11 शमशेर की कविताओं का पाठ विश्लेषण टूटी हुई बिखरी हुई
डॉ. ओमप्रकाश सिंह
- पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- शमशेर का कवि-कर्म
- टूटी हुई बिखरी हुई का पाठ-विश्लेषण
- निष्कर्ष
1. पाठ का उद्देश्य इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप-
- शमशेर की काव्यानुभूति एवं प्रेमानुभूति का स्वरूप समझ सकेंगे।
- टूटी हुई बिखरी हुई कविता का वैशिष्ट्य जान पाएँगे।
- शमशेर की काव्य-भाषा और बिम्ब विधान से परिचित हो सकेंगे।
2. प्रस्तावना
शमशेर एक जटिल जीवनानुभूति और काव्यानुभूति के कवि हैं। उनकी विशिष्टता उन्हें सम्पूर्ण हिन्दी कविता की दुनिया में बिलकुल अलग पहचान देती है। उन्हें हम चुनौती मानकर समझने का प्रयत्न करते हैं और कई बार उनकी कविताओं को दुरूह मानकर खारिज कर देने की भी कोशिश करते हैं। उनकी कविताएँ प्रायः बिम्बों में हैं, इसलिए अलग–अलग पाठक उनमें अलग – अलग चित्र देख पाते हैं और कई बार तो कविता से कुछ भी स्पष्ट नहीं होता। इसका कारण मुक्तिबोध यह मानते हैं कि शमशेर एक इम्प्रेशनिस्ट चित्रकार की तरह कविता करते हैं। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने लिखा है, कि “नई कविता के कवियों में शमशेर अपनी अलग पहचान बनाते हैं। उनकी कविता में जो खामोशी, अकेलापन, और भावोद्वेग की शान्ति है, जो काव्यानुभूति की सघनता, मितकथन और मौन है, जो स्मृतिबोध और अवसाद है, उसका कारण उनके कवि व्यक्तित्व की गहराइयों में ढूँढ़ा जा सकता है। ये भीतर कहीं बहुत गहरे मृत्यु को, काल की अनन्तता और अनिवार्यता को और सृष्टि की नश्वरता को स्वीकार करनेवाले कवि हैं। यह बोध उन्हें विनम्र और खामोश बनाता है तथा एक विराट प्राकृतिक सौन्दर्य की ओर और साथ ही प्रेम, करुणा और शान्ति के मूल्यों की ओर भी ले जाता है। यही उनके काव्य की सही जमीन है जिसे उनकी तमाम कविताओं के गहरे विश्लेषण से पाया जा सकता है।”(विश्वनाथप्रसाद तिवारी, समकालीन हिन्दी कविता, पृ.14) सीमित या न्यूनतम शब्दों में अपनी बात कह देने की कला में शमशेर अद्वितीय हैं। गहन सांकेतिकता और बिम्बधर्मिता के ही कारण उनकी कविताओं के अर्थबोध में बाधा- सी दिखाई देती है। शमशेर की कविता की संरचनात्मक विशिष्टता के बारे में मुक्तिबोध ने लिखा है, “शमशेर की सम्वेदनशील दृष्टि, भावप्रसंग के विशिष्ट पर टिकती है। यह विशिष्ट वास्तविकता का अटूट अंग है। वास्तविकता के सूत्रों में, वह गुम्फित और ग्रन्थित है। इस विशिष्ट में एक नाटक है, एक कथानक है, कुछ पात्र हैं। एक पार्श्वभूमि है।”(शमशेर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (संपा.), पृ.16) अर्थात शमशेर की कविता में एक नाटकीयता, कुछ पात्र तथा कुछ घटनाएँ होती हैं। साथ ही उस घटना का वातावरण भी उपस्थित रहता है। टूटी हुई बिखरी हुई कविता एक प्रेम कविता है। यह कविता कवि का एकालाप है, जिसमें प्रेम में मिलन और बिछुड़न के मार्मिक ठोस चित्र हैं।
3. शमशेर की प्रेमानुभूति
