4 नागार्जुन की काव्य-भाषा

डॉ. रेखा उप्रेती

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पाठ का प्रारूप         

  1. उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. नागार्जुन की भाषा का स्वरूप
  4. शब्द -सम्पदा
  5. मुहावरे-लोकोक्ति
  6. प्रतीक
  7. बिम्ब-योजना
  8. अलंकार-सौन्दर्य
  9. व्यंग्य
  10. नाटकीयता
  11. छन्द, लय, तुकात्मकता
  12. निष्कर्ष

 

1.पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • नागार्जुन की काव्य-भाषा के स्वरूप को समझ सकेंगे।
  • नागार्जुन की कविताओं की भाषागत विशेषताएँ पहचान पाएँगे।
  • नागार्जुन की काव्य-भाषा की विविधता समझ सकेंगे।
  • नागार्जुन की काव्य-शक्ति का परिचय प्राप्त कर पाएँगे।

 

2. प्रस्तावना

 

भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और सम्प्रेषण का साधन भी। नागार्जुन की कविता एक साथ इन दोनों लक्ष्यों को साधती है। उनके लिए कविता केवल आत्माभिव्यक्ति नहीं; कोटि-कोटि जन के संघर्षमय जीवन की गाथा भी है। वे बग़ैर लाग लपेट के स्वयं को जन-कवि बतलाते हैं। उन्होंने इस जन के लिए उसी की भाषा में लिखा है। उनकी कविता जन की भाषा में रचा गया जन का आख्यान है। वे विविध भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी सामान्यतः जन-भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं। वे विषय के अनुरूप भाषा का चयन करते हैं।

 

3. नागार्जुन की भाषा का स्वरूप

 

नागार्जुन की काव्य -भाषा के विविध रूप और वर्ण हैं। वे सुधी पाठकों के लिए भी कविता लिखते हैं और आम जनता के लिए भी। उनका भाषा-संसार संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, खड़ी बोली, मैथिली से लेकर लोकमानस की आवरणहीन, ठेठ-गँवई भाषा तक विस्तृत है। इसके अतिरिक्त उन्हें बंगाली, गुजराती, पंजाबी भाषाओं का भी ज्ञान था। उन्होंने सिंघली और तिब्बती वांग्मय का भी गहन अध्ययन किया था। विविध भाषाओं का ज्ञान उनकी कविता के लिए वरदान सिद्ध हुआ। नागार्जुन की कविता में काव्य-भाषा के भी अनेक रूप हैं। इन्हें मोटे तौर पर निम्‍नलिखित रूपों में बाँटा जा सकता है –

  • प्रकृति-वर्णन की कविताओं की काव्य-भाषा; जैसे– कालिदास सच-सच बतलाना, बादल को घिरते देखा है  आदि की भाषा।
  • सामाजिक समस्याओं से जुड़ी हुई कविताओं की काव्य-भाषा; जैसे– मन करता है, प्रेत का बयान या अकाल और उसके बाद  आदि।
  • राजनीतिक व्यंग्य की कविताओं की काव्य-भाषा
  • आन्दोलनधर्मी कविताओं की काव्य-भाषा, जहाँ कविता की भाषा अख़बार की भाषा की तात्कालिकता को छूती नजर आती है।
  • गीतों की काव्य-भाषा, जहाँ वे विद्यापति के गीतों की स्मृति जगाते हैं।

 

4. शब्द सम्पदा

 

नागार्जुन की शब्द-सम्पदा अतुलनीय है। वे किसी एक भाषा के शब्दों तक सीमित नहीं रहते। उनकी चहलकदमी देशी-विदेशी भाषाओं के संसार में चलती रहती है। जहाँ जिस शब्द का प्रयोग उन्हें सटीक लगता है, वे बेहिचक उसका प्रयोग  करते हैं। एक ही कविता में विविध भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करना उनकी विशेषता है। उदाहरण स्वरूप उन्होंने अपनी कविता जयति नखरंजनी  में संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, देशज सभी स्रोतों के शब्दों का प्रयोग सहजता से किया है–

 

सामने आकार

रुक गई चमचमाती कार

बाहर निकलीं वासकसज्जा युवतियाँ

चमक उठी गुलाबी धूप में तन की चम्पई कान्ति

तिकोने नाखूनों वाली उँगलियाँ

सुर्ख नेलपालिश

कीमती रिस्टवाच

अँगूठियों के नग

कानों के मणिपुष्प

किंचित कपचे हुए सघन नील-कुन्तल

सब कुछ चमक उठा, महक उठा वायुमण्डल

तरल त्वरित गति थी

ललित थी भंगिमा

करीब के पार्टी-कैम्प तक जाकर पूछ ली अपनी क्रमसंख्या

तत्पश्‍चात आगे बढ़ी पोलिंग बूथ की ओर

आ रहा था डालकर वोट एक अधेड़

उँगली की जड़ में चमक रहा था काला ताजा निशान

ठमक गए सहसा बेचारियों के पैर

हाय! इतने सुन्दर हाथ हो जाएँगें दागी!

