुए भी उसका वस्तुगत चित्रण ही अधिक करते हैं। प्रकृति का सौन्दर्य भी जनजीवन से जुड़ा हुआ है। ऊपर शमशेर ने वर्षा के जिस दृश्य को निजी अनुभूति से एकाकार कर लिया है, वही वर्षा नागार्जुन की कविता में जन के जीवन की उमंग से जुड़कर प्रस्तुत होती है–
‘‘निकलेंगे झोपड़ों से छोकरे अलंग
रहेगा जामुन सा रूप देह का रंग
सिखलाएँगे झरनों को बहने का ढंग
ढलेंगे छन्द मादल बाँसुरी के संग
लो, यह उमड़ उमड़ आया’’
पूर्णिमा का चाँद शमशेर की कविता में आसमान और बादलों तक ही सिमटा रहता है, नागार्जुन उसे खेतों खलिहानों तक पहुँचा देते हैं–
“पके धान की कनक मंजरी एक नहीं सौ बनी झालरें
उड़द मूँग की फलियों वाली बेलों की बिछ गई चादरें
चौकस खेतिहरों ने पाए ऋद्धि सिद्धि के आकुल चुम्बन
शरद पूर्णिमा धन्य हुई जनलक्ष्मी का करके अभिनन्दन”
5 काव्य-शिल्प
नागार्जुन और शमशेर की काव्य-वस्तु में जितना अन्तर है उससे कहीं ज्यादा अन्तर उनके काव्य-शिल्प और भाषा के स्वरूप में दिखाई देता है.
नागार्जुन परिेवेश का वस्तुगत चित्रण करते हैं। उनकी कविता में कल्पना और सौन्दर्य के अन्य उपकरणों का उतना ही उपयोग है, जितना वस्तु को स्पष्ट अभिव्यक्ति देने के लिए आवश्यक है। उनकी कविता में वस्तु महत्त्वपूर्ण है, कला के प्रतिमान वस्तु की अपेक्षा गौण महत्व रखते हैं। अपनी कविता – माँजो और
माँजो में वे रूपवादी कवियों पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं–
‘‘मत करो पर्वाह- क्या है कहना
कैसे कहोगे, इसी पर ध्यान रहे
……..
वस्तु है भूसी, रूप है चमत्कार
ध्वनि और व्यंग्य पर मरता है संसार
वाच्य या आशय पर कौन देता ध्यान
तर्ज और तरन्नुम है शायरी की जान’’
इसके विपरीत शमशेर की कविता में शिल्प के प्रति अत्यधिक सजगता है। वे अपने जटिल और संश्लिष्ट बिम्बों के लिए जाने जाते हैं।
जगदीश कुमार के शब्दों में– ‘‘ कविता के लिए वे (शमशेर) सर्वोत्तम विचार बिम्बों और सुन्दरतम शब्द-विन्यासों की श्रम साध्य खोज करते हैं। अन्तर आश्वस्त न हो जाए तो एक कविता के अनेक ड्राफ्ट बनते चले जाते हैं।’’
इस अत्यधिक शिल्प सजगता के कारण शमशेर की कविता अत्यधिक दुरूह हो जाती है और जनसामान्य तक सम्प्रेषित नहीं हो पाती। उनकी कविता को समझने, उसका आस्वाद लेने के लिए पाठक की भी रचनात्मक प्रतिभा अभीष्ट है। उदाहरण के लिए–
‘‘एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता,
पूरब से पश्चिम को एक कदम से नापता
बढ़ रहा है’’
या
‘‘मैंने शाम से पूछा
या शाम ने मुझसे पूछा
इन बातों का क्या मतलब
मैंने कहा-
शाम ने मुझसे कहाः
राग अपना है’’
शमशेर कविताओं में बहुत कम बोलते हैं, और बहुत कुछ अनकहा छोड़ देते हैं, टूटते वाक्यों से आधा-अधूरा मंतव्य प्रकट कर शेष पाठक की कल्पना और काव्य-विवेक पर छोड़ देते हैं।
बात बोलेगी हम नहीं
भेद खोलेगी बात ही
नागार्जुन के काव्य-शिल्प की सबसे बड़ी विशेषता उसकी सादगी और सहजता है। उनकी भाषा में सहज रवानगी है। सायास शब्द चयन की अपेक्षा यहाँ बहती हुई प्रवाहमयता है। भाव-सम्प्रेषण उनका मुख्य सरोकार है, उसके लिए नागार्जुन को जहाँ जो शब्द सार्थक-सटीक लगता है, उसका वे बेझिझक इस्तेमाल करते हैं। शब्दों के प्रयोग में भाषा की कोई सीमा या वर्जना उनके यहाँ नहीं है, संस्कृत, खड़ी बोली, मैथिली, अंग्रेजी, पंजाबी, बंगाली हर भाषा के शब्द प्रयोग नागार्जुन की कविता में मिलते हैं। उनकी बिम्ब योजना भी लोक जीवन से ही उपकरण चुनती है इसीलिए सहज सम्प्रेषणीय है।
