30 हिन्दी आलोचना में कुंवर नारायण का मूल्यांकन

डॉ. रसाल सिंह

 

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पाठ का प्रारूप

 

1. पाठ का उद्देश्य

2. प्रस्तावना

3. आलोचकों की निगाह में गंभीर भाव बोध का कवि

4. कुंवर नारायण की कविता में विचार और आलोचकीय मूल्यांकन

4.1 मार्क्सवादी आलोचना की नज़र में

4.2 आधुनिकतावादी आलोचना की नज़र में

5. निष्कर्ष

 

  

  1. पाठ का उद्देश्य

इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • कुंवर नारायण की कविताओं की बनावट को जान सकेंगे।
  • कुंवर नारायण की कविता में भाव बोध और विचार से अवगत हो सकेंगे।
  • कुंवर नारायण के विभिन्‍न काव्य संग्रहों पर महत्वपूर्ण आलोचकों की टिप्पणियों को जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

कुंवर नारायण हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि हैं। कुंवर नारायण की कविता विवाद की कविता  नहीं बल्कि सभ्यता में उठने वाले विवादों, आग्रहों और दृष्टियों की टकराहटों पर एक ऐसे सूक्ष्म नजरिए की कविता है जिससे असहमत होने की ज्यादा गुंजाइश न तो पाठक के पास है और न आलोचक के पास। यही कुंवर नारायण की सबसे बड़ी ताकत है।

 

कुंवर नारायण का रचना-कर्म चक्रव्यूह  (सन् 1956) से लेकर आज तक फैला हुआ है। उनके मूल्यांकनकर्त्ताओं में न केवल आलोचक शामिल हैं बल्कि कवि, उपन्यासकार,संस्कृतिकर्मी और देशी-विदेशी विचारक तक शामिल हैं। उनका मूल्यांकन मुक्तिबोध से लेकर मंगलेश डबराल तक,नंददुलारे वाजपेयी से लेकर सुधीश पचौरी तक, बाल कृष्णराव से लेकर मरियोला ओफ्रेदी, हरीश त्रिवेदी एवं दुष्यंत कुमार से लेकर अशोक वाजपेयी तक ने किया है। इस तरह कुंवर नारायण का न केवल रचना कर्म छह दशकों में फैला हुआ है बल्कि उन पर की गई आलोचना भी छह दशकों में फैली हुई है।

  1. आलोचकों की निगाह में गंभीर भाव बोध के कवि

 

कुंवर नारायण की प्रारम्भिक कविताओं को लेकर आलोचकों में मतभेद रहा। कुछ आलोचकों ने चक्रव्यूह को “दुरूह और जटिल मनः स्थितियों का संग्रह” कहते हुए इसके सौन्दर्यबोध को “भटका हुआ सौन्दर्यबोध” माना। लेकिन कुंवर नारायण की कविता धीरे-धीरे विराट भावबोध से लैस होती हुई हिन्दी क्षेत्र में स्थायी रूप से  फैल गई। चक्रव्यूह की सत्तर कविताओं को पढ़ते हुए जगदीश गुप्त ने टिप्पणी की–“सारी कविताओं को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि जीवन के प्रति कवि का उदासीनता अथवा क्रूरता का भाव है। लगता ऐसा ही है कि जैसे गहरे में पैठकर उसने जीवन के कण-कण और क्षण-क्षण को जीने का यत्‍न किया है और तमाम उलझनों और विषमताओं के बावजूद वह उसे प्यार भी करता है।”  (कुंवर नारायण : उपस्थिति, सं.यतींद्र मिश्र, पृष्ठ-29) इस तरह कुंवर नारायण का पहला काव्य-संग्रह जीवन से पलायन की कविता न होकर जीवन संग्राम और चक्रव्यूह में गहरे धंसकर जीवन जीने की प्रेरणा देने वाला घोषित हुआ। नेमिचंद्र जैन ने कवि की कुछ निजी सीमाओं के बावजूद यह माना–“चक्रव्यूह के कवि को जीवन के सतही सत्यों से मोह न होकर स्पष्ट ही गहराइयों की ख़ोज से है, और इसलिए इन कविताओं में एक प्रकार की गंभीरता और भारीपन है; साधारणतः प्रथम संग्रह में पाई जाने वाली यौवन के प्रथम ज्वार की भावुकता नहीं।” (वही, पृष्‍ठ-39) इस तरह आरम्भ में ही कुंवर नारायण गंभीर भाव बोध के कवि घोषित हो गए। दरअसल, कुंवर नारायण को आलोचकों ने कई दृष्टियों से देखा-परखा है।

