31 समकालीन कविता पर धूमिल का प्रभाव

डॉ. हर्षबाला डॉ. हर्षबाला

 

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पाठ का प्रारूप

 

1. पाठ का उद्देश्य

2. प्रस्तावना

3. मोहभंग का दौर

4. समकालीन कवियों पर धूमिल का प्रभाव

5. समकालीन कवियों में जनतन्त्र, शोषण एवं आक्रोश की अभिव्यक्ति और धूमिल

5.1 चन्द्रकान्त देवताले की कविता और धूमिल

5.2 आलोक धन्वा की कविता और धूमिल

5.3 अरुण कमल की कविता और धूमिल

5.4 राजेश जोशी की कविता और धूमिल

6. धूमिल और अकविता में  यौन-प्रतीक

6.1 जगदीश चतुर्वेदी की कविता और यौन-प्रतीक

6.2 मोना गुलाटी की कविता और यौन-प्रतीक

6.3 सौमित्र मोहन की कविता और यौन-प्रतीक

7. निष्कर्ष 

 

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • समकालीन कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ समझ सकेंगे।
  • अन्य कवियों पर पड़े धूमिल के प्रभाव के विविध पक्षों को समझ सकेंगे।
  • समकालीन कवियों की नई दिशाओं और सृजन के आयामों को समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

धूमिल हिन्दी कविता के उस दौर के कवि हैं; जब लेखकों,कवियों और कलाकारों का नेहरू युग से मोहभंग प्रारम्भ हो चुका था। औद्योगीकरण, पूँजीवाद, शहरीकरण और बेरोजगारी ने मध्यवर्गीय समाज को असन्तुलित कर दिया था। इसी के साथ हिन्दी में अस्तित्ववादी दर्शन का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। वैयक्तिक स्वछन्दता, दुःख, पीड़ा, अस्तित्व-बोध के साथ नई कविता में लघु मानव की अवधारणा का विकास हुआ। इस समय हिन्दी कविता में मनुष्य की नियति के लिए तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था को दोषी ठहराया गया।

  1. मोहभंग का दौर

 

आज़ादी के बाद जिन लोगों ने देश की सत्ता सम्भाली थी, उनके भाषणों और व्यक्तव्यों में आदर्शवादी आह्वान रहता था। इसके विपरीत उनके आचरण में भोगवादी प्रवृतियाँ हावी थीं। जनता ने इस दोहरे चरित्र को देखा। अकवितावादियों की रचनाओं में इसी दोहरे चरित्र की नग्‍न अभिव्यक्ति है। यहाँ इस तथ्य को रेखांकित करने की आवश्यकता है कि यथार्थ को समझने, स्वीकार करने या बदलने की बैचैनी की अभिव्यक्ति इस कविता में नहीं हुई। अकविता में इस स्थिति का भावनात्मक विस्फोट प्रकट हुआ है। यह भावनात्मक विस्फोट नकारवादी और अराजक प्रवृत्तियों का पोषक बना।  जातक धर्म  कविता में सौमित्र मोहन ने लिखा–

 

 यहाँ पेशाब करना मना है

 पढ़कर भी लोग वहीं पेशाब क्यों करते हैं?

 आप इसे असभ्यता कहेंगे

 पर यह आक्रोश का

कहीं अच्छा तरीका है

सिगरेट कुचलने से।

 

निश्‍चय ही यह तर्क आज स्वीकार्य नहीं है, परन्तु उस दौर के अनेक कवियों ने व्यक्ति की ऐसी बेहूदा हरकतों के भीतर विद्रोह की छाया देखी और उसे गौरवान्वित किया। कवियों की सामान्य राजनीतिक समझ यह थी कि  हमारी नियति उन लोगों के हाथों में है, जिन्हें एक तो हम जानते नहीं और दूसरे जो हमारे प्रतिनिधि हैं।

 

धूमिल इस काव्य प्रवृत्ति से आगे बढ़ते हैं और वे व्यवस्था का विरोध करते हैं। धूमिल संसद और संसदीय व्यवस्था की आलोचना करते हैं –

             दरअसल अपने यहाँ जनतन्त्र

एक ऐसा तमाशा है

जिसकी जान

मदारी की भाषा है

 