“झपटी पछिया
दरक गए केलों के पात
लेते ही करवट
तेजाब की फुहारें
छिड़कने लगा सूरज
मुँह बा दिया कलियों ने
देखती रही निठुराई के खेल
चुपचाप कलमुँही
भर गया जी
जोरों से कूक पड़ी”
शमशेर के लिए भाषा सम्प्रेषण का माध्यम भर नहीं बल्कि स्वयं में कविता है। भाषा स्वयं में रचनात्मक अभिव्यक्ति है। शब्द और अर्थ को अलग कर देखना इनकी कविताओं में सम्भव नहीं, शमशेर चित्रकार भी रहे हैं, उनकी कविता भी चित्रों की भाषा-सी रंगत लिए हुए है। शब्द, चित्र और ध्वन्यात्मकता के संयोग से भाषा एक विशिष्ट रूप में ढल कर कविता बनती है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने इसी तथ्य को लक्षित कर लिखा है–
‘‘कविता, संगीत और चित्रांकन की एक अद्भुत त्रिवेणी शमशेर के यहाँ प्रवाहित है…. चित्रकला, संगीत और कविता घुलमिलकर रचना सम्भव करते हैं।’’
नागार्जुन और शमशेर के काव्य-शिल्प में जो अन्तर दिखाई देता है, उसका एक कारण यह भी है कि नागार्जुन संस्कृत पाली प्राकृत और मैथिली भाषा-साहित्य से संस्कार ग्रहण करते हैं, जबकि शमशेर के काव्य में पाश्चात्य प्रभाव भी है और उर्दू कविता का संस्कार भी। वे अपनी गजलों के लिए विशेष रूप से याद किए जाते हैं और स्वयं को ‘हिन्दी उर्दू का दोआब’ घोषित करते हैं। उनकी बिम्ब योजना में पश्चिमी बिम्बवाद का स्पष्ट प्रभाव है तो भाषा में उर्दू की नफासत विद्यमान है जबकि नागार्जुन में संस्कृत काव्य परम्परा का प्रभाव और मैथिली की सहज मिठास घुली हुई मिलती है। दोनों कवियों के रचना शिल्प के अन्तर को समझने के लिए उदाहरण स्वरूप उनकी दो कविताओं के अंश देखे जा सकते हैं। शमशेर की कविता है एक नीला आइना । उसमें चाँदनी की अभिव्यक्ति इस प्रकार बिम्बित है–
‘‘एक नीला आइना
बेठोस सी यह चाँदनी
और अन्दर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में
मौन में इतिहास का कन-किरण जीवित
एक, बस
एक पल के ओट में है कुल जहान
आत्मा है आखिल की हठ सी’’
नागार्जुन की कविता फिसल रही चाँदनी में चाँदनी एक अलग सौन्दर्य बोध लिये उजागर होती है–
‘‘पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी
नालियों के भीगे जो हुए पाट पर पास ही
जम रही, घुल रही, पिघल रही चाँदनी
पिछवाड़े बोतल के टुकड़ों पर
चमक रही, दमक रही, मचल रही चाँदनी’’
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि दोनों कवियों का सौन्दर्य बोध एकदम भिन्न है। शमशेर की कविता शब्दार्थ के सीधे सहज रास्ते पर नहीं चलती, वह रंगों, रेखाओं, ध्वनियों, स्वरों की अमूर्त्त लहरों पर तरंगित होती है। वे स्थूल दृश्यों का निर्माण नहीं करते, बल्कि सूक्ष्म बिम्बों में अपनी अनुभूतियों को तराशते हैं। जैसे कोई मूर्तिकार पत्थर को तराश उसे रूपाकार देता है, वैसा ही तराशा हुआ संवेदन उनकी कविता में मूर्त्त होना है। उनकी कविता में वर्णन विस्तार न होकर सिर्फ सूक्ष्म संकेत हैं, जो व्यंजक होते हुए भी अर्थ की सीधी पकड़ नहीं देते। उनकी कविता चमत्कृत करती है, पर सम्प्रेषित नहीं होती। उसी कारण उन्हें ‘कवियों का कवि’ तथा ‘शुद्ध कवि’ जैसे विशेषण दिए गए हैं।