  1. कुंवर नारायण की कविता में विचार और आलोचकीय मूल्यांकन की कविता में विचार और आलोचकीयन

 

4.1मार्क्सवादी आलोचना की नज़र में

 

मार्क्सवादी आलोचना की एक बड़ी विशेषता है कि वह कविता को सामाजिक संघर्ष के एक औज़ार के रूप में देखती है। कुंवर नारायण ने हालाँकि किसी भी राजनीतिक धारा के कवि होने से ख़ुद को अलग ही रखा है, परन्तु अपनी  कविताओं में संघर्ष की चेतना के कारण वे मार्क्सवादी आलोचकों और कवियों में बेहद लोकप्रिय रहे। सन् 1961 में प्रकाशित परिवेश : हम तुम  काव्य-संग्रह से कुंवर नारायण की कविता के क्षेत्र में स्वीकृति बढ़ी। मुक्तिबोध ने कहा – ‘मुझे, व्यक्तितः, इस बात की बहुत ख़ुशी है कि लेखक ‘लाखों दिलों’ से चौकन्‍ना है’, (वही, पृष्‍ठ-45)  यहाँ ‘चौकन्‍ना’ शब्द कवि की सामाजिक जागरूकता का परिचय दे रहा है। साथ ही साथ, मुक्तिबोध ने यहाँ यह भी कहा– “संक्षेप में, हमें कवि के अन्तर्लोक में गहरी दिलचस्पी है। उससे हमारी ही आत्मा के गहरे सम्बन्ध-सूत्र जुड़े हुए हैं।कवि कुंवर नारायण, अपने अकेलेपन में भी, अकेला नहीं।” (वही, पृष्‍ठ-47)   मतलब कुंवर नारायण की कविता में उपस्थित ‘व्यक्ति’ में भी निहित समाजधर्मिता को मार्क्सवादी आलोचना ने पहचाना।

 

किसी ने एक भेंटवार्ता में कुंवर नारायण से पूछा ‘कविता में चिन्तन और वैचारिक आग्रह की क्या भूमिका होनी चाहिए?’ तो कुंवर नारायण का जवाब था– “लगभग वही भूमिका जो उनकी हमारे जीवन में होनी चाहिए,यानी जीवन के प्रति बेहतर समझ, संवेदनशीलता और न्यायबोध (तट पर हूँ तटस्थ नहीं, सं.विनोद भारद्वाज, पृष्‍ठ-30) इस तरह जीवन और विचार की अद्वितीय समझ का आग्रह ही कुंवर नारायण की कविता का मूल्य है। वैसे कुंवर नारायण का देशकाल कई वैचारिक आंदोलनों का काल रहा है और यह भी सच है कि घोषित रूप से कुंवर नारायण राजनीतिक प्रतिबद्धता के कवि नहीं हैं। लेकिन उनकी पूरी रचना भूमि पर गौर करें तो उसका काफ़ी बड़ा हिस्सा सामाजिक और राजनीतिक वास्तविकताओं को प्रतिबिम्बित करता है – वह चाहे आपातकाल का दौर हो, रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा गिराने का दौर हो या कोई अन्य घटना हो,उनकी कविता चुप नहीं रहती।  कोई दूसरा नहीं,  इन दिनों, और वाजश्रवा के बहाने  संकलन की कविताएँ इस दृष्टिकोण से विशेष उल्लेखनीय हैं। काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की  कविता को कोई दूसरा नहीं  संग्रह का प्रतिनिधि भाव कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें साधारणजनता के शोषण और उसे गुमराह करने वाली ताकतों का काफ़ी तार्किकभाव से पर्दाफ़ाश किया गया है।

 

