8 कवियों के कवि शमशेर
डॉ. सुभाष चन्द्र डबास
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- कवियों के कवि शमशेर
- निष्कर्ष
1. पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- कवि शमशेर के बारे में जान पाएँगे।
- शमशेर की कविताओं की विशेषता समझ पाएँगे।
- शमशेर की रचना प्रक्रिया को समझ पाएँगे।
- शमशेर की काव्य सम्बन्धी मान्यताओं को समझ सकेंगे।
2. प्रस्तावना
शमशेर एक अन्तर्मुखी और ‘समर्पित कवि’ हैं। शमशेर के ह्रदय में जब-जब नई-नई भाव तरंगें उत्पन्न होती हैं, तब वे ‘मजबूरी और विवशता’ से बाध्य होकर उन्हें कलात्मक रूप प्रदान करते हैं। शमशेर की कविता इसीलिए ‘मजबूरी और विवशता’ की कविता है। कवि हृदय में अन्तर्भुक्त भाव-सम्वेदनाएँ एक ‘रौ’ में बहकर आती हैं, और एकाएक उनके मस्तिष्क में बिम्ब जैसी कोई चीज आ जाती है। शमशेर इसी बिम्ब को पकड़ने वाले कवि हैं। शमशेर के लिए अपनी भावनाओं की निश्छल अभिव्यक्ति करना कम महत्त्व की बात नहीं है। शमशेर अपनी कविताओं में अवचेतन में अटके हुए भाव संवेदना को अत्यन्त आतुरता और निश्छलता से मूर्तित करते हैं। शमशेर का कथन है कि ‘मेरी अन्तश्चेतना में वह कहीं अटका रह गया, जो कविता की रौ में ऊपर आ गया’। अपनी काव्य प्रक्रिया में शमशेर इसी क्रम में मुक्तासंग का यथावसर प्रयोग करते हैं। शमशेर ने चेतना प्रवाह या मुक्तासंग को ‘विशुद्ध शैली’ के रूप में प्रयोग किया है। सामान्यत: आधुनिक साहित्य में मुक्तासंग पद्धति को ‘सचेत शिल्प’ का द्योतक माना जाता है।
3. कवियों के कवि शमशेर
पाल वेलरी ने कविता के पहले वाक्य को ईश्वरप्रदत्त बताया है। शमशेर भी महसूस करते हैं कि ‘पहली पंक्ति लिखने तक शायद मुझे इसका आभास भी नहीं होता कि मैं कोई कविता लिखने जा रहा हूँ’। लेकिन कविता लिखने से पूर्व तक शमशेर को ‘एक महीने, दो महीने, तीन महीने या कुछ अर्से तक तबीयत में एक बेचैनी-सी’ अवश्य रहती है। यही बेचैनी कविता का रूप धारण कर लेती है। शमशेर के अनुसार यह कविता ‘जीवन से फूटकर’ निकलती है, जिसमें जीवन की सारी बेताब उलझनें,आशाएँ, शंकाएँ, कोशिशें और हिम्मत कवि के अन्दर की पूरी ईमानदारी के साथ सामने आती है। शमशेर के अनुसार क्षणों की परिपूर्णता में कविता अपनी भावनाओं की सचाई खोजती हैं। उस खोज में सचाई का अपना एक खास रूप भी हमें मिलता है।
बात बोलेगी
हम नहीं
भेद खोलेगी
बात ही । (दूसरा सप्तक, अज्ञेय(संपा), भारतीय ज्ञान पीठ, नई दिल्ली पृ. 81)
वस्तुत: कोई भी ‘कलाकृति किसी अनुभूति को कितनी सचाई और सफलता से व्यक्त करती है’ इसी पर उसका मूल्य होता है। शमशेर की ‘राग’ श्वास-प्रक्रिया की भाँति सहज और निश्छल अभिव्यक्ति है’। शमशेर ‘अपनी सम्वेदनाओ को भी एक मूल्य प्रदान करते हैं, इसलिए वे ‘कविता पूर्ण कर चुकने के बाद उसमें से सारी दिलचस्पी खो चुकते हैं। आचार्य शुक्ल हृदय की मुक्तावस्था को रस दशा मानते हैं और वर्ड्सवर्थ जैसे रोमांटिक कवि भावावेग के सहज उच्छलन को कविता। शमशेर की अन्त:भावनाएँ भी अपनी मुक्त-परम्परा में बाहर आती हैं। इस तरह ‘कविताओं
में, चाहे वह कल्पना की दृष्टि से हो या भावना की दृष्टि से – एक चीज ऐसी है जो अन्दर से अभिव्यक्त होने के लिए कवि को प्रेरित करती है। शमशेर की डायरी से कुछ पद्य पंक्तियाँ द्रष्ट्व्य हैं, जो उनके काव्य वैशिष्टय का ‘फलसफा ईजाद’ करती हैं :–
आजादी
ही
कविता है
(अन्दर- बाहर की मुक्त मुक्त मुक्त
केवल व्यक्ति के नाम से खुली-बंधी व्यक्तियों में
व्यक्तियों-सी।
जैसे मिठास
हिलोर ले गंगा के जलों में (आर फार दैट मैटर)
नील में टैम्ज में याड़ टिसी में आकाश से
बरसती ओस में नीन्द में
