36 धूमिल की कविता की भाषा और शिल्प
डॉ.मंदाकिनी मीणा
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- कवि परिचय
- धूमिल की कविता की भाषा
-
- 4.1. शब्द प्रयोग
- 4.2. भदेस शब्दावली
- 4.3. ग्रामीण शब्दावली
5. धूमिल की कविता का शिल्प
- 5.1 व्यंग्यात्मकता
- 5.2 सपाटबयानी
- 5.3 बिम्बात्मकता
- 5.4 प्रतीकात्मकता
6. निष्कर्ष
1. पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- धूमिल की कवता की भाषागत विशेषताओं से आप परिचित हो सकेंगे।
- जान सकेंगे धूमिल जैसे मार्मिक व्यंग्यकार की तीक्ष्णता।
- धूमिल की शिल्पगत विशेषताओं को रेखांकित कर सकेंगे।
- प्रस्तावना
काव्य भाषा कवि की जीवन-दृष्टि एवं यथार्थ-चेतना को अभिव्यक्त करती है। समाज में घटित हर घटना रचनाकार के विचारों, संवेदनाओं, जीवन-मूल्यों को प्रभावित करती है। कवि की यथार्थ चेतना उसके विचारों को प्रभावित करती है और विचार उसकी भाषा को गढ़ते हैं। सामाजिक बदलाव के हर मोड़ पर यथार्थ के अनुरूप भाषा का रूप बदलता रहता है। सातवें दशक की युवा पीढ़ी ने जिस मोहभंग की यातना सही और आजादी के बीस वर्ष पश्चात् भी स्थितियों को बदतर होते देखा, उसकी भाषा स्वाभाविक रूप से बदल गई। समकालीन कविता के कवियों में भाषा का यह परिवर्तन सबसे अधिक धूमिल में दिखाई देता है। धूमिल ने माना कि कविता के लिए सही शब्दों की तलाश आवश्यक है, जो कि यथार्थ को पूर्णता में अभिव्यक्त कर सके। इस सन्दर्भ में उनका पहला कदम कविता को ‘भाषाहीन’ करना है। अपने इस प्रयास में उन्होंने अनेक तरीके अपनाए, जिसमें गद्यात्मक भाषा, सपाटबयानी और अश्लीलता को छूते हुए, कविता के प्रांगण से च्युत शब्दों का प्रयोग शामिल है। बिम्बों-प्रतीकों का निषेध न करते हुए भी उन्हें स्वाभाविक, ठोस, सुबोध और ग्राह्य बनाने का प्रयास किया गया। यही बातें उनकी भाषा को मौलिक व विशिष्ट बनाती हैं।
- धूमिल की कविता की भाषा
डॉ. ब्रह्मदेव मिश्र उनकी भाषा के सम्बन्ध में कहते हैं- ‘‘धूमिल का हर स्थिति में आह्लादित कवि-मन अपनी संघर्ष साधना में भाषा की सहज उपलब्धि में सफल हुआ है। अनुभव ताप में जलते हुए आह्लाद प्राप्ति की प्रक्रिया में जो जितना सहज हो पाता है, उसकी भाषा भी उसी अनुपात में सहजता प्राप्त करती है। धूमिल ने अनुभव के उत्ताप को जिस सहजता से झेला और मन के आह्लाद को सुरक्षित रखा, साठोत्तरी कविता में वह एक अलग मिसाल है। इस साधना ने ही उनकी भाषा को वह सहजता दी कि वह अपने युग का मानक बन गई हैं। उनकी कविता में आया प्रत्येक शब्द जीवन्त अनुभवों से जुड़ा होने के कारण अर्थ-प्रक्रिया में सहचर शब्दों का सक्रिय सहायक बनता जाता है और काव्य-संवेदना अपने प्रवाह में कहीं बाधित नहीं होती। भाषा और संवेदना का यह परस्परावलम्बन कवि एवं उसकी कविता की शक्ति का द्योतक होता है। धूमिल की भाषा एवं संवेदना की अभिन्नता समसामयिक हिन्दी कविता की सार्थक पहचान बनकर उभरी है।” (धूमिल और उसका काव्य संघर्ष, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 86)
धूमिल की कविता आम आदमी के अनुभव, चिन्तन, मनन, एवं मानवीय संवेदना और सोच को सक्रिय बनाने वाली कविता है, जिसमें परिवेशगत अन्धेरे पर गहराई से सोचा गया है। इसीलिए उसे अभिव्यक्ति के संकट का सामना नहीं करना पड़ता। समकालीन कवियों के भाषा प्रयोग में जितनी सफलता धूमिल को मिली है उतनी अन्य किसी को नहीं। डॉ. हुकुमचन्द राजपाल उन्हें ‘शब्दों का जादूगर’ कवि मानते हैं। डॉ. गणेश तुलसीराम आष्टेकर ने उनके शब्दों को ‘पाठकों के कलेजे में चाकू-छूरे से उतरने वाले माना है और कहा है कि कामायनी की भाषा मीठी-मीठी लोरियाँ सुनाकर सुलाने वाली लगी थी तो धूमिल की कविताओं की भाषा ऊँघते हुए व्यक्ति के दोनों कन्धों को पकड़कर झकझोरती-सी लगी है। शब्दों के सटीक और सार्थक प्रयोग में धूमिल की जागरूकता, सतर्कता अद्भुत है। उनकी कविताओं में कोई शब्द फालतू नहीं आया है। किसी भी एकाध शब्द को हटाकर होने वाले कविता के अर्थान्तर की चर्चा होती रहती है। परन्तु धूमिल की कविता के सन्दर्भ में अर्थान्तर की बात करना इसलिए बेकार है कि उसमें एकाध शब्द हटाने पर कविता ही निरर्थक हो जाती है। (कटघरे का कवि धूमिल, पंचशील प्रकाशन, जयपुर, पृ. 187)
3.1 शब्द प्रयोग
