28 कुंवर नारायण की काव्य भाषा
डॉ. रसाल सिंह
पाठ का प्रारूप
1. उद्देश्य
2. प्रस्तावना
3. कुंवर नारायण की काव्य भाषा
3.1 कुंवर नारायण की काव्य भाषा की शब्द क्षमता
3.2 कुंवर नारायण की काव्य भाषा में बिम्ब
3.3 कुंवर नारायण की काव्य भाषा में फैण्टेसी
3.4 कुंवर नारायण की काव्य भाषा में प्रतीक, अप्रस्तुत-योजना और छन्द
4. निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन उपरान्त आप–
● काव्य संवेदना और भाषा शैली के अन्त:सम्बन्ध से परिचित हो सकेंगे।
● कुंवर नारायण की काव्य भाषा के वैशिष्ट्य से परिचित हो सकेंगे।
● कुंवर नारायण की कविताओं की विशिष्ट भाषा और रचना प्रक्रिया से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
शब्द का विकल्प शब्द हो सकता है, परन्तु एक सही कविता में शब्दों के विकल्प नहीं होते। शब्द सटीक भावबोध की पुष्टि करते हैं। कुंवर नारायण ने अपनी कविता में ‘शब्दों की तरफ़ से’ दुनिया को देखते हुए कहा कि ‘किसी भी शब्द को, एक आतशी शीशे की तरह, जब भी घुमाता हूँ आदमी, चीजों या सितारों की ओर, मुझे उसके पीछे,एक अर्थ दिखाई देता है …’। (कुंवर नारायण: प्रतिनिधि कविताएँ, पृष्ठ-130) अर्थ-ध्वनियों की खोज की मशक्कत कविता में सबसे ज्यादा होती है। कुंवर नारायण की पहचान सटीक भावबोध की अभिव्यक्ति में संलग्न, सार्थक भाषा के खोजी कवि के रूप में है। उनकी काव्य भाषा इतनी मुलायम, विनम्र और मुकम्मल है कि शब्दों के विकल्प का प्रश्न ही नहीं उठता। अज्ञेय के बाद कुंवर नारायण दूसरे ऐसे बड़े कवि हैं जो घोषित रूप से भाषा के सन्धान पर सबसे अधिक चर्चा करते हैं- “मेरा मानना है कि कविता में सौन्दर्यबोध का सवाल एक भाषा की पूरी संस्कृति से जुड़ा होता है। …एक कविता का सौन्दर्य जितनी गहराई से एक भाषा में रचा बसा होगा, उसका किसी अन्य भाषा–संस्कृति में प्रत्यारोपण उतना ही मुश्किल होगा।” (तट पर हूँ पर तटस्थ नहीं, कुंवर नारायण की भेंटवार्ताएं, पृष्ठ-28) सौन्दर्यबोध, शब्द, अर्थ–ध्वनियों और लय के प्रत्यर्पण का सवाल ‘उतना’ मुश्किल यदि ‘भाषा–संस्कृति’ की वजह से है; तो कहना न होगा कि कुंवर नारायण की कविता में भारतीय संस्कृति, आधुनिकता बोध, परम्परा, प्रकृति, मिथक और इतिहास बोध का रचाव इतना घनीभूत और ठोस है कि उससे निर्मित सौन्दर्य का भी प्रत्यारोपण ‘उतना ही मुश्किल’ होगा। हिन्दी कविता के समकालीन परिदृश्य में उनके विकल्प में ‘कोई दूसरा नहीं’ है।
- कुंवर नारायण की काव्य भाषा
कुंवर नारायण अपने प्रारम्भिक काव्य-संग्रह चक्रव्यूह (सन् 1956) से लेकर प्रबन्धात्मक कृति वाजश्रवा के बहाने (सन् 2008) तक, भाषा की तान को लेकर अत्यन्त प्रयोगशील और सृजनात्मक रहे हैं। उनके दर्शन में भाषा का जो विन्यास है, इतिहासबोध और परम्परा के पुनर्सृजन में आमफ़हम अभिव्यक्ति का जो शिल्प है, उसके बहुत सारे सूत्र समकालीन कवियों ने भी अपना लिए हैं। वैसे उनके पहले कविता संग्रह चक्रव्यूह की भाषा को लेकर हिन्दी आलोचना में बहुत प्रशंसा का भाव नहीं दिखता। इसमें ‘नई कविता’ के शिल्प और स्वभाव की छाया तो मौजूद है ही, कहीं-कहीं उससे भी पहले के काव्यान्दोलन ‘छायावाद’ के शब्द और वाक्य विन्यास की भी झलक मिल जाती है पर उसमें भाव के स्तर पर पुराने काव्यान्दोलन की पुनरावृत्ति कहीं से नहीं है ; जैसे ‘प्रिय, इन आँखों के नीले एकान्त में, प्यार के अनकहे भावों को उमगने दो’ या फिर ‘ओ मानव के विवेक – ओ विचार, बुद्धि–ज्ञान–धैर्य–प्यार, कुछ तो तुम्हारा होगा इतिहास कहीं ? जीवन, चंगेज़ों का केवल अट्टहास नहीं।’ ‘अखण्डता’, ‘स्खलित मन’, ‘ओस–नहाई’, ‘शशि–ज्योति’, ’जूही’, ‘जीवन-प्रदेश’, ‘व्योमगंगा’, ‘पावस’, ‘कुहुक’, ‘उच्छ्वास’, ‘जल-खण्ड’, ‘व्योम-व्याप्त’, ‘सौन्दर्य-समर्पण’, ‘स्वप्न-बोझ’, ‘पुष्पित-उद्गार’, ‘रहस्य-क्रोड़ ‘, ‘उदण्ड–उपहास’, ‘मृत्यु-चिह्न’ जैसे कई शब्द कुंवर नारायण की कविताओं में भी देखे जा सकते हैं, जिनका सर्वाधिक प्रयोग छायावादी दौर में हुआ है। लेकिन मात्र शब्दों के प्रयोग भर से भावबोध की पुनरावृत्ति नहीं हो जाती। कविता में हम देख सकते हैं कि छायावादी शब्दों के बीच में कवि ने ‘इतिहास’, ‘चंगेज़’, और ‘अट्टहास’ जैसे शब्दों के प्रयोग से टटकी अर्थ छवि गढ़ दी है। चक्रव्यूह की भाषा में विविधता का पूर्ण निर्वाह है ; एक दूसरी तरह की भाषा देखें ‘गन्दी दीवार पर, गिद्धों की बस्ती, खाने को मिलती है, लाश यहाँ सस्ती’। इसी संग्रह की ‘कुछ ऐसे भी यह दुनिया जानी जाती है’ कविता इस बात का श्रेष्ठ नमूना है कि इसमें न केवल पुराने भावबोध से काव्य मुक्ति दर्ज है बल्कि जटिल से जटिलतर होती दुनिया को व्यक्त करने के लिए शब्द खण्डों की खोज है-
