9 शमशेर की कविता में प्रेम और सौन्दर्य

डॉ. ओमप्रकाश सिंह

 

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पाठ का प्रारूप       

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. अकुण्ठ और उन्मुक्त प्रेम
  4. शमशेर का सौन्दर्य बोध
  5. निष्कर्ष

 

1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  •  शमशेर की कविता के कथ्य से परिचित हो सकेंगे ।
  •  शमशेर की काव्यानुभूति  की बुनावट समझ  सकेंगे।
  •  शमशेर की कविताओं में अभिव्यक्त प्रेम के स्वरूप को समझ सकेंगे।
  •  शमशेर की कविताओं में सौन्दर्य के विविध रंग पहचान सकेंगे।

 

2. प्रस्तावना

 

कवि के जीवन के साथ उसकी कविता का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। कवि के लिए कविता महज कविता नहीं होती, बल्कि जीवन की यात्रा होती है। इस यात्रा में पड़ाव होते हैं। प्रेम होता है। दर्द होता है। खुशी होती है। आँसू होते हैं। राग होता है। एक उन्मुक्त हृदय होता है। इन सभी में जीवन के विविध रूप, रंग और गन्ध होते हैं। जो कवि जीवन के इन विविध रंगों में जितना अधिक धँसता चला जाता है, उसकी कविता उतनी ही फैलती चली जाती है। आधुनिक हिन्दी कविता में शमशेर बहादुर सिंह ऐसे अनूठे कवि हैं, जो जीवन की गहराइयों में जितना धँसे हैं, उनकी कविता उतनी ही उन्मुक्त और विस्तृत हुई है। शमशेर का जीवन बोध (आत्मबोध) जितना अधिक बढ़ता गया उनका काव्य-बोध उतना ही विस्तृत होता गया। ठीक उनकी कविता सुबह  की तरह –             

 

‘‘जो कि सिकुड़ा हुआ बैठा था, वह पत्थर

 सजग-सा होकर पसरने लगा

 आप से आप।’’

 

यह है शमशेर का जीवन-बोध और काव्य-बोध। वह जितना अधिक डूबा हुआ है, उतनी ही व्यापक उसमें फैलाव और गहराई भी है। उसमें बहुत ही सहजता के साथ विस्तार की आत्मचेतना है। इस फैलाव में एक अटूट दर्द और प्रेम है, जो उनकी कविताओं में जीवन का सौन्दर्य रचता है। सही अर्थों में कहें तो शमशेर प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं और उनकी कविता में जीवन के विविध रंग अपनी पूरी भंगिमा के साथ उपस्थित होते हैं। इस सौन्दर्य में एक दर्द है। “अजीब है यह दर्द। प्रेम की पीड़ा, लेकिन वही नहीं। अकेलेपन का अवसाद, लेकिन कुछ और भी। जीवन की बिडम्बना। जगत की विषमता, और भी बहुत कुछ। रोमाण्टिक विषाद से अलग। रुलाता नहीं सोच में डाल देता है।’’

 

शमशेर जब सत्तर वर्ष के हो रहे थे, एक साथ उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। उदिता ( सन् 1980), इतने पास अपने (सन् 1980), चुका भी नहीं हूँ मैं (सन् 1981), बात बोलेगी (सन् 1981)। इन संग्रहों की कविताओं में कवि का विस्तृत मानस सजग और साकार रूप में आता है और कविता को एक नई ऊँचाई प्रदान करता है। यह संग्रह जब सम्पूर्णता में सामने आता है, तो उन प्रतिमानों को तोड़ता है जिसे कुछ आलोचकों ने ‘कुछ कविताएँ और कुछ और कविताएँ’ के आधार पर बनाए थे। शमशेर के परवर्ती संग्रहों में काव्य-भूमि का काफी विस्तार था और इसे उन्हीं मानकों पर समझना कठिन था, जिनके आधार पर आलोचक उन्हें अभी तक देखते आए थे। परवर्ती दौर में शमशेर ने कुछ ऐसी कविताएँ लिखीं जो हिन्दी साहित्य के अनमोल रत्‍न बन गए। काल तुझसे होड़ मेरी, टूटी हुई बिखरी हुई और  बहुत दूर से सुन रहा हूँ जैसी रचनाएँ शमशेर की शमशेरियत को सीमित मूल्यांकन के दायरे से निकालकर अलग खड़ा कर देती हैं और सतर्कता के साथ मूल्यांकन की माँग करती हैं।