धूमिल के काव्य में बदलते समय का आक्रोश भी है, जनतन्त्र की नग्‍नता और रुग्णता के प्रति क्रोध भी है, आस्था और विश्‍वास की इच्छा भी है और टूटने की पीड़ा भी है। धूमिल के प्रभाव में आकर मोहभंग की अभिव्यक्ति अनेक कवियों ने की। सन् 1965 के पश्‍चात सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ के प्रस्तुतिकरण में परिवर्तन आया। धूमिल के आगमन के पश्‍चात् कविता का मुहावरा लगभग बदलता नजर आया। न केवल कविता के मुहावरे की बल्कि कविता के नए व्याकरण की रचना भी धूमिल ने की। खीज, आक्रोश, बैचेनी, क्रोध, समाज का नग्‍न यथार्थ, हथियार के रूप में भाषा का इस्तेमाल, उपेक्षितों, तिरस्कृतों की बैचेनी आदि इस युग की कविता के केन्द्र में नजर आते हैं।

  1. समकालीन कवियों पर धूमिल का प्रभाव

 

समकालीन कवियों पर धूमिल का प्रभाव दो रूपों में अभिव्यक्त हुआ है – पहला, व्यवस्था के प्रति विद्रोह एवं आक्रोश के सन्दर्भ में और दूसरा, कोमल और मधुर भावों की अभिव्यंजना के सन्दर्भ में। समकालीन कवियों ने अपनी कविताओं में धूमिल के काव्य की व्यवस्था-विरोध की प्रवृत्ति के विकास के साथ-साथ एक समानान्तर काव्य-संसार का भी सृजन किया। इनके काव्य के केन्द्र में पर्यावरणीय सरोकार, प्रेम की इच्छा और बच्‍चों के प्रति चिन्ता भी है। ये पिता के प्रेम और ‘माँ’ के प्रति कविता न लिख पाने की पीड़ा से भी गुजरते हैं। मंगलेश डबराल, चन्द्रकान्त देवताले ने व्यवस्था-विरोध के समानान्तर प्रेम को  कविता का विषय बनाया है। ‘पहाड़’ मंगलेश डबराल की कविताओं में मूर्तिमान हो उठता है। वे ठेठ स्थानीयता के कवि भी हैं। अरुण कमल की कविता में धूमिल की तरह व्यवस्था-विरोध होते हुए भी वाचालता, प्रगल्भता, चीख-पुकार और भदेसपन नहीं है। वे शोषित और पीड़ित की वाणी को सहज और नाटकीय अन्दाज में रखते हैं। राजेश जोशी वृक्षों का प्रार्थनागीत, चाँद की आदतों, नन्हीं मुनिया की गुनगुनाहट आदि के माध्यम से पर्यावरण को केन्द्र-बिन्दु बनाते हैं। उनके यहाँ विरल संगीत और पारदर्शिता का  स्वर है।

कुछ समकालीन कवियों की कविताओं के मूल्यांकन द्वारा समकालीन कविता पर धूमिल के प्रभाव को और स्पष्ट किया जा सकता है।

  1. समकालीन कवियों में जनतन्त्र, शोषण एवं आक्रोश की अभिव्यक्ति और धूमिल

 

धूमिल सिर्फ व्यवस्था-निषेध मात्र के कवि नहीं हैं। उनकी कविता संघर्ष की कविता है। उन्होंने कविता को धारदार हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। चन्द्रकान्त देवताले, राजेश जोशी, लीलाधर जगूड़ी, आलोक धन्वा, अरुण कमल आदि उनके इस पक्ष को ग्रहण करते हैं तथा कविता में निषेध और नकार के बावजूद कविता की धार का प्रयोग करते हैं।

 

5.1. चन्द्रकान्त देवताले की कविता और धूमिल   

 

