34 समकालीन कविता के मूल्यांकन की समस्याएँ
डॉ. हर्षबाला डॉ. हर्षबाला
पाठ-सामग्री
1. पाठ का उद्देश्य
2. प्रस्तावना
3. समकालीन कविता के समय निर्धारण की समस्या
4. एक केन्द्रीय विषय का न होना
5. समकालीन कविता के विविध रूप
6. कविता की गद्यमयता
7. बाज़ार और अर्थ का दबाव
8. समाज के सामूहिक स्वप्न का ह्रास
9. निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य–
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- समकालीन कविता के विविध रूपों की पहचान कर पाएँगे।
- समकालीन कविता के मूल्यांकन के लिए विविध मानदण्डों से परिचित हो सकेंगे।
- समकालीन कविता की निम्नलिखित विशेषताओं–
- नक्सलवाड़ी आन्दोलन और कविता पर उसके प्रभाव को समझ सकेंगे।
- कविता पर भूमण्डलीकरण के प्रभाव को जान सकेंगे।
- कविता पर अस्मिता विमर्शों के प्रभाव को समझ सकेंगे।
- समकालीन कविता के मूल्यांकन की समस्याओं को समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
समकालीन आधुनिक युग को समझने से वर्तमान की सही समझ बनती है। वर्तमान की चेतना को समेटे भविष्य की राह बनाते हुए समकालीनता अतीत और भविष्य की राह जोड़ने की कड़ी का कार्य करती है। समकालीन शब्द को विद्वानों ने कभी समय विशेष की परिभाषा में समेटने का प्रयास किया है और कभी युग विशेष से जोड़ने का प्रयास किया है। समकालीनता को कभी युग-धर्म की मान्यताओं के साथ अतीत के दबाव और कभी भविष्योन्मुखी राह बनाने में तत्पर युग चेतना के रूप में भी समझा गया है।
समकालीन कविता नई कविता के महत्त्वपूर्ण आन्दोलनों में से एक है। परन्तु समकालीन कविता के काल निर्धारण को लेकर विद्वान एक मत नहीं हैं। जगदीश गुप्त ने लगभग 44 आन्दोलनों की सूची बनाई, जो नई-कविता के साथ ही आरम्भ हुए थे, परन्तु उनके विकास के कोई निश्चित चिह्न नहीं मिलते। समकालीन कविता कभी सही आदमी के तलाश की कविता कही जाती है तो कभी विसंगति और विद्रोह की। एक ओर अश्लीलता और विद्रूपता इस काव्य में नजर आती है तो दूसरी ओर प्रेम तथा प्रकृति बोध। यहाँ यह भी देखना आवश्यक है कि दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ी इस कविता का स्वरूप निर्धारित करने की विधि क्या और कैसी हो सकती है।
डॉ. विश्वम्भर नाथ उपाध्याय लिखते हैं– “समकालीन कविता अपने समय के मुख्य अन्तरविरोधों और द्वन्द्वों की कविता है। समकालीन कविता में जो हो रहा है (बिकमिंग)का सीधा खुलासा है। इसे पढ़कर वर्तमान कला का बोध हो सकता है, क्योंकि उसमें जीते, संघर्ष करते, लड़ते, बौखलाते, तड़पते, गरजते तथा ठोकर खाकर सोचते हुए वास्तविक आदमी का परिदृश्य है।” (समकालीन कविता की भूमिका, पृ.14 )
समकालीन कविता के महत्त्वपूर्ण रचनाकारों में– कुँवर नारायण, अशोक बाजपेयी, लीलाधर जगूड़ी, विनोदकुमार शुक्ल, राजेश जोशी, श्रीकान्त वर्मा से लेकर नीलाक्षी सिंह, अनामिका, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, ओम प्रकाश वाल्मीकि आदि को लिया जा सकता है।
- समकालीन कविता के समय निर्धारण की समस्या
समकालीन कविता की सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या है– काल निर्धारण। कविता का आरम्भ कब से माना जाए। यदि आजादी के पश्चात इसका आरम्भ माना जाए, तो उस समय नई कविता ही आकार ग्रहण कर रही थी। सन् साठ के बाद की कविता के लिए साठोत्तरी कविता नामक काल सूचक शब्दावली का प्रयोग किया गया, परन्तु उसके पश्चात् के कालों में समय-निर्धारण की भी कोई प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती।