 

3. अकुण्ठ और उन्मुक्त प्रेम

 

शमशेर का हृदय एक प्रेमी का हृदय है। इस हृदय में कुण्ठा के लिए कोई जगह नहीं है। कुण्ठारहित प्रेम उन्हें जिस ऊँचाई पर लाकर खड़ा करती है उसे पहचानने का सामर्थ्य सबमें नहीं हो सकता। शायद यह भी एक कारण है कि कुछ लोगों ने उनकी ऐन्द्रिकता को मात्र माँसलता की दृष्टि से देखने की भूल की है। ऐसे लोग अगर थोड़ा ठहर कर, अपने हृदय को विस्तृत कर शमशेर की कविताओं में प्रवेश करते तो उन्हें अपने ही हृदय पर ग्लानि होती। प्रेम से नाता रखने वाली  हर रचना कुछ वक्त ठहरने की माँग करती है और जब शमशेर की कविता में इतना अधिक ठहराव है, तो अपेक्षा बढ़ जाती है। शमशेर की कविता अपने ठहराव में बहाने के लिए बाध्य करती है, जहाँ अहम के लिए कोई जगह ही नहीं है। शमशेर के प्रेम का यह ठहराव और उसमें विद्यमान कोमलता अनन्य है। कोमलता और पारदर्शिता ने ही उसमें ऐन्द्रिकता के लिए इतना स्पेस तैयार किया है, जिसे लोग उनकी पूरी कविता पर थोप कर देखते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि उनका प्रेम बहुत ही सघन है, जिसमें न जाने कितना कुछ समाया हुआ है। उनके प्रेम की सघनता इतनी अधिक है कि हर बार उसमें से खुद उन्हें नया कुछ मिल जाता है और हर बार फिरसे वे तलाश में भटकने लगते हैं सही शब्दों, ध्वनियों, रागों और रंगों के–

 

 ‘‘ तुमने मुझे और गूँगा बना दिया

 एक ही सुनहरी आभा-सी

 सब चीजों पर छा गई

 मैं और भी अकेला हो गया

तुम्हारे साथ गहरे उतरने के बाद

मैं एक ग़ार से निकला

अकेला, खोया हुआ और गूँगा।’’

 

इसी निष्ठा ने, ईमानदारी ने उन्हें प्रेम सम्बन्धों और प्रेम के विभिन्‍न पहलुओं के सन्दर्भ में जितना वैविध्य जीवनानुभव और संवेदना प्रदान किया है वह दूसरे कवियों को हासिल नहीं। ग़ार से निकला आदमी उसमें पूरी तरह सना हुआ होता है। शमशेर भी इस ग़ार में आकुण्ठ डूबे हुए थे। लेकिन ध्यान रखिए कि सुनहरी आभा भी चारो ओर व्याप्त है। रचना में कवि पूरी कोमलता से अपनी इन अत्यन्त सूक्ष्म संवेदनाओं को शक्ल दे देता है। शमशेर की साफगोई और सादगी भी इतने रंगों से ओत-प्रोत है कि पूरे परिवेश को प्रेम की संवेदना चारो ओर से लपेट लेती है। प्रेम की परस्पर विरोधी और संवादी छवियों को, उसकी स्थिरता और गतिशीलता, आनन्द और पीड़ा, ऐन्द्रिकता और भावोच्छवास, कोमलता और कठोरता, प्रत्यक्षता और दुराव, आक्रामकता और पलायन को समान स्तर पर साधने में कवि को महारत हासिल है। ऐसा लगता जैसे पूरा परिवेश उनके अन्दर ही बसा हुआ है, कवि बस उसमें से कुछ टुकड़े काटकर पन्‍नों पर रखता जाता है, और बहुत ही सरलता के साथ अपने प्रिय से ही मुक्ति की आशा करता है–

 

‘‘हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं

         जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,

  जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं

  जिसको गहराई तक दबा नही पातीं,

  तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।’’