दुनियाँ की मीठी आशाओं की
हैं ना? (कल्पना, मार्च 1964, पृ.69)
शमशेर के यहाँ मुक्ति का यह ठोस स्वर व्यक्ति का होकर भी समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। यही शमशेर का काव्य लोक है। वे इसी काव्य लोक पर खड़े हैं। शमशेर के अन्त: समुद्र में भाव पछाड़ खाकर गिरते हैं और वे अपनी प्रतिभा से उसे बड़े मनोयोग से बुनते हैं –
चाँदनी की उंगलियाँ चंचल
क्रोशिये से बुन रही थी चपल
फेन-झालर बेल, मानो (कुछ कविताएँ, पृ. 29)
शमशेर ‘अत्यन्त कम शब्दों के कवि हैं’। रोमान्टिक काव्य उनकी कविता की आधार-भूमि है। पन्त के ‘पल्लव-बाल’ जिस ‘चित्रभाषा’ में बतियाते हैं, वही शमशेर के यहाँ आकर बिम्ब की निर्मात्री शक्ति बन जाते हैं। सम्वेदना-निरूपण के लिए शमशेर ने जिन बिम्बों का सहारा लिया है, उन ‘बिम्बों में अवचेतन का रंग बहुत गहरा है। शमशेर सम्वेदन की तीव्रता और विभिन्न गुण-चित्र प्रस्तुत करने के लिए इन्हीं ‘मन: प्रतिमाओं का, इमेजेज का सहारा लेते हैं। ये इमेजेज उनके अवचेतन-अर्द्धचेतन से उत्पन्न होती हैं और उनकी अन्तर्मुखी चेतना की गहराइयों में डूबकर बिम्ब का निर्माण करती है। शमशेर का यह बिम्ब-विधान भावों को अधिकाधिक रागमय बनाने, सूक्ष्मातिसूक्ष्म अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त व्यंजना दूंढने तथा कल्पना को मधुरतम स्वर विन्यास देने की ओर ही प्रवृत्त होता है। शमशेर की कविता में अवचेतन में पड़े भाव अपनी ‘लय’ और ‘छन्द’ के साथ आते हैं और शमशेर की ‘चित्रकल्पी प्रतिभा’ उन्हें सँवारती है, एक नया निखार देती है, जैसे ‘नभ की सीपी जो रात्रि की कालिमा में पड़ी थी, धीरे- धीरे उषा की कोमल लहरों से धुलती और निखरती जा रही है’। शमशेर के लिए बिम्ब चित्र ही हृदय वीणा का पर्याय बनकर आता है, क्योंकि ‘भाव स्पर्श के बिना रचना’ सम्भव नहीं होती :–
‘एक वाद्य यह है तरुणतम चित्र, जो मेरे अन्तर से
बाह्य की ओर बज रहा है’। (कल्पना, मार्च 1964, पृ. 70)
शमशेर के यहाँ एक चीज जो आधुनिक कला, और कविता का खास अंग बन जाती है वह है प्रेरणा के चित्र का जमीन से पैदा होना और उभरना। शमशेर के यहाँ संगीत का पक्ष भी कविता का स्थान ले लेता है। जैसे-जैसे आप कविता को संगीत की जमीन से परखने लगते हैं उसका अर्थ खुलने और विस्तृत होने लगता है।
शमशेर कवि और चित्रकार दोनों हैं। एक ओर वे अपने सहज भाव-सम्वेदनों और ‘अन्तश्चेतना के बुदबुदों’ को ‘बहुत उम्दा धुनों’ में बाँधते हैं, जैसे पन्त के पल्लव, गुँजन या निराला की गीतिका और अर्चना के तमाम गीत हैं। दूसरी ओर कोई ‘अफसाना’ या ‘दास्तान’ सुनकर उनके मानस पटल पर एक ‘तस्वीर खिंच जाती’ है और जिसके दृश्य मन पर अमिट हो जाते हैं’। वास्तव में शमशेर ऐसी चीज की आकांक्षा करते हैं ‘जो बस दिल में उतर जाए और वहीं बसी रहे’। ऐसी मौलिक और विशिष्ट सर्जना के लिए उनका कवि और चित्रकार संघर्षशील है। इसीलिए शमशेर कहते हैं- ‘मैं साहित्य में रहूँ, साहित्य रचना करूँ, कविता ही लिखूँ या चित्र बनाऊँ, चित्रकार हो जाऊँ।’ इसी दुविधा के कारण शमशेर की विस्तरणशील दृष्टि कविता और चित्र को एक साथ चाहती है। शमशेर इसीलिए कविता में चित्र को सहज ही ले आते हैं जहाँ बिम्ब जीवन्त होकर उभरते हैं। शमशेर ने घनीभूत पीडा कविता में, ‘एक सिम्फनी’ के भावोदगार के लिए ‘रेखाओं के संकेत’ दिए हैं, जो उन्हें वर्षों बाद भी कविता का ‘सहज अंग’ लगता हैं। चीन कविता में ‘हाशिये’ पर चीनी लिपि के संकेताक्षरों से कवि ने अपनी भाव-भूमि को स्पष्ट किया है। शमशेर के चित्रों में भी एक कविता बहती है, क्योंकि उनकी रचना प्रक्रिया जो चित्र में है, वही कविता में भी।