इसी तरह उनकी एक कविता है सम्मेदीन की लड़ाई  जिसमें कवि लिखता है –

ख़बर है

कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध

बिलकुल अकेला लड़ रहा है एक युद्ध

कुराहा गाँव का ख़ब्ती सम्मेदीन

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एक छोटे से चक्रव्यूह में घिरा है वह

और एक महाभारत में प्रतिक्षण

लोहूलुहान हो रहा है सम्मेदीन।।”।

 

इन पंक्तियों के मार्फ़त हम देख सकते हैं कि संघर्ष को कवि केवल मिथकीय रूप में या महा-आख्यान या विराट दर्शन के रूप में ही देखने का आदी नहीं है। वह बेहद मामूली लगने वाली चीजों को महाआख्यान की तरह उठाता है। दुनिया जैसी है उसे बदलने की कवि की इच्छा इस बोध की पृष्ठभूमि में अनवरत काम करती रहती है। यह कविता जहाँ ख़त्म होती है–‘यह लड़ाई लड़ रहा है /किसी गाँव का कोई ख़ब्ती सम्मेदीन’ – वहाँ  यह कविता आम आदमी की जीवनी-शक्ति में भरोसे की कविता सिद्ध होती है। सामान्य आदमी का संघर्ष भी महाभारत है जिसका ‘नोटिस’ लेना आजकल मीडिया ने भी छोड़ दिया है। कवि ने स्वयं स्वीकार किया है –“‘कोई दूसरा नहीं’ में भाषा को लेकर मैं अत्यधिक सावधान रहते हुए भी बहुत सहज और सामान्य रहा हूँ – – – समाज और व्यक्ति को एक-दूसरे का पूरक माना है, द्वैतमूलक या वैकल्पिक नहीं- – -।” (समावर्तन, सितम्बर 2009, पृष्‍ठ-21) यहाँ व्यक्ति का संघर्ष और दुःख समाज का संघर्ष और दुःख है। इस विचार को और मजबूत ढ़ंग से रखने के लिए ही कुंवर नारायण ने कई मिथकीय पात्रों और स्थितियों को कविता की भूमि बना दिया।

 

हिन्दी जगत में कुंवर नारायण की एक बड़ी पहचान मिथकों के एक ऐसे चुनौतीपूर्ण परन्तु सृजनशील प्रयोगकर्ता के रूप में  है जिसने हिन्दी कविता की धुरी को और मजबूत किया है। सन् 2008 में कुंवर नारायण की प्रबंधात्मक कृति वाजश्रवा के बहाने  आई जिसे आत्मजयी  (खंडकाव्य-सन् 1965) की आत्मा का विस्तार माना गया।यह दो खण्डों में विभाजित है–  नचिकेता की वापसी  और वाजश्रवा के बहाने। इस संग्रह पर बात करने से पहले मंगलेश डबराल की कुछ पंक्तियों को उद्धृत करना जरूरी होगा। ये कवि कुंवर नारायण के समूचे रचनाकर्म पर एक टिप्पणी की तरह हैं जो मूलरूप से उनके मिथकीय प्रयोगों पर लागू होते हैं,– “उत्तर-आधुनिकतावादी चिन्तन में वैयक्तिक को ही राजनैतिक मानने की धारणा खासी प्रचलित रही है। पर्सनल इज पोलिटिकल। लेकिन कुंवर नारायण की कविता के सन्दर्भ में इसे कुछ बदल कर इस तरह कहना चाहिए कि ‘नैतिक ही राजनैतिक’ है यानी एथिकल इज पोलिटिकल।’’ (कुंवर नारायण : उपस्थिति, सं.यतींद्र मिश्र, पृष्ठ-395)  मंगलेश डबराल के इस कथन को हम इस तरह से समझ सकते हैं कि कुंवर नारायण के यहाँ ‘मिथक’ में  निजता है। एक व्यक्ति का ‘व्यक्ति+तत्व’ है। उसमें सबको छोड़छाड़ कर केवल अपने दुःख की बात, मुक्ति या कल्याण को प्राथमिकता नहीं बल्कि सबके कल्याण का ‘तत्व’ है। राजनीति हो या समाज दोनों में समूह के कल्याण पर ही व्यक्ति का कल्याण टिका हुआ है।

 

