29 कुँवर नारायण की कविताओं का पाठ विश्लेषण
डॉ. रेखा सेठी
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- यकीनों की जल्दबाज़ी से : पाठ विश्लेषण
- अपने बजाय : पाठ विश्लेषण
- लखनऊ : पाठ विश्लेषण
- अटूट क्रम : पाठ विश्लेषण
- कुछ ऐसे भी ये दुनिया जानी जाती है : पाठ विश्लेषण
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–
- कुँवर नारायण की चुनी हुई विशिष्ट कविताओं की विशेषताओं से परिचित हो सकेंगे।
- इन कविताओं के मूल अर्थ को समझ सकेंगे।
- आपका परिचय इन कविताओं में उभरने वाली अर्थ-व्यंजनाओं से होगा।
- आप इन कविताओं की भाषा और रचना प्रक्रिया को समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
कवि कुँवर नारायण समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनकी कविताएँ जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को प्रस्तावित करती है। प्रस्तुत इकाई में उनकी कुछ चुनी हुई कविताओं के माध्यम से बात होगी। यहाँ जिन पाँच कविताओं को लिया गया है उनमें हैं- यकीनों की जल्दबाज़ी से, अपने बजाय, लखनऊ, अटूट क्रम, कुछ ऐसे भी यह दुनियाँ जानी जाती है…।
यकीनों की जल्दबाज़ी से कविता कोई दूसरा नहीं काव्य संग्रह में संकलित हैं। यह कविता, कविता के सामाजिक अस्तित्व, उसकी सार्थकता और उसके बचे रहने की आकांक्षा को रेखांकित करती है। दूसरी कविता है अपने बजाय जो अपने सामने संकलन से ली गयी है। इस कविता में कवि आत्मसंवाद करता दिखाई पड़ता है। उसमें इतना नैतिक साहस है कि वह स्वयं को कठघरे में खड़ा कर अपनी आलोचना कर सके। अगली कविता है लखनऊ जो अपने सामने में ही संकलित है। कवि यहाँ विभिन्न बिम्बों के माध्यम से लखनऊ शहर का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत कर रहा है जिसमें एक निरुद्देश्य भागम-भाग मची है। यह शहर अपनी प्राचीन गरिमा खोकर पतनशील संस्कृति का बोझ ढो रहा है लेकिन वो जैसा भी है कवि उसे ‘हमारा-अपना लखनऊ’ कहकर अपना लेता है।
अटूट क्रम कविता कुँवर नारायण के पहले काव्य संग्रह चक्रव्यूह से है। चक्रव्यूह में ऐसी कई कविताएँ हैं जिनमें लगता है कि कवि आत्मसंवाद कर रहा है। यहाँ कवि जीवन का उभयपक्षी चिंतन प्रस्तुत करता है, जहाँ कुछ भी निश्चित होना आवश्यक नहीं है। यह निश्चित न होना ही उसे रूढ़ होने से बचाता है। कवि लक्ष्य निर्धारित करने की अपेक्षा यात्रा के आनंद को ही लक्ष्य मानता है। यही जीवन का अटूट क्रम है।
‘कुछ ऐसे भी यह दुनिया जानी जाती है’ कविता भी कुछ इसी मिजाज़ की कविता है जो चक्रव्यूह संकलन में ही संकलित हैं। कुँवर नारायण अलग-अलग ढंग से बार-बार इस बात पर बल देते हैं कि जीवन और संसार को देखने का कोई एक नज़रिया नहीं होता। अलग-अलग दृष्टिकोण महत्वपूर्ण हैं क्योंकि हर एक के अन्तस में उसका अपना सत्य है। कवि के लिए दुनियाँ के सभी रूप महत्वपूर्ण हैं और उन्हें व्यक्ति अपनी दृष्टि से ग्रहण करता है। कवि किन्हीं पूर्वाग्रहों से बद्ध नहीं है इसलिए उसके मन में सबके प्रति एक स्वीकार भाव है। यही कवि की सकारात्मक रचनात्मकता का प्रमाण है।