शमशेर के अनुसार ‘कला उसे कहते हैं, जिसमें कम से कम उपादानों के साथ अधिक से अधिक प्रभाव पैदा किया जा सके। शब्द कम हों, रेखाएँ कम हों, रंगों का बहुत उपयोग न किया गया हो, मगर जो प्रभाव चाहिए, वो उतने में पूरा अधिक से अधिक हो।’ शमशेर के मन में लियोनार्दो जैसे महान कलाकार का आदर्श कहीं कोने में बैठा था, जो शमशेर को कला के प्रति, कविता के प्रति समर्पित हो जाने की अविरल प्रेरणा देता है। लियोनार्दो ने स्त्री के गुह्य अंगों तक को अपनी रेखाओं में बाँधा है। उनके यहाँ गर्भस्थ शिशु का चित्र अपनी स्फुट रेखाओं में जीवन्त बन पड़ा है। शमशेर के कवि की ‘मूल–मनोवृत्ति एक इम्प्रेशनिस्टिक चित्रकार’ की है। अपनी मौलिक ‘विशिष्टता’ में वे ‘बाह्य दृश्य के भीतर,भाव प्रसंग को उपस्थित करते हैं। वे वास्तविक भावप्रसंग में उपस्थित सम्वेदनाओं का चित्रण करते हैं।’ वस्तुत: शमशेर ने अन्य कलाओं और तकनीकों की भाँति ‘चित्रकला’ के प्रभावी शिल्प को भी अपनी कविता में अत्यन्त सजगता और निजता में स्वीकार किया है। ‘शमशेर ने अपने कवि को एक शैली प्रदान की है। शमशेर की यही शैली पाठक को प्रभावित भी करती है और भाव-मूर्त्तन में योग भी देती है।
शमशेर ‘रंगों के भावात्मक रूप’ को ग्रहण करते हैं। प्रभाववादी (इम्प्रेशनिस्ट) रूझान के कारण वे ‘मन पर पड़ने वाले प्रथम प्रभाव को ज्यों का त्यों यत्नपूर्वक शब्दों में रखने की कोशिश’ करते हैं। जब वक्त की सीमाएँ बंधी हुई हों तो ‘बुनियादी चीज की तरफ नजर पहले होनी चाहिए।’ शमशेर भावनाओं के इस अथाह समुद्र को मापना चाहते हैं। शमशेर यह मानकर चलते हैं कि जहाँ सहज मानवीय अनुभूति निश्छल और अकृत्रिम भूमि पर टिकने में अपनी सार्थकता मानती हो तो वहाँ अस्पष्टता, अर्थशून्यता और गद्यात्मकता नहीं हो सकती।
शमशेर कविता को साधते हैं। वे शब्दों को मथते हैं, कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक भाव संसार को बाँधते हैं। ‘अधिक शब्द हों तो उसे और कम’ करते हैं। इस प्रक्रिया में भाव परस्पर एक दूसरे में मिश्रित होकर भी उभरते हैं और एक-दूसरे के प्रतिकूल छिटक कर भी। कवि का रूप और कथ्य एक हो जाते है। उनके भाव-अमूर्त्तन की कविता में जो अन्तस्थ भाव है वह निरर्थक नहीं हो सकता। कवि आश्वस्त है –
हाथी के अन्दर दांत
जो मोती जल रहा है
वह फिजूल नहीं। (कल्पना, मार्च 1964, पृ. 70)
शमशेर के बिम्ब सीधे चेतना से उत्पन्न होते हैं। ‘उनके बिम्बों, प्रभाव-चित्रों, कल्पना-तरंगों तथा ध्वनि-तरंगों में उनके व्यक्तित्व का यह (सम्वेदनशील ऐन्द्रजालिक) आकर्षण पाठक के मन को सम्वेदित न करके सम्मोहित करता है और इस मन:स्थिति में व्यक्तिनिष्ठा और सामाजिकता एक ऐन्द्रजालिक लीला के अंग जान पडते हैं’। शमशेर की आत्मा के ‘अन्तर्मुखी हठ ने उनकी कविता को दृढतम आधार भूमि प्रदान की है।उनकी कविताएँ नई-नई अर्थ-छायाओं के साथ पाठक के मन पर नई-नई अर्थ छवियाँ गढ़ती हैं।
शमशेर के शिल्प के रचाव और बिम्बों के कसाव को देखकर आलोचकों को लगा कि उनके बिम्बों का निर्माण ‘अचेतन मानसिक प्रक्रिया द्वारा न होकर पूर्व चेतन मन की चयन-प्रक्रिया द्वारा हुआ है’। वास्तविकता यह है कि शमशेर के यहाँ ‘अवचेतन इच्छाएँ जोर मारकर चेतन की भूमि पर चल निकलती हैं। पर जब यों चल निकलती हैं तो चेतन भूमि के उतार-चढाव के अनुकूल ही बहती हैं’। कवि इन बहते भावों को मुक्तासंग की पद्धति-प्रक्रिया से बिम्बों में बांधता है। शम्भुनाथ सिंह ने माना है कि ‘शमशेर और केदार नाथ सिंह ने इस शैली में बहुत कुछ सिद्धि प्राप्त कर ली है। विजयदेव नारायण साही मानते हैं कि ‘अन्तिम रूप में शमशेर की काव्यानुभूति बिम्ब की अनुभूति है’। मलयज के शब्दों में ‘शमशेर बात बोलेगी, हम नहीं’ के इतने कायल हैं कि उनकी सम्पूर्ण काव्य अभिव्यक्ति प्राय: बिम्बों में ही होती है’।
