5 नागार्जुन की कविताओं का पाठ-विश्लेषण

डॉ. सत्यपाल शर्मा

epgp books

 

पाठ का प्रारूप

1.पाठ का उद्देश्य

2. प्रस्तावना

3. नागार्जुन की कविताओं का पाठ-विश्लेषण

3.1. गुलाबी चूड़ियाँ

3.2. सिन्दूर तिलकित भाल

3.3. मेघ बजे

3.4. प्रेत का बयान

3.5. तीनों बन्दर बापू के

4. निष्कर्ष

 

पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • हिन्दी काव्य में नागार्जुन की कविता का महत्त्‍व समझ सकेंगे।
  • पाठ-विश्लेषण के स्वररूप, उसकी अनिवार्यता और महत्त्व समझ सकेंगे।
  • पाठ-विश्लेषण की पद्धति जान सकेंगे।
  • काव्‍यालोचन के समय सर्वप्रथम ‘पाठ-विश्लेषण’ की प्रेरणा पा सकेंगे।
  • समुचित परिप्रेक्ष्य में नागार्जुन की कविताओं का ‘पाठ-विश्लेषण’ कर सकेंगे।

 

1.  प्रस्तावना

 

हिन्दी कविता में सन 1936 से 1943 तक के समय को प्रगतिवाद नाम से जाना जाता है। वि‍दि‍त है कि‍ इस दौर के रचनाकार भारतीय स्‍वाधीनता आन्‍दोलन के सन्‍दर्भ में भी सामान्‍य नागरि‍क की सुख-सुवि‍धा, इच्‍छा-अभि‍लाषा, अनुराग-वि‍राग, कामना-उद्वेग की बात करते थे। नागार्जुन इसी प्रगतिवाद के त्रयी के वि‍शि‍ष्‍ट कवि थे। सुधी साहि‍त्‍यि‍कों के बीच वे आज आधुनिक कबीर के रूप में जाने जाते हैं। वे प्रतिबद्ध जनकवि थे। उनकी नि‍र्द्वन्‍द्व रचनात्‍मक प्रति‍बद्धता और स्‍पष्‍ट जनसरोकार ही उनके जनकवि‍ होने का प्रमाण है। उनकी कविताओं में समकालीन राजनीतिक वि‍डम्‍बनाओं, जनवि‍रोधी व्‍यवस्‍था की वि‍संगति‍यों एवं जन-मन की अभि‍लाषाओं पर ममतामय डंग से वि‍चार हुआ है। उनके यहाँ इस वि‍चार के हि‍स्‍सेदार कोई गि‍ने-चुने लोग नहीं, पूरा समाज भागीदार है। सन 1936 में लिखी उनकी कविता ‘उनको प्रणाम’ आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। इस कविता में हाशिये पर छूट गए या विफल हो गए उन लोगों की स्तुति है, जिनकी संख्या बीते वर्षों में नि‍रन्‍तर हमारे समाज में बढ़ती गई। साहि‍त्‍यि‍क बहस में सन 1943 के बाद प्रगतिवाद को हि‍न्‍दी कवि‍ता का अतीत माना जाने लगा, कि‍न्‍तु नागार्जुन और उनकी कविता कभी अतीत नहीं हुई। आजादी के कई दशक बाद तक वे और उनकी रचनात्‍मक चेतना पूरी प्रतिबद्धता के साथ जनता के हक़ की लड़ाई लड़ती रही।

 

बिहार के दरभंगा जिले के तरौनी ग्राम में 30 जून 1911 को नागार्जुन का जन्म और 5 नवम्‍बर 1998 को नि‍धन हुआ। उनका मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र है। राष्‍ट्र-भाषा हि‍न्‍दी में वे नागार्जुन तथा मातृभाषा मैथिली में वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’ के नाम से लेखन करते थे। सन् 1969 में उन्‍हें सन् 1965 में प्रकाशि‍त मैथिली के कावि‍ता-संग्रह पत्रहीन नग्न गाछ के लिए साहित्य अकादेमी सम्मान तथा सन् 1994 में साहित्य अकादेमी फेलो सम्‍मान से वि‍भूषि‍त भी किया गया। हिन्दी में प्रकाशि‍त — युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, प्यासी पथरायी आँखें, तालाब की मछलियाँ, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, हजार-हजार बाँहों वाली, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, इस गुबार की छाया में, आदि‍ उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं। जनकवि‍ के रूप में सर्वसम्‍मानि‍त कवि‍ नागार्जुन हि‍न्‍दी के महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार भी हैं। उनकी कई औपन्‍यासि‍क कृति‍यों ने हि‍न्‍दी उपन्‍यास-धारा में नई दि‍शाएँ आलोकि‍त की हैं। रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, पौध, वरुण के बेटे, दुखमोचन, उग्रतारा, कुम्‍भीपाक, पारो, आसमान में चाँद तारे आदि‍ उनके महत्त्‍वपूर्ण उपन्‍यास हैं। इनके अलावा एक संस्कृत काव्य धर्मलोक शतकम, एक बंगला कवि‍ताओं का संग्रह, जि‍सका हि‍न्‍दी अनुवाद मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा  है; एक व्यंग्य-संग्रह अभिनन्‍दन, एक निबन्‍ध संग्रह अन्न हीनम क्रियानाम, तीन बाल पोथी दो खण्‍डों में कथा मंजरी, मर्यादा पुरुषोत्तम, विद्यापति की कहानियाँ; दो मैथि‍ली कवि‍ता-संग्रह  चित्रा, पत्रहीन नग्न गाछ  और दो मैथि‍ली उपन्‍यास  पारो, नवतुरिया प्रकाशि‍त हैं।

 

गहन सामजिक सरोकार और व्यापक संवेदना-संसार के कवि‍ नागार्जुन का काव्य-फलक अत्यन्त विस्तृत है। जन-संवेदना, प्राकृतिक सुषमा, ग्रामीण सन्‍दर्भ, राष्‍ट्रीय अस्‍मि‍ता, राजनीति‍क सूझ-बूझ… नागार्जुन की काव्‍य-दृष्‍टि‍ में कुछ भी अलक्षि‍त या गोपनीय नहीं है। कविता की शास्त्रीयता एवं लोकप्रियता को वे चमत्‍कार की तरह आत्मसात कर देते हैं। वे भारतीय लोकतन्‍त्र की उस जनता के कवि हैं जो राजनीतिक व्‍यवस्‍था, प्रशासनि‍क तन्‍त्र, ऐतिहासि‍क सन्‍दर्भ एवं साहित्यि‍क प्रयुक्‍ति‍यों में कि‍सी मुहावरे की तरह जीवनयापन कर रही हैं। वे अपने देश, काल, पात्र, समाज के प्रति अत्यन्त जागरूक तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श के सुवि‍ज्ञ कवि हैं। उनकी संवेदना-संसार में शोषित-पीड़ित जन के साथ-साथ प्रकृति के उपागम एवं उपेक्षित मानवेतर प्राणी भी शामिल हैं। यद्यपि‍ वे कभी किसी राजनीतिक विचारधारा के खूँटे से नहीं बँधे, कि‍न्‍तु राजनीति‍ से उन्‍हें कोई परहेज भी नहीं रहा। कविता में वे जब-तब कविता को बचाए रखकर ठीक-ठाक राजनीति भी कर लेते दि‍खते हैं। अपने दौर की प्राय: सभी राजनीतिक हस्तियों को उन्होंने अपने पैने व्यंग्य का निशाना बनाया। व्यंग्य उनकी कविता का प्रमुख औजार है।

