3 नागार्जुन का काव्य -कथ्य
प्रो. महेन्द्रपाल शर्मा
पाठ का प्रारूप
1.पाठ का उद्देश्य
2.प्रस्तावना
3.नागार्जुन का काव्य-कथ्य
3.1नागार्जुन की प्रमुख काव्य-कृतियाँ
3.2नागार्जुन की प्रगतिशील कविताएँ
3.3राजनीतिक व्यंग्य
3.4नागार्जुन की सौन्दर्य चेतना
3.5काव्य-कथ्य की अन्य विशेषताएँ
4..निष्कर्ष
पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- नागार्जुन के काव्य की विशेषताएँ समझ पाएँगे।
- नागार्जुन के काव्य की पृष्ठभूमि जान पाएँगे।
- नागार्जुन की प्रमुख काव्य-कृतियों का परिचय प्राप्त कर पाएँगे।
प्रस्तावना
नागार्जुन प्रगतिशील कवि हैं। शोषित, पीड़ित समाज के प्रति उनकी गहरी संवेदना है। तमाम संघर्षों में वे उनके साथ रहते हैं। यही संघर्ष उनकी रचनात्मकता में भी है, जिसके बल पर वे युवकों, बौद्धिकों और सर्वहारा वर्ग के बीच खडे़ होते हैं। वे छद्मवेशी सत्ता को बेनकाब करने वाले कवि हैं। आजादी के बाद सरकार के झूठे दावों पर नागार्जुन ने तीखा प्रहार किया है। अपनी कविता में नागार्जुन ने जीवन के हर पक्ष को देखा है। उन्होंने विविध विषयों पर काव्य रचना की है। जन-साधारण के संघर्ष, पूँजीवादी और सामन्ती सभ्यता की क्रूर प्रकृति आदि उनकी कविता के केन्द्र में है।
2. नागार्जुन का काव्य-कथ्य
नागार्जुन की कविता में काव्य-वस्तु और काव्य रूप की अपार विविधता है। उनके काव्य-वस्तु का एक स्रोत जन-जीवन का समकालीन इतिहास है तो दूसरा स्रोत भारतीय समाज और संस्कृति का युगीन इतिहास भी है। वे अपने समय और समाज की राजनीति को देखते हैं, जिसका विस्तृत क्षेत्र देश की राजनीति से लेकर वियतनाम, रूस, चीन तक है। इसके अलावा वे भारतीय साहित्य की परम्परा की महत्त्वपूर्ण स्मृतियों को भी अपनी कविता में नए ढंग से रचते हैं। उदाहरण के लिए– कालिदास, विद्यापति और रवीन्द्रनाथ टैगोर पर लिखी गई उनकी कविताएँ देखी जा सकती हैं। कविता में वे पूँजीपतियों और जमीन्दारों के अन्याय के खिलाफ लड़ते हैं; किसान, मजदूर व छात्रों के संघर्ष को आगे बढ़ाते हैं। वे देश की दुर्व्यवस्था पर भी लिखते हैं। सामाजिक जड़ता, शोषण, दमन और राजनीति पर व्यंग्य करते हैं। उन्होंने राजनीतिक कविताओं के साथ-साथ प्रेम और प्रकृति पर भी महत्त्वपूर्ण कविताएँ लिखी हैं । वे प्रकृति से मनुष्य के अन्तरंग और स्थायी सम्बन्ध की स्मृति जगाना चाहते हैं। जीवन का कोई पक्ष कविताओं में उनसे छूटा नहीं है।
नागार्जुन की प्रमुख काव्य-कृतियाँ
नागार्जुन की पहली हिन्दी कविता सन् 1935 में लाहौर के विश्वबन्धु साप्ताहिक में प्रकाशित हुई थी। उनके प्रकाशित काव्य-संग्रह हैं- सतरंगे पंखों वाली (सन् 1951), युगधारा (सन् 1952), प्यासी पथराई आँखें (सन् 1962), तालाब की मछलियाँ (सन् 1975), तुमने कहा था (सन् 1980), खिचड़ी विप्लव देखा हमने (सन् 1981), हजार-हजार बांहों वाली (सन् 1981), पुरानी जूतियों का कोरस (सन् 1983), रत्नगर्भा (सन् 1984), ऐसे भी हम क्या ऐसे भी तुम क्या (सन् 1985), ऐसा क्या कह दिया मैंने (सन् 1986) और इस गुब्बारे की छाया में (सन् 1989)। इसके अतिरिक्त दो प्रबन्ध काव्य भस्मांकुर (सन् 1971) और भूमिजा (सन् 1993) भी हैं।
नागार्जुन की प्रगतिशील कविताएँ