प्रेम की भाषा वैखरी वाणी की मोहताज नहीं होती। यह शरीर और मन की भाषा है। वैसे ही, जैसे प्रेम शरीर और मन दोनों का व्यापार है। इसमें समझने से ज्यादा महत्त्व होता है अनुभूति का। यहाँ प्रेम दर्द देता है, दुख नहीं। रघुवीर सहाय ने टूटी हुई बिखरी हुई कविता पर विचार करते हुए लिखा है, “शमशेर ने व्यक्ति की अपूर्णता की बेचैनी और पूर्ण होने की बेचैनी को एक ही व्यक्ति में समो दिया है। इससे अधिक गहरी, गाढ़ी, अन्धेरी शान्ति और हो नहीं सकती। साधारण लोग इसी को प्रेम की पीड़ा कहते हैं, परन्तु यह एक नया इनसान पैदा होने की पीड़ा है। जिसे असाधारण रूप से ताकतवर कवि ही झेल सकता है, जिस ने सब लाल हरी शक्लों और आवाजों को एक में मिला लिया हो।” (वही, पृ.128) यही वह जमीन है जहाँ प्रेम बाँधता नहीं मुक्ति और जीवन देता है। शमशेर के लिए शायद मुक्ति और जीवन एक ही चीज के दो नाम हैं। अस्तित्ववादी शब्दावली में कह सकते हैं कि शमशेर ईश्वरविहीन आस्तिकता और आस्था के कवि हैं। इसलिए खुद शमशेर ने प्रेम के बारे में कहा है, “मोहब्बत का जज्बा हमेशा एक बहुत पाक हस्ती अपनी जगह पर है, और जिस सीने में वह जोरों से धड़कने लगता है, उसको आपसे-आप एक नई जिन्दगी बख्शता है।” (वही, पृ.132) शमशेर ने प्रेम के बारे में रवीन्द्र नाथ टैगोर के हवाले से लिखा है, “ईश्वर से बढ़कर कोई किसी को प्यार नहीं कर सकता। (क्यों? कैसे?) क्योंकि वह हमें पूरी तरह आजाद छोड़ देता है। कभी किसी बात के लिए हम पर कोई दबाव नहीं डालता। इस पर भी नहीं कि हम उसे मानें कि वह है। इतना निःसंग, इतना बेगरज, इतना तटस्थ-और फिर वह हमारे रग-रग के सुख और दुख से वाकिफ है। वाकिफ है, मगर कभी हमें यह जानने नहीं देता कि वह वाकिफ है। न हमसे मिलने का आग्रह, न हमें अपनी तरफ खींचने की रत्ती भर कोशिश।”(वही, पृ.139)
वस्तुतः टूटी हुई बिखरी हुई कविता का शीर्षक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। शमशेर की कविताओं में शीर्षक हमेशा ही बड़ा महत्त्वपूर्ण होता है। हम जानते हैं कि टूटी बिखरी विशेषण हैं, तो सवाल है कि उन विशेषणों की संज्ञा क्या है, जिनके लिए ये विशेषण प्रयुक्त हुए हैं। यह कविता वस्तुतः जीवन की कविता है, जिसमें प्रेम और प्रणय के चित्र पूरी माँसलता और ऊष्मा के साथ आए हैं। कविता का आरम्भ और अन्त उदासी से है। प्रेम भले ही एक सामाजिक सत्य है लेकिन यह एक आत्मपरक अनुभूति ही है। शमशेर प्रेम में भी तटस्थता बरतने वाले कवि हैं। इसलिए प्रेम की विफलता भी उन्हें भावुकता में नहीं डालती। वे अपने प्रेमास्पद की बेवफाई का संकेत तो करते हैं, लेकिन उसकी शिकायत करते नजर नहीं आते। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रेम में विफलता के बावजूद वे कहीं भी प्रेम का अवमूल्यन नहीं करते। शमशेर प्रेम को लोकतान्त्रिक चीज मानते हैं। इसलिए कहते हैं-
हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
… जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं,
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ। हूँ।
उपमा की यह नवीनता और सादगी कितनी असाधारण है कि यहाँ प्रेम बाँधता नहीं मुक्त करता है और कवि अपने प्रेमास्पद को प्रेम में अपना गुलाम बनाने का ख्वाहिशमन्द भी नहीं। यह प्रेम मुक्ति का वाहक है और इसीलिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भी।