चन्द्रकान्त देवताले की कविता आदिवासी महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को केन्द्र में रखते हुए पापबोध और अपराध को उजागर करती है। उनकी कविताओं में हलफिया बयान है, जिसमें मानवीय संवेदना के क्षरण के प्रति क्रोध एवं आक्रोश है।  लकड़बग्घा हँस रहा है,  इस पठार पर,  पत्थर फेंक रहा हूँ   जैसे कविता संग्रहों में देह का धन्धा करती हुई औरतें नजर आती हैं, सूरज की मजबूरी पर क्रोध आता है, मनुष्य के भीतर छिपी हुई आग की तलाश दिखाई देती है और मरते हुए सपनों के शोकगीत मिलते हैं। धूमिल जहाँ लिखते हैं कि व्यर्थ ही प्रकाश की बड़ाई में बकता है/सूरज कितना मजबूर है/कि हर चीज पर एक सा चमकता है।इसी लड़ाई को आगे बढ़ाते हुए देवताले आग को हर एक के भीतर ढूँढ़ना चाहते हैं –

 

आग हर चीज में बताई गई थी

पानी, पत्थर, अन्‍न

और घोड़ों तक में

अग्नि का वास बताया गया था

मनुष्यों में आग होती ही और होनी ही थी

पर आज आग का पता नहीं चल रहा है

जीवित आत्माएँ, बुझी हुई राख या भूसे की तरह नाटक

 

धूमिल के यहाँ दलाल, भूखा आदमी, भद्दी गाली, जनतान्त्रिक जंगल, हरे-हरे हाथ, भटकते नागरिक हर ओर दिखाई देते हैं। वे जानते हैं कि संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और समूचे वाक्य टूटकर बिखर गए हैं।  वहीं चन्द्रकान्त देवताले जानते हैं कि इस वाक्य के टूटने-बिखरने का सबसे बड़ा कारण राजनीतिक दहशतगर्दी है। उन्हें हँसते हुए लकड़बग्घे चारो ओर नजर आ रहे हैं। डोमों की हत्या की जा रही है। राजनेता एक हँसी हँसते हुए आते हैं और हँसते-हँसते ही हुआ-हुआ करके आदिवासियों से जमीन छीनकर उनकी हत्या करते चले जाते हैं –

 

ये तीमारदार नहीं

हत्यारे हैं

और वह आवाज/………बच्‍चों की नहीं / लकड़बग्घे की हँसी है/

सुनो/यह दहशत तो है/लेकिन चुनौती भी/लकड़बग्घा हँस रहा है।

 

चन्द्रकान्त देवताले धूमिल की बेचैनी की परम्परा और आक्रोश को आगे बढ़ाते हैं। जहाँ धूमिल भूख से मरे हुए आदमी को आज के समय के मनोरंजक विज्ञापन के रूप में देखते हैं, वहीं देवताले उस भूख से मरे आदमी को देखकर वितृष्णा से भर उठते हैं। वे मानते हैं कि इस संसार में ईश्‍वर नहीं हो सकता, क्योंकि यदि ईश्‍वर होता तो ईश्‍वर की देह से भी कोढ़ फूट पड़ता, क्योंकि लगातार बढ़ते अन्याय को देखकर ईश्‍वर किस प्रकार शान्त रह सकता है? अनास्था और विवश क्रोध से भरे कवि धूमिल इसे एक्सरे पर लगे धब्बे और आँतों पर स्याही के दाग के रूप में देखते हैं, वहीं चन्द्रकान्त देवताले सत्य, आस्था, ईश्‍वर, सौन्दर्य पर से विश्‍वास खो देते हैं –

 

सत्य होता तो वह अपनी न्यायाधीश

की कुर्सी से उतर जली सलाखें आँखों में

खुपस लेता/सुन्दर होता तो वह अपने चेहरे

पर तेजाब पोत अन्धे कुएँ में कूद गया होता!

 

भाषा की अनगढ़ता से लेकर, सपाटबयानी, फैण्टेसी से गुजरते हुए देवताले विसंगति को यथार्थ जीवन से जोड़ते हैं। साधारण जीवन के अनुभव को वे महत्त्वपूर्ण बनाते हैं।

 

5.2. आलोक धन्वा की कविता और धूमिल

 