 

यही उनके प्रेम का अनूठापन है। प्रेम कोई कटी हुई या थोपी हुई संवेदना नहीं है, जीवन का अंग है और पूरे परिवेश में व्याप्त है।यहाँ समानधर्मा होने की माँग है। वह भी पुरुष की ओर से। सहजता से सोचें तो कोई बड़ी माँग नहीं है, लेकिन समाज को देखें तो इससे बड़ी कोई माँग नहीं है। एक जनतान्त्रिक समाज की जायज माँग है, सामन्ती परिवेश को धता बताती हुई, द्वैत और दुविधा से रहित, प्रकृति के अनुकूल एकात्म और अनवरत। बस इतना कि तुम मुझसे प्रेम करो, जैसे कि मैं तुमसे करता हूँ।

 

शमशेर का प्रेम कठिन जीवन के छोटे-छोटे मानवीय सुखों के अन्वेषण से उपजा प्रेम है। इस प्रेम में जीवन का दर्द संगीत की तरह बजता रहता है। इसीलिए शमशेर का प्रेम निर्वाक और निष्क्रिय नहीं करता बल्कि पाठक को और स्वयं कवि को शब्द देता है। शमशेर का प्रेम मनुष्य को जीवन के प्रति उद्दाम और अकुण्ठ बनाता है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि शमशेर का प्रेम चुके हुए लोगों का प्रेम नहीं है। उनके हृदय में प्रेम का दीपक हमेशा अपनी त्वरा के साथ जलता रहता है। दरअसल शमशेर में यह प्रेम की त्वरा जीवन के प्रति प्रेमभाव से ही उपजी थी। इसी त्वरा को लेकर शमशेर गूढ़ से भी गूढ़तर तत्त्व को खोज लेना चाहते हैं–

        सरल से भी गूढ़

         तत्व निकलेंगे

        अमित विषमय

        जब मथेगा प्रेमसागर

        हृदय    

 

शमशेर का यह अकुण्ठ हृदय जब प्रेमसागर को मथता है, तो सामाजिक संरचना और शिल्पगत संरचना से मिलकर उन्मुक्त प्रेम को जन्म देता है। शमशेर का प्रेम जीवन के साहचर्य के साथ एक यात्रा करता है। इस यात्रा में कवि जीवन की गहराइयों में प्रवेश करता है। बाह्य जगत के सूत्र पकड़कर कवि जैसे-जैसे जीवन में प्रवेश करता जाता है, उसकी कविता हमारी ऐन्द्रिय संवेदनाओं में डूबती चली जाती है। इन्हीं गहराइयों से शमशेर की कविताओं का बिम्ब उभरता है जो जीवनानुभव से भरा हुआ होता है। समय या काल से होड़ लेता कवि कभी भी अपने प्रेम में इतना ऐकान्तिक नहीं हुआ है कि उसे अपने समय का पता भी न चले। शमशेर का प्रेम समय के थपेड़ों से संवाद करता हुआ चलता है। जो लोग उन्हें एकान्तिक प्रेम का कवि मानते हैं उन्हें शमशेर की कविताओं की व्यापकता का बोध नहीं हुआ है। शमशेर तो अपनी कविताओं में प्रेम करते हुए कई बार एकान्त को ही भंग कर देते हैं–

             

  ‘‘वह मुझ पर हँस रही है  जो मेरे होंठों पर एक तलुए

                 के बल खड़ी है 

                 मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं

                 और मेरी पीठ को समय के बारीक तारों की तरह खुरच

                 रहे हैं।’’       

 

यहाँ प्रेम के साथ समय के बारीक़ तार भी हैं, जो शमशेर की पीठ को खुरच रहे हैं। शमशेर का प्रेम साहचर्य से नहीं बल्कि विरह से उपजा हुआ है। इसी कारण इनकी कविताओं में प्रेयसी बार-बार साहचर्य में आती है। इस साहचर्य में एक अजीब दर्द है। यह विरह का दर्द है। पत्‍नी का कम समय में गुजर जाना शमशेर के दर्द को बयान करता रहता है। महज चौबीस साल की उम्र में पत्‍नी की मृत्यु शमशेर को जीवन भर सालती रहती है। उनकी कविताओं में जो सघन और तीव्र ऐन्द्रिक बिम्ब आए हैं, उसमें स्‍त्री की अनुपस्थिति साफ-साफ नजर आती है। उनके यहाँ स्‍त्री का पूरा शरीर नहीं बल्कि मनोभाव उभरता है, जो उनके हृदय में बसा हुआ है और उन्हें मथ रहा है–