 

2.  नागार्जुन की कविताओं का पाठ-विश्लेषण

 

हि‍न्‍दी आलोचना पर लगा यह आरोप निराधार भी नहीं है कि वह रचना केन्द्रित होने के बजाए रचनाकार केन्द्रित होती है। दरअसल वहाँ विचारधारा का महत्त्‍व इतना बढ़ गया कि रचना में पाठ की जगह विचारधारा पर जोर दिया जाने लगा। दूसरी ओर पाठ को महत्त्व देने वाली भारतीय और पाश्चात्य आलोचना पद्धतियाँ विचारधारा के साथ-साथ रचना में अभिव्यक्त विचार और संवेदना की भी उपेक्षा करने लगीं। रचना की दृष्टि से उक्त दोनों ही दृष्टियाँ दोषपूर्ण हैं। रचना को सही सन्दर्भों में समझने के लिए पाठ-विश्लेषण जरूरी होता है। पाठ-विश्लेषण में दरअसल रचना की अन्तर्वस्तु एवं शिल्प–दोनों का विश्लेषण होना चाहिए। रचना में निहित भाव, विचार, संवेदना, उद्देश्य, शिल्प एवं संरचना के वैशिष्ट्य का विश्लेषण कि‍ए बगैर कि‍सी रचना का समग्र मर्म जानना एवं उसकी सार्थक समालोचना कर पाना असम्‍भव है। इसके शिल्पगत वैशिष्ट्य के अन्तर्गत भाषा-व्‍यवहार, वाक्‍य-सौन्दर्य, शब्‍द-प्रयोग की नवीनता, रचना की बनावट से जुड़े बिम्ब, प्रतीक, व्यंग्य, मुहावरे, फैण्टेसी जैसे वि‍भि‍न्‍न उपादानों का विश्लेषण अनि‍वार्य होता है।

 

पाठ-विश्लेषण का उद्देश्य आलोचना को रचना-केन्द्रित करना होता है। ऐसा करने से एक ओर विचार-दृष्टि के आग्रहों से बचाव होता है तो दूसरी ओर रूपवादी-दृष्टि का रंग चस्पाँ नहीं हो पाता। पूर्वनिर्धारित मानदण्ड पाठ के स्‍वभाव के अनुकूल न हो, तो उनके अनुसरण की रूढ़ि‍याँ कभी-कभी गलत नि‍ष्‍पत्ति‍ की ओर भी ले जाती हैं, इसलि‍ए पाठ-विश्लेषण के समय यथासम्‍भव पाठ-केन्‍द्रि‍त ही रहना चाहि‍ए; हाँ पूर्वनिर्धारित मानदण्डों से प्रयासपूर्वक बचना सर्वथा उचि‍त नहीं है; प्रयोजन पड़े तो उपयुक्‍त प्रतिमानों के उपयोग अथवा नए प्रति‍मानों के निर्माण में संकोच नहीं करना चाहिए। इन्हीं बातों के मद्देनजर यहाँ नागार्जुन की कुछ महत्त्वपूर्ण कविताओं का पाठ-विश्लेषण किया जा रहा है —

3. गुलाबी चूड़ियाँ

 

सामाजिक-राजनीतिक वि‍संगति‍यों के दस्‍तावेज के रूप में नागार्जुन की कविताओं की ख्‍याति‍ वि‍दि‍त है। साथ-साथ नागरि‍क-जीवन के हर्ष-विषाद की सघन संवेदनाएँ एवं मार्मि‍क ऐन्द्रियता उनकी कई कवि‍ताओं में अभिव्यक्त हुई हैं। प्रेम और प्रकृति से जुड़ी उनकी कविताएँ हमें अतुलि‍त अनुभवों से परि‍चय कराती हैं। समुन्‍नत कलात्मकता से भरी ‘गुलाबी चूड़ियाँ’, ‘यह दन्तुरित मुस्कान’ जैसी उनकी कई कविताएँ वात्सल्य की मोहक छटा से परि‍पूर्ण हैं; ‘तन गई रीढ़’, ‘यह तुम भी’ जैसी कविताएँ शृंगार रस से सराबोर हैं।

 

हिन्दी कविता में मोहक वात्सल्य की अभिव्यक्ति के अप्रतिम उदाहरण भक्‍ति‍काल से ही दि‍खते आ रहे हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में वात्सल्य सम्बन्धी कविताएँ कम लि‍खी जाने लगीं। सम्‍भवत: सामाजिक यथार्थ के वर्चस्‍व, विचारधारा एवं वादों के दबाव से आधुनिक हिन्दी कविता इन क्षेत्रों से कट-सी गई। कि‍न्‍तु कविता के उस प्रयोग के दौर में ही प्रगतिवादी कवि नागार्जुन की सन 1961 में लिखी गई कविता ‘गुलाबी चूड़ियाँ’ अपने कथ्य और संवेदना के कारण सहज ही सबका ध्यान आकर्षित करती है।

 

अपने रचना-काल के दौर में प्रचलित सभी साहित्यि‍क प्रवृत्तियों और रूपों से भि‍न्‍न होना इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता है। उस दौर के प्रयोगशील हिन्दी कवि एक तरफ रूप-रचना के अन्‍वेषण में नए-नए प्रयोग में व्‍यस्‍त थे, दूसरी तरफ अकविता के कवि‍ मोहभंग की अभि‍व्यक्ति‍ हेतु नकार-अस्‍वीकार की भावना से भरे थे। प्रगतिशील कवि‍यों को ऐसी परि‍स्‍थि‍ति‍ में विचारधारा के अलावा अन्य बातों के लि‍ए लड़ने का अवकाश नहीं था, कि‍न्‍तु नागार्जुन ने अपने समय की तमाम सीमाओं का अतिक्रमण कर ऐसी कविता रची।

 

सहज भाषा एवं सरल संरचना में रचि‍त इस कविता का भाव-बोध इसे विशिष्ट बनाता है। अभिव्यक्ति के स्तर पर कहीं कोई जटि‍लता नहीं; कविता को विशि‍ष्ट बनाने का कोई आग्रह नहीं; कथा का आभास देने के बावजूद इस कविता की संरचना में कथा नहीं है; एक ‘स्थिति’ है, ‘दृश्य’ है। यह स्‍थि‍ति‍ ही इस कविता का प्राण है।