 

इस कविता में आम बोलचाल की खड़ी बोली के बीच जहाँ संस्कृत के वासकसज्जा, कान्ति, मणिपुष्प, किंचित,  नील-कुन्तल, वायु-मण्डल, तरल, त्वरित, गति, ललित, भंगिमा, तत्पश्‍चात,  रुचि बोध, नग, क्रम-संख्या, क्षणभर, नखरंजनी, दृग, अंजनी, भक्त-भ्रम-भंजनी, नवयुग निरंजनी जैसे तत्सम शब्द प्रयुक्त हुए हैं; वहीं उर्दू के नाखून, सुर्ख, कीमती, महक, करीब, ताजा, निशान, दागी जैसे शब्दों के प्रयोग भी हैं। कपचे हुए, अधेड़, ठमक गए, हाय, छिः जैसे ठेठ देशी प्रयोगों के साथ-साथ कार, नेल पॉलिश, रिस्टवाच, पार्टी-कैम्प, पोलिंग बूथ, वोट, बैलट पेपर, स्टार्ट, फैशन जैसे अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया है। शब्दों के इस घालमेल से जिस व्यंग्य की रचना कविता में की गई है, वह नागार्जुन की भाषा का अपना खास ‘फ्लेवर’ है। उनकी बहुत-सी कविताओं में भाषा का यह मिला जुला रूप सामने आता है।

 

यही वजह है कि उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों की भरमार नागार्जुन की कविताओं में है। मुगालता, हुकूमत, नफाखोर, मुस्तैद, कादिल, फिजूल, हकीकत, यक-ब-यक, मनसूबा, हमदर्द, आजमाइश, उस्ताद, जिक्र, दरमियान, जालिम, आवाम, तुनुक मिजाज, बदजुबान, मर्जी-मुताबिक, सिपहसालार, गुफ्तगू, अर्से, कामयाब आदि अरबी-फारसी के शब्द नागार्जुन की भाषा को समृद्ध करते हैं, कहीं-कहीं पूरी की पूरी पंक्तियाँ उर्दू शैली में भी मिलती हैं–

 

हमसफर को सलाम, हमसफर को सलाम

सूबा-ए-बिहार के जौहर को सलाम

अंग्रेजी शब्दों के लोकप्रचलित रूपों का इस्तेमाल बड़ी खूबी से नागार्जुन करते हैं। भाषा को लेकर जो बेफिक्र-बेलौस अन्दाज उनका है वह उनकी खासियत है।

कविता फ्रेंच शू  में वे कहते हैं–

बाल डांस में उनसे हम टकराए

काकटेल में घुल-मिल कर मुस्काए

चले गए आस्ट्रिया युवक उत्सव में

विश्‍व शान्ति का सौरभ ही ढो लाए।

 

कुछ-कुछ कविताओं के तो शीर्षक ही अंग्रेजी में हैं; जैसे – प्लीज एक्सक्यूज मी, फेस-टू-फेस, सेन्टिमेन्ट, डेमोक्रेसी की डमी, माई डियर दद्दू हमारे, डियर तोताराम, कणिका माई डियर, नर्सरी राइम, नान भेजिटेरियन आमदनी, लिट्टी इन्टरनेशनल,  ऐटम बम, पुलिस अफसर, खड़ी है ट्रेन, एक्शन में आ गए है, लीडर ऑपोजीशन का आदि।

 

इसके अतिरिक्त पोस्ट ग्रेज्युएट, डेविएशन, ब्वाय, पब्लिक, ब्यूरोक्रेसी, एम्बुलेन्स, एग्रीमेन्ट, प्रूफरीडरी, ड्यूटी, आनरेबुल, प्लीज, किलास, स्लोगन, सोशलिस्ट एनीण्हेयर, एनीटाइम, सर्कुलर, कालिज जैसे अनेक शब्द, जो हिन्दी भाषी जनता प्रयोग करती है, वे नागार्जुन के लिए भी त्याज्य नहीं हैं। ऐसे शब्द-प्रयोगों से भाषा में स्वाभाविकता के साथ-साथ व्यंग्यात्मकता का भी संचार हुआ है।

 