नामाबर ने तै किए सारे पयाम
मुँह जबानी का मजा जाता रहा। (शमशेर, पृ. 50 )
वास्तव में ‘शमशेर की कविता में अनुभवों की राग-रचना की अपनी परम्परा है’। ये निश्छल और अकृत्रिम भूमि पर सहज मानवीय अनुभूति से सम्पृक्त हैं। शमशेर की स्वयं की कविताओं में कबूतर गजल गुनगुनाते हैं और सुबह जैसी कविता में तो ‘सिकुड़ा हुआ पत्थर’ संवेदना घातों से ‘सजग–सा’ होकर पसरने लगाता है –
जो कि सिकुड़ा हुआ बैठा था, जो पत्थर
सजग–सा होकर पसरने लगा
आप से आप। (कुछ कविताएँ, पृ. 36)
नामवर सिंह के अनुसार ‘छायावादी काव्य की रचना प्रक्रिया जहाँ भीतर से बाहर की ओर है, वहाँ नई कविता की रचना प्रक्रिया बाहर से भीतर की ओर है। एक में रूप पर भाव का आरोपण है, तो दूसरी में रूप का भाव में रूपान्तरण है। शमशेर के अनुसार ‘कविता में मेरी खास कोशिश यह रही है कि हर चीज की, हर भावना की जो एक अपनी भाषा होती है, जिसमें कलाकार से वह बातें करती है, उसको सीखूँ।’ इस भावना को आत्मसात करने के पश्चात ही शमशेर काव्य-पथ में आगे बढ़े हैं। इसलिए साँस जैसी सहज भाषा में कविता ढूँढ लेना उन्हें खूब आता है। शमशेर ने भावों को ऐसे शब्दों में रख दिया है, जो अन्दर ही अन्दर उमड़ते–घुमड़ते हुए राग के बोल की तरह आप ही आप फूट पडते हैं। शमशेर के यहाँ कविता कलाकार की अपनी बहुत निजी चीज है। उतनी ही कालान्तर में वह औरों की हो सकती है। अगर वह सच्ची है, कलापक्ष और भावपक्ष दोनों ओर से वह ‘अपने आप’ प्रकाशित होगी। शमशेर कला के सच्चे प्रेमी हैं, किसी ‘वाद’, ‘शैली’ आदि के फैशन की उन्होंने परवाह नहीं की। शमशेर के अनुसार, ‘जिस विषय पर जिस ढंग से लिखना मुझे रुचा, मन जिस रूप में भी रमा, भावनाओं ने उसे अपना लिया, मेरी कोशिश मात्र यही रही ‘अभिव्यक्ति अपनी ओर से सच्ची हो’। उसके रास्ते में किसी बाह्य आग्रह या अवरोध को सहन नहीं करते। फलत: शमशेर वाक्य, भाव और वस्तु में निहित लय को पकड़ कर चलते हैं। इस तरह वे छन्द से परिचालित होते हैं, लेकिन विषयवस्तु में निहित लय को यथावत रूपान्तर करने की जो कोशिश शमशेर में दिखाई पडती है, वह किसी प्रयोगवादी कवि में नहीं है।
शमशेर ‘कल्पना के स्वरूप क्षेत्र को विस्तार देने और शब्द, अर्थ, स्वर, लय की साधना को अधिक महान, अधिक पूर्ण बनाने के लिए’ दृढ निश्चयी हैं। ‘कविता में स्वत: अनभिव्यक्त लय निहित होती है, जो रचना प्रक्रिया के अन्त: सामंजस्य क्रम से प्राप्त होती है’। शमशेर अपनी कविताओं के सृजन में इसी अन्तर्लय या ‘रौ’ को पकड़ते हैं। यह ‘रौ’ कवि के अवचेतन से उद्भूत बिम्बों से फूटती है। अवचेतन से सीधी जुड़ी हुई कविताओं में शमशेर ने यह महसूस किया है कि ‘एक फोर्स या एक दबाव ऐसा कहीं न कहीं से आता है इसकी रिद्म में’। शमशेर के यहाँ शब्दों में ‘छन्द और स्वर की गूँज ही नहीं’ बल्कि ‘समय की पुकार’ है। इसलिए उनकी कविता भाव स्पर्श पाकर भूत और भविष्य को एक नए अर्थ से गौरवान्वित करती है, जहाँ वर्तमान की आधारभूत प्रेरणा और लक्ष्य अधिक स्पष्ट हो जाता है। वस्तुत: यही वह अन्तर्लय है जो कवि की ‘रिद्म’ में ‘रौ’ या रवानगी पैदा करती है। शमशेर ‘भावों’ या ‘बिम्बों’ को सीधे दिल से उतारने की कोशिश करते हैं। शमशेर ‘एक जिन्दा लोकगीत’ की धुन को पकड़ते हैं। उन धुनों में जीवन का रस टपकता है। शमशेर के अन्तस में भी इसी प्रकार की एक रोमानियत का झरना बरसता है। तभी तो शमशेर के सामने केवल बिम्ब या तरंग नहीं, बल्कि चित्रों का एक कोलाज उठ खड़ा होता है और कविता बिम्बों में नहीं, स्वयं बहकर आती है :–