- यक़ीनों की जल्दबाज़ी से : पाठ विश्लेषण
कुँवर नारायण ने कविता को मनुष्यता के समकक्ष माना और इस दृष्टि से यक़ीनों की जल्दबाज़ी से एक विलक्षण कविता है। यक़ीन करना पूर्ण निश्चय रखना है लेकिन क्या इस संसार में कुछ भी स्वतः सम्पूर्ण है, जिसे सम्पूर्ण कहा जा सके। किन्हीं मायनों में यह सम्पूर्ण बाकी सबकी हत्या कर देता है। अतः ज़रूरी है कि थोड़ा अनिश्चय भी बचा रहे, जिससे उन विचारों के लिए जगह बने जो पूर्णता न पाकर भी जीवनदायी हो सकते हैं। कवि के अनुसार यक़ीनों की जल्दबाज़ी घातक हो सकती है। उसकी ताकत को तोड़ने के लिए शक़ करना ज़रूरी हो जाता है क्योंकि शक़ करना प्रश्नाकुलता का प्रतीक है। यह प्रश्नावाचकता ही आधुनिकता का मूल धर्म है। कभी-कभी अफवाहों का बाज़ार इतना गर्म हो जाता है कि बहुमत बन जाता है। कुँवर नारायण बहुमत की तानाशाही में विश्वास नहीं रखते। वह उस आधुनिक मनुष्य के पक्षधर हैं जो अपना सत्य स्वयं अर्जित करता है और उसके लिए वह हर घटना, हर घोषणा पर संदेह करता है और यह प्रश्नाकुलता एवं संदेहात्मकता उसका मानवीय अधिकार है।
कवि कविता के संदर्भ में कहता है कि लगभग अफ़वाह की तरह यह ख़बर उड़ी कि ‘कविता अब नहीं रही’। उत्तर-आधुनिक दौर में जब इतिहास और विचारधारा के अन्त की घोषणा हो रही है; तब कविता की उपादेयता पर भी संकट छाया हुआ है। आज के राजनीतिक माहौल और अर्थकेन्द्रित बाज़ार में कविता की सार्थकता का कोई ग्राहक नहीं है। इसी कारण यह अफवाह फैली कि कविता नहीं रही। कवि कहता है कि ‘यकीन करने वालों ने यकीन कर लिया’ लेकिन जो लोग मन और स्वभाव से सच्चे अर्थों में आधुनिक हैं उन्होंने संदेह किया।किसी भी बात को अच्छी तरह जाँचे-परखे बिना उस पर विश्वास करना किसी गड़बड़ी की सूचना देता है।कवि ऐसी जल्दबाज़ी के प्रति सावधान करता है।कवि की यह मान्यता है कि यकीनों की ऐसी जल्दबाज़ी को अस्वीकार करने से ही कविता को बचाया जा सका।कवि कहता है कि यह पहली बार नहीं है जब एक बेगुनाह की जान बचाने का दायित्व समाज पर पड़ा हो और अफवाहों के शोर के बीच छोटा-सा संदेह सच को जीवित रख सकने में कामयाब हुआ हो।
इस जीवन में जो भी शुभ, बचाने योग्य है कविता की उसमें अपनी जगह है। कवि कुँवर नारायण के लिए कविता इंसानियत की उम्मीद है।
- अपने बजाय : पाठ विश्लेषण
कुँवर जी ने अपनी कविताओं में निजता और सार्वजनिकता के अनेक धरातल रचे हैं। उनका ‘निज’ नितांत वैयक्तिक एकांत भर नहीं है, वह आत्म-संवाद भी है और आत्म-साक्षात्कार भी। इस कविता में कवि ऐसे ही आत्म-साक्षात्कार का ज़िक्र करता है, जब वह अपना वकील बनकर अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त होने की अपेक्षा अपना सामना करना चाहता है।तेजी से बदलती दुनिया में हम कितने ही मुखौटे क्यों न पहन लें लेकिन उन बहुत-सी परतों के नीचे भी एक सच रहता है। जिसे अपने से छिपाना संभव नहीं। स्वीकार करने के लिए हमें अपने भीतर नैतिक साहस जुटाना पड़ता है। एक शक्ति अर्जित करनी होती है। कवि स्वयं पर भी नैतिक नज़र रखता है जिससे अपने होने और रचने के औचित्य को स्थापित किया जा सके।