सन् 1960 की कविता, मोहभंग और नाराजगी की कविता थी, जहाँ अकेले आदमी का विद्रोह भी कविता की विषयवस्तु बन रहा था। प्रभाकर माचवे मानते हैं कि सन् 1962 में चीन का आक्रमण हुआ और भारतीय नीति और हिन्दी-चीनी सम्बन्ध पर प्रश्नचिह्न लग गया। इसी प्रश्नचिह्न की प्रतिक्रिया सवरूप जिस विद्रोही कविता ने जन्म लिया, वह समकालीन कविता है। सन् 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति पर रचनाएँ लिखी जाने लगीं और सन् 1975 में देश को आपातकाल का सामना करना पड़ा। कवियों के भीतर इन घटनाओं ने जिस विद्रोह को जन्म दिया, उसकी अभिव्यक्ति समकालीन कविता में मिलती है, वे लिखते हैं–
“सन् 64 में चीनी आक्रमण के गहरे सदमें से नेहरू स्वर्गवासी हुए और समकालीन कविता का मुहावरा यहाँ से उग्र तेवर लेकर सामने आया।***********सोद्देश्य रचनाकारों ने पहले चीन विरोधी, बाद में पाकिस्तान विरोधी और सन् 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति सम्बन्धी कविताएँ लिखी।” (समकालीन भारतीय कविता, पृ. 25)
वहीं तीसरी ओर अनेक विद्वान् सन् 1970 से कविता के बदलाव की चर्चा करते हैं, विश्वम्भर नाथ उपाध्याय ने इसी आधार पर कवियों का चयन करके एक संग्रह भी प्रकाशित किया। अशोक वाजपेयी सन् 1980 को कविता की वापसी का वर्ष घोषित करते हैं। इस वर्ष अनेक कविता संग्रह प्रकाशित हुए। पूर्वग्रह पत्रिका में अशोक वाजपेयी ने सन् 37-38 का वर्ष पत्रिकाओं के प्रकाशन का काल घोषित किया और इसी आधार पर 80 को कविता की वापसी का वर्ष माना। क्या इसे स्वीकार किया जाए ? अथवा मैनेजर पाण्डेय की इस बात से सहमति जताई जाए, जहाँ वे कहते हैं– ‘कविता की वापसी का नारा समानान्तर कहानी के नारे से भी अधिक निरर्थक है। सन् 1980 में हिन्दी कविता के सन्दर्भ में रचनाशीलता के स्तर पर ऐसा कुछ घटित नहीं हुआ, जिसके आधार पर सन् 1980 के वर्ष को कविता के वापसी का वर्ष कहा जा सके।” (मेरे साक्षात्कार, पृ.18 )
वास्तव में यह अत्यन्त दुष्कर कार्य है। विद्जवत्जनों के मध्य इस विषय पर कहीं सहमति दिखाई नहीं देती। अनेक विद्वान् रघुवीर सहाय के “लोग भूल गए हैं” काव्य संग्रह (1982) से समकालीन कविता के आरम्भ की प्रस्तावना देते हैं, जिसकी भूमिका में रघुवीर सहाय कविता के चारों ओर बिखरे होने की चर्चा करते हैं।
समकालीन कविता इतिहास के एक लम्बे दौर की यात्रा करती है। ऐसे में सन् 1990 को भी एक प्रस्थान बिन्दु माना जा सकता है, जब सोवियत संघ का विघटन हुआ और कविता की दिशा भिन्न हो गई। इसी काल में पूँजीवाद और भूमण्डलीकरण की चर्चा आरम्भ होती है। नव-उदारवाद का आगमन होता है और बाज़ार केन्द्र में आ गया। मिख़ाइल गोर्वाचोव ने देश में ग्लास्नोत नामक राजनीतिक खुलेपन की नई नीति और पेरेस्त्रोइका नामक आर्थिक ढाँचे को बदलने की नीति के अन्तर्गत सुधार करने की कोशिश की, लेकिन विफल रहे। दिसम्बर 1991 में उनकी विचारधारा के विरुद्ध राज्य विप्लव की कोशिश हुई, लेकिन वह कुचली गई। इस घटना के बाद सोवियत संघ टूट गया और उसके 15 गणतन्त्र सभी स्वतन्त्र देशों के रूप में उभरे। एक ओर इसे रैडिकल मानकर उत्तर-आधुनिकता पर बहस शुरू हुई, वहीं बाज़ार के आगमन से कविता का स्वर फिर बदला। इक्कीसवीं सदी की कविता को भी क्या मात्र इसी काल- क्रम की कविता भर मान लिया जाए अथवा उसके लिए किसी नए नाम को प्रस्तावित किया जाए?