 

कविता के केन्द्र में वात्सल्य होने के बावजूद ‘दृश्य’ में कोई शि‍शु नहीं है; शि‍शु की स्मृतियाँ भी नहीं। सि‍र्फ नेपथ्य में सात साल की एक बच्ची है; और सामने, बस के गियर के ऊपर हुक से लटकाई हुई उसकी काँच की चार गुलाबी चूड़ियाँ। बच्ची का पिता उस बस का ड्राईवर है। कवि‍ता की पंक्‍ति‍ में नागार्जुन की वैचारिक प्रतिबद्धता बल देकर कहती है– ‘प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ/सात साल की बच्ची का पिता तो है।’ प्राइवेट बस का ड्राइवर होना मेहनतकश होने का प्रमाण है, जिसकी लड़ाई प्रगतिवादी कवि लड़ते रहे हैं। लेकिन यहाँ मेहनतकश की अस्‍मि‍ता को, निहित मानवीय संवेदना को उभारकर कवि जोर देते नजर आते हैं, उसकी भावनाओं एवं अनुरक्‍ति‍यों के साथ दृढ़ता से खड़े नजर आते हैं। वस्तुत: वे उस वर्ग के प्रति सबकी संवेदनाओं को जोड़ना चाहते हैं। इसका बेहतरीन खुलासा तब होता है जब कवि द्वारा पूछे जाने पर वह ड्राइवर स्‍पष्‍टीकरण देता है–लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया/टाँगे हुए है कई दिनों से/अपनी अमानत/यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने/मैं भी सोचता हूँ/क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ/किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?…चूड़ियों के बारे दि‍ए गए इस स्‍पष्‍टीकरण में कोई झेंप नहीं है, कोई संकोच नहीं है, एक पि‍ता का उत्‍कट लाड़ है, वात्‍सल्‍य का मोहक अनुराग है। बस की रफ्तार में झटके खाकर हि‍लती चूड़ि‍यों की खनक में सात वर्ष की बेटी से हर पल वार्तालाप करते रहने की, पल-पल वात्‍सल्‍य के नि‍कट बने रहने की लालसा है। तभी तो कवि‍ कविता के अन्त में अपनी संवेदना जोड़कर उस भाव को एकाकार कर देते हैं–‘हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ। वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे।’ वैसे देखें तो कवि‍ता मे कुछ भी यूँ ही नहीं होता। जाहि‍र है कि‍ यह पूछना भी यूँ ही नहीं हुआ होगा। गि‍यर बॉक्‍स के ठीक ऊपर लटकती गुलाबी चूड़ियों ने कवि के प्रश्‍नाकुल मन को जि‍ज्ञासाओं से भर दि‍या होगा। कोई सार्थक कवि‍ यूँ ही कुछ नहीं करता। कविता में तो नहीं ही करता। जैसे कि‍, कवि‍ ने पूछा न होता, तो उन लटकी हुई चूड़ि‍यों में चि‍पका अदृश्‍य वात्‍सल्‍य प्रकट न हुआ होता। ‍कवि‍ का संशय बना ही रह जाता।

 

सहज, सरल अभिव्यक्ति, कोमल शब्‍दावली, प्रवहमान भाषा, लयात्‍मक गद्य…सब मि‍लकर नागार्जुन की हर रचना में प्रभावोत्‍पादकता का चमत्‍कार भरते हैं, इस कवि‍ता में तो और भी हद हो गई है। रचना में दर्ज परि‍वेश को उनके अनुकूल शब्‍दावलि‍यों से रेखांकि‍त करना नागार्जुन की खास वि‍शेषता है। गौरतलब है कि‍ रचना में उन्‍हें शब्‍दों के जाति‍-वि‍भेद से कोई लेना-देना नहीं होता। तत्‍सम, तद्भव, देशज, वि‍देशज…तमाम शब्‍दों को वे प्रयोग में लाते हैं; और शब्द-प्रयोग इस तरह सधे होते हैं कि‍ भावकों को कहीं उसका भान तक नहीं होता। इस कवि‍ता को पढ़ते हुए प्राथमि‍क तौर पर ऐसा बोध ही नहीं होता कि‍ यहाँ दूसरी भाषा के शब्‍द हैं। क्‍योंकि‍ वे भाव-बोध में कहीं बाधक नहीं होते, बल्‍कि‍ प्रभाव बढ़ाने में कामयाबी दि‍लाते हैं। अमानत, अब्बा, नजर, जुर्म जैसे उर्दू शब्द; प्राइवेट, बस, ड्राइवर, गियर जैसे अंग्रेजी शब्द कवि‍ता में पचे हुए दि‍खते हैं। चूड़ियों के लि‍ए ख़ूबसूरती और स्‍नेह के प्रतीक जैसे गुलाबी रंग का विशेषण चुनना या कि‍ बच्‍ची के लि‍ए नेह-भाव से पूरि‍त-प्रचलित मोहक नाम ‘मुनिया’ देना कविता की संवेदना को और भी सघन करता है।—‘छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में/तरलता हावी थी सीधे-सादे प्रश्न पर’। कवि‍ता की नि‍र्णायक पंक्‍ति‍ दर्ज करते हुए कवि‍ ने ड्राइवर पिता की आँखों में छलकते वात्‍सल्‍य के लि‍ए ‘दूधिया’ वि‍शेषण दि‍या है। इस भाव के लि‍ए इससे बेहतर विशेषण कुछ भी नहीं हो सकता था। कविता में बेहतरीन ‘रंग-प्रयोगों’ के लिए नागार्जुन सुवि‍ख्‍यात हैं। इस ‘दूधिया’ शब्‍द से न केवल वात्सल्य को पवि‍त्र और नि‍श्‍छल बनाया गया है, बल्कि इससे हृदय की पूरी भावना भी व्‍यक्‍त हुई है।

 

2 सिन्दूर तिलकित भाल

 