4. टूटी हुई बिखरी हुई का पाठ विश्लेषण
टूटी हुई बिखरी हुई विशेषण हैं, लेकिन सवाल है कि इन पदों की संज्ञा क्या है? स्पष्टतः वह संज्ञा है जीवन। शमशेर की कविता में भले ही उदासी और निराशा के भाव हों पर वे वैचारिक रूप से आस्तिकता और जीवन के स्वीकार के कवि हैं। ध्यान रहे कि उनकी आस्तिकता ईश्वरविहीन आस्तिकता है। इसलिए यह कविता खालिस प्रेम की कविता नहीं है, बल्कि जीवन की कविता है। सम्पूर्ण कविता ही जीवन का बिम्ब है। एक ऐसा जीवन जो अभी है और आगे भी रहेगा, भले ही अगले जन्म के रूप में हो। शमशेर की कविता ईश्वरविहीन दुनिया में मनुष्य के आत्म और उसकी सार्थकता की तलाश की कविता कही जा सकती है। रंजना अरगड़े ने उनकी कविता टूटी हुई बिखरी हुई का पूरा नक्शा कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया है। “वे अपनी प्रेयसी को प्राप्त करने के लिए धैर्य का परिचय देते हैं। सब कुछ तो उसी का है, जिन्दा इत्रपाश बनकर वही बरसी, और फिर मोहित उसी ने किया, उसी ने फटे और खुले हुए लिफाफे-से कवि को उलट-पुलट कर देखा, पर पढ़ा नहीं, वहीं पर छोड़ दिया, अनेक रंगों में अपनी इच्छा से उसी ने लपेटा, इच्छा होने पर, लपेट खोल अलग भी करना चाहा, लेकिन लपेट ऐसे थे कि सरलता से नहीं खुले तो जला भी दिया। फिर वह जलते हुए कवि को बड़ी निष्ठुरता से देखती भी रही-कवि को यह भी मंजूर है…….कोई बात नहीं अगले जन्म में।” (रंजना अरगड़े, कवियों के कवि शमशेर) उदासी से आरम्भ होकर उदासी में अन्त होने वाली इस कविता में प्रेम के ठोस ऐन्द्रिय बिम्ब उपस्थित हैं, जो हिन्दी कविता में प्रायः दुर्लभ हैं। मुक्तिबोध ने उनकी प्रणयानुभूति की तारीफ करते हुए लिखा है। “प्रणय जीवन के जितने विविध और कोमल चित्र वे (शमशेर) प्रस्तुत करते हैं, उतने चित्र, शायद और किसी नए कवि में दिखाई नहीं देते। उनकी भावना अत्यन्त स्पर्श-कोमल है। प्रणयजीवन में भाव प्रसंगों के अभ्यन्तर की विविध सूक्ष्म संवेदनाओं के जो गुण चित्र वे प्रस्तुत करते हैं, वे न केवल अनूठे हैं, वरन् अपने वास्तविक खरेपन के कारण, प्रभावशाली हो उठे हैं।”(शमशेर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (संपा.), पृ.20)
कविता का पहला खण्ड कवि की उदासी के मूड को प्रस्तुत करता है। पहली ही पंक्ति जैसे जीवन, कविता और प्रेम के बारे में कवि की मनःस्थिति को स्पष्ट कर देती है।
टूटी हुई बिखरी हुई चाय
की दली हुई पाँव के नीचे
पत्तियाँ
मेरी कविता
…………………………………….
ठण्ड भी एक मुस्कराहट लिए हुए है
जो कि मेरी दोस्त है।
सारी क्रियाएँ वर्तमान काल की हैं। इससे पता चलता है कि कवि अपने समय के वर्तमान बिन्दु से कविता का आरम्भ कर रहा है। टूटी, बिखरी, दली चाय की पत्तियाँ हैं या कवि का जीवन। इसका स्पष्ट संकेत ठण्ड, जो कि कवि की दोस्त है, उससे होता है। यह ठण्ड एक मुस्कराहट लिए हुए है।
आगे कविता फ्लैश बैक में जाती है। और कवि उन दिनों को याद करता है जब उसके जीवन में प्रेम का आगमन हुआ था।
कबूतरों ने एक गजल गुनगुनाई…….