धूमिल की कविता की राजनीतिक क्षमता, उसकी धार, पीड़ा और सहज, सजग पर तीखी नोंक जैसी भाषा का प्रतिनिधित्व करती हैं, आलोक धन्वा की जनता का आदमी,  गोली दागो पोस्टर   जैसी रचनाएँ धूमिल के राजनीतिक प्रभाव का विस्तार करती हैं। राजनीतिक प्रभाव से जुड़े और व्यवस्था के विरोध में खड़े आलोक धन्वा चमड़े के दस्ताने’, ‘हमलावर की दूरबीन पर टिका हुआ धब्बा’, ‘शब्दों से अधिक तम्बाकू का इस्तेमालअथवा ‘आकाश यहाँ एक सूअर की ऊँचाई भर है जैसे प्रयोगों द्वारा व्यवस्था के प्रति आक्रोश  व्यक्त करते हैं। उनके लिए कविता, कविता नहीं है– गोली दागने की तमीज़ है’। आलोक धन्वा हालाँकि सामाजिक और मानवीय प्रतिबद्धता की चर्चा करते हुए मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन से लेकर वॉल्ट ह्विट्मैन, तोलोस्तोय, गोर्की, सार्त्र, कामू आदि का जिक्र करते हैं, पर धूमिल का नहीं। यह जरूर है कि उनकी भाषा का साँचा धूमिल की कविता से गुजरकर तैयार होता है। कविता को धूमिल विपक्ष में खड़े होने की ताकत के रूप में देखते हैं, इसीलिए वे कविता को पहले एक ‘सार्थक वक्तव्य’ के रूप में परिभाषित करते हैं। धूमिल मानते हैं –

 

चन्द खेत

हथकड़ी पहने खड़े हैं

और

विपक्ष में सिर्फ कविता है

 

आलोक धन्वा भी कविता की सार्थकता इसी में मानते हैं कि वह शोषण के खिलाफ अपनी हिस्सेदारी निभा सके। वे अपनी कविता को एक बिलकुल नयी बन्दूक की तरह याद करते हैं जो जली हुई औरत के पास जाती है, शब्दों के फेफड़ों में नए मुहावरों का ऑक्सीजन भरती है और हर एक शोषित के साथ खड़ी होना चाहती है –

 

अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है,

भाषा और लय के बिना, केवल अर्थ में –

उस गर्भवती औरत के साथ

जिसकी नाभि में सिर्फ इसलिए गोली मारी

कि कहीं एक ईमानदार आदमी पैदा न हो जाए।

 

आलोक धन्वा कविता से उस भूखे बच्‍चे के साथ खड़े होने की ताकत की अपेक्षा करते हैं, जिस बच्‍चे की आत्मा गिर रही है, ओस की तरह। उनकी कविता का स्वर ‘सूर्यास्त के आसमान’, ‘नींद अचानक तुम आ जाओ’ में माँसल है, नदियाँ और पानी में प्रकृति को छूता है और ईदगाह के मेले से लौटते हामिद के नन्हें चित्र को भी छूता है। उनकी कविताएँ छतों पर लड़कियों का जिक्र करती हैं, जो प्यार की तलाश करती हैं और आवारा तथा श्री 420 जैसी फिल्मों की अमर धुनों का जिक्र करती हुई प्रेम के मीठे क्षेत्र को भी छूती हैं।

 

5.3. अरुण कमल की कविता और धूमिल

 

अरुण कमल कविता का प्रयोग धारदार हथियार की भाँति करते हैं। वे धूमिल की परम्परा के एक सुसंस्कृत परन्तु राजनीतिक प्रयोगों को लेकर सजग कवि के रूप में दिखाई देते हैं। बिहार के मजदूरों की त्रासदी पर अनेक कवियों ने लिखा लेकिन अरुण कमल धुएँ, अन्धकार और मुल्क छोड़ने की पीड़ा लिए पंजाबी मजदूर की उस त्रासदी को साकार कर देते हैं जिसका असर समस्त शोषित वर्ग पर एक समान है –

 

फैलता जाता है धुआँ

लोहे ही छातियों को देता जाता है धुआँ

खिड़कियों से झाँकता है पंजाबी मजदूर

दूर अन्धकार गहर गसा अन्धकार

 