पागल-से, लुटे-लुटे,
जीवन से छुटे-छुटे,
ऊपर से सटे-सटे,
अन्दर से हटे–हटे,
कुछ ऐसे भी यह दुनिया जानी जाती है
छोटे-छोटे वाक्य ही नहीं बल्कि छोटे-छोटे शब्दों से निर्मित पन्द्रह पंक्तियों की यह कविता इसलिए भी बेजोड़ है कि यह बदलते सामाजिक ढाँचे के अन्तर्विरोधी और दुविधाग्रस्त हो जाने की कथा कहती है। आजादी के बाद के नए मनुष्य की अन्तर्विरोधी और दुविधाग्रस्त चेतना को दिखाने के लिए जहाँ उस दौर के कई कवियों ने मिथक, इतिहास और पुराण का सहारा लेते हुए लम्बी कविताएँ लिखीं, ठीक उसी दौर में कुंवर नारायण की यह छोटी-सी कविता अपने अर्थबोध के विस्तार में उतनी ही बड़ी है। ‘दुनिया जानी जाती है’, ‘दुनिया पहचानी जाती है’, और ‘दुनियाँ अनुमानी जाती है’; इन तीन पंक्तियों के पीछे छोटे-छोटे शब्द-खण्ड अपनी दार्शनिक गुरुता का जिस तरह सार्थक निर्वाह चलती भाषा में करते हैं वह अन्यत्र दुर्लभ है। हालाँकि इसी तरह की भाषा श्रृंखला बहुत बाद में दुनिया की चिन्ता (इन दिनों, सन् 2002) में भी देखी जा सकती है–
छोटी-सी दुनिया
बड़े-बड़े इलाके
हर इलाके के
बड़े-बड़े लड़ाके
हर लड़ाके की
बड़ी-बड़ी बन्दूकें
हर बन्दूक के बड़े-बड़े धड़ाके
सबको दुनिया की चिन्ता
सबसे दुनिया की चिन्ता
कुंवर नारायण की काव्य भाषा में परिवर्तन की तलाश के लिए चक्रव्यूह संग्रह की कई कविताएँ तलाशी जा सकती हैं, मसलन, बीज, मिट्टी और खुली जलवायु कविता की दो पंक्तियाँ देखें–
दास, जब तुम किसी को आराध्य करते हो
तुम मुझे कुछ सोचने पर बाध्य करते हो …
ये भाषिक बदलाव के चिह्न हैं। एक छटपटाहट जो भाव और शिल्प के एकात्म में गहराई से मौजूद है। इस कविता की ‘अन्तर्ध्वनि’ है–‘बुद्धि को हर दासता से मुक्त रहने दो’। मुक्ति सिर्फ बुद्धि की ही नहीं होती, भावों की भी होती है। वह मुक्ति कुंवर नारायण के भाषिक विधान में भी दिखती है।
3.1 कुंवर नारायण की काव्य भाषा की शब्द क्षमता
सजग कवि जानता है कि दासता केवल विचारों और जीवन पद्धतियों में ही नहीं होती, बल्कि शब्द संस्कृति की भी होती है जो भावबोध की निर्मिति का प्रारम्भिक कारण होता है। अज्ञेय ने प्रयोगवाद से लेकर नई कविता तक का एक लक्ष्य पुरानी शब्द श्रृंखला पर हल्ला बोलने का बना रखा था। अज्ञेय को पुराने उपमानों से परहेज है, उनके लिए ‘ये उपमान मैले हो गए हैं’। कुंवर नारायण की सजगता अज्ञेय से इस रूप में भिन्न है कि वे पुराने शब्दों और उपमानों को लेकर आक्रामक नहीं हैं, उनके यहाँ परहेज से ज्यादा शब्दों की सजग स्वीकृति है। कवि का मानना है कि “वैसे अपने लिए मैंने कविता में किसी ख़ास तरह की भाषा या शब्दों की सीमा नहीं बनाई। हिन्दी के सम्पूर्ण नए-पुराने भाषाई क्षेत्र को प्रमाणिक मानकर कविता को खुली छूट दी है – न उर्दू से परहेज रखा न संस्कृत से, न केवल बोलचाल की भाषा तक सीमित रहा और न ही पारम्परिक काव्य भाषा तक”। (तट पर हूँ पर तटस्थ नहीं, कुंवर नारायण की भेंटवार्ताएं, पृष्ठ-30) यही वजह है कि कुंवर नारायण को हिन्दी का ‘विनम्र’ कवि कहा जाता है। कवि जिस जमीन की उपज है, वह नई कविता या तीसरा सप्तक की जमीन है। इस काव्यान्दोलन की एक अनिवार्य कड़ी है– परम्परा से अलगाव। इस आन्दोलन के कुछ कवि तो परम्परा को ध्वस्त करने में ही कविता की सार्थकता देखते हैं। लेकिन कुंवर नारायण इस मत को लेकर कहीं भी ‘वोकल’ नहीं हैं। चक्रव्यूह में ही वरासत नाम की छह पंक्तियों की एक छोटी-सी कविता है–
कौन कब तक बन सकेगा कवच मेरा ?
