13 खबर और कविता
प्रो. रामबक्ष जाट
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- खबर : हँसो हँसो जल्दी हँसो और लोग भूल गए हैं
- खबर और रामदास
- नारी जीवन से जुड़ी ख़बरें और रघुवीर सहाय की कविता
- राजनीतिक ख़बरें और रघुवीर सहाय की कविता
- हिन्दी कविता पर रघुवीर सहाय का प्रभाव
- निष्कर्ष
1. पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- खबर और कविता का अन्त:सम्बन्ध जान सकेंगे।
- हिंदी में खबर को कविता बना देने के चमत्कारिक प्रारम्भ से परिचित होंगे।
- रघुवीर सहाय की कविता में ख़बरों के उपयोग समझ सकेंगे।
- खबर के कविता बन जाने की तरकीब समझ सकेंगे।
2. प्रस्तावना
रघुवीर सहाय एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपनी कविताओं में ख़बरों का सार्थक उपयोग किया है। उनकी कविताएँ जीवन विरोधी स्थितियों की पहचान और पाठक को उनसे मुठभेड़ के लिए तैयार करती हैं। इस क्रम में हमारे जीवन में घटित होने वाली घटनाओं, स्थितियों और परिस्थितियों से जुडी हुई ख़बरों का सार्थक इस्तेमाल करते हैं और उन्हें कविता में तब्दील करते हैं। इसलिए उनकी कविता के सौन्दर्यशास्त्र को ‘खबर का सौन्दर्यशास्त्र’ कहा जाता है। खबर को कविता में तब्दील करने के कारण उनकी अधिकांश कविताओं की विषयवस्तु और भाषा खबरधर्मी है। आज की व्यवस्था में मनुष्य सुरक्षित नहीं है। उनकी कविताएँ इसी अरक्षित-असहाय व्यक्ति के जीवन की ख़बरें हैं –
फिर जाड़ा आया फिर गर्मी आई
फिर आदमियों के पाले से, लू से मरने की खबर आई
न जाड़ा ज्यादा था, न लू ज्यादा
तब कैसे मरे आदमी।
दरअसल ये अखबार की ख़बरें हैं। जाड़ा और लू से मरने वालों की खबर अखबार में आम है। रघुवीर सहाय इस खबर को कविता का विषय बनाते हैं और खबर को केवल खबर नहीं रहने देते। वे ऐसी ख़बरों के भीतर की खबर को तलाश करते हैं और कविता में ढाल देते हैं। वे मानते हैं– “पत्रकार और साहित्यकार में कोई अन्तर है क्या? मैं मानता हूँ कि नहीं है। इसलिए नहीं कि साहित्यकार रोजी के लिए अखबार में नौकरी करते हैं, बल्कि इसलिए कि पत्रकार और साहित्यकार दोनों एक नए मानव सम्बन्ध की तलाश करते हैं।”
हिन्दी में ‘खबर’ से कविता बनाने की सार्थक शुरुआत रघुवीर सहाय ने की। अब तक खबर की दुनिया और कविता की दुनिया में कोई तालमेल बैठ नहीं पाया था। पेशे से पत्रकार होने के कारण रघुवीर सहाय ने अपने पत्रकार जीवन के अनुभव-चिन्तन को साहित्यिक रूप देने का निश्चय किया। हिन्दी कविता में खबर की दुनिया से कविता बनाने-रचने की परम्परा का बहुत विकास हुआ है। अब तो हिन्दी कविता का बड़ा हिस्सा खबरों की दुनिया से खुराक ग्रहण करता है।