उनके द्वारा किये जाने वाले मिथकीय प्रयोगों के सन्दर्भ में पूछे गए एक सवाल का जवाब देते हुए कुंवर नारायण ने कहा–“यह सोचना ठीक नहीं कि ‘मिथक’ पुराने ज़माने के क़िस्से-कहानी भर हैं। उनके आदि रूपों में और आज के रूपों में दिलचस्प समानता है। इस समानता की जड़ें मनुष्य के उन बुनियादी भयों, आशाओं, निराशाओं, आकांक्षाओं, इच्छाओं आदि में है जो आज भी ज्यादा नहीं बदले हैं। मनुष्य केवल यथार्थजीवी नहीं स्वप्‍न-द्रष्टा भी है। जीवित रहने के लिए उसे ऐसे सपनों और आदर्शों का बल भी चाहिए जो उसे एक उद्देश्य दे और निराशा से उसे बचाए।” (समावर्तन, सितम्बर 2009, पृष्‍ठ-29)   उनके यहाँ मिथक केवल इतिहास-पुराण या दर्शन-चिंतन का मामला न होकर विगत, वर्तमान और आगत के बीच विस्तृत एक स्थायी लोक है जिससे गुजर कर ही मायने मिलते हैं। वे इसके सहारे सत्ता और सम्पदा की लोलुपता पर प्रश्‍न खड़े करते हैं। मृत्यु-बोध के सहारे मनुष्य के जीवन को झकझोरते हैं, करुणा और वास्तविक अनुभूति का उद्रेक करते हैं। झूठ,चमत्कार, प्रदर्शन, बाजार, पूंजी और दम्भ से भरे आज के मानव जीवन को मिथकीय-अनुभूति में गलाकर अर्थ भरना कुंवर नारायण की कविताओं का अपना धर्म रहा है। नचिकेता और वाजश्रवा युग्म नहीं दो पहिए हैं जीवन के ; इसी तरह चक्रव्यूह और अभिमन्यु वास्तविक अनुभूति के प्रतिबिम्ब हैं। पहला पिता के कर्मकांड और विश्‍वजीत होने के सपने से असहमत है, आत्म मुक्ति और मानव मुक्ति के लिए बेचैन है तो दूसरा महाभारत के चक्रव्यूह में फंसा चीख-चीख कर कह रहा है कि उसके जन्म से भी पहले यह युद्ध उसके लिए नियत कर दिया गया था। मानवीय विवेक-चेतना के दोनों ही प्रतिनिधि हैं, नचिकेता भी और अभिमन्यु भी। वाजश्रवा और चक्रव्यूह उनके प्रतिपक्ष हैं। इनके हवाले से ही कुंवर नारायण बेतरतीब आधुनिक जीवन शैली, राजनीति और समाज के सामने कुछ वैचारिक चुनौतियाँ उपस्थित करते हैं, जिनकी मार्क्सवादी आलोचना ने प्रशंसा की है। फिर भी मार्क्सवादी विचारधारा से नहीं जुड़े होने के कारण अधिकतर मार्क्सवादी आलोचकों ने कुंवर नारायण की कविता पर बहुत अधिक विचार नहीं किया है।

 

4.2 आधुनिकतावादी आलोचना की नज़र में

 