नागार्जुन जनकवि हैं। उन्होंने देश को विकृत करने वाली हर साजिश का पर्दाफाश किया है। श्रमजीवी का जितना मार्मिक और प्रामाणिक अंकन उन्होंने किया, वह अन्यत्र दुर्लभ है। साधारण जन के व्याकुल अन्तर को देखकर वे स्वयं आहत होते हैं। साधारण जन के अधिकारों के लिए वे हर संग्राम में उनके साथ हैं। चाहे तेलंगाना का कृषक आन्दोलन हो, चाहे बिहार का दलित दहन-काण्ड, सब उन्हें समान रूप से उद्वेलित करते हैं। देश की आजादी के बाद सन् 1948 में उन्होंने लिखा –
झूठ मूठ के सुजला-सुफला के गीत न अब हम गाएँगे,
दाल-भात-तरकारी जब तक नहीं पेट भर पाएँगे।
जमीन्दार है बदहवास हमने उनको ललकारा है,
जिसका जाँगर उसकी धरती यही हमारा नारा है।
नागार्जुन की चेतना एक ओर शोषित, उत्पीड़ित जनता के श्रम और क्रान्तिकारी क्षमता का चित्रण करती है, तो दूसरी ओर जनता विरोधी शक्तियों पर लगातार आक्रमण भी करती है।
जमीन्दार हैं, साहूकार हैं, बनिया हैं, व्यापारी हैं,
अन्दर-अन्दर विकट कसाई बाहर खद्दरधारी हैं।
सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मन्दिर।
एक बार जो फिसले अगुआ फिसल रहे हैं फिर फिर फिर।
सत्ताधारी लोग जनता के प्रति किए गए अपने सारे वादे भूल गए। विषमता अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच गई। जनता का सारा धन पूँजीपतियों, धनकुबेरों के पेट में जा रहा था। इस कटु यथार्थ का चित्रण नागार्जुन बेधड़क करते हैं। उनकी प्लीज एक्सक्यूज मी जैसी कविताएँ धनपतियों के वैभव संसार पर व्यंग्य का कुठाराघात करती हैं –
अन्दर प्रीतिभोज के टेबुल, बाहर घिरी कनातें
धन-पिशाच मुसकाते हैं घुल करते हैं बातें
रसगुल्ले पर कैनेडी हैं, बर्फी पर ख्रुश्चेव
चाऊ पर है बरफ मलाई, नेहरू पर है सेब
चाट रहे हैं कुछ प्राणी बाहर जूठन के दोने
चहक रहे हैं अन्दर ये लक्ष्मी के पुत्र सलोने।
नागार्जुन मध्यवर्ग और अभिजात वर्ग को चुनौती भरे स्वर में सम्बोधित करते हुए कहते हैं –
कुली मजदूर हैं
बोझा ढोते हैं
खींचते हैं ठेला
धूल धुँआ भाप से पड़ता है साबका
थके माँदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर।
कहीं वे कबीर के स्वर में स्वर मिला कर अन्नपचीसी के दोहे कहते हैं, तो कहीं शासन की बन्दूक को ललकारते हैं। भोजपुर कविता में वे समस्त युवा और क्रान्तिकारी शक्तियों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं –
यहाँ अहिंसा की समाधि है
यहाँ कब्र है पार्लियामेन्ट की
भगत सिंह ने नया-नया अवतार लिया है
अरे यहीं पर
अरे यहीं पर।
देश में दलबन्दी की राजनीति से वे अत्यन्त क्षुब्ध हैं। इस कटु यथार्थ को वे सीधे सामने रखते हैं। नागार्जुन की प्रगतिशील चेतना देश के भटकाव को तुरन्त पढ़ लेती है –
भटक गया है देश दलों के बीहड़ वन में।
कदम-कदम पर संशय ही उगता है मन में।
नेता-क्या है निज-निज गुट के महापात्र हैं।
राष्ट्र कहाँ बस शेष-शेष राज्य मात्र हैं।
नागार्जुन की कविता का नायक कोई धीरोदात्त, धीरप्रशान्त नायक नहीं है। वह अभिजन भी नहीं है। उसके पैरों में बिवाइयाँ फटी हैं और वह रिक्शा चला रहा है। देखना और देखना भइया शीर्षक कविता में चतुर्भुज अवतार-मल्लाहों के नंग-धड़ंग छोकरे हैं। नागार्जुन के यहाँ इसी जन के बीच से क्रान्तिकारी कार्यकर्त्ता निकल पड़ते हैं, तो कवि पूछते हैं –
कोर्ट की दीवार पर
चुपचाप जो पोस्टर अभी चिपका गया
वह कौन था ? जो चाय की दुकान के उस बरण्डे पर
फेंक कर नोटिस अभी गायब हुआ
वह कौन था ?