भारत जैसे देश में, जहाँ आजादी और अत्याचार का सह-अस्तित्व है और जहाँ जनतान्त्रिक जीवन-मूल्य दाँव पर लगे हुए हैं, वहाँ प्रेस और प्रेस की खबरें बहुत मूल्यवान हैं। यहाँ पर अखबार को दुहरा दबाव वहन करना पड़ता है। अखबार अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए देश की शिक्षित जनता पर निर्भर है। उसे सरकारी कोप के साथ-साथ अलोकप्रिय बनते जाने का भय भी बना रहता है। इस दुहरे भय के कारण इस विशाल विश्व में बिखरी हुई दैनिक घटनाओं में से क्या खबर है और क्या खबर नहीं है, यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण बन जाता है। यह सवाल समाचार पत्र के संपादक व उसके स्वामी के सामने भी आता है। वे लोग अपने हानि-लाभ का हिसाब करके उनमें से खबर का चयन करते हैं। इस चयन-प्रक्रिया में से अरुण कमल ने कविता की गुंजाइश निकाल ली। अखबारों में खबर छपती हैं, ‘केलिफोर्निया की एक कुतिया ने तेरह बच्चे एक साथ जने’ या ‘विश्वसुन्दरी का वजन 39 किलो है’ या ‘प्याज बड़ा गुणकारी होता है’ आदि। ऐसी अराजनीतिक एवं सनसनीखेज खबरों से आम आदमी का क्या लेना-देना हो सकता है? या ‘युवराज ने कंगालों में कम्बल बाँटें ’, ‘राजनेता ने दाढ़ी मुँड़ाई’ जैसी खबरें छपती हैं। लेकिन कई घटनाएँ खबर नहीं बन पाती। अरुण कमल की खबर शीर्षक कविता यही सीधा सवाल पूछती है कि यह विधि की विडम्बना है या इसके पीछे कोई दुष्चक्र है?
यह सही है कि अखबार में खबर होने का निर्णय बहुत पेचीदा होता है और व्यवस्था विरोधी खबरों को भरसक दबाने का प्रयास किया जाता है, लेकिन लड़खडाती हुई व्यवस्था की खबरें उसके भीतरी खोखलेपन को व्यक्त कर ही देती हैं। इससे व्यवस्था का खोखलापन व भयावहता प्रतिबिम्बित होती रहती है। व्यवस्था विरोधी रचनाकारों ने इस कारण खबर के रचनात्मक उपयोग को पर्याप्त महत्त्व दिया है।
यहाँ इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है कि खबर को कविता बनाने की प्रक्रिया से कविता के स्वरूप में क्या-क्या परिवर्तन हो जाता है? या कहें कि खबर किन शर्तों से कविता में बदल जाती है। खबर को कविता बनाते ही कविता की भाषा में सहज रूप से परिवर्तन हो जाता है। भाषा में सरल बोलचाल के शब्द और प्रचलित उपमाएँ आने लगती हैं। काव्य-भाषा अलंकारों के लबादे और अप्रस्तुत विधान के बोझ को परे हटा देती है। इसी के साथ-साथ प्रचलित और सामाजिक अनुभव से कविता की ‘वस्तु’ बनती है। यहाँ पर विशिष्ट और वैयक्तिक अनुभवों को काट-छाँट कर अलग कर लिया जाता है। इन कविताओं का अनुभव सार्वजनिक अनुभव है। इसका कारण यह है कि जनसंचार के माध्यम, अखबार आदि सीधे ‘पब्लिक’ को सम्बोधित होते हैं। उनकी खबरें ‘पब्लिक’ के आस्वाद के लिए होती हैं। अतः खबर-प्रधान कविताओं में ऐसा कोई विचार, अनुभव या तथ्य नहीं आता, जिसका सम्बन्ध सामान्यतः आम