         

     मेरी भावनाओं में तुम्हारा मुखकमल

              कृश म्लान हारा-सा

              (कि मैं हूँ वह

               मौन दर्पण में तुम्हारे कहीं?)

              वासना डूबी

              शिथिल पल में

              स्नेह काजल में

              लिए अद्भुत रूप-कोमलता।

 

यह भावनाओं से उपजा हुआ प्रेम साहचर्य से नहीं विरह के माध्यम से व्यक्त हो रहा है। दूधनाथ सिंह ने लिखा है– “स्‍त्री देह की गहरी ललक और उसकी प्राप्य-अप्राप्यता के कारण ही उनकी कविता इतने गहरे रूप में सेंसुअस है। इसीलिए उल्लसित मुद्राओं का अंकन उनकी कविताओं में बार-बार मिलता है, विरक्ति अन्त तक नहीं है, क्योंकि फुलफिल्मेण्ट नहीं है।” एकाकी जीवन में प्रेम की कमी, स्‍त्री की देह की कमी, उन्हें बरबस उस ओर खींचती है और काल्पनिक लोक में ले जाती है, मगर शमशेर इस अभाव के सामने समर्पण नहीं करते, बल्कि उसे साधते रहते हैं। इसी कारण शमशेर की कविताओं में एक रूमानीपन का आदर्श भी दिखाई पड़ता है। शमशेर के जीवन में प्रेम का अभाव ही उन्हें प्रेम के कई चित्र और रूप देता है। शमशेर के यहाँ प्रेम के अनेक रूप हैं। प्रेम के अलग-अलग रंगों को अलग-अलग मूड्स में पकड़ने की कोशिश खूब दिखाई पड़ती है। वे प्रेम के एहसास में इतना लीन दिखाई पड़ते हैं कि वे सिर्फ प्रेम नहीं बल्कि उससे भी कोई बड़ी चीज बन जाती है। शमशेर अपनी कविता ‘प्रेम’ में खुद ही कहते हैं–              

 

कितना घूमा देश-विदेश

 किन्तु न मुझसे छूटा प्रेम

 तरह-तरह के बदले वेष

 किन्तु न मुझसे छूटा प्रेम।

 

प्रेम की यही भूख शमशेर की कविता का स्थाई रूप है। अपनी प्रेमिका के लिए वे आनन्द का स्थाई ग्रास बन जाना चाहते हैं। उन्हें अपने आनन्द की परवाह नहीं। शमशेर की प्रेम कविताओं की एक और खासियत यह है कि वह कहीं भी आग्रही नहीं होते। वे माँगते नहीं, पुकार नहीं लगाते और न ही प्रेमिका पर अधिकार ही जताते हैं। वे सिर्फ अपने भीतर की संवेदनाओं को अभिव्यक्त करते हैं। इस रूप में उनकी प्रेम कविताओं में हमें उन्मुक्त और अकुण्ठ प्रेम दिखाई पड़ता है। यह प्रेम शमशेर के हृदय में बह रहा है। इसीलिए वह जब खालिस प्रेम की बात कर रहे होते हैं तब माँसलता आरोपित नहीं लगती है–

            

    ‘‘चिकनी चाँदनी सी माटी

                 वह देह धूप में भीगी

                 लेटी है हँसती सी’’

 

वह हँसती हुई प्रेमिका को देख लें, देखते रहें बस! शमशेर की प्रेयसी यानी ‘ठोस बदन अष्टधातु का’ और ऐसी प्रेमिका जो बदन के माध्यम से ही बात करती है। यहाँ देह है, लेकिन पूरी तरह स्वच्छन्द है–                

 

मेरे सीने से कसकर भी आज़ाद है

जैसे किसी खुले बाग में

सुबह की सादा

भींगी भींगी हवा

यह तुम्हारा ठोस बदन

मेरे अन्दर बस गया है!