नागार्जुन प्रकृति और प्रेम के अनुपम कवि हैं। इन वि‍षयों पर केन्‍द्रि‍त–बादल को घिरते देखा है’, ‘बहुत दिनों के बाद’, ‘अबके इस मौसम में’, ऋतु सन्धि’, ‘मेघ बजे’ जैसी उनकी अनेक उत्कृष्ट कविताओं में उनका संवेदनात्मक लगाव स्‍पष्‍ट है। प्रकृति केन्‍दि‍त रचनाओं में प्रेम के चित्र उकेरने, और प्रेम-कविताओं में मनोहारी प्रकृति-चित्रण की जुगत बैठाने में उन्‍हें महारत हासि‍ल है। उनकी अनेक कविताओं में प्रकृति और प्रेम इस प्रकार गुम्फित हैं कि तय करना कठि‍न है कि वह प्रकृति-प्रधान कविता है या प्रेम-प्रधान। वे विशुद्ध प्रेम-कविता लिखते हुए भी नि‍रन्‍तर प्रकृति से साहचर्य बनाए रखते हैं, ऐसे अवसर पर वे इस तरह मोहाविष्ट हो जाते हैं कि प्रकृति, प्रेम को धकेलकर प्रत्यक्ष हो जाती है। ‘सिन्दूर तिलकित भाल’ उनकी ऐसी ही वि‍शि‍ष्‍ट कविता है। यह शुद्ध शृंगारि‍क काव्‍य है। दूरस्‍थ प्रेमी को अपनी प्रेमिका याद आती है।–घोर नि‍र्जन में परि‍स्‍थि‍ति‍ ने दि‍या है डाल/याद आता है तुम्‍हारा सिन्दूर तिलकित भाल/कौन है वह व्‍यक्‍ति‍ जि‍सको चाहि‍ए न समाज?– यह स्‍वकीया प्रेम है, परकीया नहीं। प्रवासी पति‍ को पत्नी की याद आती है। गार्हस्थ जीवन के प्रेम की मोहक प्रस्तुति‍ के कारण यह उल्लेखनीय प्रेम-कविता है। परदेश में कवि को पत्नी का ‘सिन्दूर तिलकित भाल’ अर्थात् तिलक की तरह सिन्दूर सुशोभि‍त ललाट की याद आती है। प्रचलि‍त, पारम्परिक रूढ़ियों को तोड़कर यहाँ कवि‍ ने स्त्रियों के लि‍ए ‘तिलक’ शब्‍द का उपयोग कि‍या है। पारम्परिक रूप से ‘ति‍लक’ का उपयोग समाज में पुरुषों के लि‍ए होता आया है। यहाँ एक प्रगतिवादी कवि की प्रगति‍शील चेतना उस परम्‍परा को तोड़कर एक प्रयोग की ओर बढ़ती है। यहाँ प्रेम का शुद्ध, सात्विक, गम्भीर और मर्यादित रूप व्यंजित हुआ है। स्मृति-विस्मृति की तमाम स्थितियों, भावों, प्रसंगों से कवि अपनी प्रेयसी को प्रबोधन देते हैं। उन्‍हें अवबोध है कि‍ वे परदेश में हैं, कि‍न्‍तु—हो गया हूँ मैं नहीं पाषाण/जि‍सको डाल दे कोई कहीं भी/करेगा वह कभी कुछ न वि‍रोध/…यहाँ है सुख-दुख का अवबोध/…यहाँ है स्‍मृति‍-वि‍स्‍मृति‍ सभी के स्‍थान/तभी तो तुम याद आतीं प्राण/हो गया हूँ मैं नहीं पाषाण…अर्थात् भावनाएँ उन्‍हें भी सताती हैं। यह कविता केवल प्रेमपरक होने के कारण ही उल्लेखनीय नहीं है, इसमें कवि को पत्नी के साथ-साथ वह पूरा परिवेश याद आता है, जिसमें उनका प्रेम विकसित हुआ। उस परिवेश में उनका गाँव, उनके गाँव से जुड़ी प्रकृति की गोद की एक-एक यादें और सबसे बढ़कर वहाँ के लोग शामिल हैं, जिनका कवि के जीवन और उन स्‍मृति‍यों के निर्माण से अनिवार्य सम्बन्ध रहा है।

इस कवि‍ता का केन्द्रीय विषय बेशक प्रेम है, कि‍न्‍तु उस प्रेम की अभि‍व्‍यक्‍ति‍ आधार केवल उनकी प्रि‍यतमा ही नहीं, गाँव-समाज-प्रकृति के वे सारे उपादान हैं—जि‍नकी स्‍नेह से भींगी अमृतमय आँख/स्‍मृति‍-वि‍हंगम को कभी थकने न देंगी पाँख। पत्नी को याद करते हुए कवि को अपना वह गाँव याद आता है, जहाँ उनका भाव-संसार विकसित हुआ है।

 

याद आता मुझे अपना वह ‘तरउनी’ ग्राम

याद आतीं लीचियाँ, वे आम

याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग

याद आते धान

याद आते कमल, कुमुदिनि और तालमखान।

 

मिथिला के ग्रामीण क्षेत्र के प्रति गहरे प्रेम को अभिव्यक्त करती नागार्जुन की सर्वाधिक चर्चित प्रकृति-प्रेम परक इन पंक्तियों में कवि को ऋणबोध होता है। जिस पवन-प्रकाश-पर्यावरण के अवदान से जि‍न लोगों के स्‍नेहसि‍क्‍त साहचर्य में उनका वि‍कास हुआ, उनके लि‍ए वे दुहाई देते हैं—धन्‍य वे जि‍नके मृदुलतम अंक/हुए थे मेरे लि‍ए पर्यंक/धन्‍य वे जि‍नकी उपज के भाग/अन्‍न-पानी और भाजी-साग/…वि‍पुल उनका ऋण, सधा सकता न मैं दशमांश… क्‍या वि‍लक्षणता है! मात्र एक कवि‍ता की कुछेक पंक्‍ति‍यों में कवि ने मानवीयता, नैति‍कता, कृतज्ञता, प्रेमासक्‍ति‍, गार्हस्‍थ-जीवन एवं ग्राम्‍य-बोध की अगाध कमनीयता, वि‍रह-बोध में भी स्‍मृति‍यों की सुखानुभूति‍, अपनी अपूर्णता और अक्षमता का बोध…न जाने कि‍तने मानवीय सरोकार भर देए हैं।‍ कवि‍ की मानवीयता का उत्‍कर्ष तब और उज्‍ज्‍वल हो जाता है जब वे उस वेदनादायी प्रवास के सहवर्ती समाज का गुणगान करने लगते हैं; वे उनके प्रति‍ भी कोई अन्‍यथा-भाव नहीं पालते, कृतज्ञता उनके लि‍ए भी उतनी ही दि‍खाते—यहाँ भी हैं व्‍यक्‍ति‍ औ’ समुदाय/कि‍न्‍तु जीवन भर रहूँ फि‍र भी प्रवासी ही कहेंगे हाय/मरूँगा तो चि‍ता पर दो फूल देंगे डाल

 

सान्‍ध्‍य नभ में पश्‍चि‍मान्‍त समान/लालि‍मा का जब करुण आख्‍यान/सुना करता हूँ, सुमुखि‍, उस काल/याद आता है तुम्‍हारा सिन्दूर तिलकित भाल…कवि‍ता के अन्‍ति‍म अंश मे कवि‍ इस लालि‍मा को कई-कई अर्थध्‍वनि‍यों से भर देते हैं। यहाँ सि‍न्‍दूर, सूर्यास्‍तकालीन क्षि‍ति‍ज की कमनीयता, जीवनासक्‍ति‍ की मोहकता…हर कुछ की लालि‍मा बेशक अलग-अलग अर्थबोध दे, कि‍न्तु अन्‍तत: कचोट को समग्रता सब मि‍लकर देता है। सूर्यास्‍तकालीन क्षि‍ति‍ज की लालि‍मा देखकर प्रेयसी के ‘सिन्दूर तिलकित भाल’ की स्‍मृति‍ कवि‍ नागार्जुन की विरल कल्पना है। उल्‍लेखनीय है कि‍ यह कवि‍ता सन् 1943 में लि‍खी गई। जब कवि‍ की आयु बत्तीस वर्ष की थी, और भारत पर शासन कर रहे पश्‍चि‍मी शासकों की वि‍दाई के करुण आख्‍यान सुने जाने लगे थे, अर्थात् पश्‍चि‍मान्‍त सुनि‍श्‍चि‍त हो गया था।    