जनता से न हो। आम जनता के दैनिक जीवन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होना इस कविता की पहली शर्त है। इस अनुभव के द्वारा लम्बी कविता का सृजन सम्भव नहीं है। खबर अत्यन्त संक्षिप्त होती है और उसका प्रभाव तीक्ष्ण होता है या कि होना चाहिए। खबर को व्यक्त कर देने के बाद उसकी अभिव्यक्ति का ‘ग्लैमर’ तुरन्त समाप्त हो जाता है। अतः खबर को कविता में लाते ही कविता का रूपवादी आग्रह समाप्त हो जाता है। यहाँ ‘बात’ मुख्य है, ‘अन्दाज-ए-बयाँ’ नहीं। कहने का ढंग अत्यन्त स्पष्ट और सीधा होना चाहिए। अतः ऐसी कविताओं में रूप और वस्तु का द्वन्द्व दिखाई नहीं देता। यहाँ रचनाकार को खबर में से कविता को निकालना होता है। खबर के अर्थ में रचनाकार अपनी दृष्टि का मेल करने का प्रयास करता है। यदि रचनाकार इसमें सफल हो जाता है तो कविता बन जाती है, अन्यथा मात्र वक्तव्य बन कर रह जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उपयोगी होगा कि ‘कवि-हृदय’ के अभाव में खबर को कविता बनाने का प्रयास आत्मघाती साबित होगा। यहाँ छद्म कवियों के पकड़े जाने की सम्भावना सर्वाधिक है। हालाँकि इस प्रक्रिया से हिन्दी में सर्वाधिक छद्म कवि पनपे।
3. खबर : हँसो हँसो जल्दी हँसो और लोग भूल गए हैं
रघुवीर सहाय के कविता संग्रह हँसो हँसो जल्दी हँसो (1975) और लोग भूल गए हैं (1982) खबर की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। हँसो हँसो जल्दी हँसो में देश के राजनीतिक भविष्य के लिए निराशा की हद तक आशंका की भावना व्यक्त हुई है। इस स्थिति पर रघुवीर सहाय ने आत्मविश्वासपूर्वक अचूक व्यंग्य किया है। इस व्यंग्य को कवि ने अत्यन्त हल्का बनाकर इस सरलता से अभिव्यक्त किया है, जिसमें उसका यह सृजित हल्कापन मारक बन गया है। इन कविताओं में कवि ने इस शासन तन्त्र के संचालकों की अभद्रता और अशिष्टता पर ज्यादा चोट की है। इनमें नौकरशाही की फूहड़ता और उसके अज्ञान मिश्रित दम्भ के मिले-जुले बिम्ब मिलते हैं। शासन के सूत्रधार जिन गुणों को अपनी शान समझते हैं, रघुवीर सहाय उन्हीं गुणों को उनकी बेहूदगी समझते हैं। इस सन्दर्भ में आपकी हँसी शीर्षक कविता का विश्लेषण प्रासंगिक होगा।
निर्धन जनता का शोषण है
कह कर आप हँसे
लोकतन्त्र का अन्तिम क्षण है
कह कर आप हँसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कहकर आप हँसे
कितने आप सुरक्षित होंगे मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पाकर
फिर से आप हँसे।