 

4. शमशेर का सौन्दर्य बोध

 

शमशेर ने लिखा है–“सुन्दरता का अवतार हमारे सामने पल-छिन होता रहता है। अब हम पर है कि हम अपने सामने और चारों ओर की इस अनन्त और अपार लीला को कितना अपने अन्दर घुला सकते हैं।” मुझे लगता है कि यहाँ ‘अवतार’ और ‘लीला’ जैसे शब्दों को लेकर उलझने से बेहतर है ‘सुन्दरता’ की चर्चा करना। तात्त्विक रूप से शमशेर की काव्यानुभूति सौन्दर्य की ही अनुभूति है। जो लोग यह मान बैठे हैं कि छायावाद के बाद हिन्दी कविता ने सौन्दर्य का दामन छोड़ दिया  उन्हें शमशेर को पढ़ने की जरूरत है। हिन्दी कविता में विशुद्ध सौन्दर्य का अगर कोई कवि है तो वे शमशेर है। शमशेर के लिए सौन्दर्य कोई अन्त: और बाह्य वस्तु नहीं है। वह सौन्दर्य को एक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। किसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान या भावना से हमारे मन में उस वस्तु की जितनी ही पूर्ण परिणति होगी उतनी ही सौन्दर्यानुभूति ऐन्द्रिक और विस्तृत होगी। शमशेर की सौन्दर्य-दृष्टि की यह अपनी खासियत है कि बड़ी सहजता से वे अपनी आत्मपरकता के साथ सामाजिक दायित्व को संश्‍ल‍िष्ट कर लेते हैं। शमशेर की सौन्दर्य-दृष्टि ‘इतिहास की धड़कन’ और ‘समाज सत्य के मर्म’ से बनी है। शमशेर का सौन्दर्य कोई दर्शन नहीं है। जो लोग कविता को दर्शन मानने की भूल करते हैं उन्हें न तो ठीक से दर्शन की समझ है न ही कविता की। कवि अपने सौन्दर्य का (मान्यताओं का) चुनाव जिस रूप में करता है उस तरह दार्शनिक नहीं करता है। “दार्शनिक अपनी मान्यताओं में उनकी अपनी परम्परा संगति खोजता है जबकि कवि के पास मान्यताओं के लिए एक ही संगति है– जीने की जरूरत।” यही संगति कवि को स्व और पर के बन्धन से मुक्त करती है। इसीलिए शमशेर की सौन्दर्यदृष्टि को दर्शन के रूप में नहीं एक एक एहसास के रूप में देखा जाए तो ज्यादा तर्कसंगत होगा। ठीक उसी रूप में जिसकी गवाही स्वयं शमशेर देते हैं– “सुन्दरता का अवतार हमारे सामने पल-छीन होता रहता है।”

 

शमशेर के यहाँ इस ‘अवतार’ की निरन्तर प्रक्रिया में ही सब कुछ समाया हुआ दिखता है। शमशेर का सौन्दर्य एक विशाल चित्रशाला है। इस चित्रशाला में रंगों (जीवन का) का ठहराव नहीं बल्कि रंगों का महोत्सव चलता रहता है। एक तरफ कहीं ‘धूप आईने में खड़ी है, कहीं धूप थपेड़े मारती है थप-थप/ केले के हातों से पानी से/ केले के थम्बों पर।’ और कहीं “उषा के जल में सूर्य का हिल रहा है।” अकेले धूप के ही कितने कितने रूप ! दूसरी तरफ शमशेर के लिए सौन्दर्य ‘एक ठोस बदन अष्टधातु सा’ है जिसमें ‘जंघाएँ ठोस दरिया/ ठैरे हुए से।’ हैं। कवि के लिए ‘पहली’ प्रेमिका आईने की तरह साफ़ है और बदन के माध्यम से बात करती है। वहीं तीसरी तरफ ‘एक मुर्दा हाथ/ पाँव पर टिका/ उलटी कदम थामें’ या‘ये शाम है कि आसमान खेत है पके हुए अनाज का/ लपक उढ़ी लहू भरी दरौतिया/ कि आगे है/ धुँआ-धुँआ/ सुलग रहा/ ग्वालियर के मजूर का हृदय जैसे चित्र हैं। तो कहीं ‘वाम वाम दिशा / समय साम्यवादी जैसे चित्र। हिन्दी कविता में इतना व्यापक सघन ऐन्द्रिय सौन्दर्य कहाँ?