प्रश्न यह भी है कि 1970 से लेकर आज तक की कविता के बदलते स्वर को किसी एक काल की कविता कैसे माना जाए ? और यदि अलग ही करना हो तो किस समय को प्रस्थान बिन्दु माना जाना चाहिए?
- एक केन्द्रीय विषय का न होना
समकालीन कविता के मूल्यांकन की प्रमुख विशिष्टता, जिसे मूल्यांकन की समस्या माना जा सकता है –इसका विविधवर्णी और बहुरंगीय, बहुजनपदीय होना है। आज कविता गम्भीर लेखन के रूप में उपस्थित है। केवल देश में ही नहीं विदेशों में भी हिन्दी कविता लिखी जा रही है। कविता का सौन्दर्यबोध अत्यन्त व्यापक है– आत्मबोध से लेकर विश्वबोध से गुजरती समकालीन कविता स्त्री और दलित की पीड़ा का तो साक्षात्कार कराती ही है, वह बाल मन की अबोधता को समझते हुए उसे सुरक्षित रखने के लिए भी प्रयासरत दिखाई देती है। राजनीतिक हलचलों के प्रति सावधान यह कविता राजनीति के प्रति उदासीन नहीं होती, बल्कि युवा भागीदारी की माँग करती है। साथ ही यह कविता ग्लोबल विश्व के प्रति भी सचेत है। कहा जा सकता है कि समकालीन कविता सजगता के साथ आज के समय में हस्तक्षेप करती है। परन्तु यही बिन्दु इसके मूल्यांकन की समस्या की ओर भी संकेत करता है। क्योंकि निश्चित विषय न होने के कारण इसका कोई नामकरण भी नहीं किया जा सकता। कविता के विषयों में इतनी विविधता है कि किसी एक विषय को इस कविता की केन्द्रीय मान्यता के रूप में प्रस्तावित नहीं किया जा सकता। इस कविता पर आरोप लगाते हुए इसे फूल-पत्ती, चिड़िया, बच्चा की कविता कहा जाता है। अरुण कमल लिखते हैं– “यह आरोप एक अर्थ में सही है।एक बार फिर कविता ने मनुष्य के पूरे जीवन से, दैनन्दिन के कार्य-व्यापार और परिवेश से अपनी गहरी आसक्ति व्यक्त की। एक ऐसा राग और करुणा जो तेज-तूफानी कविता के बाद अचानक निराश भी कर सकती है।” (कविता और समय, पृ. 22)
- कविता के विविध रूप
इस काल की कविता के अनेक रूप हैं। सन् 1960-70 के दशक से आरम्भ हुई इस कविता में अनेक शेड्स विद्यमान हैं। इन विविध रूपों को व्यक्त करने में समकालीन शब्द कितना समर्थ है, यह भी मूल्यांकन की समस्या है। सन् 1990 के पश्चात जहाँ बाजार ने पाँव पसारे, वहीं विमर्शों ने भी अपना स्थान बनाना शुरू किया। स्त्री अस्मिता और विभिन्न अस्मिताओं की चर्चा केन्द्र में आ गई। इससे स्वरों का वैविध्य ही नहीं बढ़ा, बल्कि प्रतिनिधित्व के स्तर पर केन्द्रीयता भी खत्म हो गई।
इस दृष्टि से कविता के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हो सकते हैं–
- भारतीयता की पहचान
- हाशिए के समाज की उपस्थिति
- बाल मन की पहचान का प्रश्न
- लोक समाज की उपस्थिति
- ग्रामीण समाज और ग्राम के विविध चित्र
- विश्व बोध और भूमण्डलीय समाज की उपस्थिति
- बाज़ार का प्रभाव, और
- मानवीय संवेदनशीलता
आज की कविता अनेक रूपों और रंगों की कविता है। एक ओर उसमें विमर्शों की झलक है तो दूसरी ओर प्रेम की नई छुअन। इस कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हो सकती हैं–
- विध्वंस और मृत्यु के खिलाफ संघर्ष
- दलित और स्त्री विमर्श की अभिव्यक्ति
- आत्मीय पलों को स्वर देने की इच्छा
- विरोध और विद्रोह का स्वर