इस कविता के ‘आप’ शासन के संचालक हैं। यह संचालक नौकरशाह भी है और राजनेता भी। यह छुट-भैया भी है औऱ शीर्षस्थ भी। ‘आप’ की हँसी में अश्लीलता, फूहड़ता, बेहयाई, निर्ममता और धूर्तता का मिश्रण है। कवि के सम्बोधन में ‘आप’ के प्रति एक विशेष प्रकार के विकर्षण और अवहेलना मिश्रित दबी हुई घृणा का भाव हुआ है। ‘हँसी’ सामान्यतः निर्मल भाव स्थिति है, लेकिन ‘आपकी हँसी’ अश्लील है। ‘आप’ अपराजेय हैं, लेकिन घृणित भी, क्योंकि ‘आप’ के विरोधी असंगठित और कमजोर हैं। ‘आप’ इसे जानते हैं। ‘आप’ निश्चित हैं। इस निश्चिन्तता ने ‘आप’ की गन्दगी और कमीनेपन को उभार कर रख दिया है। ‘आप’ दूसरे को दुःख देकर खुश होते हैं, क्योंकि अब ‘आप’ की ‘मनुष्यता’ मर चुकी है। ‘आप’ से मिलना मेरी मजबूरी है, लेकिन ‘आप’ असह्य हैं। ‘आप’ को मेरी भावनाओं की जानकारी नहीं है, क्योंकि ‘आप’ की नजर में मैं महत्त्वहीन हूँ और मेरी भावनाएँ ‘आप’ का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकतीं; ऐसा ‘आप’ मानते हैं। मैं इसे जानता हूँ। पूरी कविता वर्णन की शैली में लिखी गई है। इसमें ऐसे विवरण दिए गए हैं, जिससे ‘आप’ का व्यक्तित्व उभरता है।
4. खबर और रामदास
रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता रामदास का कथ्य खबर की बुनियाद पर टिका हुआ है। रामदास के वर्णन में रचनाकार की विवशता मिश्रित करुणा व्यक्त हुई है। यह कविता असहायता से उत्पन्न मानवीय दर्द को अत्यन्त सहज लेकिन प्रभावशाली ढ़ंग से सामने लाती है। इसमें समकालीन मनुष्य के स्वार्थी और तटस्थ होते चले जाने पर करारा व्यंग्य है। इसमें रामदास के लिए करुणा है और मध्यवर्गीय व्यक्ति की ‘कायरता’ पर व्यंग्य है। लेकिन यह व्यंग्य आत्म व्यंग्य के रूप में आता है। यह कायरता जितनी बाहर है, उतनी ही भीतर भी। आज मनुष्य में अवसरवाद और कायरता के साथ-साथ निर्लज्जता भी मिल गई है। चिन्ता की बात यह है कि अपनी स्वार्थपरता पर हमें जो शर्म आनी चाहिए, वह बन्द हो गई है। कायरता इस समाज व्यवस्था का अभिशाप है। यह वांछनीय नहीं है, लेकिन आश्चर्यजनक भी नहीं है। इसके लिए मनुष्य शर्मिन्दा होता है, उसे शर्मिन्दा होना चाहिए। अपनी कायरता के लिए यह शर्मिन्दगी मनुष्य होने का एक प्रमाण है। रघुवीर सहाय की चिन्ता यह है कि यह शर्मिन्दगी अब समाप्त हो गई है।
रघुवीर सहाय उस व्यक्ति के पक्षधर रचनाकार हैं, जो पीड़ा सहता है, पिटता है और मर जाता है लेकिन विरोध नहीं कर पाता। ऐसा नहीं है कि वह विरोध कर नहीं सकता, बल्कि वह विरोध की क्रिया से बेखबर है। वह इस बात से बेखबर हैं कि इन स्थितियों से बचा जा सकता है, बचाने वाले लोग और संगठन इस दुनिया में हैं। रघुवीर सहाय का रामदास चुपचाप मर जाने में ही अपनी कुशलता समझता है। ऐसे रामदासों के प्रति अत्यन्त ममत्व और गहरा दुःख रघुवीर सहाय की कविताओं में मिलता है। निम्न मध्यवर्ग के बेरोजगार युवक, स्त्रियां, भिखारी, असहाय-अकेला मजदूर आदि इस तरह के पात्र उनकी कविताओं से सहानुभूति बटोर ले जाते हैं। रामदास जब मरता है तो अकेला होता है। कोई उसकी सहायता नहीं करता। यही नहीं, रामदास को अपने साथियों से प्रभावशाली सहायता मिलने की आशा भी नहीं है, इसलिए वह सहायता लेने का प्रयास तक नहीं करता। मरने से ठीक पहले (जबकि उसे पता है) तक वह सामान्य कार्यक्रम से चलता है।