कुंवर नारायण पर सबसे ज्यादा गैर मार्क्सवादी आलोचकों ने ही लिखा है। कुंवर नारायण ने जब काव्य-लेखन शुरू किया तभी दुष्यंत कुमार ने लिखा– “एक मूड,  कार्निस पर,  सवेरे-सवेरे  आदि कविताएँ प्रकृति के ‘पर्सोनिफ़िकेशन’ के ऐसे ताज़े, सहज और घरेलू चित्र हैं, जिनका निर्माण कुंवर नारायण जैसे संवेदनशील कवि के लिए ही संभव है।” (वही, पृष्‍ठ-53) ‘पर्सोनिफ़िकेशन’ मतलब मानवीकरण, अर्थात प्राकृतिक हलचलों की एक ऐसी आत्मानुभूति जिसे हम वैसे ही महसूस कर सकते हैं, जैसे एक आदमी से बोलते-बतियाते उस आदमी को हम जान जाते हैं। इस तरह हम देख सकते हैं कि कुंवर नारायण हिन्दी आलोचना में एक कवि के रूप में गंभीरता के साथ बहुत जल्दी ही ‘नोटिस’ किए जाने लगे। देवीशंकर अवस्थी ने लिखा– “ इस संग्रह को पढ़ जाने के बाद पहला प्रभाव मन पर यही पड़ता है कि चक्रव्यूह की बेहद तनावपूर्ण स्थिति को कवि पार कर चुका है, ‘भटके हुए सौन्दर्यबोध’ का ज्वार उतर चुका है और कवि अधिक सहज रूप धर कर प्यार,प्रकृति और परिवेश को देख रहा है।” (कल्पना, जनवरी-1963, पृष्‍ठ-61) दरअसल, ‘प्यार’, ‘प्रकृति’ और ‘परिवेश’ को कुंवर नारायणने जिस तरह से दर्ज किया है, उसमें अन्तर्निहित सामाजिकता ने कविताओं को विशिष्ट पहचान दी है। उदाहरण के रूप में उनकी कविताओं में ‘प्यार’, ‘प्रकृति’ और ‘परिवेश’ को क्रमशः देखें ; जैसे ‘प्यार’ शब्द को वे अपनी कविता ‘ज़ख़्म’ में अद्वितीय ढंग से रख भर देते हैं और पूरी कविता एक रोशनी में तब्दील हो जाती है–

 

इन गलियों से

बेदाग़ गुज़र जाता तो अच्छा था

 और अगर

 दाग़ ही लगना था तो फिर

कपड़ों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं

 आत्मा पर

किसी बहुत बड़े प्यार का ज़ख़्म होता

जो कभी न भरता।”

 

‘ज़ख़्म’ शब्द का ‘प्यार’ शब्द से यह नाता हिन्दी में कुंवर नारायण के अलावा कहीं नहीं है या फिर वह उर्दू गजलों की परम्परा में  है। शब्दों के भीतर इस तरह का अर्थानान्तरण ( अर्थ का अन्तर बदल जाता है चाहे शब्द कोई भी हो ) कवि की ‘प्रेम-दृष्टि’ का ही परिणाम है। इसी तरह ‘प्रकृति’ पर उनकी एक कविता है जिसका एक अंश है– ‘कि वह एक छन्द है जिसके अन्दर / मेरी एक अटपटी इच्छा बन्द है,’। इस कविता का शीर्षक है, नदी बूढ़ी नहीं होती  और कवि नदी के बहाने पूरी प्रकृति को छन्द के ‘रूपक’ में बदल देता है। जिसमें जीवन का राग है, राग को कवि ‘अटपटा’ कहकर ममता और वात्सल्य का रस भरता है। यह अटपटापन बच्‍चे की वह तोतली जुबान है जिस पर ‘माँ’ न्यौछावर रहती है। यह बिना किसी बड़े दावे के प्रकृति से सम्बन्धों की प्रगाढ़ता की कविता है। अतः कुंवर नारायण प्रकृति प्रेम के भी कवि हैं, उनकी बहुत सारी कविताएँ प्रकृति के ‘आलम्बन’ और ‘उद्दीपन’ दोनों ही अवस्थाओं को साथ लिए चलती हैं। इस तरह प्रकृति-सम्बन्धी कवियों और उनकी कविताओं की श्रृंखला में कुंवर नारायण सुमित्रानंदन पन्त, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल और सर्वेश्‍वर दयाल सक्सेना की परम्परा के कवि हैं। रही बात ‘परिवेश’ की तो उनकी एक कविता है ‘काग़ज़,कलम और स्याही’ जिसमें वे लिखते हैं –

 

सोचा, कल को लिखूँ

इतिहास की तरह

आज को लिखूँ

साहित्य की तरह,

अन्त को लिखूँ

धर्मग्रन्थ की तरह।

 

‘परिवेश’ की रचना में उद्धत भाव और विचार – दोनों की यह चरम प्रस्तावना है। ‘लिखने’ का बोध बहुत बड़ा है, सार्थकता की बेचैनी है और सार्थकता प्रासंगिकता से ही सम्भव है। कुंवर नारायण प्यार, प्रकृति और परिवेश का ऐसा वृत्त बनाते हैं जिसमें से किसी एक को अलग करके नहीं समझा जा सकता। उनकी कविता संश्‍लेषण की कविता है विश्‍लेषण की नहीं।