‘एक स्वच्छ और निर्मल
कविता यहाँ बह रही है’
(इतने पास अपने, पृ. 55)
शमशेर का सम्वेदनानुभवी कवि इसीलिए कहता है- ‘सौन्दर्य का अवतार हमारे सामने पल- छिन होता रहता है। अब वह हम पर है, खास तौर से कवियों पर, कि हम अपने सामने और चारों ओर की उस अनन्त और अपार लीला को कितना अपने अन्दर बुला सकते हैं। शमशेर ने कविता के माध्यम से अधिक से अधिक चीजों को प्यार करना सीखा है। इसीलिए दृश्य जगत पहले इनकी नजर में ‘सौन्दर्य के एक कम्पोजीशन के रूप में आता है’। योग शीर्षक कविता में जो नव्य चेतना विकसित हो रही है, उस ओर संकेत है। जागरण की इस चेतना ने ‘साधक’ या कवि को सराबोर कर दिया है :–
‘जागरण की चेतना से मैं नहा उठा’
प्रसाद ने भी सौन्दर्य को ‘चेतना का उज्ज्वल वरदान’ माना है। रामविलास शर्मा के अनुसार, ‘जब उनका मन सध जाता है, तब वे ऐसी पंक्तियाँ लिखते हैं :–
घिर गया है समय का रथ कहीं।
लालिमा से मढ़ गया है राग।
ऐसी पंक्तियाँ कोई सिद्ध कवि ही लिख सकता है’। प्रत्येक व्यक्ति के क्रियाकलाप, उनके तमाम हाव-भाव ‘उन सब में एक रिद्म है। मैं कहूँगा एक तरह से उनका यह एक आन्दोलन है। जिसे वे कविता में, शब्दों में, छ्न्द में पकड़ना चाहते हैं। कवि अपनी भावनाओं, प्रेरणाओं और आन्तरिक संस्कारों में समाज-सत्य के मर्म को पूरी सचाई के साथ उद्घाटित करना चाहता है। शमशेर भावों- सम्वेदनों तथा कला के प्रति समर्पित हैं। इनका ‘स्वर सच्चा’ और ‘वाणी में इन्सान का दर्द है – छोटा-सा ही दर्द सही, मगर सच्चा दर्द ….’ तो फिलहाल यही इनके लिए काफी है, क्योंकि शमशेर को यकीन हो गया है कि ‘मोहब्बत का जज्बा हमेशा एक बहुत पाक हस्ती अपनी जगह पर है, और जिस सीने में वह जोरों से धड़कने लगता है, उसको आप से आप एक नई जिन्दगी बख्शता है।’ शमशेर में कहीं छिपा हुआ वह क्षण है, काव्य-कला के रस से पुष्ट, जो सहसा जीवित हो उठता है। स्वयं कवि के अनुसार, ‘दरअसल जो मेरे संस्कार हैं, जो मेरा अनुभव है, वे तो जड़ की तरह काम करेंगे ही और इन्हीं से मेरी कविता फूटेगी, लाल मुहाला…. पर मैं कोई अनकन्शस पौधा नहीं हूँ, मैं तो एक सम्वेदनशील बाहरी प्रभावों को ग्रहण करने के प्रति उन्मुख पौधा हूँ’, ‘मौजूँ छ्न्दों’ में आह्लादित इन भावनाओं को ‘दिल की लहर ही नाप सकती है।’
शमशेर की कविता का हर शब्द कविता है। खड़ी बोली हिन्दी कविता में भी कवि ने भाषा से इतनी इनटेंसिटी से प्यार नहीं किया है और किसी ने भी कविता को इतने लाड़ और दुलार से नहीं पाला है, जितना शमशेर ने। औरों ने जिन्दगी जी है, शमशेर ने कविता जी है। भाषा भी शमशेर के लिए कविता है, सिर्फ एक माध्यम नहीं, जिसमें बहते-बहते वे संस्कृति नहीं, संस्कृतियों के उद्गम तक पहुंचने का उपक्रम करते हैं। उनकी चीन शीर्षक कविता, जिसे लिखने में उन्होंने पूरे दो साल लगाए, ऐसी ही किसी भाषा–उदात्त उपक्रम की उपज होगी। यही से शमशेर तेजी से अमूर्तन की दिशा में बढ़ जाते हैं। तब भाषा अनुभूति को यथार्थ करने का नहीं, अनुभूति को अतिक्रमित करने का साधन बन जाती है। वे अपनी अनुभूतियों में दिक-खण्डों के अन्तराल महसूस करते हैं। एक निस्सीम खुलापन, जिसमें वे अनुभूत हो जाते हैं और ‘मौन’ भी। शमशेर की कविताएं मिटती हुई एकाएक स्पष्ट हो जाती हैं और ऐसा रचाव कतई आसान नहीं है।
फ्रायड के अनुसार लेखक वही करता है, जो बच्चा खेल में करता है। शमशेर के अनुसार भी ‘आर्टिस्ट बच्चा ही होता है, यही उसकी कॉमेडी और यही उसकी ट्रेजेडी है’। ‘कवियों के कवि’ शमशेर के सामने बच्चों का ‘मिट्टी के घरौंदों’ का बनाने और बिगाड़ने का-दृश्य ‘पल-छिन’ हो जाता है। फिर एक अच्छी कविता और ‘अच्छा इन्सान’ बनाने के लिए उसे बनाने वाला कलाकार तो होना चाहिए, क्योंकि कलाकार तो जहर का घूँट पीकर भी जिन्दा रहता है।