- नारी जीवन से जुड़ी ख़बरें और रघुवीर सहाय की कविता
रघुवीर सहाय की कविताओं में नारी चेतनाहीन, पीड़ित, नष्ट होती हुई, नीरस जिन्दगी जीती हुई आती है। उनकी इस स्थिति के लिए कवि के मन का संचित दुःख साथ-साथ आता है। किले में औरत कविता में उनका चित्रण यों है –
वे धोती थीं वे मलती थीं वे हँसती थीं
वे घुसती और दुबकती थीं
वे माँग जिस समय भरती थीं
तब कितना धीरज धरती थीं
वे सब दोपहर में एक किले पर
पहरा देती सोती थीं वे
ठिगनी थीं वे दुबली थीं वे
लम्बी थीं वे गौरी थीं
वे कभी सोचती थीं चुपचाप न जाने क्या
वे कभी सिसकती थीं अपने सबके आगे।
रघुवीर सहाय ने वैयक्तिक अनुभव को कविता का विषय नहीं बनाया है, बल्कि उन्होंने निरीक्षण को काव्य-सर्जन का आधार बनाया है। उनके यहाँ निरीक्षण जितना सूक्ष्म और वृहत्तर सन्दर्भों से जुड़ा हुआ होता है, कविता उतनी ही प्रभावशाली रूप में ‘रच’ जाती है। उनके निरीक्षण की प्राथमिक क्रिया पत्रकार की है, उसे रचना के रूप में कवि उपस्थित करता है। रघुवीर सहाय की विशेषता यह है कि अपने पत्रकार को कवि पर हावी नहीं होने देते बल्कि उनका कवि अपनी शर्तों पर पत्रकार से सहायता लेता है।
6. राजनीतिक ख़बरें और रघुवीर सहाय की कविता
रघुवीर सहाय की रचनाओं में विशेष प्रकार का राष्ट्रवाद मिलता है। उनके द्वारा किए गए पात्रों के चुनाव के पीछे वर्गीय दृष्टि नहीं रहती, बल्कि राष्ट्रीय दृष्टि रहती है। समकालीन समाज का चित्रण रघुवीर सहाय राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से करते हैं, जो उत्पीड़ित देशों में अब भी प्रगतिशील भूमिका निभा रहा है। प्रगतिशील आलोचकों ने रघुवीर सहाय में वर्गीय दृष्टि के अभाव जाने-अनजाने आलोचना की है।
लोग भूल गए हैं की कविताओं में राजनीतिक चिन्ता का ‘बाहुल्य’ नहीं है। चिन्ता यहाँ भी है, लेकिन उसका केन्द्र आज के मनुष्य का सम्पूर्ण चरित्र है। राजनीति इसका एक अंग है। हँसो हँसो जल्दी हँसो में सत्ता पक्ष की जितनी आलोचना है, लोग भूल गए हैं में लोगों की आलोचना उससे अधिक है। वैसे देखा जाए तो हम जिससे कुछ अपेक्षा करते हैं, उसकी आलोचना अधिक करते हैं। जिससे कोई आशा नहीं, जिसके सुधरने की गुंजाइश नहीं, उसकी आलोचना का कोई फायदा नहीं। इसलिए रघुवीर सहाय ने अपनी कवि दृष्टि को जनता की तरफ मोड़ा। सरकार तो जो है सो है, लेकिन लोगों को तो अत्याचार याद रखना चाहिए था। वे क्यों भूल गए हैं?