धूमिल शब्दों का सही, सार्थक एवं सटीक प्रयोग करते हैं। धूमिल एक शब्द को जितनी बार प्रयोग में लाते हैं, उतनी ही बार उनकी अर्थ व्यंजना भिन्न-भिन्न होती है और वह शब्द अपना कोशीय अर्थ बनाए रखकर भी समय, परिस्थिति व प्रसंग के अनुरूप अपना नया अर्थ विकसित कर लेता है। यह धूमिल के शब्द प्रयोग की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। उनके काव्य में प्रयुक्त नेता जनतन्त्र, चुनाव, जनता आदि शब्दों को ही लें तो ये शब्द अपने कोशीय अर्थ की सीमा से परे वर्तमान समय की राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था की सार्थक पहचान कराते नजर आते हैं। जैसे जनतन्त्र शब्द उनकी कई कविताओं में कहीं कोशगत तो कहीं सन्दर्भगत अर्थ में प्रयुक्त हुआ है-“आज की भूख से भूख के अगले पड़ाव तक लिख दें – यह रास्ता जनतन्त्र को जाता हैं।” उस वक्त जनतन्त्र किधर था, कि कविता में पुनरावृत्ति तथा कर्फ्यू में शान्त ठण्डी सड़क पर सैनिक दस्तों में जूतों से जनतन्त्र की सफ़ेद और मार्मिक ध्वनि का निकलना।”(सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, पृ. 34) कहीं पर धूमिल ऐसे जनतन्त्र की पहचान करते नजर आते हैं जिसमें जिन्दा रहने के लिए घोड़े और घास को एक जैसी छूट है।
“मैं हूँ” कविता में प्रयुक्त ‘कवि’ शब्द कवि की आन्तरिक पीड़ा को व्यक्त करता, तो ‘कबूतर’ शब्द भारत और चीन के मध्य राजनीतिक सम्बन्धों को प्रगाढ़ करने वाले पंचशील के ऐतिहासिक सन्दर्भ को प्रस्तुत करता है। मोहभंग व उदासीनता की स्थिति में कवि पुनः आशावाद से लैस होकर देश-प्रेम : मेंरे लिए कविता में अपने घायल कबूतरों को फिर से उड़ना सिखाता है-
मैंने भी नक्शे के ऊपर
लाल कलम से जगह घेर दी
और उसी सीमा के भीतर
अपने घायल कबूतरों को फिर से उड़ना सिखा रहा हूँ।
इस प्रकार घास, जंगल, अन्धा, मौसम, सूरज, लोहा, बसन्त, जूता, मकान, धर्मशाला आदि शब्दों को देखें तो वे प्रत्येक सन्दर्भ में एक नए पक्ष को प्रस्तुत करते नजर आते हैं।
शब्दों को टटोलने, महसूसने का उनका अलग नज़रिया है, जो कि उन्हें समकालीन कवियों में पृथक् स्थान पर प्रतिष्ठित करता है। संसद से सड़क तक काव्य संग्रह की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- ‘‘अधजले शब्दों के ढेर में तुम/क्या तलाश रहे हो? यह भविष्य है यानी कि शब्दों की दुनिया में आने की सहमति। भाषा को हीकते हुए, कविता में अब कोई शब्द छोटा नहीं पड़ रहा है, शहर का व्याकरण ठीक करने के लिए/एक हल्ला गाड़ी गश्त कर रही है… भाषा के चौथे पहर में जुआ तोड़कर भागते हुए शब्दों को/ कविता में नाँघ सकूँ। एक परिचित चेहरा/किसी तत्सम शब्द की तरह अपरिचित हो गया है। क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच/अपनी भूख को जिन्दा रखना, शब्दों के जंगल में।’’ (संसद से सड़क तक, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, पृ.44)
धूमिल का शब्द चयन ऐसा है कि पाठक स्वयं उसकी ओर खिंचा चला जाता है। धूमिल अपनी कविता में जिस विषय का प्रतिपादन करते हैं, उसके समस्त परिवेश को इस तरह साकार करते हैं कि उसमें उनका कथ्य, कवि और पाठक तीनों एकाकार हो जाते हैं। उदाहरण के लिए यदि मोचीराम कविता के ही शब्द चयन को देखें जैसे- राँपी, पतियाते, नाँघकर, बिसाती, नवैयत, चकतियों, इशे बाँधो, उशे काटो, हियाँ ठठोक्को, वहाँ पीट्टो, घिश्शा दो, अइशा चमकाओ, जुत्ते को ऐना बनाओ, सुखतल्ले, सीझने, मोची, चमड़े, जाति मूठ, रोजी कमाते आदि शब्दों का चयन कवि ने इतनी तल्लीनता के साथ किया है कि मोची, कवि और पाठक तीनों को एक साथ मोचीराम के परिवेश में लाकर खड़ा कर दिया है। यही उनकी भाषा की खूबी है। धूमिल ने शब्दों को चुन-चुनकर, फिर उन्हें अन्य शब्दों के साथ जोड़कर जिस भाषा की सृष्टि की है वह काबिले तारीफ़ है।
3.2. भदेस शब्दावली
धूमिल ने भाषा के बँधे बँधाए खाँके को तोड़कर अपनी भाषा गढ़ी और ठेठ ग्रामीण शब्दों का और ‘भदेस’ शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है। भाषा में भदेसपन को एक तार्किक परिणति तक पहुँचाने में उन्हें सफलता मिली और भाषा की शक्ति के रूप में यह मान्य हुआ। अतः धूमिल के शब्दों के काव्यगत प्रयोग को समूची काव्य-संरचना की संगति में देखना ही समीचीन है। धूमिल ने बैलमुत्ती इबारत, औरत का धर्मशाला होना, गाभिन औरत, बच्चे की जूजी आदि अश्लील से लगने वाले प्रयोगों को जिस सन्दर्भ से जोड़कर काव्य का अंग बनाया है, उसमें ए प्रयोग अनावश्यक ध्यान नहीं खींचते। बल्कि सम्पूर्ण कविता की बुनावट में खपकर ए अर्थ-प्रक्रिया में अपना गहरा योगदान देते हैं। यथा–
लगातार बारिश में भींगते हुए
उसने जाना कि हर लड़की
तीसरे गर्भपात के बाद
धर्मशाला हो जाती है और कविता
हर तीसरे पाठ के बाद (संसद से सड़क तक पृ.9)
लगातार बारिश में भींगते हुए अर्थात अनुभवों का नग्न साक्षात्कार करते हुए, कविता और औरत की यह समानता एक ऐसी उपलब्धि बनकर आई है, जिसके माध्यम से सच्चाई को तीव्रता और गहराई से अभिव्यक्त करने में मदद मिली है। औरत के इर्द गिर्द बनी धारणा कि ‘वह देवी है’ के खोखेलेपन को दिखाना भी इसके पीछे निहित है। दरअसल काव्य में औरत को लेकर बनी रोमानियत तथा जीवन की ठोस सच्चाई के धरातल पर उसकी भूमिका के विरोधाभास को सही दृष्टि से देखे बिना, औरत को लेकर धूमिल पर सीमित नज़रिए का आरोप लगाना तर्कसंगत न होगा।