युद्ध मेरा, मुझे लड़ना
इस महाजीवन समर में अन्त तक कटिबद्ध :
मेरे लिए यह व्यूह घेरा,
मुझे हर आघात सहना,
गर्भ-निश्चित मैं नया अभिमन्यु, पैतृक-युद्ध!
परम्परा के पुनर्सृजन के बीज कुंवर नारायण के कवि कर्म के शुरुआती दौर में ही पड़ चुके थे। यह बोध इतना सहज और ठोस था कि वह आत्मजयी से लेकर वाजश्रवा के बहाने तक विकसनशील रहा है। इतिहास, मिथक, पुराण और परम्परा जिस विराट काव्य–सौन्दर्य के साथ प्रकट होते हैं उसका सशक्त माध्यम वह भाषिक बहुलता ही रही, जिसका कवि ने परिष्कार किया, अपनत्व दिखाया और नए बोध के साथ पुनः प्रचलित किया। इन स्मृतियों में दर्शन-पुराण से लेकर इतिहास बोध तक शामिल हैं, परन्तु यहाँ पुनरावृत्ति के रूप में नहीं पुनर्सृजन के रूप में। यही देशज आधुनिकता है जिसकी निर्मिति के लिए पुराने शब्दों को रगड़ा जाता है।
कुंवर नारायण की कविता हर उस भाषा बोध से गाढ़े सम्बन्ध की कविता है जो मनुष्य की गरिमा को ताप देती है और हर तरह की कुरूपता के विरुद्ध है। चक्रव्यूह कविता की पंक्तियाँ हैं–
मैं बलिदान इस संघर्ष में
कटु व्यंग्य हूँ उस तर्क पर
जो जिन्दगी के नाम पर हारा गया
x x x
जिसको पूज कर मारा गया।
लोकतन्त्र और जनता जैसे प्रचलित शब्दों को बिना अपनाए मिथकीय आख्यान के भीतर कवि ने जो बिम्ब उभारा है, वह न केवल आधुनिक है बल्कि समकालीन जीवन की त्रासदी को ज्यादा सटीक ढंग से व्यक्त भी करता है। देवीशंकर अवस्थी ने उनकी भाषा के बारे में लिखा– “कुंवर नारायण के काव्य का ‘डिक्शन’ पहले से ही कुछ असामान्य रहा है। विराम चिह्नों, पैरेन्थिटिक शब्दों, कभी नितान्त लम्बे एवं कभी एकदम छोटे वाक्यों, अनकहे पर कुछ कहते हुए छूटे हुए स्थान (स्पेस), कभी अटपटी शब्द योजना आदि के द्वारा कवि ने जिस गठन शैली को उपस्थित किया है वह हमारी भाषा की क्षमता को बढ़ाता है …”। (परिवेश : हम तुम, कुंवर नारायण : उपस्थिति, पृष्ठ-49) कुंवर नारायण की यह भाषाई विशेषता उनकी बाद की कविताओं में भी लक्षित है, कुछ ज्यादा पैने ढंग से।
कुंवर नारायण की काव्य भाषा बोलचाल की भाषा होते हुए भी प्रगल्भ, अनुभूति के स्तर पर अत्यधिक सूक्ष्म और अनेकार्थता की सम्भावना से युक्त भाषा है। उनकी एक कविता है तुमने देखा, उसकी अन्तिम पंक्तियाँ हैं–
मैंने चाहा
तुमसे अधिक सुन्दर कुछ कहूँ,
उस विरल क्षण की अद्वितीय व्याख्या में
सदियों तक रहूँ,
लेकिन अव्यक्त
लिए मीठा-सा दर्द,
बिखर गया इधर-उधर
मोहताज शब्द …।
यह कविता खत्म होने पर भी मस्तिष्क में घुमड़ती रहती है, केवल एक प्रेम कविता की वजह से नहीं, बल्कि शब्द शक्ति की वजह से। इस कविता में दृश्य की उपस्थिति और उस उपस्थिति की और अधिक चाहत में, उसकी व्याख्या में, भाषा का बिखराव प्रेम को और अधिक गहरा कर देता है। अज्ञेय ऐसी जगहों पर ‘मौन’ का सहारा लेते हैं, परन्तु कुंवर नारायण शब्दों को मोहताज मानते हुए भी उसके गढ़न से च्युत नहीं होते। कुंवर नारायण के शब्दों में “काव्य-शब्द काव्येतर शब्द से अधिक समावेशी, बहुकोणीय : बहुस्तरीय और सक्रिय होता है।” (परिवेश : हम तुम, कुंवर नारायण : उपस्थिति, पृष्ठ-73) इसी कारण मुक्तिबोध ने कुंवर नारायण की भाषा पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि “ कुंवर नारायण ने अपना एक शिल्प विकसित कर लिया है, जिसमें कहने की सादगी, संवेदना की तीव्रता, रंगों की गहराई और ख्यालों की लकीरें साफ़ साफ़ उभर कर आती हैं। …यदि मैं अपनी व्यक्तिगत शब्दावली में कहूँ तो उसका टेकनीक, वस्तुतः, जनतान्त्रिक है।’’ (अन्तरात्मा की पीड़ित विवेक चेतना – मुक्तिबोध, पृष्ठ-44 )