- अनुभव के क्षणों का मूर्त्त रूप
- सामाजिक असन्तोष को स्वर
- आत्मसंघर्ष और मानवीयता को मूल्य के रूप में स्थापित करने की जद्दोजहद
केदारनाथ सिंह की कविता है– यह पृथ्वी रहेगी। आस्था और विश्वास की यह कविता कवि के होने और न होने के मध्य मनुष्य और मनुष्यता की जड़ों के बचे रहने का दावा करती है–
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी
जिसके व्याकरण और हिज्जों की भयावह भूलें ही
कुलशील, वर्ग और नस्ल की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं
नीलेश रघुवंशी, गगन गिल, अनामिका, कात्यायनी स्त्री कविता को स्वर दे रही हैं। कात्यायनी की कविता “हॉकी खेलती लडकियाँ” उन लड़कियों की उड़ान को दिखाती है जो आकाश छूने का माद्दा रखती हैं–
सो जाएगी लडकियाँ
और सपने में
दौडती हुई बॉल के पीछे
स्टिक को साधे हुए
हाथों में
पृथ्वी के छोर तक
पहुँच जाएँगी
और गोल-गोल चिल्लाते हुए
एक दुसरे को चूमते हुए
लिपट कर
जमीन पर गिर जाएँगी।
ऐसे में इन सारे अस्मितामूलक विमर्शों से लेकर प्रकृति, बालक-मन, चिड़िया और तोते की पीड़ा, रोमानियत, प्रेम के अधिकार की कविता के मूल्यांकन की प्रविधि तय करना भी एक चुनौती एवं समस्या है।
दलित कवि मानते हैं कि हिन्दी कविता का सौन्दर्यशास्त्र संस्कृत और पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र से मिलकर बना है जिसमें से “संस्कृत साहित्य का मूल आधार सामन्तवादी एवं ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण है। उसी प्रकार पाश्चात्य साहित्य की सौन्दर्य दृष्टि भी पूँजीवादी एवं सामन्तवादी है।”
अत: वे अपने लिए काव्यशास्त्रीय प्रतिमानों के बने बनाए ढाँचे के विरुद्ध नए प्रतिमान रचने की माँग करते हैं– जिसके केन्द्र में संघर्ष, यातना और आत्मानुभूति का विशेष महत्त्व है–
मैं खटता खेतों में
फिर भी भूखा हूँ
निर्माता मैं महलों का
फिर भी निष्कासित हूँ
प्रताडित हूँ।
इठलाते हो बलशाली बनकर
तुम मेरी शक्ति पर
फिर भी मैं दीन-हीन जर्जर हूँ
इसलिए युग समूचा
उत्तर उपनिवेशवाद, सबाल्टर्न अध्ययन, उत्तर संरचनावाद और उत्तर आधुनिकतावाद जैसी पद्दतियाँ मूल्यांकन के कई मार्ग प्रस्तावित करती हैं– कहीं रचनाकार को परे रखकर मात्र पाठ की प्रतिध्वनियों को पहचानने का आग्रह है तो कहीं कविता के राई रेशे को उधेड़कर उसकी संरचना को डी-कन्स्ट्रक्ट करने का विचार। ऐसे में अनेक क्षेत्र होने के कारण केन्द्रीय प्रवृति तय करना कठिन कार्य है और समस्या भी।
- कविता की गद्यात्मकता
समकालीन कविता की एक महत्त्वपूर्ण समस्या है– कविता का गद्यमय होते जाना। कविता सपाटबयानी के खतरे उठाकर भी आम आदमी के पक्ष में खड़ी है और इस दायित्व बोध को निभा रही है पर इससे कविता का शिल्प पूरी तरह खण्डित हो गया है। यदि चाहे तो इस कविता को गद्य के अन्दाज में भी पढ़ा जा सकता है।
“समय गुज़र जाता है
जैसे सरकारी वसूली के लिए साहब दौरे पर।
फ़िलहाल सूखा है
इसलिए वसूली स्थगित
पिटते हुए आदमी के बेहोश होने पर
जैसे पीटना स्थगित।
देखना एक जिन्दा उड़ती चिड़िया भी
ऊँची खिड़की से फेंक दिया किसी ने
मरी हुई चिड़िया का भ्रम