शमशेर ने कविता, गीत, गजल सानेट, मुक्तक आदि कितने ही प्रकार के काव्य लिखे हैं, लेकिन उन्होंने ‘रूप के लिए कभी उन्हें नहीं बरता। ‘रूप प्रदर्शित करने के लिए’ उन्होंने अभ्यास की कोशिश की है। यह रियाज या अभ्यास ही शमशेर की कला का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। वे कहते हैं ‘मैंने इतनी मेहनत की है, इतनी मश्क कविता के मर्म को और शब्द- शब्द को समझने, साधने की – इस शिद्दत के साथ, कि लगता है मैंने कविता के सिवाय कुछ किया ही नहीं है… इतना अभ्यास था मुझे छन्दों का कि मैं इम्तहान में अंग्रेजी के पर्चे गद्य के बजाय छन्दोबद्ध पद्य में ज्यादा आसानी से कर सकता था… उर्दू, हिन्दी और अंग्रेजी में समान रूप से मैं छन्द रचना करता था…’ इसीलिए शमशेर त्रिलोचन के प्रति (सारनाथ की एक शाम) भावांजलि में कहते हैं :– ‘शब्द का परिष्कार स्वयं दिशा है’।
शमशेर के काव्य में ‘रियाज’ का अन्यतम महत्त्व है। शमशेर की ‘रात उसकी अपनी है’ अर्थात अचेतन की इस रात में यथार्थ के बीच फाँक पैदा होती है। अवचेतन में भाव-सम्वेदनों का क्रन्दन होता है, जिसे ‘नया कलाकार जीवन से, उसकी आन-बान और उसकी गरिमा के अन्दर से एक जौहर की तरह अपनी वाणी में खींचना चाहता है, और अपनी साधना और शक्ति के अनुसार खींचता भी है। शमशेर के अनुसार –
‘उसका नगमा (सुर )’
जरूरत से ज्यादा मीठा भी न हो
‘घोडे. की टाप जैसे सड़क पर जरूरत से ज्यादा बजे,
तो अच्छी नहीं लगती’।
शमशेर की कविता में निराला और पन्त की काव्य-शैली का खास ढंग से ‘निखरा’ और ‘आगे बढ़ा हुआ’ रूप दिखता है। अंग्रेजी कविता से भी कुछ प्रभाव ग्रहण किया हुआ है। शमशेर के शब्दों में- ‘टेकनीक में एजरापाउण्ड शायद मेरा सबसे बड़ा आदर्श बन गया।’ अपनी कला-चेतना को जगाना और उसकी मदद से जीवन की सचाई और उसके सौन्दर्य को अपनी कला में सजीव से सजीव रूप देते जाना ही शमशेर की साधना है। कलाकार का संघर्ष इसी में छिपा रहता है। इसी संघर्ष और साधना से कविता में ‘अन्दर–बाहर दोनों का मेल’ सम्भव है। इस प्रकार कवि के शब्दों में ‘वस्तुगत प्रयोग और रूपगत प्रयोग दोनों- जो कि हर अच्छी रचना में अन्योन्याश्रित रूप से ही सफल होते हैं- के यथासम्भव निर्दोष शिल्प के उच्चतम स्तर पर आज भी मेरा उतनी ही कठोरता से आग्रह है’। वस्तुत: शमशेर अपनी निर्भय वाणी में देश-विदेश की अनेक प्राचीन-अर्वाचीन जातियों तथा भाषाओं की’ नाना–पुराण-निगमागम सम्मत’ गाथाओं और इतिहासों का एक समन्वित राग अपनी आधुनिक परिस्थितियों से लड़ती हुई भावनाओं में प्रवाहित करना चाहते हैं।
शमशेर की समन्वयशील (इक्लैक्टिक) प्रतिभा ने अन्य वादों और शैलियों की भाँति ‘अतियथार्थवाद’ से भी अपने अनुकूल प्रभाव ग्रहण किया है। इनके मतानुसार- ‘… यूरोप के जो चित्रकार थे और जो आन्दोलन अतियथार्थवाद का वहाँ पर चला था, उसने बहुत गहराई से मुझे प्रभावित किया और उन रूपों को मैंने अपने ढंग से कविता में पेश करने की कोशिश की’। यद्यपि शमशेर का ‘सुर्रियलिज्म’ से सैद्धान्तिक विरोध था लेकिन जो भीतर बातें उठती हैं, उनको व्यक्त करने के लिए इन्होंने अतियथार्थवादियों की शैली के प्रभाव को ग्रहण किया है। इसलिए ‘क्लासिक रूचि अगर कहीं अतियथार्थ के प्रतीक को सार्थक पाती है’ तो शमशेर के लिए वहाँ मौन ही अलम है’। शमशेर को अपनी कविता ये लहरें घेर लेती हैं, शिला का खून पीती थी वह जड़ और सींग और नाखून अति पसन्द हैं। उन्हें अपनी सुर्रियलिस्टिक पेंटिंग भी पसन्द हैं’। शमशेर की कविताएँ अतियथार्थवादी चित्रों का स्मरण दिलाती हैं। कम से कम शब्दों का प्रयोग करके एक पूर्ण भाव-चित्र उपस्थित करना उन्हें विशेष प्रिय है।