समकालीन कवि जनवादी चेतना को केन्द्र में रखकर एक कठिन समय में व्याप्त अमानवीयता को उद्घाटित करते हैं। राजनीतिक चेतना के विस्फोट से उपजी ये कविताएँ हमारे समाज की संवेदनहीनता पर टिप्पणी करती हैं। धूमिल इस ‘जनवादी चेतना’ के प्रमुख कवि हैं जिसका विकास अरुण कमल के नये इलाके में  की कविताओं में देखा जा सकता है। नये इलाके में  की भूमिका में अरुण कमल लिखते हैं- ‘‘कविता निर्बलों का बल है। कविता उसका पक्ष है जिसका कोई नहीं, जो सबसे कमजोर, सबसे असहाय है, जिस पर बाकी सबका बोझ है।’’ (नये इलाके में, भूमिका) उनके अनुसार कविता उन सबके सौन्दर्य को रेखांकित करेगी जिनके संघर्ष से उत्पन्‍न सौन्दर्य की ओर कोई नहीं देखता–

 

गरजता है गगन/और बिजलियों को देह में सोखने को उद्यत/

गरजते हैं धरती की ओर से/ये वृक्ष

ठहरेगा कौन इस राह पर आज/

देखेगा कौन इन संघर्षरत वृक्षों का/दुर्षध सौन्दर्य?

 

वे ऐसी कविता लिखने की प्रविधि का प्रयोग करना चाहते हैं–“जिससे अधिक से अधिक को कम से कम कहा जा सके। स्मृति, अनुभव और कल्पना-यानी काल के तीनों आयामों भूत, वर्तमान और भविष्य का समाहार करते हुए जो कविता बनेगी, वही मेरी आकांक्षा है। … भरी, पूरी, जीवन के ऐश्‍वर्य से सम्पन्‍न …।” ( नये इलाके में, भूमिका)

 

5.4. राजेश जोशी की कविता और धूमिल

 

राजेश जोशी की कविता नाटकीय अन्दाज में असमानता और शोषण का विरोध करती है। आम जन के पक्ष में खड़े राजेश जोशी फैण्टेसी के नाटकीय अन्दाज में ‘दुनिया की संरचना का नया ड्राफ्ट’ तैयार करते हैं। जहाँ धूमिल स्वयं को ‘बीचोबीच से दब गया’ और ‘चारों तरफ से बन्द’ देखते हैं, वही राजेश जोशी इस बन्द समाज को चेतावनी देते हैं कि आँखें बन्द कर और सुविधावादी दृष्टि से सोचने वाले एक दिन स्वयं भी किसी अमानवीयता का शिकार होंगे –

 

जो सच सच बोलेंगे, मारे जाएँगे

            बर्दाश्त नहीं किया जाएगा कि किसी की कमीज़ हो

            ‘उनकीकमीज़ से ज्यादा सफेद

      कमीज़ पर उनके दाग़ नहीं होंगे, मारे जाएँगे।

 

राजेश जोशी की कविता का स्वर जनवादी है। विडम्बना, विसंगति बोध के साथ त्रासद यथार्थ और वर्तमान को बदलने की इच्छा उनके काव्य का स्वर है। बचपन को कन्धे पर ढोते बच्‍चों और पृथ्वी के तब भी समाप्त न होने पर कवि आश्‍चर्य करते हैं। ‘भयानक पंक्ति को विवरण की तरह पढ़े जाने का कवि विरोध करते हैं।  रुको बच्‍चों  में वह बच्‍चों के लिए सड़क पार करने को, स्थिति की भयावहता के रूप में देखते हैं और न्यायाधीशों, पुलिस व अफसरों के लिए बनी इस सड़क पर जाने से बच्‍चों को रोकना चाहते हैं। भाषा के सन्दर्भ में उनकी एक कविता है, हमारी भाषा, जिसमें वे भाषाओं के अहंकार और इस अहंकार से दूसरों पर कब्जा करने की नीयत का जिक्र करते हैं–

 

हम सोचते थे कि हमारा अनुमान ही सृष्टि की भाषा है

            हम सोचते थे कि इस भाषा में

      हम पूरे ब्रह्माण्ड को पढ़ लेंगे।

भाषा के प्रति यह चिन्ता धूमिल की कविता की चिन्ता है, जो समकालीन कविता में स्वर प्राप्त करती है।

  1. धूमिल और अकविता में यौन-प्रतीक

 