धूमिल ने राजकमल चौधरी की तरह यौन-क्रियाओं से सम्बन्धित शब्दावली का प्रयोग पूरी नग्नता के साथ किया है। जैसे औरत एक देह है, नेकर का नाड़ा, गाभिन, योनि, स्तन, वीर्यवाहिनी नालियाँ, नितम्ब, भूखे गर्भाशय जैसे असंख्य शब्दों का प्रयोग उन्होंने किया है। उनकी कविता राजकमल चौधरी के लिए का एक उदाहरण देखें–
‘‘मासिक धर्म रूकते ही
सुहागिन औरतें
सोहर की पंक्तियों का रस
चमड़े की निर्जनता को गीला करने के लिए
नए सिरे से सोखने लगती हैं
जाँघों में बढ़ती हुई लालच से
भविष्य के रंगी सपनों को
जोखने लगती हैं।’’ (संसद से सड़क तक, पृ.31)
डॉ. गणेश तुलसीराम आष्टेकर धूमिल द्वारा नारी और यौन समस्याओं की इस तरह की अभिव्यक्ति को अवास्तविक और अधूरा मानते हुए भी कहते है कि हैं ‘जो भी हो स्व. धूमिल की नारी सम्बन्धी धारणाएँ और यौन जीवन की समस्याएँ अधूरी और अवास्तविक दिखाई देती हैं। परन्तु मैं पुनः कहना चाहूँगा कि यह उसकी समझ में खोट होने का या समझ की अपरिपक्वता का प्रमाण या लक्षण नहीं है। समकालीन जीवन की अव्यवस्था की वास्तविकता को पाठकों के गले उतारने के लिए जहाँ उसने राजनीतिक और सामाजिक जीवन के विद्रूप पक्ष को चुना, वहीं यौन-जीवन के कुरूप को भी चुना।’’ (कटघरे का कवि, धूमिल, पृ.145) ‘डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने सुदामा पाण्डे का प्रजातन्त्र की भूमिका में धूमिल के इस प्रकार के शब्द चयन के उचित या अनुचित के सवाल पर कहा कि– ‘शायद धूमिल के गाँव वाले मन की बात सीधी तौर पर कहने के लिए लाचारी से इतना आक्रामक होना पड़ा है। मैं उनकी भाषा का न पक्षधर हूँ, न स्त्री के शरीर का इस तरह भाषिक उपयोग करने को काव्योचित मानता हूँ, परन्तु जो कवि फरेब से, हर एक तरह के फरेब से एकदम अफना गया हो, वह शहरी नारी-गरिमा के फरेब को भी दूर फेंक देता है, शायद उसका उत्साह विस्थापित है, पर उसका ईमान अपनी जगह पर है और यही बात हमारे लिए अधिक महत्त्वपूर्ण होनी चाहिए। धूमिल के काव्य में काम नहीं है, कामुकता के प्रति गहरी वितृष्णा है।’ निश्चय ही धूमिल में कामुकता के प्रति गहरी वितृष्णा है। वे औरत को मात्र शरीर के रूप में वहीं चित्रित करते हैं, जहाँ वह स्वयं शरीर तक सीमित हो गई है। काम-कुण्ठाग्रस्त स्त्री और पुरुष दोनों ही धूमिल के लिए समान रूप से व्यंग्य के पात्र रहे हैं।
डॉ. गुरचरण सिंह भी धूमिल की स्पष्टवादिता को महत्त्व देते हैं और अपनी पुस्तक कविता का समकालीन, के.एल.पचौरी प्रकाशन, दिल्ली (पृ.185) में लिखते हैं कि- ‘लोक-लज्जा और परम्परागत मर्यादा और नैतिक शब्दावली के बन्धनों को तोड़कर धूमिल ने जो जिस रूप में देखा उसे अभिव्यक्ति दी है– अश्लीलता और अशिष्टता समाज में व्याप्त है, परन्तु संस्कार के अनुशासन के कारण उसे व्यक्त करने से हम डरते हैं। धूमिल में यह भय नहीं है।.. धूमिल की कविताओं में व्यक्त नग्नता हमें चौकाती है– क्योंकि हमने आवरणों में रहना सीखा है। हम धूमिल की तरह दुःसाहसी नहीं हैं। धूमिल की यही स्पष्टवादिता हमें आकर्षित भी करती है और परेशान भी। शब्दों का प्रयोग कहीं हमें उधेड़कर रख देता है तो कहीं कष्ट भी देता है और सोचने की दृष्टि भी।
3.3. ग्रामीण शब्दावली
धूमिल ने अपनी कविता में उन सभी शब्दों का प्रयोग किया है, जिन्हें पहले कविता के योग्य नहीं समझा गया। उन्होंने देशी-विदेशी, गाँव के, शहर के सभी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है। वे इस सत्य को स्वीकारते हैं कि ग्रामीण शब्दों में सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता होती है। डॉ. शुकदेव सिंह ने धूमिल की कविताएँ पुस्तक के प्रचारण वक्तव्य में धूमिल की ग्रामीण भाषा-सम्पदा को एक किसानी संस्कार के कवि की नजर से देखा है। उनके अनुसार– ‘‘वे सही अर्थों में एक अल्प शिक्षित गाँव में पूरी तरह धँसे हुए, किसान जीवन की कठोरताओं व्यंग्यों और मुहावरों को अपनी ग्रामीण भाषा-सम्पदा में जीने वाले सशक्त किसान कवि थे। किसान, अर्थात जिसके आस-पास पड़ोसी, दोस्त, सम्बन्धी और आत्मीय काका, भइया, चाचा, दादा, बुढ़ऊ, भौजी और बुआ बनकर रहते हैं। चाहे वे बनिहार, कुम्हार, तेली, लुहार, हलवाहै हों। यहाँ मेहनत से टकराकर शब्द बजते हैं और पसीने से नहाकर मुहावरे कविता की तरह तीखे और हथियार की तरह चुटीले हो जाते हैं। कबीर के बाद धूमिल शायद दूसरे आदमी थे जिन्होंने अपने आस-पास की श्रमिक शब्दावली को कविता की ओर बढ़ाकर कविता तक पहुँचा दिया था।’’ (धूमिल की कविताएँ, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी)
धूमिल के काव्य संग्रह कल सुनना मुझे के प्रारम्भ में अपने संस्मरण (पृ.14) के एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए राजशेखर कहते हैं कि जब वे धूमिल के गाँव खेवली गए, तो नदी पार करते समय एक मल्लाह से सुदामा पाण्डे के घर का पता पूछ बैठे, तो मल्लाह अपने आँसू रोककर कहता है कि– ‘‘भइया भगवान हम इन गरीबन पर गजब गिरा देहलन। अब हम गरीबन क खेवनहार इहवाँ कोई नाँही रह गइल।… गरीबन क देवता मर गयल भइया, अब गाँव में हमइन की खातिर लड़ने वाला कोई नाँही हउवे।’