 

संस्कृतनिष्ठ, समास बहुल शब्दावली के प्रयोग के बावजूद अभिव्यक्ति के स्‍तर पर यह कवि‍ता सहजता से सम्‍प्रेषि‍त है। दरअसल इतने बड़े भाव-संसार को समेटने हेतु ऐसी भाषा-संरचना अनि‍वार्य भी थी। ‘सान्‍ध्य नभ’, पश्चिमान्त, दशमांश जैसे शब्द-प्रयोग इसके उदाहरण हैं। ‘चाहिए किसको नहीं सहवास?’ में ‘सहवास’ जैसे शब्‍द पर आपत्ति‍ करने वालों को ध्‍यान रखना चाहि‍ए कि‍ नागार्जुन एक श्रेष्‍ठ कोटि‍ केश् शब्‍द-साधक थे, शब्द-ब्रह्मा थे। वे रूढ़ हो गए शब्‍दों के पुनरान्‍वेषण से नए-नए अर्थान्‍वेष करते थे। उनके काव्‍य में अन्‍यत्र भी ऐसे प्रयोग सहजता से दि‍ख जाएँगे। ‘सहवास’ के रूढ़ अर्थों से नि‍कलकर उसके व्‍युत्‍पत्ति‍मूलक अर्थ में जाएँ तो उनकी दुवि‍धा दूर हो जाएगी। मानवीय अनुराग को जीवन्‍त करने की दृष्‍टि‍ से सिन्दूर तिलकित भाल नागार्जुन की उल्लेखनीय कविता है।

 

3 मेघ बजे

 

संगीतात्मक प्रयोग हिन्दी के अनेक महत्त्वपूर्ण कवियों के यहाँ हुआ है। हर सि‍द्ध कवि‍ की कविता के छन्द, लय में संगीत की लय एकमेक हो जाती है। यह बात आधुनि‍क भाव-बोध के सभी वि‍शि‍ष्‍ट कवि‍यों की कवि‍ताओं में लागू होती है। दरअसल स्वरों से उत्‍पन्‍न ध्वनि-सौन्दर्य कवि‍ता में चमत्‍कारि‍क प्रभाव पैदा करता है। इस दृष्टि से नागार्जुन की अत्यन्त छोटी कविता ‘मेघ बजे’ उल्लेखनीय है।

 

ऊपरी तौर पर यह बादल पर केन्‍द्रि‍त प्रकृति-परक कविता है। कि‍न्‍तु इसका एक मात्र लक्ष्‍य प्रकृति-चित्रण नहीं है। बादल पर केन्‍द्रि‍त हिन्दी के अनेक कवियों की यादगार कवि‍ताएँ हैं, जि‍नमें कवि‍ की संवेदना कहीं प्रेम के सन्देश को रेखांकि‍त करती है, तो कहीं प्रकृति‍ की स्‍वच्‍छन्‍दता, मोहकता, उदारता, नि‍र्भीकता और नि‍ष्‍ठा को; या फि‍र कहीं क्रान्ति का उद्घोष करती है। कुल तेरह पंक्तियों की नागार्जुन की इस कविता के ‘मेघ’ प्रतीकात्मक है।

 

धिन-धिन-धा धमक-धमक/मेघ बजे/दामिनि यह गयी दमक/मेघ बजे/

दादुर का कण्ठ खुला/मेघ बजे/धरती का ह्र्दय धुला/मेघ बजे/

पंक बना हरिचन्‍दन/मेघ बजे/हल्का है अभिनन्दन/मेघ बजे/धिन-धिन-धा…

 

कविता की पहली और आखि‍री पंक्ति संगीत स्वरों के आधार पर नाद-सौन्दर्य उत्पन्न करती है–‘धिन-धिन धा…।’ यह नाद-सौन्दर्य कविता के आभा-मण्‍डल को रूपायि‍त करता है। कविता की बाकी ग्यारह पंक्तियों में छह बार ‘मेघ बजे’ पद की आवृत्ति हुई है। शेष रह गई पाँच पंक्तियों के सहारे ही इस ध्वन्यात्मक बिम्ब को मुखरि‍‍त कि‍या गया है। ध्वनियों के बिम्ब द्वारा खींचे गए चित्रों से कवि‍ता को जीवन्‍त करने का अनुपम कौशल नागार्जुन के यहाँ पर्याप्‍त मि‍लता है।

 

मेघ धमक-धमक बजेगा तो दामिनी दमकेगी ही; यह प्रकृति का सहज स्वभाव है। कि‍न्‍तु यहाँ दामिनी का दमकना प्रतीकार्थ में है। यह दामि‍नी शोषितों को अन्त:प्रेरणा देती है, उसकी प्रखर जीवनी-शक्ति को उग्र करती है, प्रहारक शक्ति से शोषकों पर आक्रामक होने की चेतना देती है। ‘दादुर का कण्ठ खुला’ पंक्‍ति‍ में भी सहज जैवि‍क स्वभाव उजागर हुआ है। वर्षा-ऋतु के आगमन से बादल गरजता है, तो बारि‍स की उम्मीद में मेढक टर्राता है। कि‍न्‍तु इस कवि‍ता का ‘दादुर’ वह दलित-शोषित-पीड़ित जनता है, जि‍सकी कण्‍ठ दबी हुई थी, अब उसके कण्‍ठ खुले हैं, पूरे वर्ष जो मेढक अपनी ध्‍वनि‍ दबाए, प्यास दबाए शान्त थे, मेघ-ध्‍वनि‍ सुनकर उनके कण्ठ से आवाज आने लगी है। क्रान्ति की उम्मीद होते ही शोषित-पीड़ित जनता की दबी आवाज बाहर आने लगी है। ‘धरती का हृदय धुला’ का अर्थ यहाँ केवल धरती का भीगना नहीं है, हृदय का धुलना है, अर्थात् गन्दगी दूर हुई है। क्रान्ति के आह्वान से धरती की समस्याएँ छट गईं, शोषणविहीन समतामूलक समाज की सम्‍भावना बनी। ‘पंक बना हरिचन्दन।’ का अभि‍प्राय उस चेतना की ओर संकेत करना है जि‍समें एक प्रगति‍शील कवि‍ का मि‍ट्टी से मोह झलकता है। सूखी और वीरान पड़ी धरती पर बारि‍स के कारण बने कीचड़ चन्‍दन बन गए। सभ्य-विकसित समाज के लिए जो कीचड़ तिरस्कार और उपेक्षा की चीज है, वह नव निर्मित समाज-व्यवस्था के शोषितों के लिए हरिचंदन हो गया। ‘हलका है अभिनन्दन’ जैसी घोषणा में एक तरफ कवि की बेफि‍क्री है कि अब तक जिनके अभिनन्दन हो रहे थे, वे हलके थे, उनका अभिनन्दन नि‍रर्थक था। तो दूसरी ओर यह आशा है कि‍ नव-निर्मित समाज-व्यवस्था के जो नायक वस्‍तुत: अभिनन्दन हेतु सुयोग्‍य हैं, उनका अभिनन्दन अब आसान है; क्‍योंकि‍ अब अभि‍नन्‍दन के लि‍ए चन्‍दन का उद्यम नहीं करना है, नव-निर्मित समाज-व्यवस्था के नायकों के लि‍ए पंक ही हरिचन्दन है; और इसी लिए यह अभिनन्दन आसान है।