खिचड़ी भाषा का यह आस्वाद ही उनकी काव्य-भाषा की एक मात्र पहचान नहीं है। जहाँ नागार्जुन अपने भीतर के गहन राग-बोध को, प्रकृति के मनोरम रूपों को कविता में चित्रित करते हैं, वहाँ भाषा की एकदम भिन्‍न छवियाँ दृष्टिगत होती हैं। ऐसी कविताओं में उनकी भाषा संस्कृत की क्लासिक परम्परा का अनुसरण करती है। बादल को घिरते देखा है कविता में संस्कृत की दीर्घ सामासिक शब्दावली का सौन्दर्य प्रकट होता है। संस्कृत भाषा का ज्ञान होने के कारण नागार्जुन ने कालिदास, भास, भवभूति आदि कवियों के काव्य का अध्ययन, मनन और अनुवाद किया है। उनका यह काव्यगत संस्कार भाषा में भी स्वतः आ गया है। संस्कृत शब्दावली का प्रसंगानुकूल प्रयोग नागार्जुन की काव्यभाषा को अभिजात्य स्वरूप प्रदान करता है। उनकी कविता कालिदास  की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं–

 

शिवजी की तीसरी आँख से

निकली हुई महाज्वाला में

घृतमिश्रित सूखी समिधा-सम

कामदेव जब भस्म हो गया

रति का क्रन्दन सुन आँसू से

तुमने ही तो दृग धोए थे

 

लेकिन इस प्रकार के बोझिल शब्दों से अधिक उनके यहाँ ठेठ, गँवई बोलियों के शब्दों का प्रयोग हुआ है। कला की अलंकृति से दूर, आवरणहीन, सपाटबयानी ही उनकी कविता में प्रमुख है। इनकी भाषा बोलचाल की भाषा है। इसमें लोकजीवन की शब्दावली बहुत है। इससे कविता अधिक बोधगम्य व जीवन्त प्रतीत होती है। बिना लाग लपेट, सीधी, बेधड़क अभिव्यक्ति करते हुए नागार्जुन लिखते हैं–

 

अपन तो भई, थेथर हैं

निर्लज्ज, बेहया कठजीव

मरेंगे नहीं जल्दी।

 

उनकी भाषा में पूर्वी हिन्दी की बोलियों के शब्द बहुत हैं, जैसे- डग, सुगबुगाई अगहनी, परमान, हिरनौटा, कपार, बुकनी, टिकुली, पनिहा, टहलुआ, नाहक, शऊर, अबेर-सबेर, थूथन, जइयों, भेड़िया-धसान, भागमन्त, टटका, पतइयों, बाँचे, बिस्तुइया आदि।

 

नागार्जुन की भाषा की मौलिकता, और उर्वर कल्पना शक्ति, प्रचलित शब्दों और मुहावरों में नया अर्थ भर देती है। वे शब्दों का प्रयोग करते हैं और नए शब्द भी रचते हैं। विशेषण गढ़ने में वे सिद्धहस्त हैं, जैसे– कुबेर के छौने, चितकबरी चाँदनी, नख-रंजनी, वेतन-सर्वस्व-बुद्धिजीवी, सिन्दूर तिलकित भाल, शब्द-खोर, शब्द-शिकारी, ग्रन्थकीट, धन-पिशाच, युगनन्दिनी विज्ञापन सुन्दरी, निरन्‍न-जनता, छिनाल पुरवइया, घुटनाटेकू समझौता, दक्षिणपन्थी सोसलिस्ट, सिगारपायी कुर्सीधर प्राचार्य आदि। इसी प्रकार शब्द युग्मों का प्रयोग भी उनकी भाषा में व्यंग्य की धार पैदा करता है, जैसे– झूमता-झामता, सांसद-फांसद, कथित-कथन, आदरणीय-फादरणीय, रचना-फचना इत्यादि।

 

गालियों के प्रयोग में भी नागार्जुन किसी से पीछे नहीं हैं। नई-नई गालियाँ ईजाद करने में वे सबसे आगे हैं। शोषणकारी, साम्राज्यवादी शक्तियों को पोसने वाले व्यक्तियों के प्रति ये गालियाँ मुक्तकण्ठ से निकाली गई हैं, जैसे– ए हृदयहीन ए नरपिशाच ए कुत्ते, हिटलर की मौसी, मुसोलिनी की नानी, महामहिम महामहो उल्लू के पट्ठे, लक्ष्मीवाहन, ढूढीराज निर्वीय वृथाजन्मा धनपतिगण  आदि।

 

इस प्रकार संस्कृत की अभिजात्य शब्दावली से लेकर देशी गालियाँ नागार्जुन की शब्द निधि में सहज ही शामिल हैं। रवानगी व पारदर्शिता उनकी भाषा की विशेषता है। सायास शब्द चयन की अपेक्षा प्रवाहमयता है। लय को बनाए रखने के लिए जो शब्द सटीक-सार्थक लगता है, उसका वे बेझिझक प्रयोग करते हैं।