कुंवर नारायण ने कविता को ‘जीवन से बेहद प्यार की भाषा’ माना है और कहा कि ‘कविता उपलब्ध नहीं होती, अन्वेषित होती है’। यह कवि का अपना एक ऐसा निष्कर्ष है जो जीवन और भाषा दोनों को एक साथ साधता है–
भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में
आग यदि लगी तो पहले वहाँ लगेगी
जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी
अपनी जमीन से रस खींच सकनेवाली शक्तियाँ।
जीवन और भाषा दोनों यदि किसी कृत्रिम ढर्रे को अपना लेंगी तो उनका सूखना तय है। बिना शोर किए भाषा की यह अनुगूँज कुंवर नारायण से पहले हिन्दी कविता में अनसुनी थी। कवि के शब्दों में–“कविता करते समय मेरी ख़ास चिन्ता यह रहती है कि शब्दों का, भाषा के उस विशेष दृष्टिकोण से इस्तेमाल हो जो मूलतः साहित्यिक है, यानि कि जिसका सीधा सम्बन्ध मनुष्य और उसके वृहत्तर हितों से है जिसे बराबर खोजते और साफ़ करते रहना जरूरी है क्योंकि उसे ही धोखा देना सबसे आसान और आकर्षक है।” (मेरे साक्षात्कार : कुंवर नारायण, पृष्ठ-41) इस तरह शोर करने की जगह सभ्यता की हर हड़बड़ी, गड़बड़ी और लड़खड़ाहट को अपनी पैनी भाषा दृष्टि से भेदते हुए कविता में दर्ज करने का शालीन तरीका ही कुंवर नारायण को समकालीन कवियों में अलग पहचान देता है। दुष्यन्त कुमार के शब्दों में “वास्तव में कुंवर नारायण ऐसे कवि हैं जो अपनी अभिव्यक्ति में सादे कथ्य में अत्यन्त पैने और प्रभाव उत्पन्न करने योग्य भाषा के निर्माण में बेजोड़ हैं।” (कुंवर नारायण : उपस्थिति, पृष्ठ-52) अपने बजाय कविता तो इसी का उदाहरण है, उसमें भी ‘सूखने’ से बचाना है ‘रफ़्तार से जीते/ दृश्यों की लीलाप्रद दूरी को लाँघते हुए।’ भाषा को लेकर कई कविताएँ कुंवर नारायण ने लिखीं है। कई बार वे जीवन और कविता दोनों के गम्भीर सवालों को भाषा का भी सवाल मानते हैं। अतः कवि के यहाँ भाषा, कविता और जीवन का एक पूरा दर्शन मौजूद है, जिसमें आदमी के बने रहने का शोर नहीं बल्कि भरोसा है–
कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
x x x
कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता
भाषा में उसका बयान
जिसका पूरा मतलब है सच्चाई
जिसकी पूरी कोशिश है बेहतर इन्सान’।
धूमिल के लिए कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है या उनकी बौखलाहट का बयान है जबकि कुंवर नारायण काव्य-सिद्धान्त के इस सर्वमान्य रास्ते से गुजरते हुए भी धूमिल के भाव बोध से अलग हो जाते हैं। धूमिल कविता में ‘आदमी’ की खोज करके रुक जाते हैं, सच की बयानबाजी और ‘भूख से तनी हुई मुट्ठी’ की अभिव्यक्ति के बाद उनकी कविता की प्रक्रिया थम जाती है, लेकिन कुंवर नारायण ‘कविता’ को थोड़ा आगे ले जाते हैं, उनके लिए कविता, ‘जिसकी पूरी कोशिश है बेहतर इन्सान’; यानी निर्मिति का मसला है। यहाँ कविता के पास ‘निर्मिति’ की दोहरी जिम्मेदारी है, जिससे गुजरकर परिस्थितियाँ और इन्सान दोनों की समझ बेहतर और साफ़ बन जाती है। कवि बार-बार कहते हैं–
आज मैं शब्द नहीं
किसी ऐसे विश्वास की खोज में हूँ
जिसे आदमी में पा सकूँ
इस तरह कुंवर नारायण के यहाँ काव्य सत्य, जीवन सत्य और भाषा की सत्यता की प्रक्रिया ज्यादा सूक्ष्म है। अतः उनके यहाँ इन सत्यों के गठन की आवाज मुखर नहीं बल्कि मद्धिम स्वर में व्यक्त है। यही वजह है कि उनकी भाषा में वैसा आक्रोश अभिव्यक्त नहीं होता जो धूमिल और रघुवीर सहाय अनायास कर बैठते हैं। भावों की चरम सघनता में कवि सटीक भाषा का आग्रह कुछ बदले अन्दाज में करता है–
अन्तिम दिन
भाषा और भाषा के अभेद से उत्पन्न वे
दिखे मुझे
जीवन की आत्मकथा