उस गाँव के लिए सीझता रहा, भुनता रहा। अगर धूमिल की कविता से, उसकी भाषा से गाँव को अलग कर दिया जाए तो वह आत्माहीन शरीर मात्र रह जाएगीं। विद्यानिवास मिश्र धूमिल के काव्य संग्रह कल सुनना मुझे की भूमिका में लिखते हैं कि- ‘‘धूमिल भी जिन्दगी की गहरी ममता के लिए ही इतने निर्मम है कि कभी-कभी लोग इन्हें गलत समझते हैं, उन्हें नारेबाज समझते हैं, झपताल बजाने वाले नक्शेबाज कवि समझते हैं, पर जो भी उनकी निर्ममता, उनकी भाषा के तीखेपन, उनके आवेश के अभिप्राय तक जाने की कोशिश करेगा, उसे दिखेगा कि धूमिल की कविता में बिल्कुल अबोध, देहाती माँ का छलकता हुआ वात्सल्य है और सारी चीजें उस वात्सल्य के लिए कवच मात्र हैं।’’
वास्तव में धूमिल के कवि की शक्ति का मूल उत्स ‘गँवई अनुभव’ और किसानी संस्कार हैं। वे दुनिया को किसान की नजर से देखते हैं, इसीलिए उनकी कविता के शब्द, बिम्ब मुहावरे तथा परिभाषाएँ ग्रामीण जीवन से उपजे हैं। अपनी जमीन से जुड़ना, अपनी जड़ें पहचानना, धूमिल के काव्यानुभव की वास्तव में पहली शर्त नजर आती है।
‘मूत और गोबर की सारी गन्ध उठाए
हवा बैल के सूजे कन्धे से टकराए
खाल उतारी हुई भेड़ सी
पसरी छाया नीम पेड़ की।
डॉय डॉय करते डॉगर की सींगों में
आकाश फंसा है’। (गाँव, सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र)
डॉ. विद्यानिवास मिश्र का कहना कि ‘गरीबी के चित्र गैर गरीब लोगों ने खींचे हैं, गरीबी में झिलने वाले लोगों ने खींचे हैं, पर गरीब की भाषिक सम्पन्नता में जीने वाले शायद अकेले धूमिल हैं, जिनकी ‘करछुल बटलोही से बतियाती है’ (क्योंकि बात-बात है, वहाँ और कुछ नहीं) ‘चिमटा तवे से मचलता है’ जिसके घर ‘चूल्हा (मन का ताप) कुछ नहीं बोलता, चुपचाप जलता-रहता है, वहाँ पहले ‘थाली खाती है’, तब आदमी ‘रोटी खाता है।’ इस प्रकार धूमिल ने ग्रामीण जीवन के अभावपूर्ण विपन्नता से ग्रस्त जीवन का सशक्त वर्णन किया है। चूल्हे का कोयला, पतीली की दाल, बाल्टी, चौका, पाला लगी मटर, सोहर, मूत गोबर, डाँय-डाँय करते डाँगर, चकत्ती टाँकना, नाधना, पोंकना, हुचर-हुचर, लिट्टी आदि ग्रामीण शब्दावली और देहाती जिन्दगी के ठेठ चित्रों के लिए उनकी ‘गाँव’, मोचीराम, प्रौढ़ शिक्षा, नक्सलबाड़ी, किस्सा जनतन्त्र, कवि 1970 आदि कविताओं को देखा जा सकता है। यथा–
‘कविता में जाने से पहले
मैं आपसे ही पूछता हूँ
जब इससे न चोली बन सकती है
न चोंगा,
तब अपौ कहौ –
इस ससुरी कविता को
जंगल से जनता तक
ढोने से क्या होगा?’ (कवि 1970, संसद से सड़क तक, पृ.63)
धूमिल ने गाँव की जनता के चरित्र को बड़ी गहराई से पहचाना है। वे जानते हैं कि अपनी जरूरतों के आगे जनता असहाय है। भूख ने उसे जानवर बना दिया है, संशय ने उसे आग्रहों से भर दिया है। वह भेड़ है जो दूसरों की ठण्ड के लिए अपनी पीठ पर ऊन की फसल ढो रही है। उसमें बेचौकानी है गुस्सा है, मगर वह सामने नहीं आती। जानते हुए भी असली हत्यारे का पता नहीं बताती। उसे जाम कर देने का पूरा इन्तजाम किया जा चुका है। भाषाहीन को छला जाता रहा है, और उसके विरूद्ध भाषा के जानकारों ने षडयंत्र रचा था। यथा–
कल मैंने कहा था कि वह दुनिया
जिस ढँकने के लिए तुम नंगे हो रहे थे
उसी दिन उधर गई थी
जिस दिन हर भाषा
तुम्हारी अँगूठा-निशान की स्याही में डूब कर
मर गई थी
तुम अपढ़ थे
गंवार थे
सीधे इतने कि बस-
‘दो और दो चार’ थे। (प्रौढ़ शिक्षा, संसद से सड़क तक, पृ.47)
धूमिल अपनी कविता में इसी ठण्डी, निर्जीव, भाषाहीन जनता की अपनी हीनता-दीनता की भावना को तिलांजलि देकर स्वाभिमान के साथ जीने का सन्देश देते हैं– ‘अपनी आदतों में/फूल की जगह पत्थर भरो/मासूमियत के हर तकाजे केा/ठोकर मार दो/अब वक्त आ गया है कि तुम उठो और अपनी ऊब को आकार दो।’(संसद से सड़क तक, पृ.114) धूमिल की भाषा उन लोगों पर प्रहार करती है जो समाज-निर्माण की ऊपरी कुर्सियों पर बैठे ‘निष्ठा का तुक विष्ठ से’ मिलाने में मशगूल हैं। देश को गलत रास्ते पर डालने में इनका हाथ है, धूमिल की यह आत्मस्वीकृति इसे भलीभाँति कह देती है– ‘‘कवि याने भाषा में/भदेस हूँ/ इस कदर कायर हूँ/ कि उत्तर प्रदेश हूँ’’/ (संसद से सड़क तक, पृ.71) जीवन-संस्कृति के रचनाकार की यह असहायावस्था धूमिल को निरंतर कचोटती रहती है। इस असहायताजन्य कायरता को तोड़ने में उसकी भाषा निरन्तर प्रयत्नशील है।
- धूमिल की कविता का शिल्प