समकालीन कविता ने धूमिल की यथार्थ चेतना, उनके विसंगति बोध और पृथ्वी को बचाए रखने की जिद से प्रेरणा ग्रहण की है। दमित और शोषित के पक्ष में खड़े धूमिल सबको आकर्षित करते हैं, परन्तु अनेक बार यह आकर्षण विकृति तक पहुँच जाता है। अकविता के अनेक कवियों ने यथार्थ बोध को महसूस करते हुए जुगुप्सा, यौन सम्बन्धों से जुड़े प्रतीकों को विस्तार दिया है। सौमित्र मोहन, मोना गुलाटी, जगदीश चतुर्वेदी आदि रचनाकार अकविता की यौन शब्दावली, असहजता, जटिलता और निषेधवादी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। धूमिल की भी अनेक कविताएँ अश्‍लीलता की कोटि में पहुँच जाती हैं। ऐसी कविताएँ पाठक को वितृष्णा से भर देती हैं। टाँगों में फँसती हुई आफत, ‘हिजड़ों ने भाषण दिए हैं, ‘लिंग बोध पर’, ‘वेश्याओं ने कविताएँ पढ़ी आत्मशोध परअथवा ‘पूँछ उठाने पर मादा दिखने’  जैसे उनके प्रयोग बीभत्स हो उठे हैं।

 

6.1 जगदीश चतुर्वेदी की कविता और यौन-प्रतीक

 

जगदीश चतुर्वेदी अकविता आन्दोलन के महत्त्वपूर्ण कवि हैं| धूमिल की कविता के इस पक्ष को उभार कर वे और अधिक जुगुप्सापूर्ण बना देते हैं। ‘उसकी गुप्त योनि मेरे सन्निकट निर्वसन पड़ी है और मैं कराह रहा हूँ’ अथवा ‘स्तनों को प्यार करते हुए … वनमानुष की तरह मैंने उन्हें दाँतों से काटकर… आदि कविताओं में यौन प्रतीक अमानुषिक हो उठे हैं। वे निषेध को जीवन का पर्याय बनाते हैं और इस निषेध में धूमिल से लेकर गिन्सबर्ग तक को अपनी प्रेरणा बनाते हैं–

 

मैं मन्त्र के जोर से आलोचक को भून दूँगा

                   x         x          x

 यों उसे डरना नहीं चाहिए

 अगर वह

 कमसिन है

 क्योंकि मैं होमोसेक्सुअल नहीं हूँ

 जय आस्कर वाइल्ड की…।

 

जगदीश चतुर्वेदी मिथकीय पात्रों को भी भाव चेतना की केन्द्रभूमि के रूप में चुनते हैं। जीवन की यातना और संघर्ष से जुड़े द्वन्द्व, अनुभूति और विसंगत होने की पीड़ा को वे  सूर्यपुत्र  में इन शब्दों में व्यक्त करते हैं –

 

पागल-सी प्रथा कोसती रही सूर्य को

पिता और अभिभावक पर फेंकती रही

क्रोध के विष-वाण

आँखों से निकलती रही बिजलियाँ …… श्‍लथ और निष्प्राण।

 

जनतंत्र सत्तावर्ग के हाथ का खिलौना हो गया था, धूमिल उस यातना का अनुभव कर रहे थे। जगदीश चतुर्वेदी भी उस यातना को ‘सूर्यपुत्र’ कर्ण की त्रासदी से साकार कर रहे हैं, जहाँ सूर्य के कँधे से उसका चेहरा तर गया है और एक ही सत्य रह गया है, विसंगत हो जाने का बोध। इसी कारण उनकी शब्दावली शील-अश्‍लील शब्दों के खेल में उलझी भी दिखाई देती है-

 

हर एक रास्ते से गुजरती औरत को

            सतीत्व रक्षा में निबद्ध पाता हूँ और

            बलात्कार का तीक्ष्ण आवेग मुझ में बिजलीसा कौंध जाता है

 

5.2. मोना गुलाटी की कविता और यौन-प्रतीक

 