जो किसी भी देश किसी भी काल में
लिखी और पढ़ी जा सकती है,
कुछ दिन अन्य देशकाल में कविता की ये पंक्तियाँ भाषा के एकात्म की जगह भावों के एकात्म पर ज्यादा बल देतीं हैं। कविता में विषय-वस्तु की गम्भीरता सदैव भाषा के गूढ़ शिल्प का निर्वाह नहीं करती बल्कि कुंवर नारायण की कुछ कविताएँ रघुवीर सहाय की चलती भाषा की याद दिला देती हैं–
और मैं आँकड़े का काटा
चीखता चला जा रहा था
कि हम आँकड़े नहीं आदमी हैं।
कविता की लय में गद्यात्मक ध्वनियों को गुम्फित करने का काम कुंवर नारायण ने बख़ूबी किया है। रघुवीर सहाय का ‘हरचरना’ आरोपित राष्ट्रवाद को क्षत-विक्षत करता है तो पालकी कविता में ‘कन्हैया लाल की’ जय में शोषण की सामाजिक-आर्थिक और नकली सांस्कृतिक भूमि वहाँ दरकती है, जहाँ ‘काँधे धरी यह पालकी, लाला अशर्फी लाल की’ है। रघुवीर सहाय जहाँ छद्म-राष्ट्रवाद के विरुद्ध अखिल भारतीय राजनीतिक जागरूकता को काव्य भूमि बनाते हैं, वहीं कुंवर नारायण गाँव में घुस जाते हैं, शोषण की बेहद सूक्ष्म परत को पकड़ते हैं। ऐसा करते हुए वे भाषा शास्त्र के नए-पुराने सांस्कृतिक बिम्बों का इस्तेमाल करते हैं। ‘कुंवर की भाषा की सूक्ष्मता शहर से लेकर गाँव, वर्तमान से लेकर इतिहास, बाजार से लेकर दर्शन एवं समकालीन राजनीति से लेकर पुराण और मिथक तक, देश से लेकर देशातीत पसरी हुई है। उनकी कविता में अनुभूत-सत्य न तो भाव के स्तर पर विच्छिन्न है और न ही भाषा के स्तर पर। वह एक साथ कई चीजों को समेटे हुए है, उसमें एक साथ कई चीजें उपस्थित हैं – वर्तमान, इतिहास, मिथक, पुराण, किंवदन्तियाँ, राजनीति, दर्शन। इसका श्रेष्ठ नमूना लखनऊ कविता है, चलती भाषा में वर्णित एक ‘क्लासिक’ का दर्द, परिवर्तन और परम्परा का पूरा बोध। जिसमें भाषा सहायक क्रिया के रूप में नहीं बल्कि स्वयं एक अन्तर्दृष्टि के रूप में उभरती है, जिसके सहारे के बिना आज के ‘लखनऊ’ का दर्शन सम्भव नहीं। यह कविता प्रतीकात्मक रूप से जितना लखनऊ को व्यक्त करती है, उतना भारत को भी। उर्दू-फ़ारसी के शब्द विधान द्वारा परम्परा-बोध और उसकी त्रासदी को दिखाने के लिए–‘किसी नौजवान के जवान तरीक़ों पर त्यौरियाँ चढ़ाए/ एक टूटी आरामकुर्सी पर/ अधलेटे/ अधमरे बूढ़े-सा खाँसता हुआ लखनऊ’– का बोलचाल की भाषा में आधुनिक और टटका बिम्ब प्रयोग किया गया है। बिम्ब यहाँ जिस परिवर्तन के बोध को जगाते हैं, उसके लिए ‘क्लासिक’ भाषा अपेक्षित नहीं। जहाँ केवल आज को दिखाना है, वहाँ भाषा-ध्वनि जुदा है और जहाँ आज को दिखाने में परम्परा बोध भी शामिल है, वहाँ भाषा का गठन कुछ और ही है। एक शब्द, या एक वाक्य से कविता के देखने की दृष्टि ही बदल जाती है। ध्यान रहे कि यह वही लखनऊ है जो ‘मुश्किल से शुरू हुई दुनिया’ में एक दूसरे बोध में आता है – ‘ग़दर के लखनऊ से भी ज्यादा पुराना/ शायद वह तब का था/ जब अवध के नवाबों की राजधानी/ फ़ैज़ाबाद थी, या और पहले का/ जब अयोध्या बसी पुराकाल में’। यहाँ बोध के कई स्तर हैं, एक लखनऊ में न जाने कितने लखनऊ और क्या-क्या नहीं खोजे जा सकते हैं। ऐसी ही कविताओं पर स्वयं कवि का कहना है कि “कविता मेरे लिए एक अनुभव या भाव की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, वह ज्यादा फैले, ज्यादा गहरे भाषायी स्थान की रचना या खोज भी है”। (मेरे साक्षात्कार : कुंवर नारायण, पृष्ठ-33)
3. 2 कुंवर नारायण की काव्य भाषा में फैण्टेसी