मैं समझ न सका, रदीफ़–काफिये क्या थे,
इतना ख़फ़ीफ, इतना हल्का, इतना मीठा
उनका दर्द था।
इस प्रेम की भाषा वैखरी में तो अस्पष्ट थी लेकिन अनुभूति के स्तर पर एकदम स्पष्ट। यह प्रेम दर्द तो देने वाला था लेकिन दुख नहीं। रघुवीर सहाय ने लिखा है “एकाएक एक गूँज (गूँ गुटर गूँज) एक गरज बन जाती है पर मैं इस एक ताकत की बात नहीं कह रहा था। ताकत है उस व्यक्ति में जो इतना खफीफ इतना हल्का इतना मीठा दर्द मुलायम हाथों से पकड़ सकता है। किसी कमजोर हाथ में वह एक भिनभिनाता हुआ तुकान्त करुण संगीत बन सकता था। यहाँ शमशेर इस गरज में नहाते और झूलते हैं। उनकी केवल इतनी प्यारी-सी कमी है कि वह रदीफ काफिए नहीं सुन पा रहे हैं।” (वही, पृ.126)
आगेप्रेममेंखोजाने, अस्तित्वकेविलीनहोजानेकाचित्रहैजोअसमानमेंगंगाकीरेतमेंकीचड़कीतरहसोनेसेव्यंजितहुआहै।अपनेअस्तित्वकोकीचड़कीतरहसमझनेऔरसाथहीचमकतेरहने काभावमहत्त्वपूर्णहै।प्रेमकेभावकीपवित्रतागंगासेव्यंजितहै।कविप्रेमकीजिसगंगाकेभीतरहोनेकाअनुभवकररहाहैउसमेंहृदयकाछप्- छप्करनाहृदयकेजलयानीप्रेमकेस्रोतहोजानेकापरिणामहै।
फिर वह प्रेम कैसा? सिर्फ जीवन देनेवाला ही नहीं बल्कि मृत्यु को भी सँवारने वाला। प्रेम का यह असर मारक है, इसलिए कवि को दुकान की दवाइयाँ प्वाइजन का लेबुल लिए हुए हँसती हैं। स्मरण रहे कि शमशेर ने कुछ समय तक दवा की दुकान में भी काम किया था। कवि की कामना है कि उसे प्यास के पहाड़ों पर लिटा दिया जाए। लेकिन, यह प्यास साधारण नहीं है, बल्कि पहाड़ जैसी है। वह एक झरने की तरह बह निकलने के लिए व्याकुल है। यह व्याकुलता है प्रेम में फना हो जाने की। कवि अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर अपने प्रेमास्पद को प्रसन्न कर लेना चाहता है।
मुझको सूरज की किरणों में जलने दो–
ताकि उसकी आँच और लपट में तुम
फौवारे की तरह नाचो।
प्रेमिकाकीपलकोंकीउनीन्दीजलनकोमिटानेकेलिएवहजंगलीफूलबनजानाचाहताहै।कविताअपने अपनेचरमपरपहुँचतीहै,तबजबकविअपनीआकांक्षाऔरप्रेमिकासेअपनीअपेक्षाव्यक्तकरताहै।
हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
… जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं,
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।
रंजना अरगड़े लिखती हैं, “एक सौ चौदह छोटी-बड़ी पंक्तियों में व्याप्त यह रचना प्रेम की तीव्र संवेदना लेकर आती है। ठीक मध्य में यह संवेदना तीव्रतम हो जाती है। इसकी संरचना भी इस तरह से महत्त्वपूर्ण है…………..सारी आरम्भिक यात्रा उस तक पहुँचने की है और बाद का समग्र अंश उस प्रभाव को लेकर धीरे-धीरे शान्त हो जाता है।” (कवियों के कवि शमशेर, रंजना अरगड़े, पृ.57)
आगेकविखुदहीप्रेमकास्वरूप बनजाताहै।इसलिएआईनोंकोसम्बोधितअगलेअंशमेंखुदकेहीलिखेऔरपढ़ेजानेकीमाँगकरताहै।यहाँप्रेमजीवनकापर्यायबनगयाहै।प्रेममेंडूबनाऔरमरजानाहीप्रेममेंसफलताकाप्रमाणहै।रीतिकालीनहिन्दीकवितामेंप्रेममेंडूबनेवालोंकेपारहोजानेकावर्णनहै।