 

इस अत्यन्त छोटी कविता में प्रकृति के माध्यम से अपने समय के बड़े सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ को खोल देना वस्‍तुत: एक रोमांचक कौशल है। स्वरों द्वारा नाद-सौन्दर्य की उत्‍पत्ति‍ और ध्वन्यात्मक बिम्ब से सामाजिक यथार्थ को अंकि‍त करने की अद्भुत क्षमता के कारण यह उल्लेखनीय कविता है।

 

4 प्रेत का बयान

 

व्यंग्य-बाण से कवि‍ता को प्रहारक बनाने में नागार्जुन को आधुनिक हिन्दी कविता का कबीर कहा जाता है। भारत की सामाजिक-राजनीतिक दशा पर वे जब-तब व्यंग्य के घातक प्रहार करते रहे हैं। व्यवस्था की वि‍संगति‍यों एवं युग-यथार्थ की वि‍द्रूपतओं की पोल खोलने हेतु व्यंग्य उनका सर्वाधि‍क कारगर हथि‍यार बना है। नागरि‍क जीवन की मजबूरि‍याँ, अकाल, अभाव, भूख, महामारी जैसी आपदाएँ उनकी कवि‍ताओं के सामान्‍य कथ्य हैं। ‘मास्टर’ कविता में देश की शिक्षा-व्यवस्था और आर्थिक-दशा पर तीक्ष्‍ण व्यंग्य किया गया है। ‘प्रेत का बयान’ इसी श्रेणी की महत्त्वपूर्ण कविता है, जिसमें भूख से मरने वाले एक अध्यापक के प्रेत का बयान दर्ज किया गया है।

 

यह कवि‍ता सर्वप्रथम अपने शीर्षक से ही चौंका देती है। इस देश में तो लोगों के पास मनुष्य का बयान सुनने के लिए संवेदना नहीं है, यहाँ कवि‍ ‘प्रेत का बयान’ सुनाने की जि‍द कि‍ए बैठे हैं। दरअसल यह नागार्जुन के काव्‍य-कौशल की वि‍शि‍ष्‍टता है कि‍ वे अपने वि‍षय के अनुकूल रचना की संरचना तय करते हैं। जीवन-यथार्थ जब इतना भयावह हो, कि‍ प्रचलित काव्‍य-प्रति‍मानों से काम न चले, तो कवि‍ को अपने कहन की तरकीब रचनी पड़ती है। ‘प्रेत का बयान’ कविता में असम्भाव्य रूपों के सहारे लक्षि‍त उद्देश्‍य की प्राप्‍ति‍ नागार्जुन की इसी तरकीब का उदाहरण है। फैण्टेसी द्वारा उन्‍होंने अपने कहन को कारगर बनाया है। हि‍न्‍दी में ऐसी शैली का उपयोग कई रचनाकारों कि‍या है।

 

भूख, अकाल, अभाव आदि‍ नागार्जुन की कई कविताओं का वि‍षय है, कि‍न्‍तु अपनी संरचना और अभि‍व्‍यक्‍ति‍ की दृष्‍टि‍ से ‘प्रेत का बयान’ उन सभी कवि‍ताओं से विशिष्ट है। कविता का ढाँचा अत्‍यन्‍त कलात्मक है। नरक के मालिक यमराज प्रेत से पूछते हैं– सच-सच बतला/कैसे मरा तू ?/भूख से, अकाल से ? तो काँपती हड्डि‍यों के उस मानवीय ढाँचे ने, अर्थात् प्राइमरी स्‍कूल के मास्‍टर जी के प्रेत ने सच-सच बयान कि‍या कि‍ वह स्वाधीन भारत का वह कायस्थ जाति का नागरिक, पेशे से स्कूल का मास्टर था–किन्तु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका/ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको/सावधान महाराज/नाम नहीं लीजिएगा/हमारे समक्ष फिर कभी भूख का…/सरलता पूर्वक निकले थे प्राण/सह न सकी आँत जब पेचिश का हमला। वि‍डम्‍बना द्रष्‍टव्‍य है कि‍ स्वाधीन भारत के लोकतन्‍त्र के नागरिक-बोध से गर्वोन्‍नत उस मास्‍टर का प्रेत भी सच कहने का साहस नहीं करता है। इस कवि‍ता का रचनाका-वर्ष सन्1950 है। अलग से उल्‍लेख का प्रयोजन नहीं कि‍ भारतीय समाज की अधिकांश जनता का हाल आज भी उस प्रेत से बदतर है। भारतीय स्‍वाधीनता के तीन बरस बाद भी समाज में व्‍याप्‍त अभाव, अकाल, भूख, दुर्व्‍यवस्‍था के कारण अल्‍पवेतनभोगी स्‍कूल शि‍क्षकों का जीवन जंजाल बना हुआ था। नौकरीशुदा होने के बावजूद वे भूखमरी से त्रस्‍त थे। यमराज के सवाल पर मास्टर का प्रेत किट-किट करते हुए प्रतिवाद कर रहा था। अर्थात् मरने के बाद भी आतंक में था, और भूख से मरने के तथ्‍य को, अपने पीड़कों के दुष्‍कर्म को ढकने की कोशि‍श कर रहा था।

 