मोना गुलाटी की कविताएँ भी अश्‍लीलता के स्तर पर सेक्स-प्रतीकों की रचना करती हैं। जहाँ धूमिल स्‍त्री-योनि, लिंगबोध और मादा शब्द का प्रयोग करते हुए अनेक बार वर्जित क्षेत्रों में प्रवेश कर जाते हैं, वहीं मोना गुलाटी अकविता के सेक्स प्रतीकों से कविता को तार-तार कर देती हैं –

 

 मैं इन्तजार करती हूँ रात का

            जब हम दोनों एक दूसरे को चाटेंगे

            विवाह के बाद जिन्दा रहने के लिए

      जानवर बनना बहुत जरूरी है।

 

अथवा – रति क्रिया करने के लिए आकाश यदि गहरा हो जाए… तो भी वह नहीं दे पाएगा अण्डा जैसे प्रयोग सोचने के लिए विवश करते हैं कि क्या इन कवियों के पास और कोई विकल्प नहीं है? क्यों मोना गुलाटी पूरी पीढ़ी बंजर होऔर नहीं आकांक्षा’  कहकर  किसी के जीवन या मृत्यु की मात्र निषेध को ही जीवन का सत्य मान लेती हैं?2 सौमित्र मोहन की कविता और यौन-प्रतीक

 

सौमित्र मोहन विकृति और वैषम्य के माध्यम से धूमिल की भाँति व्यवस्था के विरोध में खड़े दिखाई देते हैं। अकविता के अतिवादी मुहावरे के माध्यम से कभी उनकी कविता स्‍त्री के मैल और रज में सने उसके अग्रभाग का जिक्र करती है, जहाँ कवि कुत्ते की तरह हवा में ठहरादिखाई देते हैं, तो कभी लुकमान अली के रूप में प्रजातन्त्र की हँड़िया में महापुरुषों की डाक टिकटों, वीरता चक्रों के साथ भीख माँगती नजर आते हैं।

 

7 .निष्कर्ष

 

समकालीन कविता मूलतः मोहभंग की कविता है। धूमिल इसके प्रतिनिधि कवि हैं। उनकी कविताओं में व्यवस्था के प्रति आक्रोश और विद्रोह का भाव है। यह भाव एक तरफ आमजन की पीड़ा को ‘जनवादी स्वर’ प्रदान करता है, तो दूसरी तरफ यह आक्रोश, वितृष्णा, जुगुप्सा और अश्‍लीलता के रूप में अभिव्यक्त होता है। धूमिल के काव्य के इन दोनों पक्षों का प्रभाव समकालीन कविता के कवियों पर पड़ा। धूमिल की भाँति नारों के स्थान पर कम शब्दों में अधिक कहने का आग्रह भी समकालीन कविता में है। कविता में व्यवस्था-विरोध के नए मुहावरे और व्याकरण गढ़ने की प्रेरणा, समकालीन कवि मुक्तिबोध, नागार्जुन से होते हुए धूमिल से ही ग्रहण करते हैं। अतः समकालीन कविता को समकालीन बनाने में धूमिल के प्रभाव का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

 

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अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. समकालीन हिन्दी कविता, विश्वनाथ तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद
  2. पत्थर की बेंच, चंद्रकांत देवताले, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. मेरे साक्षात्कार, चंद्रकांत देवताले, किताबघर,दिल्ली
  4. कविता और समय, अरुण कमल, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली
  5. नये इलाके में :कविताएँ(1990-1995) , अरुण कमल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. दो पंक्तियों के बीच,  राजेश जोशी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. एक कवि की नोटबुक,  राजेश जोशी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  8. धूमिल और उसका काव्य संघर्ष, ब्रह्मदेव मिश्र, लोकभारती प्रकाशन,इलाहबाद
  9. समकालीन बोध और धूमिल का काव्य,  डॉ. हुकुमचंद्र राजपाल,वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली
  10. पूर्वराग,  जगदीश चतुर्वेदी, राजेश प्रकाशन, दिल्ली
  11.  आधुनिक हिन्दी कविता, जगदीश चतुर्वेदी(संपा.), मैकमिलन कंपनी ऑफ़ इंडिया,दिल्ली

 

वेब लिंक्स

  1. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF_%27%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%27
  3. http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A4%BF_%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%A8
  4. https://www.youtube.com/watch?v=jelRXM5uvls