 

प्रकृति के सौन्दर्य से सम्बन्ध स्थापित करते हुए शमशेर जिन नए बिम्बों और अर्थों की रचना करते हैं उसमें हमारे इतिहास, मिथकों और परम्पराओं की निरन्तरता की गहन समझदारी के निचोड़े हुए रस का स्वाद भी समाहित होता है। इस समायोजन का कभी भी बिम्बों की गतिशीलता पर कोई फर्क नहीं पड़ता। पाठक तक कविता का आस्वाद ही पहुँचता है, भटकाव की कभी कोई गुंजाईश नहीं है शमशेर के यहाँ। प्रकृति की गत्यात्मकता को कैसे महसूसना चाहिए, किस संवेदनात्मक धरातल पर आत्मसात करना चाहिए, इसका उम्दा उदाहरण है उषा कविता। इस तरह शमशेर का बिम्ब-सृजन मनुष्य को प्रकृति के साथ एकात्म कर एक ऐसी अवस्था में ले जाता है जहाँ अनुभूति बहुत ही सूक्ष्म और तीव्र होती है तथा सौन्दर्य नैसर्गिक।

 

शमशेर अपने से बातें करते हुए बहुत ही मस्ती के साथ बिम्ब गढ़ते चलते हैं। जब किसी सेंसुअस बिम्ब की ओर वे बढ़ते हैं, तो बिम्ब के साथ उनकी अन्तरंगता देखते ही बनती है। हर एक बिम्ब जैसे कि छू कर उन्होंने परखा है, फिर उसे शब्दों और ध्वनियों में बाँधा है। उनके इसी मिजाज के कारण रूमानियत काफी गहरी होती जाती है। उनके चेतन और अचेतन के इस सामर्थ्य को समझते हुए ही मलयज कहते हैं कि शमशेर का परिष्कृत यथार्थ-बोध उनकी विशेष मनोरचना के आन्तरिक ताप से परिशुद्ध किया हुआ (कण्डीशण्ड) यथार्थ-बोध है। यही कारण है कि यथार्थ की वे छवियाँ भी कवि के पास हैं, जो औरों के पास नहीं हैं। स्‍त्री देह को छोड़िए बैल  को देखिए–

 

सीना और छाती आगे को झुककर, जोर लगाते हुए,

रानें भरी हुई गर्म पसीने से तर, मगर जोर लगाती हुईं,

नथुने फूले हुए, साँस और दम

अपनी जोर आजमाई में लगे हुए

क्यों और किसके लिए?

 

शमशेर की सौन्दर्य चेतना को समझने के लिए उनकी संवेदना को इस कोण से देखना चाहिए। उसे सिर्फ देह में समेट देने से बात खुलती नहीं है। यह कविता सिर्फ ‘बैल’ के शारीरिक सौष्ठव और परेशानियों का चित्रण नहीं करती बल्कि मानवीय सभ्यता की दुर्दशा और क्रूरता का बखान करती है, उस व्यवस्था को उघाड़ती है, जिसमें सभ्यता पिसती चली जा रही है। यह कविता यथार्थ की छिपी हुई तस्वीरों को सामने लाने का सामर्थ्य रखती है। साथ ही यथार्थ के उद्घाटन की परिणति निराशावाद में नहीं होने देती। डा.शिवकुमार मिश्र के अनुसार शमशेर महीन बुनावट, अन्तरंग छवियों, मनोवैज्ञानिक गहराइयों के रचनाकार और कुशल शिल्पी तो हैं ही, सामाजिक यथार्थ की अपनी पहचान और पकड़ में भी उतने ही सामर्थ्यवान हैं।

 