कचरे की टोकरी से फेंका हुआ मरा वातावरण
गद्य के दबाव के कारण गद्य और कविता का अन्तर मिट गया और संवेदना और शिल्प के बीच की झीनी रेखा भी मिटती चली गई। गद्य के प्रवेश के कारण मुक्त छन्द के स्थान पर छन्दों से ही मुक्ति की घोषणा सुनाई देने लगी। जहाँ गद्य कविता पर हावी हो गया वहीं गज़ल एक नई प्रवृत्ति के रूप में उभरी और इस बहस का भी आरम्भ हुआ कि क्या गद्य में पद्य का अनुभव व्यक्त हो सकता है? विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों पर इसी सम्बन्ध में चर्चा हुई। कविता की भाषा ने तेवर बदले और बिम्ब मालाओं के रूप भी ध्वस्त हो गए–
साहब मैं भी अपनी एक पाल्टी बनाना चाहता हूँ
मेरे साथ बीस-बाईस लड़के ऐसे है
जिन्होंने अभी कुछ नहीं देखा
अपनी मूंछें न दाढ़ी
सिर्फ अन्याय देखा है। (लीलाधर जगूड़ी)
ऐसी कविता का मूल्यांकन और प्रेम कविता का मूल्यांकन एक ही काल में समस्या भी है और चुनौती भी।
- बाज़ार और अर्थ का बढ़ता दबाव :
समकालीन कविता इन समस्त चुनौतियों को प्रस्तुत करते हुए वैश्विक दबावों के बीच बन रही है। बाज़ार और अर्थ के दबाव की पहचान भी आज की कविता का महत्त्वपूर्ण स्वर है– मंगलेश डबराल की कविताओं में यह दबाव किस प्रकार मनुष्य को अकेला करता जा रहा है– इसे महसूस किया जा सकता है–
फटे हुए दिन को ख़बरों से ढककर
मैं एक भीड़ की ओर फेंकता हूँ
और अपने अकेले घर
और अकेले शब्दों के बीच
आदत की तरह लौट आता हूँ
चुपचाप और भी चुपचाप।
बाज़ार किस प्रकार मानवीय संवेदना को खत्म करके बचपन की लोरियों और दुलार के बीच अपनी जगह बनाता जा रहा है, इसकी ओर भी समकालीन कविता संकेत करती है–
अत्याचारी के निर्दोष होने के कई प्रमाण हैं
उसके नाखून या दाँत लम्बे नहीं हैं
आँखें लाल नहीं रहती
बल्कि वह मुस्कुराता रहता है
अक्सर अपने घर आमन्त्रित करता है
और हमारी ओर अपना कोमल हाथ बढाता है।
अत्याचारी इन दिनों खूब लोकप्रिय है।
बाज़ार अत्याचारी की शक्ल में ही नहीं आता, बल्कि कोमल चेहरा बनाकर आता है और संवेदनाओं को क्षत-विक्षत करके चला जाता है।
पर्यावरण भी समकालीन कविता के सरोकारों के केन्द्र में है–
हमें याद है
यहाँ थी वह नदी इसी रेत में
जहाँ हमारे चेहरे हिलते थे
यहाँ थी वह नाव इन्तज़ार करती हुई
अब वहाँ कुछ नहीं है
सिर्फ रात को जब लोग नींद में होते हैं
कभी-कभी एक आवाज़ सुनाई देती है रेत से।
एक ओर विषयों का वैपुल्य है, तो दूसरी ओर विषय नज़र ही नहीं आते। जो भी कविता के विषय हो सकते हैं, मीडिया उस पर अपनी राय कायम करने की रणनीति तैयार कर चुका है। मीडिया के लिए कोई क्षेत्र अछूता नहीं। यहाँ तक कि कविता भी कई बार खबर के अन्दाज में प्रस्तुत होती दिखाई देती है। इसलिए पूर्वकाल में लिखित कविताओं के नाटय रूपान्तर आज खेले जा रहे हैं और पुनरावलोकन से गुज़र रहे हैं। वहीं डायरी के अन्दाज में भी कविता लिखी जा रही है।
- समाज के सामूहिक स्वप्न का ह्रास