 

इस बात का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि परिवेश : हम-तुम  के बाद के वर्षों में कुंवर नारायण का काव्य-संग्रह हिन्दी जगत में एक अनिवार्यता के साथ पढ़ा जाने लगा। जैसे-जैसे उनकी कविताओं में विचार और संवेदना के मार्मिक और सूक्ष्म-प्रसंग कथा, मिथक, इतिहास, पुराण, आधुनिकता और समकालीन संक्रमण के भावों को समेटते हुए आते चले गए उनके ऊपर काव्य-आलोचना भी उसी अनुपात में लिखी गयी। कविता की लय को पकड़ते हुए, उस संवेदना-तंत्र के ‘जरा-से’ प्यार में डूबे हुए 88 वर्षीय कुंवर नारायण का लेखन आज भी जारी है, जो हिन्दी आलोचना को कसौटी के नए मानदंड तैयार करने के लिए बाध्य करता रहा है। ‘बाध्य’ इसलिए कि उन्होंने अपनी रचनात्मकता के लगभग आरम्भिक दौर में ही यह साबित कर दिया था कि उनकी कविता का ‘डिक्शन’ – अर्थात शैली अलग है और उस तक पहुँचने के लिए आलोचना को नए मानदंड अपनाने होंगे।

 

कुंवर नारायण हिन्दी में केवल कविता और अनुभूति ही लेकर नहीं आये थे, विचार तत्त्व, मुद्दे और मनुष्य जीवन की चरम ‘उपस्थिति’ को सही जगह विन्यस्त करने के लक्ष्य के साथ आये थे। चरम उपस्थिति मतलब जीवन के वास्तविक लक्ष्य को पा लेना अर्थात मुक्ति, और उसकी सार्थकता सबके साथ मुक्त होने में है। यह कुंवर नारायण का अपना समाज दर्शन है, जिसे भारतीय परम्परा से ही निचोड़ कर कवि पुनःसृजित करता है। इसलिए कहा गया कि उनकी कविता आलोचना के मानदंड बदलने की मांग करती है। इटली के वेनिस विश्‍वविद्यालय की प्रोफेसर मरियोला ओफ्रेदी ने एक लेख लिखा मैन एंड सोसाइटी इन कंटेम्पोरेरी हिन्दी पोएट्री, उसमें कुंवर नारायण के आत्मजयी  से लेकर  आमने-सामने  तक की कविताओं की विवेचना है। उन्होंने एक ओर लिखा –“मुखर राजनीतिक प्रतिबद्धता, या व्यक्तिवादी विद्रोह आत्मजयी में अनुपस्थित है; अगर कोई अन्तर्निहित प्रतिबद्धता है तो मनुष्य–मात्र के प्रति है” (कुंवर नारायण : उपस्थिति, सं.यतींद्र मिश्र, पृष्ठ-68) वहीं उन्होंने दूसरी ओर आमने-सामने  के लिए लिखा –“कवि द्वारा अपनाया गया दृष्टिकोण अब तक स्पष्ट हो चुका है। तो भी, यह वह विचारधारा है जो मनुष्य को बाकी सब से, सभी राष्ट्रों से ऊपर स्थापित करती है। वह ख़ुद को अछूतों के साथ हो रहे भेदभाव तक सीमित नहीं रखता बल्कि अश्‍वेत लोगों ( काले लोग  कविता के सन्दर्भ में – आमने-सामने संग्रह) के विरुद्ध श्‍वेत लोगों के नस्लवाद को भी निशाना बनाता है।” (वही, पृष्‍ठ- 92) इस तरह कुंवर नारायण बड़े सांचे (फ्रेम) के कवि हैं। उनके यहाँ संघर्ष और तकलीफ़ को किसी ‘वाद’ या विचारधारा के घेरे में नहीं रखा गया है।

 