धूमिल ने भाषा व शिल्प के सभी पूर्व प्रचलित स्वरूपों, संकेतों को अस्वीकार कर नई भाषा गढ़ी। काव्य-भाषा और काव्य-प्रतीकों व बिम्बों पर उनकी सुस्पष्ट धारणा नया प्रतीक के अंक 78 के एक निबन्ध कविता पर एक वक्तव्य में देखने को मिलती है। उनका मानना है कि ‘सही बात कहने में बड़ी कठिनाई है भाषा की। कम से कम सही शब्दों की तलाश,जिससे चीज को उसके पूरे आकार और व्यक्ति-सम्बन्धों के साथ फ्रेम किया जा सके। अब तक कविता के लिए विशिष्ट ‘काव्य भाषा’ प्रचलित रही है। परिणाम स्वरूप वस्तु और व्यक्ति के बीच कविता की भाषा एक दीवार बन गई है। अर्थात भाषा और काव्य का अन्तर स्पष्ट किए बगैर सच्चाई तक जाना कदापि सम्भव नहीं। इस सन्दर्भ में पहला काम कविता को ‘भाषा हीन’ करना है। साथ ही अनावश्यक बिम्बों और प्रतीकों से भी उसे मुक्त करना है। कभी-कभी (या अधिकांशतः) प्रतीकों और बिम्बों के कारण कविता की स्थिति उस औरत जैसी हास्यास्पद हो जाती है जिसके आगे एक बच्चा हो, गोद में एक बच्चा हो और एक बच्चा पेट में हो। प्रतीक-बिम्ब जहाँ सूक्ष्म-सांकेतिकता और सहज सम्प्रेषणीयता से सहायक होते हैं, वहीं अपनी अधिकता से कविता को ‘ग्राफिक’ बना देते हैं। आज महत्त्व शिल्प का नहीं, कथ्य का है। सवाल यह नहीं कि आपने किस तरह कहा है, सवाल यह है कि आपने क्या कहा है? इसके लिए आदमी की जरूरतों के बीच की भाषा का चुनाव करना और राजनीतिक हलचलों के प्रति सजग दृष्टिकोण कायम करना अत्यन्त आवश्यक है।
5.1. व्यंग्यात्मकता
धूमिल की भाषा का चरित्र व्यंग्यात्मक है। क्योंकि उसका आविर्भाव प्रासंगिक सन्दर्भों के विद्रूप एवं विसंगति के परिप्रेक्ष्य से हुआ है, इसलिए उनकी भाषा व शिल्प एक नए सौन्दर्य-बोध की रचना में तल्लीन दिखाई पडते हैं।
वे जीवन की विसंगतियों से उत्पन्न अवांछित स्थितियों का बोध कराने के लिए व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं। उनका व्यंग्य केवल शाब्दिक नहीं है और न ही उनकी कविता में व्यंग्य कुछ रूपकों, बिम्बों अथवा उक्तियों का मोहताज है। ‘तितली के पंखों में पटाखा बाँधकर भाषा के हलके में गुल खिलाने’ से इनकार करने वाला कवि धूमिल, कविता के द्वारा जन-जीवन में सीधे हस्ताक्षेप करने की बात करता है इसीलिए वह बार-बार कविता की सार्थकता और उपयोगिता के विषय में अपने आपको आश्वस्त कर लेना चाहता है और कहता है कि ‘कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है।’ साथ ही–
‘कविता
शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का
हलफनामा है।’
(मुनासिब कार्यवाही, संसद से सड़क तक, पृ.86)
स्पष्ट है कि धूमिल शब्द चमत्कार अथवा कलात्मक सौन्दर्य के नाम पर कथ्य की हत्या नहीं करते न ही उनके व्यंग्य से मिलने वाला सन्तोष मात्र कलात्मक सौन्दर्य-जनित सन्तोष या आनन्द कहा जा सकता है। धूमिल की उक्तियाँ, मुहावरे, बिम्ब, प्रतीक व्यंग्यात्मक है और उनकी गहन-संप्रक्ति के सूचक हैं। निर्धनता किस प्रकार मनुष्य को गिरा देती है, इसका व्यंग्यात्मक चित्रण मकान कविता में देखा जा सकता है-
‘जहाँ बूढ़े
खाना खा चुकने के बाद अन्धे हो जाते हैं
जवान लड़कियाँ अन्धेरा पकड़ लेती हैं।’
(संसद से सड़क तक, पृ.51)
जवान लड़कियों को गलत रास्ते पर जाते देखकर भी चुप रहना, पेट की मजबूरी बन जाता है। यहाँ वक्रोक्ति से व्यंग्य उघरता है। आर्थिक विषमता एवं शोषण पर आधारित उनकी कविता रोटी और संसद अत्यन्त मार्मिक है। एक आदमी रोटी बेलता है, दूसरा आदमी रोटी खाता है तथा एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है और न खाता है। वह रोटी से खेलता है। धूमिल पूछना चाहता है कि वह तीसरा आदमी कौन है परन्तु देश की संसद इस प्रश्न पर चुप्पी धारण कर लेती है। इस चुप्पी में ही व्यंग्य निहित है और यह व्यंग्य ही उनकी कविता का प्राणतत्त्व है।
व्यंग्य शिल्प की दृष्टि से धूमिल अधिकतर एकालाप तथा आख्यान का सहारा लेते हैं। वे अपनी कविताओं में सीधे पाठक से मुखातिब होते हैं। उनकी भाषा व्यंग्य के सर्वथा अनुकूल है। आक्रामक मुद्रा लिए सरल, स्पष्ट तथा सपाट भाषा, विचार के अनुरूप वक्र भी हो जाती है। परन्तु यह वक्रता अस्पष्टता को जन्म नहीं देती बल्कि व्यंग्य की संहारक शक्ति को बढ़ाती है। धूमिल की कुछ कविताओं में जो अस्पष्टता है, वह भाषा की अपेक्षा संवेदना की जटिलता का परिणाम है।
धूमिल पेशेवर भाषा को अपनी कविता के लिए अनुपयुक्त मानते हैं- ‘नहीं-अब वहाँ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है/पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों/और बैलमुत्ती इबारतों में/अर्थ खोजना व्यर्थ है।’’ (संसद से सड़क तक, पृ.10) इस कविता में ‘बैलमुत्ती इबारतों’ जैसे व्यंग्यात्मक कथन से धूमिल ने स्पष्ट किया है कि उस तथाकथित कलात्मक, सांकेतिक एवं अस्पष्ट भाषा के प्रति उनके मन में भारी वितृष्णा थी।