इस कविता में स्वाधीन भारत की व्‍यवस्‍था पर व्यंग्य किया गया है। फैण्टेसी के उपयोग द्वारा यहाँ भारत के सामाजिक, आर्थिक यथार्थ पर प्रहार कि‍या गया है। एक मास्टर के प्रेत के बयान से स्‍पष्‍ट कि‍या गया है कि अन्‍नाभाव ने उस दौर के राष्‍ट्र-नि‍र्माता कहे जानेवाले शि‍क्षक की जान ले ली। जि‍स राष्‍ट्र का शि‍क्षक भूख से तड़प कर मरे, उस देश के बच्‍चों और नौजवानों को वह कि‍स राष्‍ट्र-प्रेम का उपदेश दे! और भारतीय लोकतन्‍त्र में तानाशाही का यह हाल था कि‍ उस शि‍क्षक का प्रेत तक आतंक के साए में जी रहा था। व्‍यंग्‍य की धार को तीक्ष्‍णतर करने के लि‍ए यहाँ फैण्‍टेसी का सहारा लि‍या गया है। वैज्ञानि‍क तौर पर इस तथ्‍य से हर कोई परि‍चि‍त है कि‍ यमराज की अदालत में हुई सुनवाई और प्रेत का बयान नि‍श्‍चय ही कवि‍ नागार्जुन ने नहीं सुनी होगी। यह शुद्ध फैण्‍टेसी है, कि‍न्‍तु इस फैण्‍टेसी द्वारा उस दौर का सामाजि‍क यथार्थ चि‍त्रि‍त हुआ है। भारतीय लोकतन्‍त्र की सामाज-व्यवस्था और शासकीय दशा पर दर्ज यह तीक्ष्‍ण व्यंग्य घोर जुगुप्‍सा उत्‍पन्‍न करता है। यह उ‍स लोकतन्‍त्री सामाज-व्यवस्था का चि‍त्र है, जि‍समें भूख से हुई मृत्‍यु के बावजूद प्रेत तक अपने पूर्वजन्‍म का सच कहने का साहस नहीं करता है; शोषण और दमन-दंश की ऐसी यातना जीवन भर झेलता है कि‍ अभ्यासी होकर मृत्युलोक तक में उस पर आतंक का साया मँडराता है, और यमराज को महाराज पुकरता है।

 

5 तीनों बन्दर बापू के

 

अपनी राजनीतिक कविताओं में दर्ज तीखे व्‍यंग्‍य के लि‍ए नागार्जुन ख्‍यात हैं। उस दौर के शायद ही कोई सुपरि‍चि‍त राजनीति-कर्मी हों, जि‍नकी बखि‍या उनकी कवि‍ता में न उधेरी गई हो। अब तो बन्द करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन, गु            पचुप हज़म करोगे, नाटक में टूटेगा नमक कानून, तीनों बन्दर बापू के जैसी कविताएँ इस तथ्‍य के श्रेष्‍ठ सबूत हैं। अपनी कविता में नागार्जुन ने आज़ादी की रज़त जयन्ती का चि‍त्र महँगाई की रजत जयन्ती की तरह उकेरा।

 

तीनों बन्दर बापू के कविता में कवि‍ ने फि‍कड़ों की शैली में गाँधीवादियों की पोल खोली है, और उनके वास्‍तवि‍‍क चरित्र को उजागर किया है। स्‍वाधीनता-संग्राम के लोकप्रिय नायक महात्मा गाँधी को भारत के नागरि‍कों ने राष्ट्रपिता और बापू कहकर सम्मान दि‍या, कि‍न्‍तु राजनेताओं ने उनके उसूलों पर चलना मुनासि‍ब नहीं समझा। बापू की प्रतिमा पर फूल चढ़ाए गए, सम्मान-अर्पण की रस्‍मअदायगी होती रही, कि‍न्‍तु राजनेताओं के लि‍ए उनके आदर्श बेमानी रहे। उन स्वघोषि‍त गाँधीवादि‍यों के आदर्श वि‍रुद्ध आचरण स्‍पष्‍ट दि‍खने लगे। गाँधीवादी आदर्श को लांछि‍त करनेवाले कर्मों में सब के सब लि‍प्‍त-तृप्‍त दि‍खने लगे। तीनों बन्दर बापू के कविता में गाँधी के ऐसे ही अनुयायि‍यों पर व्‍यंग्‍य कि‍या गया है।

दरअसल भारतीय स्‍वाधीनता के बाद देश मे स्‍वघोषि‍त समाजवादि‍यों, गाँधीवादि‍यों की भरमार हो गई। इन वि‍शेषणों से वि‍भूषि‍त करने की कोई मान्‍यताप्राप्‍त संस्‍था तो थी नहीं! पर वे भूल गए कि‍ इसके लि‍ए घोषणा से अधि‍क आचरण की जरूरत होती है। गाँधीवाद के आदर्शों के सभी प्रति‍कूल आचरणों के धारकों को देखकर नागार्जुन ने अपनी इस कवि‍ता में बड़े कौशल से बापू के तीनों बन्दरों का रूपक रचा है। प्रतीकार्थ में ये बन्‍दर वे स्‍वघोषि‍त गाँधीवादी हैं, जो बापू के ताऊ नि‍कले। सन् 1969 में गाँधीवादियों द्वारा मनाई जा रही सौवीं गाँधी-जयन्‍ती के अवसर पर रची गई इस कविता में गाँधीवाद की रट लगाने वाले उन्हीं छद्म अनुयायियों पर व्यंग्य कि‍या गया है, जो रट लगाकर लाभ-लोभ के सारे रास्‍ते सहज कर रहे थे, कि‍न्‍तु तमाम विपरीत आचरणों में लि‍प्‍त थे।

 

फि‍कड़े की अन्‍दाज में कहन और मुहावरेदार भाषा से कविता विलक्षण हो गई है। कहन-शैली के कारण कवि‍ता की लगभग पंक्‍ति‍याँ मुहावरे जैसा असर देती हैं। ‘बापू के भी ताऊ निकले’, ‘सरल सूत्र उलझाऊ निकले’, ‘लीला के गिरधारी निकले’, ‘जल-थल-गगन बिहारी निकले’, ‘बापू को ही बना रहे हैं’, ‘सौवीं बरसी मना रहे हैं’, ‘सेठों का हित साध रहे हैं’, ‘युग पर प्रवचन लाद रहे हैं’, ‘सत्य अहिंसा फाँक रहे हैं’, ‘पूछों से छवि आँक रहे हैं’ जैसी पंक्तियाँ इसके उदाहरण हैं, जो कथित गाँधीवादि‍यों के चरित्र का कच्चा चिट्ठा खोल रही हैं।

हल्‍के अन्‍दाज से चि‍कोटी काटकर व्यंग्य का दंश बढ़ाना नागार्जुन की खास विशेषता है। उनका व्यंग्य अधि‍कतर सीधे प्रहार नहीं करता, पहले हँसाता है, फि‍र होते-होते उसका असर ति‍लमि‍लाता और बेचैन करता है। ‘दिल की कली खिलना’, ‘दाल गलना’, ‘राल टपकाना’, ‘पाल तनना’, ‘आँखे मींचना’, ‘खाल छीलना’, ‘मोती के थाल सजना’, ‘दुनिया-जहान मूँड़ना’ ‘आसमान को चिढाना’, ‘मलाई चखना’, ‘अँगूठा दिखाना’ जैसे लोकप्रचलि‍त मुहावरों के सार्थक और अभि‍नव प्रयोग से नागार्जुन ने इस कविता की व्‍यंजना वि‍राट कर दी है।