 

5. मुहावरे-लोकोक्तियों का प्रयोग

 

नागार्जुन तीव्र, सघन और पारदर्शी संवेदना के कवि हैं। भाषा का कोई पक्ष उनसे छूटा नहीं। व्यंग्य की तीक्ष्णता के लिए उन्होंने लोक प्रचलित मुहावरे व लोकोक्ति का भरपूर प्रयोग किया है। ‘मुँह फेर लेना’, ‘वाह वाही में पड़ना’, ‘लकवा मारना’, ‘आँय-बाँय बकना’, ‘दुधारू गाय’, ‘लोहा मानना’, ‘पसीना-पसीना होना’, ‘खिसक जाना’, ‘दुबक जाना’, ‘प्राण पखेरू उड़ना’, ‘डींगें मारना’, ‘बाँग देना’, ‘धज्जी-धज्जी उड़ाना’, ‘मनसूबा बाँधना’, ‘चुल्लू भर पानी में डूबना’, ‘छतफाड़ ठहाका’, ‘टके की मुस्कान’, ‘न तीन में न तेरह में’, ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’, ‘गुठलियों के दाम आएँगें’, ‘मगरों के आँसू’, ‘लोकतन्त्र के मुँह पर ताला’, ‘चूर-चूर घमण्ड’, ‘राजा थे बन गए रंक’, ‘रत्ती भर भी मोह न था’, ‘खाज मिटाना’, कोढ़ी कुबेर’, ‘पाप का भरा घड़ा’, ‘साँप को दूध पिलाना’, ‘मुँह की खाना’, ‘सोशलिस्ट बाबू भैया की कलई खुलती जाती है अब’ जैसे ढेरों मुहावरे और लोकोक्तियाँ उनकी भाषा में लाक्षणिकता का चमत्कार और व्यंग्य की फटकार उत्पन्‍न करते हैं।

 

6. प्रतीक

 

प्रतीक भाषा में वे अर्थ का विस्तार करते हैं। इससे उनकी गहनता व सर्वग्राह्यता में वृद्धि होती है। नागार्जुन के यहाँ प्रतीकों का भरपूर प्रयोग है। पूँजीवादी, साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, तानाशाही, शोषणकारी, दमनकारी शक्तियों के प्रतीक रूप में उन्होंने हिटलर, मुसोलिनी, आइजनहावर, जॉनसन आदि को प्रस्तुत किया है। इन ऐतिहासिक व्यक्तियों को वे उपनिवेशवादी क्रूर शोषक सत्ता के प्रतीक मानते हैं–

 

मोटी सलाखों वाली काली दीवार के उस पार

शिष्ट-सम्भ्रान्त आइ. ए.एस ऑफिसर नहीं है

वहाँ तो हिटलर का नाती है,

तोजो का पोता है

मुसोलिनी का भांजा है

 

दूसरी ओर स्तालिन, लेनिन, बुल्गालिन, ख्रुश्‍चेव, चाउ-इन-लाई, मार्टिन लूथर किंग आदि नामों को नागार्जुन की कविता में क्रान्तिकारी नई जनशक्ति के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया है।

 

अपनी भू के पापहरण-हित

पैदा होंगे उस धरती पर

दस लिंकन हाँ दस केनेडी

दस केनेडी, हाँ दस लूथर

 

पौराणिक पात्रों को आधार बनाकर भी उन्होंने अनेक रचनाएँ लिखीं हैं। पौराणिक प्रतीकों की युगानुरूप प्रस्तुति भाषा को नया स्वरूप प्रदान करती है–

 

ऋजुयति विनयाव आज्ञापालक पुत्र को

करके निर्वासित सुदीर्घ अवधि के लिए

दशरथ ने चुकाई कीमत वचनपूर्ति की

 

7. बिम्ब-योजना

 

बिम्बधर्मिता नागार्जुन की भाषा की प्रमुख विशेषता है, जिसके कारण उनकी भाषा अधिक संवेद्य हो गई है। ऐन्द्रीयता बिम्ब का मूलभूत लक्षण है। इससे परिवेश, संवेदना और अनुभव; मूर्त्त और जीवन्त हो उठते हैं। नागार्जुन की भाषा में बिम्बधर्मिता ने रंग-रूप, ध्वनि, स्वाद, स्पर्श, गन्ध सबको साकार और संवेद्य बना दिया है–

 

बहुत दिनों के बाद

अब की मैंने जी भर तालम खाना खाया

गन्ने चूसे जी भर

                        –बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद

अबकी मैंने जी-भर भोगे

गन्ध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब एक साथ इस भू पर

                                                                        बहुत दिनों के बाद          

 