नागार्जुन के लिए कविता सिर्फ कला कृति नहीं, वह अन्याय से लड़ने का हथियार है, जिससे वार करने में वे सिद्धहस्त हैं। जनविरोधी व्यवस्था पर वार करना उनकी कविता की सिद्धि है। कला या कविता की उन्हें परवाह नहीं। उनकी मुख्य चिन्ता सौन्दर्य, बिम्ब की बनावट या भाषा की नफ़ासत नहीं, बल्कि भारतीय जनसमाज की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार व्यवस्था को दुरुस्त करने की है। इस कोशिश में कई बार उनकी कविता कविताई छोड़ नारा भी बन जाता है, व्यंग्य व्यंजना छोड़ अभिधात्मक गाली बन जाती है और कविता सौन्दर्य का ताना-बाना तोड़ भदेस बन जाती है। पर नागार्जुन को न कविताई की परवाह है न सौन्दर्य से प्रतिमानों की। अपनी अभिव्यक्ति पर स्वयं नागार्जुन की टिप्पणी है–
‘‘खूब गालियाँ बको, जभी तो लोग रखेंगे याद
नागा बाना, बनो आप ही तुम अपना अपवाद
कड़वी तीखीं वाणी के चटपटे कहेंगे स्वाद
घोर अघोड़ी अभिव्यक्ति पर जनता देगी दाद’’
लेकिन नागार्जुन की कविता में कविताई को सिरजने वाली अभिव्यक्ति भी उसी मात्रा में मौजूद है, इसलिए नागार्जुन के बिना आधुनिक हिन्दी कविता का विश्लेषण सम्भव नहीं। उनकी कई कविताओं को हम सामयिक कह सकते हैं, कई अभिव्यंजनाओं पर नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं लेकिन नागार्जुन की कविता के दम-खम को नकार नहीं सकते। इस सन्दर्भ में डॉ. रामविलास शर्मा की टिप्पणी अत्यन्त सटीक लगती है–
‘‘नागार्जुन ने लोकप्रियता और कलात्मक सौन्दर्य के सन्तुलन और सामन्जस्य की समस्या को जितनी सफलता से हल किया है, उतनी सफलता से बहुत कम कवि– हिन्दी से भिन्न भाषाओं में भी हल कर पाए हैं।’’
6 निष्कर्ष
शमशेर और नागार्जुन के बीच समानता के बिन्दु बेहद कम हैं, लगभग नगण्य। यद्यपि दोनों समकालीन है, एक ही युग और एक ही विचारधारा से जुड़े हुए। किन्तु दोनों के कवि व्यक्तित्व एक-दूसरे से एकदम भिन्न हैं। दोनों का काव्य संसार एक-दूसरे से जुदा है, अन्दाज़े-बयाँ में फ़र्क है और आस्वाद भी अलग। नागार्जुन की कविता में भारतीय जनमानस की व्यथा-कथा है, मिट्टी की गन्ध है तो शमशेर की कविता हवा-सी है, ताज़गी देती मगर वायवीय, जिसे अनुभव किया जा सकता है पर पकड़ना मुश्किल है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- नागार्जुन रचनावली, सम्पादक- शोभाकान्त, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- शमशेर कवितालोक, जगदीश कुमार, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- नागार्जुन का रचना-संसार, विजय बहादुर सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- शमशेर का अर्थ, ज्योतिष जोशी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- आधुनिक कविता का इतिहास, नन्दकिशोर नवल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
- आधुनिक कविता यात्रा, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- शमशेर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना/ मलयज(सम्पा.), राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
- कवियों का कवि शमशेर, रंजना अरगड़े, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- शमशेर: कवितालोक, जगदीश कुमार, नई दिल्ली,
- जनकवि नागार्जुन, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार,नई दिल्ली
- नागार्जुन रचना संचयन, चयन और सम्पादन-राजेश जोशी,साहित्य अकादमी,नई दिल्ली
पत्रिकाएँ –
- सापेक्ष सम्पादक – महावीर अग्रवाल, अंक- जनवरी, मार्च 1994
- अनभै साँचा, सम्पादक – चारुमित्र
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
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- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8