व्यापारी, हाकिम व नेताओं के दोगले चरित्र उनसे छुपे हुए नहीं हैं–
व्यापारी हाकिम नेता
तीनों ही खूब मिले हैं
अन्दर नीचे काई कीचड़
ऊपर कमल खिले हैं।
झूठी आजादी से जनता को कोई लाभ न हुआ। शोषण में कमी न हुई। धनिक अधिक धनी हुए। गरीब अधिक गरीब। ऐसे में नागार्जुन सर्वहारा वर्ग की आवाज बनकर संघर्ष को आगे बढ़ाते हैं। उनकी बताऊँ शीर्षक कविता समाज के अन्तर्विरोध पर करारा प्रहार है–
बताऊँ?
कैसे लगते हैं –
दरिद्र देश के धनिक
कोढ़ी कुढब तन पर मणिमय आभूषण
यह देश की स्थिति पर करारा व्यंग्य है। धनी वर्ग को फटकार है। मजलूमों के पक्ष में उठी आवाज है। कवि को पीठ पीछे कहने की आदत नहीं है। सामने चाहे कोई हो, वे बगैर लाग-लपेट के उसे ललकारते हैं, खिल्ली उड़ाते हैं।
राजनीतिक व्यंग्य
नागार्जुन स्वयं को जनता के प्रति उत्तरदायी मानते हैं, किसी राजनीतिक दल के प्रति नहीं। वे चुनाव में नेहरू की कांग्रेस का खाका खींचते हैं। आजादी के पश्चात देश पर शासन कर रही सरकार पर वे खुली चोट करते हैं। आपातकाल के दौरान इन्दिरा गाँधी की तानाशाही का वे खुलकर नाटकीय अन्दाज में विरोध करते हैं। वे आपातकाल का प्रत्यक्ष चित्रण करते हैं–
कार्तूसों की माला होगी होगा दृश्य अनूप
हथगोला पिस्तौल-स्टेनगन सज्जित चण्डी रूप
अबकी अष्टभुजा का होगा खाकी वाला भेष
श्लोकों में गूँजेंगे अबकी फौजी अध्यादेश।
झण्डा ऊँचा रहे हमारा, दुःशासन ने कंकड़ मारा, महाकुम्भ में छेद हो गया, आओ रानी हम ढोएँगे पालकी, लौटे हैं टिकट मार के आदि कविताएँ राजनीति पर धारदार व्यंग्य हैं। रामराज्य कविता में कवि ने गाँधीजी के राम-राज्य की कल्पना और उनके अनुयायियों के बीच की असंगति को प्रभावशाली ढंग से उभारा है –
राम राज्य में अबकी रावण नंगा होकर नाचा है।
सूरत शक्ल वही है भैया, बदला केवल ढ़ाँचा है
लाज शरम रह गई न बाकी, गाँधीजी के चेलों में
फूल नहीं, लाठियाँ बरसती रामराज्य की जेलों में
भैया लन्दन ही पसन्द है आजादी की सीता को
नेहरूजी अब उमर गुजारेंगे अंग्रेजी खेलों में।
कवि देखतेहैंकि आज सत्य बोलना पाप है और झूठ बोलना ही पुण्य है। वे इस चापलूसी मनोवृत्ति का व्यंग्यात्मक चित्र इस तरह प्रस्तुत करते हैं–
सपने में भी सच न बोलना, वरना पकड़े जाओगे
भैया लखनऊ दिल्ली पहुँचो मेवा-मिसरी पाओगे
माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का
हम मरभुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का।
नागार्जुन के समक्ष राजनीति, और राजनीतिज्ञों की असलियत खुल चुकी है। सभी राजनीतिक दलों की आपसी साँठगाँठ है, जिसे उन्होंने अमलेन्दु एम.एल.ए. कविता में बखूबी उभारा है। सामान्य जनता के लिए राजनीति की कथनी-करनी में भेद है–
राजनीति क्या है? बिष्ठा है, मल है।
साहित्य क्या है? गंगा का जल है।
दिखाने के दाँत और, खाने के और …
आप तो अमलेन्दु जी ठहरे खैर समाज के सिरमौर।