शमशेर की सौन्दर्य-दृष्टि हर चीज में एक अन्त:सौन्दर्य देखती रहती है। शमशेर ने खुद माना है कि दृश्य जगत की पूरी एक संरचना पहले मेरी नज़र में सौन्दर्य के एक कम्पोजीशन के रूप में आती है। इस सौन्दर्य को आत्मपरक या वस्तुपरक मानने से ज्यादा अच्छा है, इसे आत्म और वस्तु की अन्त:क्रिया के रूप में देखना। ऐसा  तभी  सम्भव हैं जब बाह्य जीवन जगत के पल-छिन रूप लेते सौन्दर्य के अन्दर आन्तरिक अनुभूति की घुलने की प्रक्रिया को सही अर्थों में पहचानते हैं। यह आन्तरिक अनुभूति का घुलन, बाह्य जीवन जगत के अनुभव की व्यापकता के साथ साक्षात्कार और उससे तादात्मीकरण भी है। इस पल-छिन अवतरित सौन्दर्य की स्वीकृति ही शमशेर के सौन्दर्य बोध को सन्तुलित और समावेशी बनाती है। ‘काश कि मैं न होऊँ, न होऊँ तो कितना अधिक विस्तार, किसी पावन विशेष सौन्दर्य का अवतरित हो’ कहकर मानो शमशेर सौन्दर्य की आत्म निरपेक्ष वस्तु सत्ता का ही बखान कर रहे हैं। वह दृश्य जगत की मौजूदगी में अनुभव का उन्मेष है लेकिन उसकी सत्ता सिर्फ वस्तुगत नहीं है। अनुभव करने वाले मन और चैतन्य का कम्पोजीशन के रूप में देखने वाली इन्द्रियों की भी उसमें उतनी ही अहम भूमिका है। इसीलिए वह काल में जितना विस्तृत है उतना ही वह अभ्यन्तरीकृत भी है। तभी कवि सौन्दर्य की इस उपस्थिति में विनीत और विनम्र हो जाता है। एक सरल और मौन समर्पण की अनुभूति उसकी कविता में बहने लगती है।

 

सच तो यह है कि शमशेर की सभी कविताओं में सौन्दर्य बहता रहता है। यदि उनकी सभी कविताओं को बिना शीर्षक के पढ़ा जाए तो लगता है कि उसका एक ही शीर्षक होगा ‘सौन्दर्य’। उनकी कविताओं का पल-छिन अवतार लेता सौन्दर्य इस बात का गवाह है कि शमशेर के यहाँ हर रंग और विस्तार को उसके ‘अनन्त लीला’ रूप में स्पृहा के माध्यम से ठीक-ठीक स्वायत्त करने की शपथ ली गई है। यह स्पृहाभाव शमशेर की सौन्दर्यानुभूति का साक्षी है। उदाहरण के तौर पर उनकी दो कविताओं को देखा जा सकता है–                    

 

मैंने क्षितिज के बीचों बीच/ खिला हुआ देखा/ कितना बड़ा फूल!

                     देखकर/ गम्भीर शपथ की एक/ तलवार सीधी अपने सीने पर/

                     रखी और प्राण लिया/ कि/ वह आकाश की माँग का फूल/

                     जब तक मैं चूम न लूँगा/ चैन से न बैठूँगा/

                      …

                     अमर का सौन्दर्य/ कोई ईशारा सा/ एक तीर/ दिशाओं को चौकोर/

                     दुनिया के बराबर/ सन्तुलित/ सधा हुआ/ निशाने पर/ छूटने-छूटने को था।

दूसरी कविता–

                     एक अन्धकार के चमकीले निर्झर में/ तुम्हारे स्वर चमकते हैं/

                     एक इन्तज़ार के झुरमुट में/ वह फल है/ जिसका अन्तर एक तीखी पुकार है/

                     उस आकाश में तुम्हारी गूँज/ कि जैसे मुक्त-जीवन का प्रवाह बजता हो/

                     सौन्दर्य जो त्वचा में नहीं/ थिरकते रक्त में नहीं/

                     मस्तिष्क में नहीं/ नहीं/ कहीं इनके पार से/

                     बरसता है अणु-अणु पल-पल में/ बदन में दृष्टि…

 