लोग भूल गए हैं एक तरह के डर को जिसका कुछ उपाय था
एक और तरह का डर अब सब जानते हैं जिसका कारण भी नहीं पता
सन् 1975 से 1982 के बीच की भारतीय राजनीति पर कवि ने टिप्पणी की –
दुनिया ऐसे दौर से गुजर रही है जिसमें
हर नया शासक पुराने के पापों को आदर्श मानता।
जिसे जनता कहते हैं, उसकी पहल-कदमी पर कवि को यकीन नहीं है, क्योंकि जनता तो लोग है और कवि ने देखा है कि लोग उस आतंक को भूल गए हैं, जो आपातकाल ने उन्हें दिया था। लोगों ने उन्हीं को सन् 1980 में फिर चुन लिया है। वैसे पाँच वर्ष का समय बहुत लम्बा होता है।
रघुवीर सहाय मानते हैं कि दुःख है और बहुत दिनों तक रहेगा या कम से कम निकट भविष्य में किसी सुनहरे कल के आने की सम्भावना क्षीण है। अतीत पर हम गर्व नहीं कर सकते क्योंकि वह तो ‘शोषण का इतिहास’ है, हमारा वर्तमान दुःखद ही नहीं लज्जाजनक भी है। रहा भविष्य तो उसमें और भी अधिक अत्याचार होने वाला है।
निश्चय ही जो बड़े अनुभव को पाए बिना सब
जानते हैं खुश है
तुम अब भी इस दुनिया में उस बच्चे जैसे हो जो अपनी
बहन के जीवन में खुशी खुशी देखता है पीड़ाएँ नहीं जानता।
नादान, नासमझ या मूर्ख लोग इस हाल में भी मगन हैं। या जिसने इस व्यवस्था के साथ संगत रिश्ता बना लिया है, जिसके कारण वे प्रतिष्ठित है, शक्तिशाली हैं, वे ही प्रसन्न हैं। धूर्त और नादान दो ही लोग खुश हैं। कवि की दृष्टि में आज का आदर्श मनुष्य वह है जो समझदार है और ईमानदार भी। केवल समझदार बिक सकता है, मात्र ईमानदार ठगा जा सकता है। आज के युग में दोनों चीजें एक साथ कम मिलती हैं। फिर जिसके पास ये दोनों चीजें हैं, क्या वह इस व्यवस्था में जीवित रह पाएगा? सही सलामत रह सकेगा? कवि की दृष्टि में इसकी सम्भावना बहुत कम है। वह पागल हो सकता है, भिखमंगा हो सकता है या रामदास की तरह कहीं भी मारा जा सकता है। इस तरह कवि उन मानवीय गुणों का समर्थक है (कवि की दृष्टि में) जो आज धरती पर कम पाए जाते हैं।
भयाक्रान्त अनुभव की आवेग रहित अभिव्यक्ति रघुवीर सहाय की कविताओं की प्रमुख विशेषता है। उनकी कविता में एक ठहराव, सजगता, पैनी दृष्टि और धैर्य मौजूद है, फिर भी उन्होंने लम्बी कविताएँ नहीं लिखीं। उनकी कविताएँ संक्षिप्त किन्तु प्रभावशाली हैं।
7. हिन्दी कविता पर रघुवीर सहाय का प्रभाव
रघुवीर सहाय के बाद हिन्दी में अनेक कवियों ने खबर पर कविताएँ लिखीं। अरुण कमल, राजेश जोशी, विष्णु नागर ने ख़बरों पर कविताएँ लिखीं, हालाँकि इनकी कविताओं में रघुवीर सहाय जैसा पैनापन नहीं है। अरुण कमल सामाजिक जीवन का वर्णन करते हैं, वहाँ उनकी रचनाओं में रुदनपूर्ण सहानुभूति का स्वर मुखरित होता है। अरुण कमल की विषय-वस्तु ऐसी है जो पाठक में दया जगा सकती है। यहाँ वही परिचित दृश्य हैं, जिनकी ओर ‘उदार’ लोगों की कृपा दृष्टि रही है। उन परिचित दृश्य बिन्दुओं को रचनाकार उठाता है और अपने आपको और इस तरह पाठक को भी दया करने से बचा ले जाता है। उनकी कविताओं में डेली पैसेंजर औरत, दर्जिन, बन्धुआ मजदूर, भीख माँगते हुए बच्चे, कुबडी़ बुढ़िया जैसे वंचित और उपेक्षित चरित्र आते हैं। उन वंचित और उपेक्षित पात्रों को कवि मानववादी दृष्टि से उपस्थित