जातिवाद डण्डा है, राजनीति मथनी।
करनी अलग है, अलग है कथनी।।
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने जनहित के लिए कई योजनाएँ शुरू की थीं, जिसमें पंचवर्षीय योजना प्रमुख है। ये सभी योजनाएँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं। सभी योजनाएँ कागज तक ही सीमित रह गईं। इन योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नागार्जुन तीखा व्यंग्य करते हैं–
पाँच वर्ष की बनी योजना एक दो नहीं तीन
कागज के फूलों ने ले ली सबकी खुश्बू छीन
बलिहारी कागजी खुशी की क्यों न बजाए बीन
कटे बाँध से बालू बोले हम भी हैं स्वाधीन
अश्वमेध का घोड़ा चित है चारो नाल
कौन कहेगा आजादी के बीते तेरह साल।
नागार्जुन के व्यंग्य सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्रों में फैली अव्यवस्था, अराजकता का करुण परिणाम है। उनकी कविता का व्यंग्य जनता की अवस्था में सुधार लाने की कोशिश है, व्याकुलता है। जीवन के संघर्षों से नागार्जुन ने जनता के मनोभावों, आकांक्षाओं को समझा है। इस कारण जनता के साथ होनेवाली धोखाधड़ी उन्हें असह्य है। गरीब जनता के पैसों के अपव्यय का उन्होंने विरोध किया है। रानी एलिजाबेथ के आने पर धन की बर्बादी पर उनकी कविता की निम्नलिखित पंक्तियों में करुणा मिश्रित व्यंग्य बखूबी से उभर आया है –
बेबस बेसुध, सूखे रुखड़े
हम ठहरे तिनके के टुकड़े
टहनी हो तुम भारी भरकम डाल की
खोज खबर तो लो अपने भक्तों के खास महाल की।
ले कपूर की लपट
आरती तो सोने के थाल की
आओ रानी हम ढोएँगे पालकी।
नागार्जुन के व्यंग्य उनकी विद्रोही मनोवृत्ति के परिचायक हैं। उन्होंने स्वतन्त्रता के पहले और बाद के दोनों समय को नजदीक से देखा था। राजनीतिक व्यवस्था किस प्रकार कुव्यवस्था में परिवर्तित हो रही थी, यह देखकर वे उदासीन नहीं रह सकते थे। वे कविताओं में किसी भी दल या नेता के अवसरवादी चरित्र पर व्यंग्य करते हैं। चाहे वह नेता दक्षिणपन्थी हो या वामपन्थी। वे पक्ष और विपक्ष के दोहरे चरित्र को भली-भाँति समझ चुके थे। इसी कारण वे परिवर्तन का आह्वान करते हैं–
बदला सत्य, अहिंसा बदली लाठी, गोली,डण्डे हैं
कानूनों की सड़ी लाश पर प्रजातन्त्र के झण्डे हैं।
निश्चय राज्य बदलना होगा शासक नेताशाही का
पदलोलुपता दलबन्दी का भ्रष्टाचार तबाही का।
नागार्जुन की सौन्दर्य चेतना
नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं जिन्होंने हिन्दी और मैथिली में सूक्ष्म संवेदनाओं की अभिव्यक्ति करने वाले सहज गीत रचे हैं। मैथिली गीतों में उनकी शब्द क्रीड़ा, ध्वनि चेतना और संगीत संवेदना अद्भुत है। नागार्जुन का अनुभव संसार विशाल है, जिसमें खाँटी यथार्थ की उर्वर मिट्टी भी है। प्रकृति की रूप-राशि तथा किसानों के श्रम से रचित ग्राम-प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य उनके द्वारा खींचे गए अनुपम