बेशक दूसरी कविता में भावों का उमड़न पहली कविता के मुकाबले अधिक है, लेकिन क्या आप कल्पना कर सकते है कि पहली कविता का शीर्षक ‘चीन’ है। इस कविता में ‘चीन’ की जनता के लोकसत्तात्मक गणतन्त्र ‘राज्य’ के चीनी अक्षरों को चित्र पहेली के रूप में शमशेर ने इस्तेमाल किया है। वहीं दूसरी कविता का शीर्षक ‘सौन्दर्य’ है। कहना न होगा कि शमशेर की कोई भी कविता हो उसमें सौन्दर्य अपने विशुद्ध रूप में उपस्थित रहता है। सही अर्थों में शमशेर सौन्दर्य के विविध धरातल और रंगों के कवि हैं। इन रंगों में जीवन का संगीत अपने स्वर के साथ निरन्तर बहता ही रहता है।

 

5. निष्कर्ष

 

शमशेर प्रेम और सौन्दर्य के ऐसे पारखी साधक हैं, जिनकी रचनाधर्मिता की गहराई में डूबें तो अकुण्ठ प्रेम और सौन्दर्य जीवन के राग-रागनियों के साथ संवाद करता हुआ दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में अवतरित हुआ सौन्दर्य और प्रेम यथार्थ पर थपेड़े मारता हुआ चलता है, चेतना के स्पन्दन को कुरेदता रहता है। अपनी अन्तश्‍चेतना को सघन बनाकर, प्रकृति के उपादानों से ठोस, सूक्ष्म और ऐन्द्रिक सम्बन्ध स्थापित कर शमशेर छायावादी कवियों के रोमान्स से कुछ अलग भावभूमि पर खड़े दिखाई देते हैं। शमशेर की कविता प्रकृति के इन उपादानों के मूल और आदिम रूप के सौन्दर्य को सजगता और सहजता के साथ बाँधे रहती है। अपनी संवेदना के प्रवाह में शमशेर ऐसे चित्रों और बिम्बों का सृजन करते जाते हैं, जो प्रकृति के नए अर्थों को खोलते जाती है। हर एक शब्द इस सतर्कता के साथ अपना स्थान ग्रहण करता है, जैसे चित्र में कोई रंग भरा जा रहा हो, कोई रेखा खींची जा रही हो। रेखा थोड़ी भी तिरछी हुई या रंग थोड़ा भी फीका पड़ा तो जादू टूट जाएगा। शमशेर एक माहिर शब्दशिल्पी की तरह बिम्ब ऐसे गढ़ते हैं कि जादू के टूटने की कोई सम्भावना ही नहीं रहती। शमशेर की प्रगतिशीलता जीवन के सौन्दर्य से प्रेम करने में निहित है। शमशेर उस जीवन-सौन्दर्य के प्रशंसक कवि हैं, जहाँ मनुष्य सहज व सुन्दर रूप में जीना चाहता है। यही है शमशेर की शमशेरियत।

you can view video on शमशेर की कविता में प्रेम और सौन्दर्य

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  • 1- दोआब, शमशेरबहादुर सिंह,सरस्वती प्रेस,बनारस
  • 2- चुका भी हूँ नहीं मैं, शमशेरबहादुर सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
  • 3- कहीं बहुत दूर से सून रहा हूँ,  शमशेरबहादुर सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  • 4- शमशेरबहादुर सिंह की आलोचना-दृष्टि, गजेन्द्र कुमार पाठक,सामयिक प्रकाशन,नई दिल्ली
  • 5- शमशेर : कवितालोक, जगदीश कुमार, नई दिल्ली
  • 6- काल से होड़ लेता शमशेर,  विष्णुचन्द्र शर्मा, सम्वाद प्रकाशन, मुंबई
  • 7- शमशेर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना/ मलयज, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
  • 8- कवियों का कवि शमशेर, रंजना अरगड़े, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  • 9- इन्द्रप्रस्थ भारती,  अक्टूबर–दिसम्बर,1993
  • 10- साक्षात्कार, अगस्त–नवम्बर 1986
  • 11- कल के लिए, मार्च 1994
  • 12- समकालीन परिभाषा, अप्रैल–सितम्बर 1993
  • 13- हंस, जुलाई 1993
  • 14- आजकल, सितम्बर 1993

 

वेब लिंक्स

  1. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
  3. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9