इस कविता में गाँव के पूरे परिवेश का सौन्दर्य एक साथ बिम्बित है– पकी सुनहरी फसलों की मुस्कान, धान कूटती किशोरियों की कोकिल कण्ठी तान, मौलसिरी के ताजे फूलों की गन्ध, गन्‍ने और तालमखाने का स्वाद और गाँव की पगडण्डी की चन्दन- सी धूल का स्पर्श।

 

प्रकृति पर लिखी नागार्जुन की कविताओं में दृश्य और श्रव्य- बिम्ब वातावरण को सजीव बना देते हैं। दृश्य-श्रव्य बिम्ब का एक उदाहरण द्रष्टव्य है–

 

धिन धिन धा धमक धमक

मेघ बजे

दामिनी यह गई दमक

मेघ बजे

 

इनमें मेघों की धमक और दामिनी की चमक के बिम्ब ने वर्षा के वातावरण को साकार कर दिया है। बादल को घिरते देखा है  कविता में भी पर्वत-प्रदेश के मेघमय वातावरण के सुन्दर बिम्ब हैं–

 

तुंग हिमालय के कन्धों पर

छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,

उनके श्यामल-नील सलिल में

समतल देशों से आ-आकर

पावस की ऊमस से आकुल

तिक्त-मधुर विस-तन्तु खोजते

हंसों को तिरते देखा है

बादल को घिरते देखा है।

 

8. अलंकार-सौन्दर्य

 

नागार्जुन की कविता में अलंकारों का अभाव नहीं है। उन्होंने इसका प्रयोग कहीं सायास नहीं किया है। सौन्दर्य की छवि भरने में ये सहज ही उपस्थित हो गए हैं। अनुप्रास, यमक, पुनरुक्ति आदि शब्दालंकार भाषा में संगीतात्मकता उत्पन्‍न करते हैं। उपमा, रूपक, प्रतीप, उत्प्रेक्षा, अत्युक्ति आदि अर्थालंकार भाषा की अर्थ क्षमता का विस्तार करते हैं। नागार्जुन ने अलंकारों का प्रयोग चमत्कार के लिए नहीं, वरन् सौन्दर्य की सहज अभिव्यक्ति के लिए किया है–

 

तुम्हारी यह दन्तुरित मुसकान

मृतक में भी डाल देगी जान

धूलि-धूसर तुम्हारे ए गात…

छोड़कर तालाब मेरी झोपड़ी में खिल रहे जलजात

परस पाकर तुम्हारा ही प्राण

पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण

 

इसमें शिशु की दंतुरित मुस्कान और उसके प्रति अपने स्‍नेह की सहज अभिव्यक्ति है। यहाँ भाषा अत्यन्त सुन्दर रूप में अलंकृत है। इन पंक्तियों में ‘मुस्कान’ और ‘जान’ में, ‘जात’ और ‘जलजात’ में, ‘प्राण’ और ‘पाषाण’ में, अन्त्यानुप्रास है। ‘धूलि-धूसर’, ‘परस पाकर’ में छेकानुप्रास अलंकार है। ‘छोड़कर तालाब मेरी झोपड़ी में खिल रहे जलजात’ में रूपक अलंकार है तथा ‘पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण’ पंक्ति में उत्प्रेक्षा अलंकार का सौन्दर्य द्रष्टव्य है। इसी प्रकार कालिदास  कविता की घृत-मिश्रित सूखी समिधा सम/ कामदेव जब भस्म हो गया  पंक्ति में कामदेव की तुलना घृत मिश्रित हवन सामग्री से की गई है। वह शिवजी के क्रोध की ज्वाला में उसी प्रकार भस्म हो गया था, जैसे सूखी हुई घी मिश्रित समिधा यज्ञकुण्ड में स्वाहा हो जाती है। यहाँ उपमा अलंकार का सारगर्भित प्रयोग है।

 

‘नीलम की घाटी में उजला श्‍वेत कमल कानन है बाँदा’ पंक्ति में बाँदा की खूबसूरती और धवलता को अभिव्यक्त करने के लिए नागार्जुन  उसे ‘श्‍वेत कमल कानन’ कहते हैं। यह रूपक अलंकार का उदाहरण है।

 

रागात्मकता से परिपूर्ण कविताओं में नागार्जुन ने पारम्परिक, सांस्कृतिक उपमानों का प्रयोग किया है। वहीं क्षोभ और आक्रोश प्रकट करने के लिए उनकी भाषा नए उपमान गढ़ती है, जैसे –

 

बताऊँ

कैसे लगते हैं

दरिद्र देश के धनिक?