वस्तुत: शमशेर की कविता का उदगम- स्रोत कवि मन की वह संगम स्थली है, जहाँ अवचेतन की नीलिमा और चेतन एक हो जाना चाहते हैं। इस प्रकार शमशेर के काव्य-संसार में प्राय: तीन प्रकार की कविताएँ सामने आती हैं- प्रथमत: वे कविताऐ जो सीधे कवि के अचेतन का रंग लेकर उद्भूत होती हैं, और कवि बाद में शिल्प-लाघव से उन्हें उसी रूप में प्रस्तुत कर देता है। ऐसी कविताओं में, शिला का खून पीती थी, ये लहरें घेर लेती हैं और सींग और नाखून आदि प्रमुख हैं। दूसरे, वे कविताएँ हैं, जो कवि के अवचेतन से बहकर निकलती हैं अवश्य, लेकिन कवि के रचाव और रियाज के संयोग से नया अर्थ ग्रहण करती हैं, जैसे – एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता, टूटी हुई बिखरी हुई, लौट आ, ओ धार, न पलटना उधर आदि कविताएँ इस कोटि में आती हैं। तीसरे, वे कविताएँ हैं, जहाँ कवि सचेत होकर लिखता है, अर्थात जहाँ इनका सचेतन शिल्प अथवा रियाज भावों को छ्न्दों में बांधता है, और अचेतन बीच में अनायास ही घुस जाता है; इस प्रकार की कविताओं में प्रेम की पाती, संध्या आदि को गिना जा सकता है।
कवि शमशेर की विलयनवादी भाव प्रवणता सघन काव्य-वातावरण की सृष्टि करती है। कवि स्वयं ‘सिर्फ एक साँस’ के रूप में ‘धैर्य-वलयित हृदय’ हो जाता है। यह वस्तु की आत्मपरकता है, जड.-निश्चेष्ट पदार्थों में सम्वेदना का साक्षात्कार होता है। मुक्तिबोध की कविता अन्धेरे में के अन्तर्गत तिलक की मूर्ति की आँखों से आँसू बहने लगते हैं जबकि जमाने की विकट स्थितियों को देखकर शमशेर विश्व के समस्त पदार्थों और क्रियाकलापों में संवेदना का विस्तार करते हैं। इस प्रकार शमशेर की काव्य–प्रक्रिया ‘वस्तुपरकता के मर्म में आत्मपरकता का, और आत्मपरकता के मर्म में वस्तुपरकता का’ आविष्कार करती है।
शमशेर के काव्य-संग्रहों के काव्यात्मक नाम यथा- इतने पास अपने, उदिता, चुका भी हूँ मैं नहीं, बात बोलेगी, काल तुझसे होड़ है मेरी, कहीं बहुत दूर से सुन रहा हूँ आदि इनके लम्बे काव्यात्मक संघर्ष को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। शमशेर का काव्य वैविध्य उन दो ध्रुवों को रेखांकित करता है, जिनके बीच ‘ऊभ-चूभ’ में उनकी काव्य-प्रक्रिया चलती है। शमशेर की कविताएँ अनायास भी होती हैं और सायास भी। इनके बिम्ब सीधे अवचेतन से भी आते हैं और ‘रियाज’ के ‘बरबत’ की इबारत से भी। ‘सिरजन एवं संयम’ इनकी काव्य-प्रक्रिया के दो किनारे हैं– एक महीन युग-भाव’ और ‘मुक्ति-कामना’ शमशेर की कविता में बांसूरी के लयात्मक विस्तार को प्राप्त करती है। गालिब का शेर है-
“फरियाद की कोई लय नहीं है
नाला पाबन्दे-नै नहीं है।”
कोई बांसूरी बजा रहा है, बजा नहीं रहा है, अपने दुखते हुए जख्म को सहला रहा है। ‘नाला’ यानि आह-कराह रोना-धोना। ‘नै’ बांसूरी कभी अन्तर की आह-कराह को बांध नहीं सकती, क्योंकि ‘नाला’ बांसूरी बजाने की कला के अधीन नहीं है, इससे आजाद है। इसी आजादी की खोज शमशेर की कविता है। शमशेर कविता के प्रति समर्पित और जिजीविषा के कवि हैं। उन्होंने कविता को जीया है। यही कारण है कि शोक, वेदना, घुटन, अकेलेपन और संघर्षों में घिरे होकर भी वे अपनी आस्था में दृढ हैं। एक विशेष प्रकार की आशावादिता उन्हें भविष्यत आस्था में केन्द्रित किए रहती है। ऐसा शान्त और क्रान्तिद्रष्टा कवि मानवीय मूल्यों के लिए कोई समझौता नहीं करता, वह पूरे स्वाभिमान के साथ जीता है–
आज अकेले किसके प्राण?