कुंवर नारायण ने अपनी छह दशकों की लम्बी रचनात्मक यात्रा में काव्य–मूल्य के स्तर पर विश्वसनीय भाषा की तलाश के लिए अनवरत संघर्ष किया है। इसी रचनात्मक संघर्ष ने उन्हें हिन्दी कविता में निराला कवि बना दिया है। आधुनिक समय में जिस तरह की चुनौतियाँ मुँह बाए खड़ी हैं उनसे जूझने के लिए मिथक, इतिहास, पुराण और फैण्टेसी का काव्य भाषा के ‘औज़ार’ के रूप में सार्थक प्रयोग असाधारण उपलब्धि से कमतर नहीं। निश्चय ही, कवि कुंवर नारायण ने इस असम्भाव्य को सम्भव कर दिखाया है। एक जलते हुए मकान के सामने, आधी रात, एक दूसरे से कटकर, तितलियों के देश में, सन्नाटा या शोर और यहाँ तक कि आजकल कबीरदास जैसी कविता में फैण्टेसी की अद्भुत शिल्पगत विविधता है। फैण्टेसी की इसी रचनात्मक विविधता और उपयोगिता के कारण मुक्तिबोध के अलावा उनके जैसा प्रयोगधर्मी कवि दूसरा नहीं दिखता। साथ ही कुंवर नारायण की इन कविताओं में सभ्यता समीक्षा भी ज्यादा तीख़े ढंग से हुई है। कटे हुए हाथ कविता में हाथ के थाने से लापता होने से जिस तरह की मानवीय त्रासदी से हम रू-ब-रू होते हैं, या तितलियों के देश का तिलिस्म जीवन जगत के तमाम भ्रमों की ओर इशारा करता है या फिर आजकल कबीरदास में कबीर की व्याख्या में देश-काल का अतिक्रमण करते हुए जिस तरह का ज्ञान बोध पैदा किया गया है, उसे सपाट होती समकालीन जीवन-दृष्टि के विरुद्ध जाकर ही समझा जा सकता है। ऊपर से उनकी भाषा में कोई ऐंठन नहीं, न वह कोई भ्रम रचती है, बल्कि भ्रमों के बीच सही जीवन के चुनाव का विकल्प देती है। मसलन, एक कविता है आधी रात इस कविता में कवि खुद के घर में रात के सन्नाटे में घुसता है और खुद को सोए हुए देखता है और सोया हुआ कवि भी उठ जाता है। इस तरह कविता में दो कवियों का वार्तालाप शुरू होता है, एक जो आधी रात को दबे पाँव अपने घर में आता है और दूसरा जो अभी-अभी सोकर उठा है और अपने ही हमशक्ल को देख कर डरा हुआ है। वार्तालाप के दौरान बाहर से अपने घर में आया हुआ कवि सोकर उठे कवि को अपनी ही हत्या का विकल्प देता है, वह सोकर उठे कवि से कहता है कि ‘अपने को बचाना चाहते हो तो अपने हमशक्लों से, सावधान रहना !’ कविता जहाँ ख़त्म होती है वहाँ से संशय की शुरुआत होती है। कवि निर्धारित नहीं कर पाता कि वह खुद सोया हुआ कवि है या बाहर से दबे पाँव आने वाला कवि। दरअसल यहाँ कविता वास्तविक जीवन मूल्य, जीवन पद्धति और सार्थकता के समानान्तर खड़े छद्म (हमशक्ल) की वास्तविकता की शिनाख्त में रची गई है।
फैण्टेसी कुछ और नहीं एक खास तरह के संशयग्रस्त स्वप्न का शिल्प है। यह संशय ही आधुनिकता की पहली सीढ़ी है जो संशयग्रस्त नहीं, वह आधुनिक नहीं। संशय में वही होगा जो नया रचना चाहता है जो मौलिकता का खोजी है जो अपना सत्य पाना चाहता है और कवि उसी खोज में फैण्टेसी बुनता है। अतः फैण्टेसी इच्छित यथार्थ की पूर्ति है, एक जादू, एक भ्रान्ति है जो यथार्थ के ही ढंग का होता है। इसमें कथा भी हो सकती है और घटना भी। मुक्तिबोध जहाँ अपनी कविता में कथा लिए हुए हैं वहीं कुंवर नारायण अपनी कविता में घटनाओं को फैण्टेसी की हल्की छुअन देकर छोड़ देते हैं। ‘कौन कह सकता है कि जिसे, हम जी रहे आज, वह कल की मृत्यु नहीं, और जिसे हम जी चुके कल, वह कल का भविष्य नहीं ?’ जीवन तिथियों की गणना या वर्गीकरण नहीं, वह कैलेण्डर के क्रम से तय नहीं होता। उसे कालभेद में नहीं बल्कि मूल्यों से सतत् जुड़ाव और कटाव के रूप में ही देखा जा सकता है। आजकल कबीरदास कविता की पंक्तियाँ मूल्यों के सातत्य और विभाजन की राजनीति के प्रतिपक्ष से जुड़ी हुई हैं। यहाँ ‘आज’ और ‘कल’ की व्याख्या में ‘कल और आज’ भी हैं अर्थात कुंवर नारायण की कुछ कविताएँ दर्शन को पहले सहज भाषा में गलाती हैं फिर उसका ‘फैण्टेसी-धर्मी’ मर्म निकालकर सामने रख देती हैं। भारतीय चिन्तन परम्परा में ‘त्रिकाल-बोध’ अलग-अलग नहीं इकठ्ठा है। कबीर से कवि की मुलाकात उस इच्छित यथार्थ की पूर्ति है जहाँ वाज़िब दृष्टिकोण के लिए सभ्यताएँ ठिठकी हुई हैं। अन्ततः कुंवर नारायण भी मुक्तिबोध की ही तरह ‘कुछ’ मूल्यों की खोज के प्रयत्नस्वरूप फैण्टेसी शिल्प अपनाते हैं। यह बात अलग है कि कुंवर नारायण के लिए फैण्टेसी मुक्तिबोध की तरह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और प्रिय काव्य उपकरण नहीं है।