 

कवि‍ को गाँधी के अनुयायी असल में ‘सर्वोदय के नटवरलाल’ दि‍खते हैं। नटवरलाल उस दौर के कुख्‍यात धोखेबाज थे। चतुर से चतुर लोगों की आँखों में धूल झोंककर उन्‍हें उल्‍लू बना देना, उनके लि‍ए दाएँ-बाएँ हाथ का खेल था। इसलि‍ए सर्वोदय का नारा लगानेवालों में वे उसी नटवरलाल की छवि‍ देख रहे थे। अपने हि‍त के लि‍ए वे कभी भी कि‍सी भी दि‍शा में शतरंज के घोड़े की तरह चाल बदल सकते थे। गाँधीवाद उन अनुयायियों का साध्य नहीं, साधन था। वे सत्य-अहिंसा का केवल राग अलाप रहे थे, असल में तो वे गीता-उपनिषद की धज्जियाँ उड़ा रहे थे। इस कवि‍ता द्वारा नागार्जुन ने जनता के समक्ष उनकी उन्‍हीं नग्‍नताओं को उजागर कि‍या है। जन के प्रति‍ जि‍म्‍मेदार कवि‍ ने उन्‍हें इस कवि‍ता में सावधान कि‍या है कि‍ शोषण, भ्रष्टाचार में लीन-तल्‍लीन ये पाखण्‍डी लोगों को मूर्ख बनाकर लूट रहे हैं, ये धोखेबाज हैं, इनसे सावधान रहने की जरूरत है।

 

इस कवि‍ता का अर्थ नागार्जुन का गाँधीवादी होना नहीं लगाया जाना चाहि‍ए। उन्‍होंने इस कवि‍ता की कि‍सी पंक्‍ति‍ में गाँधीवादी वि‍चार का समर्थन या वि‍रोध नहीं कि‍या है। सि‍र्फ गाँधीवादी आदर्शों को मटि‍यामेट कर रहे गाँधीवादि‍यों के आचरण की खिल्ली उड़ाई है। बीसवीं शताब्‍दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय राजनेताओं के रहनुमाओं एवं भारतीय राजनीति‍ की वास्‍तवि‍कताओं को जानने का बेहतरीन आधार है।

 

6. निष्कर्ष

 

अपनी विविधवर्णी कविताओं के लि‍ए ख्‍यात कवि‍ नागार्जुन आधुनिक हिन्दी कविता के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवि हैं। हि‍न्‍दी के वृहतत्रयी प्रगति‍शील कवि‍यों में उनका नाम श्रद्धा ये लि‍या जाता है। उनकी कवि‍ताएँ बीसवीं शताब्‍दी के भारत की सामाजिक-राजनीतिक वि‍संगति‍यों एवं भारतीय लोकतन्‍त्र की अधोगति‍यों का दस्‍तावेज है। राजनीति‍क परि‍स्‍थि‍ति‍यों के अलावा उनके यहाँ सामान्‍य जीवन के हर्ष-विषाद की सघन संवेदनाएँ एवं मार्मि‍क ऐन्द्रियता अभिव्यक्त हुई हैं। प्रेम और प्रकृति से जुड़ी उनकी कविताएँ हमें अतुलि‍त अनुभवों से परि‍चय कराती हैं। उन्‍हें प्रकृति और प्रेम के अनुपम कवि के रूप में भी शुमार कि‍या जाता हैं। इन वि‍षयों पर केन्‍द्रि‍त उनकी अनेक उत्कृष्ट कविताओं– बादल को घिरते देखा है’, ‘बहुत दिनों के बाद’, ‘अबके इस मौसम में’, ऋतु सन्धि’, ‘मेघ बजे’ आदि में उनका संवेदनात्मक लगाव स्‍पष्‍ट है। वे जहाँ प्रकृति केन्‍दि‍त रचनाओं में प्रेम के चित्र उकेरने के आधार तलाश लेते हैं, वहीं अनेक प्रेम कविताओं में मनोहारी प्रकृति-चित्रण की गुंजाइश भी बैठा लेते हैं। ध्वनि-सौन्दर्य से कवि‍ता में चमत्‍कारि‍क प्रभाव पैदा करने की दि‍शा में उनकी प्रसि‍द्धि‍ है। उनकी अत्यन्त छोटी कविता ‘मेघ बजे’ स्वरों द्वारा नाद-सौन्दर्य की उत्‍पत्ति‍ और ध्वन्यात्मक बिम्ब से सामाजिक यथार्थ अंकि‍त करने की अद्भुत क्षमता के कारण यह उल्लेखनीय कविता है।

 

भयावह जीवन-यथार्थ की अभि‍व्‍यक्‍ति‍ हेतु प्रचलित काव्‍य-प्रति‍मान त्‍यागकर फैण्टेसी द्वारा कहन को कारगर बनाने के लि‍ए उनकी कवि‍ता ‘प्रेत का बयान’ उल्‍लेखनीय है। सन् 1969 में गाँधीवादियों द्वारा मनाई जा रही सौवीं गाँधी-जयन्‍ती के अवसर पर रची गई उनकी कविता तीनों बन्दर बापू के एक वि‍शि‍ष्‍ट कवि‍ता है, जि‍समें बीसवीं शताब्‍दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय राजनेताओं के रहनुमाओं एवं भारतीय राजनीति‍ की वास्‍तवि‍कताओं को जानने का बेहतरीन आधार मि‍लता है।

 

you can view video on नागार्जुन की कविताओं का पाठ-विश्लेषण

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. समकालीन हिन्दी कविता, सम्पादक-परमानन्द श्रीवास्तव, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
  2.  कविता के नए प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
  3.  मेरे साक्षात्कार, नागार्जुन, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
  4.  युगधारा, नागार्जुन, यात्री प्रकाशन, दिल्ली
  5.  सतरंगे पंखों वाली, नागार्जुन, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
  6.  नई पौध,  नागार्जुन, यात्री प्रकाशन,नई दिल्ली
  7.  भूमिजा:, नागार्जुन, सम्पादक- सोमदेव/शोभाकान्त, राधाकृष्ण प्रकाशन,नई दिल्ली.
  8.  नागार्जुन रचना संचयन, चयन और सम्पादन-राजेश जोशी,साहित्य अकादमी,नई दिल्ली
  9.  प्रतिनिधि कविताएँ: नागार्जुन, सम्पादक-नामवर सिंह, राजकमल पेपरबैक्स
  10.  समाजवादी यथार्थवादी और नागार्जुन का काव्य, प्रेमलता दुआ, यात्री प्रकाशन, दिल्ली
  11. जनकवि नागार्जुन, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार,नई दिल्ली

 

वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8
  2. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8
  3. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8
  4. http://sahapedia.org/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%97%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87/
  5. https://www.youtube.com/watch?v=EgEjpUcuhm8&index=1&list=PLTSbiKXoyhy_7dhebmfIcLPbW6p5SiAmX