विष्णु खरे ने लिखा है –“हिन्दी कविता में बौद्धिक तथा अनास्था के कई रूप हैं, जिनमें से एक अकविता का, दूसरा श्रीकांत वर्मा,कैलाश वाजपेयी की कविता का,तीसरा आत्मदया से भरे लघुमानववाद का तथा चौथा जुझारू वामपंथ का है। इन चार तरह की कविताओं के अतिवाद से अपने को बचाए रखना और तब भी अपनी कविता सुरक्षित रख पाना कुंवर नारायण सरीखे विरले सजग, समर्थ तथा सच्‍चे कवि के ही बूते की बात थी। उनकी कविता दुखद रूप से एक जागरूक व्यक्ति की कविता है जो चाह कर भी स्वयं को धोखा नहीं दे सकता है।” (आलोचना, जनवरी-अप्रैल,1981,पृष्‍ठ-35)  कुंवर नारायण की कविता की विवेचना किसी ख़ास ढ़र्रे से संभव नहीं। उन्हें देखने की कई दृष्टियाँ हैं क्योंकि उनकी कविता का स्पंदन क्षेत्र एक वृहद् विश्‍व दृष्टि से निर्मित है और निश्‍च‍ित रूप से उसके निर्माण में भारतीय चिंतन परम्परा एवं दर्शन की भूमिका अग्रणी है। इसी विशेष संवेदना में ‘उचित’ होने की मशक्‍कत में उनकी कविताओं ने हिन्दी की काव्य चेतना के समकालीन फ़लक को भी विस्तृत कर दिया। अशोक वाजपेयी ने लिखा –“एक निरन्तर क्रूर हिंस्र होते समाज में यह हाशिए पर से दुनिया को भरी नज़र से देखने की कोशिश करती कविता है आज जिन सरोकारों का बोलबाला है, उसमे राजनीति का वर्चस्व है, सामजिक बोध की तूती बोल रही है इन सरोकारों में नैतिक चेतना की जगह कहाँ?बीसवीं सदी राजनीति की सदी है, नीति की नहीं कुंवर नारायण को राजनीति से गुरेज नहीं,पर वे राजनीतिक सच्‍चाई के नैतिक आशय को विन्यस्त करने की चेष्टा करते हैं (कुंवर नारायण: उपस्थिति, सं.यतींद्र मिश्र, पृष्ठ-174) एक कवि की कविता, दरअसल दुनिया क्या है और उसे कैसी होनी चाहिए के बीच में ही लिखी जाती है।

 

अंग्रेजी साहित्य के विद्वान हरीश त्रिवेदी भूल चूक लेनी देनी  कविता को इसलिए पसंद करते हैं कि– जिसमें उन्होंने (कवि ने) व्यापार के घिसे-पिटे चौकस मुहावरे में उदात्त मानवीय मूल्यों की साँस फूंकी है – विश्‍वास बनाये रखना, कभी बन्द नहीं होंगे दुनिया में, ईमान के खाते’ कुंवर नारायण अनास्था से भरी दुनिया में भी आस्था पर भरोसा रखने वाले कवि हैं। यह कवि आलोचकों की निग़ाह में मिथक,पुराण और दर्शन का ही कवि नहीं बल्कि आम आदमी के संघर्ष और उनके जीवट पर भरोसा रखनेवाला कवि है। सम्भवतः इसी आशय से प्रयाग शुक्ल ने लिखा –“कविताओं के स्वभाव में कोई हड़बड़ी या जल्दबाजी नहीं है उसमे बेचैनी है एक तीव्र खोजी वृत्ति भी और अनुभवों के उत्ताल तरंगों का सामना करने की इच्छा और कर्मशक्ति भी भरपूर मात्रा में है पर एक गहरा धीरज भी है – – –निजी और सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों को मुद्दों और मुकदमों के रूप में पेश करती हुई, ‘कोई दूसरा नहीं’ की बहुतेरी कविताएँ विट और ह्युमर का भी विलक्षण इस्तेमाल करती हैं तथा और भी सनक गई, और जटिल हो गई दुनिया की सनकी हुई चीजों पर मर्मभरी टिप्पणी करती हैं (वही, पृष्‍ठ-209)

 