कोढ़ी-कुढब तन पर मणिमय आभूषण!!

बताऊँ?

कैसी लगती है–

पंचवर्षीय योजना?

हिडिम्बा की हिचकी, सुरसा की जम्हा!!

 

नागार्जुन की एक अन्य प्रसिद्ध कविता है- खुरदरे पैर। इसमें रिक्शा चालक के फटी बिवाई वाले खुरदरे पैरों की तुलना वे विष्णु के अवतार वामन के पैरों से करते हैं–

 

दे रहे थे गति

रबड़-विहीन ठूँठ पैडलों को

चला रहे थे

एक नहीं दो नहीं तीन-तीन चक्र

कर रहे थे मात त्रिविक्रम वामन के

पुराने पैरों को

नाप रहे थे धरती का अनहद फासला

घण्टों के हिसाब से ढोए जा रहे थे

 

वामन अवतार में विष्णु ने तीन पैरों से पूरी धरती को मापा था। इस मिथक की तुलना नागार्जुन तीन पहियों की रिक्शा को खींचते पैरों से करते हैं। ये पैर आजीविका कमाने के लिए लगातार धरती को नापते रहते हैं। कवि की दृष्टि में इन पैरों की महत्ता वामन के पैरों से अधिक है।

 

‘मानवीकरण’ अलंकार का प्रयोग भी नागार्जुन की भाषा में खूब हुआ है। विशेष रूप से प्रकृति के सौन्दर्य-चित्रण में। इनकी भाषा प्रकृति को मानव-सी क्रियाएँ करती चित्रित करती हैं–

 

अभी-अभी

खिलखिलाकर हँस पड़ेगा कचनार

गुदगुदा उठेगा उसकी अगवानी में

अमलतास की टहनियों का पोर-पोर

कहीं-कहीं अमूर्त्त विषय-वस्तु को भी उन्होंने मानवीकरण द्वारा मूर्त्त स्वरूप प्रदान किया है-

सत्य को लकवा मार गया है

वह लम्बे काठ की तरह

पड़ा रहता है सारा दिन

सारी रात

वह फटी-फटी आँखों से

टुकुर-टुकुर ताकता

रहता है सारा दिन सारी रात

कोई भी सामने से आए-जाए

सत्य की सूनी निगाह में जरा भी फर्क नहीं पड़ता

 

इस कविता में ‘सत्य’ जैसे शाश्‍वत जीवन मूल्य की आधुनिक परिवेश में स्थिति लकवा मारे हुए व्यक्ति -सी निष्क्रिय हो गई है। इस तथ्य का उद्घाटन नागार्जुन ने अत्यन्त सशक्त भाषा में किया है।

 

9. व्यंग्य

 

व्यंग्य नागार्जुन की भाषा का प्राण है। इसकी धार ने सभी को पराजित किया है। नामवर सिंह कहते हैं, “यह निर्विवाद है कि कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ।” आजादी के बाद देश की राजनीतिक व्यवस्था का जो स्वरूप विकसित हुआ और आम जनता ने जिस तरह स्वयं को छला हुआ महसूस किया, उस स्थिति की पीड़ा ने नागार्जुन के मन पर गहरा घाव किया है। वे स्वार्थी, शोषक, आततायी, छद्म राजनेताओं को बेनकाब करते हैं।

 

कांग्रेसजन तो तेणे कहिए, जे पीर आपणी जाणे रे

पर दुख में अपना सुख साधे, दयाभाव न आने रे

तीन भुवन में ठगे सभी को, शरम न राखे केणी रे

टोपी-कुर्ता-धोती खद्दर, धन धन जनन तेणी रे

 

आजादी मिलते ही कांग्रेस ने अपना स्वार्थ साधन शुरू कर दिया। नागार्जुन ने इसकी पोल गाँधीजी के प्रिय भजन की पैरोडी बनाकर खोला है।

एक अन्य कविता मन्त्र  में उन्होंने वैदिक मन्त्रों की शैली में समकालीन राजनीति के विद्रूप को उजागर किया है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं–

ओं, शब्द ही ब्रह्म हैं

ओं शब्द और शब्द और शब्द और शब्द

ओं प्रणव, ओं नाद, ओं मुद्राएँ

ओं वक्तव्य, ओं उद्गार, ओं घोषणाएँ

ओं भाषण…..