3.3 कुंवर नारायण की काव्य भाषा में बिम्ब
कुंवर नारायण की कविताओं की ताकत उनके बिम्ब हैं। हालाँकि प्रतीक, अप्रस्तुत-योजना और छन्द योजना को भी उनकी ताकत के रूप में देखा जाता है। लेकिन बिम्बो का प्रयोग आदि से अन्त तक तमाम तरह की कविताओं में जितने स्पष्ट ढंग से किया गया है वह कुंवर नारायण के बड़े कवि होने की सबसे बड़ी वजह है, ‘उस लकड़ी के टूटे पुल पर, इस तरह पड़ रही धूप छांह, जैसे कोई प्यासा चीता, झरने में अगले पंजे रख पानी पीता।’ बिम्ब को कवि बार-बार गलाते हैं। मिथक में, पुराण-कथा में, इतिहास की पुनर्व्याख्या में या परम्परा की पुनर्निर्मिति में जहाँ-जहाँ बिम्ब आता है, वहाँ-वहाँ वे आधुनिक बोध को तैयार कर देते हैं, पुराने में नए के रचनात्मक विन्यास की भाषाई तमीज़ से कवि ने नई परिपाटी को जन्म दिया है। मिथक-बिम्ब के कुछ उदाहरण हैं–
युद्ध की प्रतिध्वनि जगाकर
जो हज़ारों बार दुहराई गई
रक्त की विरुदावली कुछ और रंगकर
लोरियों के संग जो गाई गयी’
या
ये खण्डहरों से ढके साम्राज्य।
ये ईंटों की दरारों से झाँकते सम्राट।
ये लुढ़के पड़े ढीले खम्भे
कि समय की सत्ता के अखण्ड कोदण्ड?
या
अंग-अंग उसे लौटाया जा रहा था,
अग्नि को, जल को, पृथ्वी को, पवन को, शून्य को,
केवल एक पुस्तक बच गई थी,
उन खेलों की जिन्हें वह बचपन से,
अब तक खेलता आया था।
इन कविताओं में हम जहाँ पहली कविता में हिंसा को वैधानिक और अनिवार्य बनाने की कुटिल प्रक्रियाओं को दो-दो विश्व-युद्धों की पृष्ठभूमि में और दो देशों के बीच के युद्धों की पृष्ठभूमि में देख सकते हैं; वहीं दूसरी में, ‘कोदण्ड’ शब्द का प्रयोग सम्भवतः राम की शक्तिपूजा के बाद पहली बार हुआ है। निराला ने लिखा था–‘विद्धांग-बद्ध-कोदण्ड-मुष्टि खर रुधिर स्राव’, ‘कोदण्ड’ जहाँ निराला के यहाँ पराजय-बोध से ग्रसित राम के गौरव की रक्षा के सन्दर्भ में आया है, वहीं कुंवर नारायण के यहाँ यह त्रासदी है– सत्ता के हिंसक-सातत्य और उसकी अर्थहीनता को दिखाने के सन्दर्भ में। बिम्ब को बदलने के नए अन्दाज में है – कोदण्ड। बिम्ब का सूक्ष्म प्रयोग पौराणिक-कथा से लेकर नई फैण्टेसी तक की सृजन-प्रक्रिया में और वह भी विशेष रूप से आधुनिकता-बोध के सन्दर्भ में हाल के कवियों में सर्वाधिक कुंवर नारायण ने किया है। उनकी काव्य-चेतना के विकास के समानान्तर उनके बिम्ब निर्माण की क्षमता विकसनशील दिखाई देती है।
4 कुंवर नारायण की काव्य भाषा में प्रतीक, अप्रस्तुत-योजना और छन्द
प्रतीक दरअसल वह भाषिक चिह्न है जो मूल विषय का परिचय देता है। जैसे सभ्यता के इतिहास की बर्बरताओं में अब तक के घोषित अनिवार्य ‘युद्ध’ को मानवीय कसौटियों पर निरर्थक उपलब्धि के रूप में देखते हुए कवि इन दिनों कविता संग्रह में लिखते हैं–‘धरती पर पाँव धरते ही, हर कोई सोचता, जीत लूँ पूरी धरती को, मानो धरती रहने के लिए नहीं, जीतने के लिए बनी हो’। ‘युद्ध’ के प्रतीक में औचित्य के विन्यास से कविता का ही नहीं बल्कि विषय का रूपान्तरण इतना सहज और ठोस हो जाना, यह कवि की अपनी विशेषता है। इसी तरह अप्रस्तुत-योजना प्राचीन और मध्ययुगीन काव्य के अलंकार–योजना के विकल्प में आधुनिक हिन्दी कविता में आई है; उसका एक नमूना देखें–‘ये मकान भी अजीब हैं, बने-ठने, तने-तने, न फूल न पत्तियां, बेजुबान मुँह असंख्य।’ आज के शहरी जीवन में वास्तविक मानवीय स्पन्दनों के ह्रास की विडम्बना को कविता पांच पंक्तियों में स्पष्ट कर देती है। कुंवर नारायण ने छन्दों का वैसे तो कम ही प्रयोग किया है, पर जहाँ-जहाँ कवि से बन पड़ा छन्दों की लय से उन्होंने कविता को मजबूती से बाँध दिया है। चक्रव्यूह संग्रह की ही कविता देखें– ‘क्योंकि पत्थर हैं, इसलिए लहरें गाती हैं, क्योंकि रात है, इसलिए तारों को हँसी आती है’।
इस तरह हम कह सकते हैं कि कविता में संवेदना और शिल्प के जितने प्रयोग हो सकते हैं, कुंवर नारायण ने अपने छह दशकों की काव्य-यात्रा में वे सारे प्रयोग कर डाले हैं। इसकी बड़ी वजह कवि का खुला हुआ दृष्टिकोण है, जहाँ वे मानते हैं– “मैंने भाषा और शब्दों के प्रति अपनी अनुभूतियों, चिन्तन और प्रतीतियों को बिलकुल खुला रखा है –उन्हें शब्दों की सम्पूर्ण उपलब्ध सम्पदा के बीच, कविता करते समय बिलकुल उन्मुक्त विचरण करने दिया, बिना यह माने कि कविता की कोई खास भाषा होती है या होनी चाहिए। कविता की वही भाषा विशेष है जो एक कविता विशेष के सम्पूर्ण रचनात्मक तर्क और विवेक से निकलती है।” (मेरे साक्षात्कार : कुंवर नारायण, पृष्ठ-54)
4. निष्कर्ष
कुंवर नारायण की कविता की भाषा मूलतः एक ऐसा दस्तावेज़ है, जिसमें पिछले छह दशकों के भारतीय जन-जीवन के सपने, संघर्ष और विचारों का स्पन्दन दर्ज है। वह एक कोलाज भी है, जिसमें इतिहास, मिथक, परम्परा, पुराण और आधुनिकता बोध का पुनर्सृजन देशज शब्दावली के मौलिक रंगों में सम्भव हुआ है। कुंवर नारायण की काव्य भाषा की विशेषता यह है कि सामान्य से लेकर जटिल और जटिलतर विषय-वस्तु को कविता में व्यक्त करते हुए भाषा कहीं भी लड़खड़ाती हुई नहीं लगती और न ही अबूझ दार्शनिक पहेलियों में फँसती-फँसाती है। उनकी कविता हर परिस्थिति में एक ऐसी भाषा रचती है जो संवेदना को विचार के स्तर पर खोल कर रख देती है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें–
- तट पर हूँ पर तटस्थ नहीं, कुंवर नारायण की भेंटवार्ताएं ,सं.विनोद भारद्वाज ,राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
- परिवेश:हम तुम, कुंवर नारायण:उपस्थिति,सं.यतीन्द्र मिश्र,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- मेरे साक्षात्कार : कुंवर नारायण, सं.विनोद भारद्वाज,किताबघर, नई दिल्ली
- वाजश्रवा के बहाने– कुंवर नारायण, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
- कुंवर नारायण की कविता: मिथक और यथार्थ, प्रदीप कुमार सिंह, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली
- चुनी हुई कविताएँ: कुंवर नारायण, सुरेश सलिल(संपा.), मेधा बुक्स, दिल्ली
- आत्मजयी: नचिकेता के प्रसंग पर आधारित, संपादक-लक्ष्मीचंद्र जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
- कुंवर नारायण और उनका साहित्य, अनिल मेहरोत्रा, ज्ञान भारती प्रकाशन,दिल्ली
- कविता के नए प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- कुंवर नारायण:उपस्थिति, सं.यतीन्द्र मिश्र,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
- कुंवर नारायण :कई समयों में , सं.दिनेश कुमार शुक्ल – यतीन्द्र मिश्र, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%81%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3
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