आगे प्रणयानुभूति का मोहक और सांकेतिक, मगर ठोस माँसल चित्र खींचा गया है।
एक फूल ऊषा की खिलखिलाहट पहनकर
रात का गड़ता हुआ काला कम्बल उतारता हुआ
मुझसे लिपट गया।
जीवन में प्रेम का आगमन कैसा है? फूल जैसा कोमल। और, वह फूल भारतीय कविता की आदि नायिका ऊषा की खिलखिलाहट पहनकर और रात का गड़ता कम्बल उतारकर कवि से लिपट गया। ऊषा मधु का स्रोत रही है और रात की समाप्ति के साथ ज्योति और जीवन के आने की देवी जो सूर्य से भी पहले आती है। जयशंकर प्रसाद के बाद हिन्दी कविता में ऊषा के सौन्दर्य से अभिभूत रहने वाले शमशेर ऊषा के द्वारा भारतीय कविता की वैदिक परम्परा से जुड़ जाते हैं। फूल में गन्ध है, ज्योति है, कोमल स्पर्श है और खिलखिलाहट के नाते ध्वनि भी है। रात यानी अन्धकार यानी उदासी वह भी कम्बल की तरह घनी और मजबूत। वह फूल कैसा था? काँटों के बिना था। लेकिन उसकी जुल्फे थीं। जिसमें कवि के पाँव खो गए। अर्थात् गति ठहर गई। अर्थात यात्रा कृतकार्य हो गई। मंजिल मिल गई। वह फूल कवि पर एक जिन्दा इत्रपाश की तरह बरस पड़ा। यहाँ बरस पड़ना क्रिया ध्यान देने लायक है। यह बारिश सामान्य नहीं थी। बल्कि इसमें तीव्रता और गति थी और सम्पूर्ण सराबोर कर देने वाला भाव है। उससे भी महत्त्वपूर्ण है जिन्दा इत्रपाश की उपमा। यानी प्रणय का यह व्यापार यान्त्रिक नहीं था। नतीजा यह हुआ कि कवि को पता चला कि मैं सिर्फ एक साँस हूँ। प्रणयानुभूति में देश और काल का तिरोहित हो जाना ही दरअसल साँस भर रह जाना है। यह शुद्ध अस्ति की स्थिति है और प्रेम में आनन्द का मूल स्रोत भी।
लेकिन यह क्या हुआ? उसके पाँवों की दिशा खो गई। अर्थात कवि अकेला रह गया। कवि की स्थिति एक फटे – खुले लिफाफे जैसी हो गई। जिसे उलट-पलट कर छोड़ दिया गया। महत्त्वहीनता और निरर्थकता के लिए खुले हुए लिफाफे की उपमा है- जिसमें न कोई सन्देश बाकी है न कोई रहस्य, न ही कोई आकर्षण। इसलिए वह महत्त्वहीन हो गया है। फलतः वहीं वैसा ही छोड़ दिया गया। लेकिन प्रेम के मिलन की यह स्मृति बेहद पीड़ादायक थी। यही है सूद का वसूला जाना। मिलन की याद और वर्तमान के विरह की पीड़ा में कवि की मनः स्थिति गमगीन मुस्कराहट लिए हुए है। प्रेम में जो भी पीड़ा मिली वह कवि के लिए शिकायत का कारण नहीं है। उसे वह सब कुछ बहुत अच्छा लगा। वे सारे अनुभव उसके लिए मूल्यवान थे। यहाँ तक कि-
तुमने मुझे जिस रंग में लपेटा, मैं लिपटता चला गयाः
और जब लपेट न खुले–तुमने मुझे जला दिया।
मुझे, जलते हुए को भी तुम देखते रहे : और वह
मुझे, अच्छा लगता रहा।
जीवन में कोई अनुभव हो जाने के बाद अकृत नहीं होता। घाव सूख जाते हैं, लेकिन निशान रह जाते हैं उस घाव के। याद जीवन में कितनी महत्त्वपूर्ण और गहरी होती है, उसे खुशबू की तरह रूपायित करना बेहद रोमाण्टिक कल्पना है। वह कवि की पलकों में इशारों की तरह बस गई है।
एक ख़ुशबू जो मेरी पलकों में इशारों की तरह