बसन्त कविता धूमिल सौन्दर्य में स्वाद तलाशनेवाली श्वान-वृत्ति पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं- ‘सौन्दर्य में स्वाद का मेंल/जब नहीं मिलता/कुत्ते महुवे के फूल पर/मूतते हैं।’ यहाँ मूतने की क्रिया अपना इष्ट स्वाद न पाने पर, सुन्दर महुवे के फूल को तिरस्कृत करने की श्वान-वृत्ति की घृणास्पद अभिव्यक्ति है। एक ओर सौन्दर्य का स्वाद रखने वाले श्वान-वृत्ति के तथाकथित सुविधा-भोगी हैं, और दूसरी ओर जरूरत से बिलबिलाते असंख्य जन हैं जिन्हें स्वाद और सौन्दर्य के रिश्तों की कतई पहचान नहीं। धूमिल की पक्तियों का व्यंग्य इसी दूसरे वर्ग के लोगों की जरूरत के पक्ष में है। वे चाहते हैं कि सौन्दर्य-बोध जरूरत के अनुसार बने, स्वाद के अनुसार नहीं।
धूमिल का व्यंग्य ऊपर से देखने में भले ही सहज लगे परन्तु प्रभाव में अत्यधिक तीक्ष्ण होता है। किन्तु वह पैना और तीक्ष्ण है। व्यंग्य बोध की दृष्टि से मोचीराम कविता विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जहाँ कवि कहते है- न कोई छोटा है/न कोई बड़ा है/ मेंरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है/ जो मेंरे सामने/मरम्मत के लिए खड़ा है।’ (संसद से सड़क तक, पृ.39) पूरी कविता व्यंग्याभिव्यक्ति की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण कविता है, जिसे साठोत्तरी हिन्दी कविता की उपलब्धि के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। धूमिल के व्यंग्य की सबसे बड़ी विशेषता यह कही जा सकती है कि उसमें तीखेपन के साथ-साथ बौखलाहट जरा भी नहीं है। पटकथा जैसी लम्बी कविता में से इस सन्दर्भ में कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। यथा-
‘नहीं अपना कोई हमदर्द
यहाँ नहीं है। मैंने एक-एक को
परख लिया है।
मैंने हरेक को आवाज दी है
हरेक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार …………। मैंने जिसकी पूँछ
उठाई है उसको मादा पाया है।
वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिए हैं
वकील हैं। वैज्ञानिक हैं
अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक हैं
लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि-
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।’
(पटकथा, संसद से सड़क तक, पृ.126)
धूमिल ने इस देश की संसद, समाजवाद, आजादी, चुनाव, नेता और राजनीति सभी पर पैना व्यंग्य किया है, जो कि पाठक को अपनी उपस्थिति से आमन्त्रित करता है, उद्वेलित करता है और हमारे सामने कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न रखता है। इस देश के बारे में धूमिल का कहना है- ‘हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक/फैला हुआ/जली हुई मिट्टी का ढेर है। जहाँ हर तीसरे जुबान का मतलब/नफरत है/साजिश है/अन्धेरा है/ यह मेंरा देश है।’(संसद से सड़क तक, पृ.105) इसी प्रकार एक कविता : कुछ सूचनाएँ कविता में कवि ने समन्वयवादियों को हत्यारा, दार्शनिक को जेवर खरीदने में व्यस्त बतलाकर, हिजड़ों से लिंगबोध पर भाषण कराकर, वेश्याओं द्वारा आत्मबोध पर कविताएँ पढ़वाकर तथा प्रेम में असफल छात्राओं की अध्यापिकाएँ बनने सरीखी स्थितियों पर व्यंग्य-प्रहार किया है। इसके अलावा उन्होंने देहाती समाज, कस्बा, शहरी समाज सभी पर तीखा व्यंग्य किया है।
5.2. सपाटबयानी
साठोत्तरी कविता में अभिव्यक्तियों के स्तर पर सपाटबयानी को महत्त्व दिया गया है। नई कविता में जहाँ बिम्बों और प्रतीकों पर जोर था, वहाँ साठोत्तरी कविता में अवधारणात्मक कथनों पर बल है। धूमिल से लेकर कुमार विकल तक इस प्रवृत्ति को सर्वत्र देखा जा सकता है। डॉ. हुकुमचन्द राजपाल धूमिल की काव्य भाषा पर सपाटबयानी के सम्बन्ध में अपने विचार-प्रकट करते हुए कहते हैं कि ‘सपाटबयानी अथवा साठोत्तरी कविता में शब्दों को खोलकर रखने से प्रतीकों और बिम्बों के प्रयोग को लेकर किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए। प्रायः धूमिल को वक्तव्यों के आधार पर सपाटबयानी का कवि स्वीकार किया जाता है और इसके साथ यह भी कहा जाता है कि उसकी कविताओं में प्रतीकों तथा बिम्बों का प्रयोग नहीं हुआ है। हम इस प्रकार के विचारों से सहमत नहीं हैं, क्योंकि समकालीन कवियों में धूमिल का स्थान अग्रणी कवियों में इसलिए प्रतिष्ठित है, क्योंकि वह भाषा को अपने अनुरूप चलाता है। (समकालीन बोध और धूमिल का काव्य, कोणार्क प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 189)
डॉ. कुमार कृष्ण ने धूमिल की काव्य भाषा को ‘प्रतीकात्मक सपाटबयानी’ कहा है। धूमिल की काव्य भाषा सपाट लगती है पर उसका अर्थ सन्दर्भ अथवा प्रसंग जानने पर उसके विस्तार एवं व्यापक होने का बोध सहज ही हो जाता है। उनकी तकरीबन हर कविता में ऐसी पंक्तियाँ मिल जाएगी जो सपाटबयानी के सरलीकरण से दूर गहरे अर्थ बोध का संकेत देती हैं। जैसे- ‘‘मुझे लगा है कि हाँफते हुए/दलदल की बगल में जंगल होना/आदमी की आदत नहीं अदनी लाचारी है/और मेंरे भीतर एक कायर दिमाग है जो मेरी रक्षा करता है और वही/मेरी बटनों का उत्तराधिकारी है।’’(संसद से सड़क तक, पृ.30) समसामयिक आदमी की अदनी लाचारी और कायरता के बयान को गहरे अर्थ से मण्डित करने वाली इन पक्तियों की सारी शक्ति उसके परस्पर संगठन में छिपी हुई है।