चित्र हिन्दी कविता को समृद्ध करते हैं। वाल्मीकि, कालिदास, अश्वघोष आदि की परम्परा से नदी, पहाड़, बादल, ऋतु परिवर्तन, फसलों, वनस्पतियों के अभिनव ताजे-टटके रूप; नागार्जुन की सौन्दर्यानुभूति से होकर गुजरते हैं। खासकर बादल को घिरते देखा है, कोयल आज बोली है पहली बार, हिम कुसुमों का चंचरीक, घनकुरंग, मेघ बजे, फूले कदम्ब, अब के इस मौसम में, लाली बढ़ी सौ गुनी आदि कविताओं में प्रकृति के जीवन संवेदन और स्पन्दन के नए-नए चित्र काव्य को आकर्षक बनाते हैं। वे प्रकृति में भी श्रम के सौन्दर्य और महत्ता को देखते हैं–
छेड़ो मत इनको
रचने दो मधु छत्र
जमा हो ढेर ढेर-सा शहद
भरेंगे मधु भाण्ड बनजारे के।
यहाँ श्रमशील मधुमक्खियों के भाव भीने रूप का चित्रण पुराने प्रकार के प्रकृति प्रेम से अलग किस्म का है। नागार्जुन की सौन्दर्य चेतना का निर्माण लोक भूमि पर हुआ है। सिन्दूर तिलकित भाल कविता में एक प्रवासी की मानसिक वेदना का चित्रण है। वे अपनी पत्नी के सिन्दूर तिलकित भाल का स्मरण करते हैं। साथ ही मिथिलांचल के अन्न, जल, प्राकृतिक वातावरण की स्मृति भी उन्हें उद्वेलित करती है-
घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल
याद आता है तुम्हारा सिन्दूर तिलकित भाल
याद आती लीचियाँ वे आम
याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग
याद आते धान
याद आते कमल, कुमुदिनि और ताल मखान
याद आते शस्य श्यामल जनपदों के
नाम गुण अनुसार ही रखे गए वे नाम
याद आते वेणुवन के नीलिमा के निलय, अति अभिराम।
उन्हें अपना तरऊनी गाँव याद आता है। मिथिला का वह भू-भाग याद आता है, जहाँ लीचियाँ हैं, आम हैं, धान हैं, कमल, कुमुदनी, तालमखाना है। ऋतुसन्धि कविता में कवि को अपने गाँव की बरसात याद आती है। बागमती की धारा और पोखरों के कुमुद-पद्म मखाने याद आते हैं। एक मित्र को पत्र शीर्षक कविता में कवि याद करते हैं कि बागमती-कमला और गण्डक-कोसी के अंचलों में मकई-महुआ, साम-कावन, धान-गम्हड़ी आदि की बुआई हो रही होगी। बहुत दिनों बाद शीर्षक कविता में कवि ने लिखा है–
बहुत दिनों बाद
अबकी मैं जी-भर छू पाया
अपनी गँवई पगडण्डी की चन्दनवर्णी धूल
बहुत दिनों बाद
अबकी मैंने जी भर ताल-मखाना खाया
गन्ने चूसे जी भर
बहुत दिनों बाद।
नागार्जुन की कविताओं में प्रकृति की सजीव एवं सुरम्य झाँकियाँ मिलती हैं। विभिन्न ऋतुओं का वर्णन उनकी कविता में मिलता है। जहाँ शिशिर ऋतु की तुलना उन्होंने ‘विषकन्या’ से की है वहीं हेमन्त ऋतु के बादलों की तुलना बोनस पाए मजदूर से। नवम्बर के महीने में हेमन्ती बादलों का यह चित्र देखिए –
ओह, कैसे मूड में इधर को
निकल आए हैं हेमन्ती बादल
लगता है, कल ही इन्हें
तगड़ी बोनस मिली है
चार दिनों के रईस हेमन्ती बादल
मौज के अपने सहज मूड में है
काली सप्तमी का चाँद, शरद पूर्णिमा, झुक आए कजरारे मेघ, बसंत की अगवानी, नीम की टहनियाँ, ओ गंगा मैया, कोयल आज बोली है आदि कविताएँ प्रकृति का सुन्दर चित्र उपस्थित करती हैं।