आज के समाज की कोई एक निश्चित दिशा न होने से समाज एक सामूहिक सत्य की तलाश नहीं करता, बल्कि आज का दौर समूह में विश्वास जैसी किसी पुरातन मान्यता को स्वीकार ही नहीं करता। सब अज्ञेय के नदी के द्वीप हैं। साथ दिखते हैं पर सब अलग-थलग। अस्मिताओं के इस दौर में सब एक दूसरे से बचने और टकराने की जद्दोजहत में जी रहे हैं। आजादी की लड़ाई कितनी भी कठिन सही, पर सामूहिक स्वप्न की लड़ाई थी। आज ऐसे किसी स्वप्न के लिए अवकाश नहीं। ऐसे में व्यक्तिगत अनुभवों से कविता उभर रही है। मैं, मेरा और मुझसे इस कविता के केन्द्र में है–
जब उसने कहा
कि अब सोना नहीं मिलेगा
तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा
पर अगर वह कहता
कि अब नामक नहीं मिलेगा
तो शायद मैं रो पड़ता (लीलाधर जगूड़ी)
इसे उचित-अनुचित की श्रेणी में व्याख्यायित करना यहाँ महत्त्वपूर्ण नहीं है, पर यह प्रवृत्ति कविता में लगातार बढ़ रही है, जिस ओर आलोचकों को ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। मंगलेश डबराल अपनी एक कविता में इसी अकेलेपन को स्वर देते हैं–
फटे हुए दिन को खबरों से ढककर
मैं एक भीड़ की और फेंकता हूँ
और अपने अकेले घर
और अकेले शब्दों के बीच
आदत की तरह लौट आता हूँ
चुपचाप और चुपचाप। (चुपचाप)
- निष्कर्ष
समकालीन कविता की यह विविधता मूल्यांकनकर्ता के लिए समस्या तो है, पर यह समस्या कविता को बहुरंगी प्रभाव देती है और पल्लवित पुष्पित होने का अवसर प्रदान करती है। रघुवीर सहाय भी लिखते हैं– मेरी दृष्टि में समकालीनता मानव भविष्य के प्रति पक्षधरता का दूसरा नाम है। भविष्य के प्रति, नियति के प्रति नहीं। समकालीन कविता के अनेक शेड्स हैं, पर इन शेड्स के लिए कसौटी तैयार करना अत्यन दुरूह कार्य है। सामूहिक प्रश्नों से जैसे-जैसे कविता व्यक्तिगत प्रश्नों की ओर बढ़ती गई, वैसे- वैसे मनोवैज्ञानिक टकराहटें उसके केन्द्र में आती चली गईं। वास्तव में इस कविता के काल के पुनर्पाठ की आवश्यकता है और यह भी सत्य है कि समकालीन कविता उस भविष्य बोध की कविता है जिसके मूल्यांकन के लिए नई पद्धतियों की तलाश और पुरातन पद्धतियों के पुनर्पाठ की आवश्यकता है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- समकालीन काव्य-यात्रा, नंदकिशोर नवल, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
- आधुनिक कविता का इतिहास, नंदकिशोर नवल, भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली
- आधुनिक कविता युग और संदर्भ, शिवकुमार मिश्र, स्वराज प्रकाशन दिल्ली
- आलोचना की सामाजिकता, मैनेजर पाण्डेय,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
- संकलित निबंध, मैनेजर पाण्डेय, नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया,नई दिल्ली
- प्रतिनिधि कविताएँ, गजानन मा० मुक्तिबोध,राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
- प्रतिनिधि कविताएँ, रघुवीर सहाय, सम्पादक– सुरेश शर्मा, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
- प्रतिनिधि कविताएँ, शमशेर बहादुर सिंह,राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
- प्रतिनिधि कविताएँ, नागार्जुन, सम्पादक – नामवर सिंह , राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8
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