ओं प्रवचन……

ओं नारे और नारे और नारे और नारे…

 

‘शब्द ही ब्रह्म है’ इस वैदिक अवधारणा को उन्होंने वर्तमान सन्दर्भ में पार्टियों और नेताओं की घोषणाओं, चुनावी वादों, उद्घोषणाओं, नारों, आश्‍वासनों आदि का अर्थ देकर उसकी व्याख्या ही बदल दी। नागार्जुन की भाषा का खरा व्यंग्य उन्हें कबीर, भारतेन्दु और निराला की परम्परा से जोड़ता है। प्रेत का बयान, शासन की बन्दूक, मास्टर, आए दिन बहार के, कर दो वमन, नाहक ही डर गई, हजूर, आओ रानी हम ढोएँगे पालकी, तीनों बन्दर बापू के   आदि उनकी कविताएँ व्यंग्य द्वारा वर्तमान राजनीति के चेहरे को बेनकाब करती हैं।

 

10. नाटकीयता

 

नागार्जुन की कविता एक संवाद है। उनके लिए कविता केवल आत्माभिव्यक्ति नहीं है। वह लोकमानस की पीड़ा का हाहाकार भी है। लोक की दुरवस्था के लिए वे राजनीति की स्वार्थपरक नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं। उनकी अधिकांश कविताएँ नेताओं को सम्बोधित हैं। एक तरफ गोर्की, गाँधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, लेनिन, निराला को सम्बोधित कविताओं में उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करते है, तो दूसरी ओर जवाहरलाल, इन्दिरा गाँधी …आदि को सम्बोधित कविताओं में व्यंग्य-मिश्रित प्रश्‍नाकुलता है–

 

क्या हुआ आपको?

क्या हुआ आपको?

सत्ता की मस्ती में

भूल गई बाप को?

 मास्टर  कविता की भाषा में भी नाटकीयता का पुट विद्यमान है। संवाद, द्वन्द्व, संघर्ष पूरी कविता की भाषा को नाटकीयता प्रदान करते हैं–

अरे, अभी उस रोज वहाँ पर सरेआम जक्शन बाजार में

शिक्षामन्त्री स्वयं पधारे चमचम करती सजी कार में

ताने थे बन्दूक सिपाही, खड़ी रही जीपें कतार में

चटा गए धीरज का इमरित, सुना गए बातें उधार में

x          x         x

सुनकर बात गुरुजी की फिर हाँ हाँबोले लड़के सारे

हम जब तक सुसता भी लेंगे आगे बढ़कर कुँआ किनारे

यह कविता भाषा के माध्यम से रंगमंच रच रही है। दृश्य, संघर्ष, संवाद का ताना-बाना आदि शिक्षा-व्यवस्था के छल-छद्म के नाटक को प्रस्तुत करता है। प्रेत का बयान, युद्ध का अन्त, विज्ञापन सुन्दरी, गुलाबी चूड़ियाँ, नथुने फुला फुला के,  नेवला  आदि कविताओं में नाटकीयता है।

 

11. छन्द, लय, तुकात्मकता

 

नागार्जुन ने छन्दबद्ध और मुक्तछन्द दोनों में अपनी कविताएँ रचीं। उनका छन्दों की शास्‍त्रीयता से बँधे रहने का न तो कोई पूर्वाग्रह है और न ही मुक्त छन्द से उन्हें कोई परहेज है। उन्हें भाव के अनुरूप जहाँ जैसी जरूरत महसूस हुई, वहाँ उन्होंने वैसा ही प्रयोग किया। नागार्जुन के काव्य में हमें दोहा, बरवै, हरिगीतिका, मन्दाक्रान्ता, कवित्त, सवैया आदि पारम्परिक छन्दों का लयात्मक विधान देखने को मिलता है। उनकी आवेग-प्रधान कविताओं में मुक्तछन्द की प्रवाहमयता लक्षित होती है। नागार्जुन द्वारा रचित खण्डकाव्य भस्मांकुर  ‘बरवै’ छन्द में लिखा गया है।

सुनी बन्धु की बात। रहा गम्भीर

दृष्टि सचेतन। मुद्रित थे पर होंठ

लगता था कुसुमाकर परम प्रशान्त

पत्‍नी के प्रतिवादों से उद्विग्न

मदन समर्थन चाह रहा था और

चाह रहा था। माधव से कुछ शब्द

चाह रहा था, ले वह इसका पक्ष

कबीर और रहीम के प्रिय ‘दोहा’ छन्द का प्रयोग भी नागार्जुन ने अत्यन्त कौशल से किया है–

जली ठूँठ पर बैठकर, गई कोकिला कूक

बाल न बाँका कर सकी, शासन की बन्दूक

परम्परागत शास्‍त्रीय छन्दों के समानान्तर लय प्रधान मुक्त छन्दों में भी उनकी भाषा का स्वरूप निखरा है–

गोर्की मखीम!

श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!!