काव्य-कथ्य की अन्य विशेषताएँ
नागार्जुन की कविता का क्षेत्र विस्तृत है। वे समाज में बर्बरता के खिलाफ हैं। उन्होंने दलितों के दहन-काण्ड के विरोध में हरिजन गाथा शीर्षक से कविता लिखी । नागार्जुन ने लक्ष्य किया कि तथाकथित सभ्य समाज से विवेक गायब है। इस लोकतन्त्र में चुनाव तो होते हैं, पर इसमें पैसा और बाहुबल भारी पड़ता जा रहा है। किसी भी प्रकार जीत हासिल कर लेने की लालसा सभी मूल्यों को रौंदने लगी है। यह लोकतन्त्र की विफलता है। नागार्जुन इससे चिन्तित हैं। मानव की बर्बरता के सम्बन्ध में वे लिखते हैं–
हम फिर से
पुरानी गुफाओं के अन्दर
पहुँच गए हैं–
हमने अपने नाखून पंजे
फिर से पैने कर लिए हैं
विगत युगों के
जानलेवा जीवन-संग्राम
फिर से वापस
ले आए हैं हम।
यह धरती कवि को अत्यन्त प्यारी है–
खेत हमारे भूमि हमारी सारा देश हमारा है,
इसीलिए तो हमको इसका चप्पा-चप्पा प्यारा है।
पड़ोसी देशों के आक्रमण पर वे क्षुब्ध हैं। इसके खिलाफ वे आवाज उठाते हैं–
इकतरफा शान्ति का हो चुका अवसान
आज नहीं वही है जो कल का हिन्दुस्तान
करेगा बर्दाश्त कौन अब ये अपमान
झाड़ देंगे अयूब का हिटलरी गुमान
खबरदार दुश्मन, दुश्मन सावधान।
नागार्जुन की कविताओं का विषय क्षेत्र विस्तृत है। उनकी दृष्टि सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक सभी घटनाओं पर रही है। राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय सभी महत्त्वपूर्ण घटनाओं को उन्होंने अपने काव्य का विषय बनाया। अपने देश के साथ-साथ कोरिया, नेपाल, अफ्रीका, वियतनाम आदि देशों पर लिखी उनकी कविताएँ इसका प्रमाण है। सुलग रहा वियतनाम कविता साम्राज्यवादी नीति की पोल खोलती है-
एशिया के सीने पर अमरीका के बूट
दुनिया के चालबाज फूँकेंगे चुरुट
इधर है दिल्ली, उधर होनोलुल्लू
समझ लिया प्रशान्त को पानी का चुल्लू।
अफ्रीका के वीर लुलुम्बा के बलिदान को नमन कर नागार्जुन ने उसे काली धरती का अक्षय कोष कहा। कवि ने त्रिमूर्ति कविता में फिजो और दलाई लामा के भागने की ओर संकेत करके सजीव व्यंग्य किया है।
नागार्जुन के काव्य की एक अन्य विशेषता है, देश के साहित्यिक जगत के महापुरुषों, विशिष्ट व्यक्तियों पर लिखी उनकी कविताएँ। रवीन्द्रनाथ टैगोर, महाप्राण निराला, लेनिन, त्रिलोचन, राजकमल चौधरी आदि को उन्होंने कविता के द्वारा श्रद्धांजलि दी है। महात्मा गाँधी की मृत्यु के बाद देश की करोड़ो जनता के साथ उन्होंने अपनी आकुल भावनाओं को वाणी दी है–
पर न आज रोके रुक पाती
आँखें मेरी भर-भर आतीं
रोता हूँ, लिखता जाता हूँ
कवि को बेकाबू पाता हूँ
कैसे इस कोरे कागज पर पूरी पीर उतार सकूँगा।
ऐसा नहीं है कि नागार्जुन ने अपने वैयक्तिक दुखों के बारे में कुछ नहीं लिखा। अपने जीवन-संघर्ष के बारे में उन्होंने बड़े दर्द से लिखा–