5.3. बिम्बात्मकता
धूमिल के काव्य में बिम्बों व प्रतीकों की सहजता व सुबोधता उनके काव्य की सृजनात्मक क्षमता को बढाती है। धूमिल ने स्वयं अपने भाषा विषयक वक्तव्य में अत्यधिक बिम्बात्मक भाषा का मजाक उड़ाया है,- फिर भी उनकी काव्य -भाषा बिम्बात्मक है। डॉ. गणेश तुलसीराम अष्टेकर ने धूमिल की काव्यभाषा में बिम्बों की उपस्थिति स्वीकार ही नहीं की है। तो श्री बाँदिवडेकर को उन्हीं कविताओं में बिम्बों की समृद्धि दिखाई देती है।’ धूमिल के काव्य में ऐन्द्रिय बिम्बों की प्रचुरता है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। उनकी कविता में दृश्य या रूप बिम्बों का विशाल भण्डार दिखाई पड़ता है। कभी उन्हें अपनी माँ का चेहरा/झुर्रियों की झोली बन गया’ प्रतीत होता है तो कभी उसे काम-कुण्ठाग्रस्त युवक की आँखों में, कुत्ते भौंकते हुए दिखाई देते हैं। कहीं पर चन्द खेत हथकड़ी पहने खड़े दीखते हैं तो कहीं पर पत्नी ‘सूर्य-नमस्कार की मुद्रा’ में खड़ी है। कहीं पर ‘बनिए की आँख बनैले जानवर सी जलती दिखती है’ तो कहीं पर ‘भाषा/ताँत के नीचे पड़ी हुई रूई की तरह/टूटती दिखाई देती है।’ कहीं पर ‘हवा में फड़फड़ाते हुए हिन्दुस्तान के नक्शे पर गाय ने गोबर कर दिया है’ तो कहीं पर कवि को अपना गुस्सा, ‘जनमत की चढ़ी हुई नदी में। एक सड़ा हुआ काठ’ नजर आता है।
धूमिल की कविता में स्पर्श बिम्बों का भी प्रयोग देखा जा सकता है। एक अभावग्रस्त किसान के चेहरे का बिम्ब बड़ी सहजता से इन पंक्तियों में उभरकर आया है–
‘एक ठण्डी और गाँठदार अँगुली माथा टटोलती है।
सोच में डूबे हुए चेहरों और
वहाँ दरकी हुई जमीन में
कोई फर्क नहीं है।’ (खेवली, कल सुनना मुझे, पृ.87)
यहाँ किसान के कर्मठ हाथ की गाँठदार अँगुली, उसके चिन्ताग्रस्त माथे पर घूमती हुई दिखाई देती है। किसान का माथा चिन्ता की रेखाओं से भरा हुआ वैसा ही दिखता है, जैसा कि सूखे में फटी हुई जमीन। इसी प्रकार कवि ने डर को ‘सबसे बारीक/सबसे मुलायम कहा है।’ ऐसे असंख्य बिम्ब धूमिल की काव्यभाषा में सहज ही आ गए हैं। उनकी कविता में आस्वाद्य बिम्ब भी पर्याप्त हैं। उनके काव्य में ‘नमकीन धुनें’ हैं तथा ‘लोहे का स्वाद है।’ श्रव्य बिम्बों में ‘झनझनाता चाकू’ है तो ‘खड़खड़ाता दिन’ है। कहीं ‘लोहे की आवाज़’ तो कहीं ‘एक अजीब सी प्यार भरी गुर्राहट’ है। घ्राण बिम्बों का प्रयोग भी देखा जा सकता है, कवि को अपने आप ‘जूते से निकाले गए पाँव-सा/महकता’ हुआ लगता है तथा अपना क्रोध ‘सड़े हुए काठ’ सा निरर्थक लगता है।
धूमिल के काव्य में बिम्बों की उपस्थिति के प्रति किसी भाषिक चमत्कार का मोह नहीं है बल्कि कवि स्वभाविक रूप से ही अपनी संवेदनाओं को जाने-पहचाने बिम्बों के सहारे मूर्त्त देकर हमारे सामने प्रस्तुत करता है। धूमिल ने ऐन्द्रिय बिम्बों का अधिक सहारा लिया है। नरभक्षी जीभ, बनैले जानवर की आँख तथा स्वस्तिक का चिन्ह’ जैसे मिथकीय बिम्ब अपवाद कहे जा सकते हैं।
अनेक स्थानों पर धूमिल की बिम्ब सृष्टि जटिल भी हो गई है, जिसे अकविता आन्दोलन का प्रभाव कहा जा सकता है ‘एक विशाल दलदल के किनारे/बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है। उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है। जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद बह रहा है। उसमें जाति और धर्म और सम्प्रदाय और पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े/किलबिला रहे हैं और अंधकार में डूबी हुई पृथ्वी। इस भीषण सडाँध को चुपचाप सह रही है।’ (संसद से सड़क तक, पृ.119) इन पंक्तियों में धूमिल ने एक विराट सघन व संश्लिष्ट बिम्ब प्रस्तुत किया है, जो वीभत्सता को मूर्त्त करता है। डॉ. बली सिंह का मानना है- ‘धूमिल के उक्त बिम्ब में असंगति, चित्र या संकेत की नहीं, बल्कि विचारों की है, क्योंकि राजनीति में लगे सभी लोग ‘दलदल’ के किनारे नहीं होते, सभी पार्टियां ‘मवाद’ नहीं छोड़ती, पर धूमिल ऐसा ही मानते हैं।’ (कविता की समकालीनता, पृ. 58) अपने बिम्बों के निर्माण में ग्रामीण अनुभवों का प्रयोग भी धूमिल ने पर्याप्त रूप से किया है। अमूर्त्त भावों की बिम्बात्मक अभिव्यक्ति के लिए बिम्बों का सहज चयन धूमिल की विशेषता है। दूसरों के लाभ के लिए अपनी पीठ पर ऊन की फसल ढोने वाली भेड़ के रूप में जनता का जो बिम्ब उभरता है वह दृश्य भी है और प्रतीकात्मक भी।
5.4. प्रतीकात्मकता