धुल चुकी है तुम्हारी आशीष

एशियाई माहौल में

दहक उठा है तभी तो इस तरह वियतनाम

अग्रज, तुम्हारी सौंवी बरसगाँठ पर

करता है भारतीय जनकवि तुमको प्रणाम।

अतुकान्त, छन्दमुक्त कविता के कई उदाहरण नागार्जुन के यहाँ हैं। साथ ही कविताओं में तुकान्तता की भी भरमार है-

मैं सुनता हूँ पुण्यात्मा बापू की कराह

मैं सुनता हूँ गोड्से गोत्रा की वाह वाह

मैं सुनता हूँ आहत जन-मन की घुटी आह

मैं देख रहा अपनी लापरवाही अथाह

मैं देख रहा भारत माता की गात्र दाह

मैं देख रहा देशी प्रभु की कानी निगाह

 

इस कविता में छह पंक्तियों का तुक मिला हुआ है। कराह, वाह, आह, अथाह, दाह, निगाह। इसी प्रकार अगली छह पंक्यितों में- ठहरा है, बहरा है, पहरा है, लहरा है, फहरा है, गहरा है– में तुकान्तता है।

 

तुकान्तता का आधिक्य जहाँ एक ओर भाषा में लयात्मकता और संगीतात्मक प्रभाव की रचना करता है। उनकी अनेक कविताओं में वाक्यांश या वाक्यों की आवृत्ति देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए–

 

चन्दू मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा

चन्दू मैंने सपना देखा, भभुआ से पटना हूँ लौटा

×          ×         ×         ×         ×         ×

चन्दू मैंने सपना देखा, इम्तिहान में बैठे हो तुम

चन्दू मैंने सपना देखा, पुलिस-भान में बैठे हो तुम

इसी प्रकार  लाइए मैं चरण चूमूँ आपके  कविता की हर दूसरी पंक्ति में यह वाक्य टेक की तरह दुहराया गया है-

देवि अब तो कटे बन्धन पाप के

लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

जिद निभाई, डग बढ़ाए नाप के

लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

 

वाक्यों या वाक्यांशों का यह आवर्तन केवल छन्द को गति देने या यात्राएँ पूरी करने के लिए नहीं है। इस दोहराव से नागार्जुन स्थिति की दयनीयता, विवशता, छटपटाहट या विद्रूपता को गहरे तक उतारते हैं। ऐसी कविताओं की गूँज देर तक पाठक के मन में रहती है।

 

12. निष्कर्ष

 

नागार्जुन की काव्य-भाषा विविध आयामी है। वस्तुतः बहुभाषाविद् होने और जीवनजगत के विस्तृत वितान पर फैले हुए अनुभवों के कारण उनकी भाषा की ‘रेंज’ बहुत विस्तृत है। उमसें “अमल धवल गिरि के शिखरों सी रम्यता है तो फटी बिवाइयों वाले पैरों सा खुरदरापन भी है। आधुनिक कविता की काव्य-भाषा में जितने तरह के प्रयोग हो सकते थे, वे सारे प्रयोग नागार्जुन ने किए हैं। ये प्रयोग कृत्रिम नहीं हैं बल्कि लोक और परम्परा से अर्जित हैं। उनकी भाषा में न तो परम्परा का बोझ है और न ही आधुनिकता की जटिलता। उनकी भाषा में सम्प्रेषणीयता और प्रवाह है, जो सामान्य जन को आकर्षित और प्रभावित करती है। लोक की चेतना में गहरे पैठ, राजनीति के छल-छद्मों की सूक्ष्म पहचान, प्रगतिशील विचारधारा की प्रतिबद्धता, निडर मानस की बेखौफ फितरत सभी को अभिव्यक्त करने में नागार्जुन की भाषा समर्थ है। नागार्जुन की काव्य-भाषा की यह क्षमता ही उन्हें जनकवि बनाती है।

 

you can view video on नागार्जुन की काव्य-भाषा

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. नागार्जुन रचनावली- (भाग-1 और 2) सम्पादक- शोभाकान्त, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  2. कविता की जमीन और जमीन की कविता- नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. नागार्जुन का काव्यः एक पड़ताल- श्री भगवान तिवारी, भारत प्रकाशन, लखनऊ
  4. कविता का प्रति संसार- निर्मला जैन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. नागार्जुन और प्रगतिशील साहित्य- सम्पादक- माधव सोनटक्के, भारती गोरे, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली,
  6. नागार्जुन का रचना संसार- विजय बहादुर सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

 

 वेब लिंक्स

  1. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8
  3. http://www.scsatyarthi.com/poetry-of-baba-nagarjun-2/
  4. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8
  5. https://www.youtube.com/watch?v=EgEjpUcuhm8&list=PLTSbiKXoyhy_7dhebmfIcLPbW6p5SiAmX&index=1