मेरे कवि के, मेरे कवि के
जिसने जीवन के सम्मान
फूँक दिए आँगन में छवि के।
शमशेर ने कभी भी अपने परिवेश, देशकाल और वस्तु-यथार्थ को अनदेखा नहीं किया है। कबीर, मीरा, सूर, तुलसी से लेकर रघुवीर सहाय, मोहन राकेश, मुक्तिबोध, भुवनेश्वर, नेरूदा, इलियट, कमिंग्स, टेनीसन, इकबाल, फानी, गालिब, मायकोव्स्की- सभी उनके जीवन-यथार्थ और काव्य-यथार्थ को प्रभावित करते हैं। स्वयं शमशेर का कथन है –‘’मैं सदा ही अपने मानसिक परिवेश को चित्रित करता रहा हूँ। परिवेश के अन्तिम साथ-साथ उसके माहौल को भी ‘अपने पास’, ‘इतने पास अपने’ खींचता रहा हूँ कि मेरा अन्दरूनी व्यक्तित्व, अन्दरूनी कवि और चित्रकार, अपने अक्स को उसमें उतरने से बाज नहीं रख सके।’’ जीवन के दिनों में लिखी गई कविता विसर्जित एक दीया (13 जून 1992) उनके समर्पित व्यक्तित्व का भविष्यगत रेखांकन है, जिसमें शमशेर का रोमेन्टिक-ऐन्द्रजालिक भावबोध रहस्यात्मकता, अध्यात्म और समाज- द
र्शन से परिपुष्ट हो रहा है–
सर्वोच्च लहर
आकाशगंगा में
आकाश गंगा में
विसर्जित
एक दीया
(कहीं बहुत दूर से सुन रहा हूँ, पृ, 72)
4. निष्कर्ष
सचमुच शमशेर कवियों के कवि हैं। उनकी समन्वयशील (इक्लैक्टिक) विलक्षण प्रतिभा विभिन्न काव्य-प्रभावों, काव्यान्दोलनों एवं विचार-दर्शनों से कुछ-न-कुछ अवश्य ग्रहण करती है। चाहे स्वछन्दतवाद हो या मार्क्सवाद, प्रगतिवाद, एजरापाउण्ड, गिन्सबर्ग, टेनीसन हो या निराला, गालिब, इकबाल; प्रभाववाद, प्रतीकवाद हो या अतियथार्थवाद, सभी से अनुकूल प्रभावों को आत्मसात करते हुए शमशेर ‘आत्मा के संघर्ष’ को कविता में मूर्त करते हैं। उनकी अन्तर्मुखी चेतना और सूक्ष्म सम्वेदना बाह्य वस्तु छवियों और भाव प्रसंगों को भी अभ्यन्तर स्तर पर समीचीन बनाती है। हर बड़ा कवि पुरानी स्थापनाओं और रूढ़ियों का अतिक्रमण करता है। शमशेर भी लीक से हटकर लिखने वाले कवि हैं।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- दोआब, शमशेरबहादुर सिंह,सरस्वती प्रेस,बनारस
- चुका भी हूँ नहीं मैं, शमशेरबहादुर सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
- कहीं बहुत दूर से सून रहा हूँ, शमशेरबहादुर सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- शमशेरबहादुर सिंह की आलोचना-दृष्टि, गजेन्द्र कुमार पाठक,सामयिक प्रकाशन,नई दिल्ली
- शमशेर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना/ मलयज( संपा.), राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
- कवियों का कवि शमशेर,रंजना अरगड़े, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- कल्पना, अक्टूबर,1963
- समीक्षा, फरवरी-अप्रैल,1976
- परिशोध, फरवरी, 1969
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6_%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
- http://www.hindisamay.com/writer/writer_details_n.aspx?id=1612
- https://www.youtube.com/watch?v=BYvdJo6b8xE
- https://www.youtube.com/watch?v=jelRXM5uvls