बस गई है, जैसे तुम्हारे नाम की नन्हीं सी-
स्पेलिंग हो, छोटीसी-प्यारी सी, तिरछी स्पेलिंग,
आह, तुम्हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक
उस पिकनिक में चिपकी रह गई थी,
आज तक मेरी नीन्द में गड़ती है।
रंजना अरगड़े के अनुसार,“इसी तरह पूरा भूतकाल कवि की पलकों में बस गया है।……..कवि के पूरे जीवन में ये सारे गन्धमय संकेत वैसे ही उभरकर उपस्थित हैं, जैसे किसी की तिरछी स्पेलिंग- क्योंकि हस्ताक्षर ही किसी पत्र को वजन देते हैं।” (वही, पृ.59-60) तिरछीस्पेलिंगसेआशयहस्ताक्षरकेढंगसेहै,जोकिसीव्यक्तिकासबसेमहत्त्वपूर्णकागजीनिशानहोताहैऔरप्रायःतिरछेढंगसेलिखाजाताहै।यहाँवेस्मृतियाँकेवलजागतेहीनहींसतातीं,बल्किवेइतनीठोसऔरसघनहैंकिनीन्दमेंभीगड़जातीहैं।
कविकोकिसीसेनतोकोईशिकायतहै,नकोईईर्ष्या।बसअन्तमेंबहुतसारेअसम्बद्धबिम्बएकसाथआतेहैंआगेकेजीवनकीगतिकीदिशाऔरदशाकासंकेतकरतेहुए।सबकुछहोनेकेबीचक्याहुआ,कुछनहीं।
उनमें कोई न था। सिर्फ बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास
रंगीनियाँ थीं। फ़कत।
यह है कवि का तटस्थ द्रष्टाभाव जो उसे एक विशिष्ट पहचान देता है। यह है शमशेर की आत्मपरकता में वस्तुपरकता का आधार जो वे खुशी या उदासी दोनों में ही थामे रहते हैं।
5. शमशेर की काव्य–भाषा और बिम्ब विधान
शमशेर की आरम्भिक कविताएँ अवश्य तत्सम शब्दावली वाली हैं, लेकिन आगे चलकर उनकी कविताएँ हिन्दी उर्दू के दोआब होने का रास्ता पकड़कर आगे बढ़ती हैं। उनके प्रिय कवि निराला ने भी छायावाद के दायरे से बाहर निकलने में यही रास्ता अख्तियार किया था। न केवल उनके बिम्ब उनकी पहचान हैं, बल्कि उनकी काव्य-भाषा भी उनकी पहचान है, जो बेहद निजी किस्म की है। शब्द और अर्थ को एक नए साहचर्य में प्रस्तुत करने के लिए शमशेर शब्दों का एक नया क्रम रखते हैं। विजयदेव नारायण साही कहते हैं, “जब एक बार शब्दों को जकड़े हुए अर्थों के पाश टूट जाते हैं, तब उनकी इस नई मुक्ति की अवस्था में, उन्हें नए- नए रिश्तों में जोड़ना सम्भव होने लगता है।……. ऐसी अवस्था में ऐसे शब्द आने लगते हैं जिनके साहचर्य की कल्पना पहले नहीं की गई थी।” (शमशेर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (संपा.) पृ.37-38) हालाँकि इसकी शुरूआत छायावादी युग में ही हो गई थी। प्रसाद ने शीतल ज्वाला और दृग जल के ईंधन हो जाने का साहचर्य प्रस्तुत किया था। लेकिन शमशेर के यहाँ ऐसे प्रयोगों की बाढ़ सी आ गई लगती है। शमशेर मितकथन के लिए प्रसिद्ध हैं। यह स्थिति वे विशेषणों ओर संज्ञाओं के नवीन साहचर्य से प्रस्तुत करते हैं, जो उनके पहले बहुत आम नहीं था। जैसे मुस्कराहट लिए ठण्ड, प्वाइजन का लेबुल लिए हँसती दवाइयाँ, प्यास के पहाड़, पलों की उनींदी जलन, दरवाजे की शर्माती चूलें, कीचड़ की तरह सोना, स्वरों का गीला होना, ऊषा की खिलखिलाहट पहनना, मोतियों को चबाना, सितारों को कनखियों में घुलाना, जिन्दा