धूमिल की भाषा सहज रूप से प्रतीकात्मक हो गई है और इसीलिए ये प्रतीक जीवन से जुडे होने के कारण सुबोध हैं। उनकी कविता में धर्मशाला, जंगल, घास, भेडिया, रोशनी, जूता पतझर, दाँत, शान्ति-यात्री, कटघरा, मदारी की भाषा, जलता जनतन्त्र, दलदल आदि शब्दों के साथ प्रतीकार्थ जुड़े हुए हैं। जंगल शब्द कहीं अव्यवस्था का प्रतीक है तो कहीं साहस का, कहीं स्वतन्त्रता का यथा- उदाहरण के तौर पर जंगल शब्द को लिया जा सकता है। धूमिल ने जंगल शब्द का प्रयोग अव्यवस्था के प्रतीक रूप में कई बार किया है- ‘छापामार/दस्ते के अगुआ की तरह/देह के जंगल में/गाड़ रखा था/कभी-कभी धूमिल ने जंगल शब्द का प्रयोग साहस के रूप में किया है, जैसे–
‘इसलिए उठो और अपने भीतर
सोए हुए जंगल को
आवाज दो।’ (पटकथा, संसद से सड़क तक, पृ.115)
कभी-कभी इसी जंगल का प्रयोग स्वतन्त्रता के अर्थ में भी किया गया है। जैसे- बस जरा सी गफलत होती है और जंगल/आदमी की गिरफ्त से छूटकर/दीवारों की कवायद में शरीक हो जाता है। इसी प्रकार मोचीराम कविता में जूता शब्द भी प्रतीकात्मक है या कहें कि समूची कविता ही प्रतीकात्मक है, पूरे समाज पर टकटकी लगाकर मोचीराम जिस लहजे में समाज पर टिप्पणी करता है, वह एक चिन्तक के विश्लेषण से कम नहीं लगती, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति की पहचान एक जोड़ी जूते से अधिक नहीं है। ‘चुप’ और ‘चीख’ के मुहावरों को तलाश करती यह कविता सामाजिक विषमताओं और विसंगतियों के भीतरी रहस्यों का सीधे भण्डाफोड़ करती नजर आती हैं।
धूमिल की पटकथा का स्वप्न प्रसंग भी प्रतीकात्मक है जो कि आजादी के बाद मोहभंग की त्रासदी को सशक्त रूप में प्रस्तुत करता है। उनकी कमरा नामक कविता भी पूरे परिवार की कमरतोड़ मेहनत, परेशानियों और प्रचलित जनतन्त्र की विसंगतियों का प्रतीक बन गई है। जिसमें ‘पिता इक्का हाँकता है, माँ कोठी में बरतन मांजती है, बेटी जवान है- उसके जिम्मे, सन्तरों की बिक्री का काम है।’ पूरा परिवार फिर भी अपनी बुनियादी जरूरतों को नहीं जुटा पाता।
धूमिल ने काव्यरूढ़ियों को बदला है क्योंकि हरे रंग का प्रयोग हिन्दी कविता में सामान्यतया प्रसन्नता और समृद्धि के प्रतीक रूप में प्रयुक्त होता है, लेकिन धूमिल ने हरे रंग का प्रयोग डर और भय के अर्थ में भी किया है। संसद से सड़क तक कविता में ऐसे कई उदाहरण हैं– ‘पत्तों का हरापन डर की वजह है।’
जहाँ भुखमरी बड़े पैमाने पर फैली हो, वहाँ कुछ लोगों का खुशहाल होना सचमुच भयानक है, धूमिल ने देखा और महसूस किया कि– ‘‘कहीं-कहीं घास का हरा होना कितना डरावना है।’’ अधिकांश उजाड़ और गरीबी में कुछ लोगों की खुशहाली मानवता के लिए खतरनाक होती है, इसीलिए वह भयानक है, भयप्रद है, डरावनी है। धूमिल का यह यथार्थ बोध ही प्रचलित काव्यरूढि को तोड़ता है। पटकथा में भी हरे रंग का प्रयोग मूढ़ता व अज्ञानता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है– ‘‘मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रहीहै। जिसे कुछ जंगली पशु खूँद रहे हैं। लीद रहे हैं/चर रहे हैं। (संसद से सड़क तक, पृ.120)
- निष्कर्ष
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि धूमिल की काव्य-भाषा उनके शिल्प का उल्लेखनीय पक्ष है। वैचारिक अन्तर्विरोधों और शिल्पगत सीमाओं के बावजूद धूमिल की भाषा में अपनी एक खास ताकत मौजूद है। उनकी भाषा उनकी संवेदना को अभिव्यक्त करने में पूरी तरह सक्षम है साथ ही उन्होंने काव्य-बाह्य शब्दावली का इतना ताजा और जीवन्त प्रयोग किया है जो कि हिन्दी जगत में उनकी अलग पहचान बनाती है।
you can view video on धूमिल की कविता की भाषा और शिल्प |
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- संसद से सड़क तक, धूमिल, राजकमल प्रकाशन
- कल सुनना मुझे, धूमिल, सं. राजशेखर, प्र. युगबोध, वाराणसी
- सुदामा पांडे का प्रजातंत्र, धूमिल, सं रत्नशंकर वाणी प्रकाशन
- धूमिल की कविताएँ, सं. डॉ. शुकदेव सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी
- धूमिल और उनका काव्य-संघर्ष, डॉ.ब्रह्मदेव मिश्र, लोक भारती प्रकाशन
- कटघरे का कवि ‘धूमिल’, डॉ. गणेश तुलसीराम आष्टेकर, पंचशील प्रकाशन, जयपुर
- समकालीन बोध और धूमिल का काव्य, डॉ. हुकुमचन्द राजपाल, कोणार्क प्रकाशन
- कविता की समकालीनता, डॉ.बली सिंह, शंकर पब्लिकेशन्स दिल्ली
- समकालीन कविता का बीजगणित, कुमार कृष्ण, वाणी प्रकाशन
- समकालीन कविता का व्याकरण, परमानंद श्रीवास्तव, शुभद्रा प्रकाशन, दिल्ली
- कविता की तलाश, चन्द्रकान्त बांदिवडेकर, वाणी प्रकाशन
- कविता का समकालीन , डा. गुरचरण सिंह, के.एल. पचौरी, प्रकाशन
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF_’%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2‘
- http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/D/DivikRamesh/samkaleem_sahitya_paridrishya.htm
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A4%BF_%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%A8
- https://www.youtube.com/watch?v=F9eFeosIPBM