मैं दरिद्र हूँ
पुश्त पुश्त की यह दरिद्रता
कटहल के छिलके के जैसी जीभ से
मेरा लहू चाटती आई।
अपनी वैयक्तिकता को आधार बनाकर कवि अपनी निजी अनुभूति को आम जीवन के संघर्ष से जोड़ देता है। मनुष्य हूँ कविता में कवि पहले मानव हैं, सारे रिश्ते-नाते, धर्म इसके बाद आते हैं–
कवि हूँ, सच है। इसीलिए क्या। आतप वर्षा हिम भी
मुझसे दब जाएँगे? इसीलिए क्या वात पित्त कफ
शान्त रहेंगे? नहीं, नहीं सो कैसे होगा! कवि हूँ
पीछे, पहले तो मैं मानव ही हूँ।
नागार्जुन ने अपनी कविताओं में मानवता का परिचय कुशलता से दिया है। वे अपनी कविताओं में सत्य लाने के लिए प्रतिबद्ध रहे। उन्होंने देश के शोषितों, दलितों, के प्रति अपनी कविता को समर्पित किया–
मैं तुम्हारे लिए ही जिऊँगा मरूँगा
मैं तुम्हारे इर्द-गिर्द रहना चाहूँगा
मैं तुम्हारे ही प्रति अपनी वफादारी निभाऊँगा
निष्कर्ष
आधुनिक हिन्दी कविता में नागार्जुन की अलग स्थिति है। उनकी कविता प्रचलित काव्य-प्रतिमानों को चुनौती देती है। उनकी कविता लोक चेतना सम्पन्न आधुनिक दृष्टि की पहचान बनाने वाली कविता है। वे कबीर, भारतेन्दु, निराला की परम्परा को अपनी प्रखर आवाज में आगे बढ़ाते हैं। उनकी कविता में एक ओर जनचेतना का प्रखर स्वर है तो दूसरी ओर रोमानी भाव-बोध। कला की तमाम युक्तियों, नुस्खों, कसौटियों को ध्वस्त करती नागार्जुन की कविता का अपना कलात्मक अनुशासन भी है।
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पुस्तकें
- समकालीन हिन्दी कविता, संपादक-परमानन्द श्रीवास्तव, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
- कविता के नए प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- मेरे साक्षात्कार, नागार्जुन, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
- युगधारा, नागार्जुन, यात्री प्रकाशन, दिल्ली
- सतरंगे पंखों वाली, नागार्जुन, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
- नई पौध, नागार्जुन, यात्री प्रकाशन,नई दिल्ली.
- भूमिजा, नागार्जुन, संपादक- सोमदेव/शोभाकांत, राधाकृष्ण प्रकाशन,नई दिल्ली
- नागार्जुन रचना संचयन, चयन और संपादन-राजेश जोशी,साहित्य अकादमी,नई दिल्ली
- प्रतिनिधि कविताएँ: नागार्जुन, संपादक-नामवर सिंह, राजकमल पेपरबैक्स
- समाजवादी यथार्थवादी और नागार्जुन का काव्य, प्रेमलता दुआ, यात्री प्रकाशन, दिल्ली
- जनकवि नागार्जुन, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार,नई दिल्ली
- आपातकालीन हिन्दी कविता और नागार्जुन, जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8
- http://lekhakmanch.com/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%9A%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A4%BE.html
- https://www.youtube.com/watch?v=EgEjpUcuhm8&list=PLTSbiKXoyhy_7dhebmfIcLPbW6p5SiAmX