इन दिनों  (सन् 2002) कविता संग्रह हमारी समकालीन रचनाशीलता की सर्वोत्तम उपलब्धि है। भूमण्डलीकरण के बाद भारत जिस हिसाब से बदला है उसमें जीवन एक तरह से बाजार की जरूरत भर बन कर रह गया है। कवि इस ‘बाजार’ में ख़ुद को बहुत अकेला पाता है मगर ‘और एक ख़ुशी/ कुछ कुछ सुकरात की तरह/ कि इतनी ढ़ेर-सी चीजें/ जिनकी मुझे कोई जरूरत नहीं!’ जैसी पंक्तियाँ लोलुप जीवन की नैतिक धुरी को ही ध्वस्त करती हैं। कवि के पास वही दृष्टि है जो मध्यकाल के आधुनिक कवि कबीर के पास थी – ‘कबीर माया पापिणी, भर भर मारे बाण’।  कुंवर नारायण परम्परा के चिंतन को इक्‍कीसवीं सदी में खींच लाते हैं। बाजार से भय है, और यह वैसा ही है जैसे हिंसा का, दुर्घटना का या असुरक्षा का भय होता है। यह धीरे-धीरे जीवन के सामान्य परिवेश में विकसित हुआ है इसलिए नित हो रहे बाहरी परिवर्तन को लेकर कवि सशंकित है। इसी संग्रह की एक कविता है ‘वे भीड़ नहीं,हम हैं ’ जिसमें कवि देख लेता है –“लगता है कोई भीषण दुर्व्यवस्था/ हमारी रक्षा कर रही।” यह केवल भाषा का श्‍लेष नहीं बल्कि जीवन स्थितियों का भी अद्वैत है- जो ख़तरनाक है। कुंवर नारायण, मुक्तिबोध की तरह भले ही ‘भयानक खबरों के कवि’ नहीं हैं पर उनकी कविता में भयावह स्थितियां कम नहीं हैं।

  1. निष्कर्ष

 

वस्तुतः एक कवि को उसकी समग्रता में ही समझा जा सकता है। कुंवर नारायण की कविता की चेतना एकरेखीय नहीं है। इस चेतना में इतिहास, पुराण, मिथक, परम्परा,संघर्ष और आधुनिकता बोध के मिश्रण से एक विशेष सौन्दर्य आकार लेने के लिए छटपटाता रहता है। आलोचकों ने चाहे वे किसी भी विचारधारा से सम्बद्ध हों उनकी इस काव्य चेतना की विशेषता को पकड़ने का प्रयास किया है। वास्तव में कुंवर नारायण की कविताएँ सभ्यता संतुलन के लिए चौकस रागात्मक काव्याभिव्यक्ति हैं। कविता में यदि संघर्ष है तो इस बोध के साथ कि यह अकेले का नहीं है। उनकी कविताओं के सौंदर्य को आलोचकों ने अपनी-­अपनी आँखों कई तरह से देखा है, लेकिन कुंवर नारायण की काव्य विशेषता ने सभी का ध्यान आकर्षित किया है।

you can view video on हिन्दी आलोचना में कुंवर नारायण का मूल्यांकन

अतिरिक्त जानें  पुस्तकें

  1. कुंवर नारायण: उपस्थिति , यतींद्र मिश्र(संपा.) ,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  2. तट पर हूँ तटस्थ नहीं ,सं.विनोद भारद्वाज , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. आधुनिक कविता युग और संदर्भ, शिवकुमार मिश्र, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली
  4. आलोचना की सामाजिकता, मैनेजर पाण्डेय,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. वाजश्रवा के बहाने, कुंवर नारायण, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
  6. परिवेश:हम-तुम, कुंवर नारायण,वाणी प्रकाशन, दिल्ली
  7. कुंवर नारायण की काव्य-दृष्टि और उनकी कविता, पंकज चतुर्वेदी जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली
  8. आत्मजयी: नचिकेता के प्रसंग पर आधारित– संपादक-लक्ष्मीचंद्र जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
  9. कुंवर नारायण और उनका साहित्य– अनिल मेहरोत्रा, ज्ञान भारती प्रकाशन,दिल्ली
  10. समावर्तन,सितम्बर 2009.
  11. कल्पना ,जनवरी 1963,
  12. आलोचना, जनवरी-अप्रैल, 1981

 

वेब लिंक्स

  1. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%81%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3
  3. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3
  4. http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3875&pageno=1
  5. https://www.youtube.com/watch?v=XbYtU1swF-Y