करता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो अरुण कमल मध्यवर्ग के उदार और मानवतावादी हिस्से के कवि हैं, जो समाज के पीड़ित उपेक्षित और वंचित लोगों के साथ अपने सम्बन्धों को महसूस करते हैं। कवि उन पात्रों की गरिमा की रक्षा करते हुए उनसे अपना नाता जोड़ता है। समाज के वंचित-पीड़ित लोग अरुण कमल की कविताओं में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं। कवि उनका पक्ष प्रस्तुत नहीं करते बल्कि वे स्वयं अपने जीवन का तर्क प्रस्तुत करते हैं। इससे कविता की वस्तुगतता की रक्षा तो होती ही है, कवि भी दया करने से बच जाते हैं। हाँ, उनके अव्यक्त रुदन का धीमा संगीत सारी कविता में बजता रहता है।
विष्णु नागर की कविताओं में भी खबर को कविता में रूपान्तरित करने की प्रक्रिया मौजूद है। इसके लिए वे खबर की नई पृष्ठभूमि तथा उसके प्रभाव को नए ढंग से उद्घाटित करते हैं।
खबर है, ‘लड़के की मौत।’ लड़के का बाप दुःखी है और वह सोचता है (या कहता है) ‘18 साल में लड़का जवान हुआ था और 18 साल वह बूढ़ा नहीं होता।’ यहाँ बाप की बेचैनी व्यक्त हुई है लेकिन बाप की बेचैनी का बड़ा भाग वे भावी 18 वर्ष हैं जब वह जवान रहकर काम करके और उपयोगी साबित होता। यहाँ लड़का बाप का नुकसान करके मर गया था या मर कर बाप को नुकसान पहुँचा गया, यह चिन्ता है। कवि एक पूरी दुनिया के उजड़ जाने से दुःखी है, क्योंकि उसे पता है कि यह वह समय था जब एक लड़की ‘उसे रूमाल देने वाली थी।’ यहाँ यह दृष्टव्य है कि रचनाकार का व्यंग्य बहुत दबा हुआ है और वह अपने आपको छुपाने का भरसक प्रयास कर रहा है। रचनाकार अपने भाव का दमन कर, उसे घोलकर सामान्य तथ्य के भीतर रख देता है। पात्रों की खीज में, ऊब और गुस्से में रचनाकार बोलता रहता है। ऊपर से लगता है कि रचनाकार कुछ नहीं बोल रहा है, बात ही बोल रही है। लेकिन नहीं! बात भी यहाँ वही बोलती है जो रचनाकार बुलवाता है।
इन कविताओं से लगता है कि रचनाकार इस भांति की घटनाओं और उनकी सूचनाओं का अभ्यस्त हो चुका है। यह अभ्यस्तता उसके भावावेग का दमन करती है। कवि यहाँ एक ‘समझदार’ लेकिन निष्क्रिय व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं। रचनाकार कहता है कि जो कुछ हो रहा है, वह अच्छा नहीं है। गरीब आदमी कपड़ा धोने के साबुन से नहा रहा है, धीरे-धीरे वह भी अप्राप्य होता जा रहा है। लोग चाँद पर जाते हैं और कान का मैल निकालकर चले आते हैं। कुछ लोग थे, जो दिल्ली की सड़कों पर दिसम्बर में कुत्ते की मौत मारे गए। आजकल हालत यह हो गई है कि जंगल में नहीं बल्कि ‘सड़क पर खतरा’ है। ‘लो 1973 में एक आदमी दरख्त देखने को कह रहा था।’ ऐसी अनेक कविताएँ इस संग्रह में हैं, जिनमें रचनाकार ने वर्तमान विभीषिका का वर्णन किया है। रचनाकार का मन उन प्रसंगों से आन्दोलित भी हुआ है। इस भावावेग की व्याकुलता के बाद कवि ने बहुत चिन्तन-मनन करके अपने लिए कुछ निष्कर्ष निकाल लिए हैं। इस तरह से इन भीषण खबरों की पृष्टभूमि और उनके प्रभाव की कवि ने एक समझ प्राप्त कर ली है। यह ‘समझ’ ज्यों-ज्यों बढ़ती गई है, त्यों-त्यों भावावेग कम होता गया है। और इस तरह कविता की रचना कवि उस मानसिक भूमि से करता है, जहाँ अनजाने ही वह वर्तमान व्यवस्था