इत्रपाश बन कर बरस पड़ना, सिर्फ साँस हो जाना या पहाड़ों का गमगीन मुस्कराना, खुशबू का पलकों में बसना आदि। ये नई क्रियाएँ या क्रियाओं से बने विशेषण एक सम्पूर्ण, सघन चित्र निर्मित करते हैं जो कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा अर्थ सम्प्रेषित कर देता है। शमशेर कहते हैं, “कला उसे कहते हैं जिसमें कम से कम उपादानों के साथ अधिक-से-अधिक प्रभाव पैदा किए जा सके। शब्द कम हों। चित्र हैं तो रेखाएँ कम हों, रंगों का बहुत उपयोग न किया गया हो, मगर जो प्रभाव चाहिए वे उतने में पूरा, अधिक से अधिक हो। ये यानि एक सूत्र मेरे मन में बैठा रहा है हमेशा- कि अधिक शब्द हों तो उसे और कम करो, और हों और भी कम करो।”(विश्वनाथप्रसाद तिवारी, समकालीन हिन्दी कविता, पृ.39) शमशेर के बिम्ब इसी कारण बेहद ठोस और माँसल हो जाते हैं। शमशेर ने अकेले ही हिन्दी कविता को बहुत सी नवीन उपमाएँ दी हैं, जो अपनी नवीनता या उपमेय और उपमान की समानता के कारण ही नहीं बल्कि एक अतिरिक्त अर्थ की सृष्टि के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। जैसे कीचड़ में सोना की बजाय कीचड़ की तरह सोना कितना टटकापन लिए हुए है, कहने की आवश्यकता नहीं।
6. निष्कर्ष
टूटी हुई बिखरी हुई कविताशमशेरकीकाव्यानुभूति, जीवनानुभूतिऔरप्रणयानुभूतिकाएकसमग्रचित्रप्रस्तुतकरतीहै।इसमेंप्रेम, कविता, जीवनऔरअवसादमिलकरएकसेहोगएहैं कविसबकोतटस्थताऔरएकनिश्चितदूरीसेदेखपाताहैऔरप्रस्तुतकरताहै,यहीउपर्युक्तकविताकीविशिष्टताहै।गजलऔरलम्बीकविताकेअद्भुतमिश्रणसेबनीइसकवितामेंहिन्दीऔरउर्दूकाव्यपरम्पराकीअनुगूँजेंतोहैंहीसाथहीइसमेंभारतीयकविताकीसदियोंपुरानीपरम्पराकीपरतेंभीविन्यस्तहैं।अतियथार्थवादऔरइम्प्रेशनिस्टिकचित्रकलासेबेहदप्रभावितशमशेरकीकाव्यकलाकायहकविताएकउत्कृष्टउदाहरणहै।कमसेकमशब्दोंऔरसंकेतोंकेमाध्यमसेअपनीबातसम्पूर्णत्वराकेसाथसम्प्रेषितकरदेनेकीकलाकायहकविताएकसशक्तप्रमाणहै।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- काल से होड़ लेता शमशेर, विष्णुचन्द्र शर्मा, संवाद प्रकाशन, मुंबई
- शमशेर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना/मलयज(सम्पा), राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
- कवियों का कवि शमशेर, रंजना अरगड़े, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- प्रतिनिधि कविताएँ: शमशेरबहादुर सिंह, नामवर सिंह(सम्पा.), राजकमल पेपरबैक्स,
- कविता के नए प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- समकालीन हिन्दी कविता, विश्वनाथप्रसाद तिवारी लोकभारती प्रकाशन,इलाहबाद
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%9F%E0%A5%82%E0%A4%9F%E0%A5%80_%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%88,_%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%88_/_%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9