के स्थायित्व को स्वीकार कर चुका होता है। यहाँ एक बार फिर रघुवीर सहाय की कविताएँ याद आती हैं। उनके यहाँ आततायी व्यवस्था अत्यन्त भयावह लेकिन मरणासन्न है, उसे अन्ततः नष्ट हो जाना है। लेकिन विष्णु नागर इस ‘व्यवस्था’ को न केवल शक्तिशाली बल्कि स्थायी भी दिखाते हैं। इस कारण इन कविताओं का सामाजिक मूल्य कम हो जाता है। ये पाठक के मन में कर्म की प्रेरणा या बेचैनी नहीं जगातीं बल्कि उसे निष्क्रिय समझ दिलाती हैं। राजेश जोशी खबर का नाट्य रूपान्तरण करते हैं। दरअसल रघुवीर सहाय ने काव्य रचना के जादू को समाप्त कर दिया, जिसके कारण ऐसे लोगों ने भी कविताएँ लिख दीं, जो कविता नहीं लिख सकते थे। इस कारण हिन्दी में कविता के नाम पर अनेक गद्य रचनाएँ प्रकाशित हो गईं।
4. निष्कर्ष
इसमें कोई दो राय नहीं है कि रघुवीर सहाय खबरधर्मी कवि हैं। वे अपने पत्रकार और साहित्यकार व्यक्तित्व को अलग-अलग नहीं मानते थे। दोनों के कार्यों का उद्देश्य भी वे एक समझते थे। यह एक ऐसा कारण है जो उन्हें ख़बरों और कविता में आवाजाही बनाए रखने की जमीन तैयार करता था। यह मान लेना कि उनकी कविताएँ केवल खबर हैं, कवि के साथ ज्यादती होगी। वे ख़बरों के निहितार्थ को दूर तक ले जाते थे और उसे अपनी कविता का विषय बनाते थे। यही कारण है कि जिन तथ्यों, घटनाओं आदि को हम साधारण समझकर छोड़ देते हैं, रघुवीर सहाय के लिए वे कविता के विषय बन जाते हैं। रघुवीर सहाय के विचारों और उनकी कविताओं की अनुगूँज हिन्दी कविता में दूर तक दिखाई देती है। उनके बाद के अनेक कवियों ने उनकी शैली का प्रयोग करते हुए कविताएँ लिखी हैं।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- प्रतिनिधि कविताएँ, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- आत्महत्या के विरुद्ध, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- लोग भूल गए हैं, रघुवीर सहाय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- रघुवीर सहाय संचयिता, संपादक- कृष्ण कुमार, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- रघुवीर सहाय का कवि कर्म, सुरेश वर्मा, पीपुल्स लिटरेसी,दिल्ली
- निराला से रघुवीर सहाय तक, कृष्णनारायण कक्कड़, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- रघुवीर सहाय की काव्यानुभूति और काव्यभाषा, अनंतकीर्ति तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
- यथार्थ यथास्थिति नहीं:यथार्थ सम्बन्धी लेख और भेंटवार्ताएं/रघुवीर सहाय, संपादक: सुरेश शर्मा, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
- कविता के नए प्रतिमान– नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- समकालीन हिन्दी कविता, परमानन्द श्रीवास्तव(संपा.), साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF
- http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF
- http://www.hindisamay.com/writer/%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF-.cspx?id=1183&name=%E0%A4%B0%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF
- https://www.youtube.com/watch?v=ZZGpKHOXUsE
- https://www.youtube.com/watch?v=jelRXM5uvls