कविता की शुरूआत आत्म-विश्लेषण के एक बिंब से होती है जब कवि तेज़, रफ़्तार भरी ज़िन्दगी में रूककर सोचने की बात करता है। आज, जीवन की तेज़ गति में हर क्षण हमारे आस-पास सब बदलता रहता है, जैसे लीलाओं में कोई माया चक्र, क्षण-प्रतिक्षण परिवर्तन उपस्थित करता बढ़ता है। कवि इस रफ़्तार में जीते हुए व दृश्यों के बदलने की दूरी को पार कर कुछ सोचने के लिए रूकता है। दूसरा बिंब रफ़्तार और विस्तार की जगह कमरे में कैद होने की कैफ़ियत का है। हम एक साथ यथार्थ की इन दोनों सतहों पर जीते हैं। ‘एक ही कमरे में उड़ते-टूटते लथपथ’ से कवि का अभिप्राय उस मनोदशा से है जब व्यक्ति स्वयं को अनेक जकड़बंदियों में घिरा हुआ महसूस करता है, उस पक्षी की भाँति जो कमरे में उड़ान भरने की कोशिश करते हुए दीवारों से टकराकर लथपथ हो जाए। दुनिया के रस्मों-रिवाज़ और तयशुदा रास्तों के बीच अपनी स्वतंत्र अस्मिता को ज़िंदा रख पाना भी इसी तरह लहूलुहान कर देने वाला अनुभव है।
आपाधापी तथा तीव्र प्रतिस्पर्धा के समय में जब दुनियादारी निभाने में अपना हित समझा जाता है। तब कवि इस दुनिया से ध्यान हटाकर उस बात पर ध्यान देना चाहता है जहाँ नैतिक अकेलेपन को ज़िंदा रखा जाता है। उसमें प्रार्थना की जाती है और अपने से भागने के बजाय अपने से सच कहा जाता है। कवि आगे कहता है कि हम कौन-सी राह चुनते हैं ‘अपने से सच कहने’ की या ‘अपने से भागने’ की यह भी हमारा ही चुनाव है। दुनिया में किसी को यह खबर नहीं होगी, यह पता भी नहीं चलेगा यदि मैं उस बंधन को झटक दूँ जो मुझे मेरी गवाही से जोड़ता है। आज चारों ओर का शोर इतना बढ़ गया है कि सब ओर एक ही -‘रेटॉरिक’ सुनाई देता है। यह ज़माना ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ होने का ज़माना है। इसलिए जो कहा जा रहा है वह व्यक्ति का आंतरिक सच नहीं है। कवि को लगता है कि ऐसे ही किसी बातूनी मौके का फायदा उठाकर एक बहस खड़ी की जा सकती है जिसमें अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी से छूटकर व्यक्ति अपना वकील बन जाए। वकील के पास हमेशा कहने को सच नहीं होता, एक दुराग्रह होता है जिसे अपने पक्ष की पैरवी के लिए इस्तेमाल किया जाता है। व्यक्ति के लिए भी अपना वकील बनना ज़्यादा आसान है।
कवि की टोन दोनों स्थितियों को सामने रखते हुए भी अपने चुनाव, व्यक्ति के दायित्व को स्पष्ट कर देती है। निज की तलाश में व्यक्ति को जोखिम उठाने के लिए संकल्परत करती है। यही किसी बड़े कवि की पहचान है कि वह आसान दिखने वाली स्थितियों के बीच से ऐसे सवाल खड़े कर दे जिनसे हमारा समय और मानवीय संस्कृति युगों तक प्रभावित होते हैं। अपने बजाय कविता में कुँवर नारायण उसी चेतन आत्म की तलाश कर रहे हैं। यथार्थ केवल परिवेश नहीं है। भीतर का लहुलुहान यथार्थ, जीवन से बहुत बड़े नैतिक साहस की माँग करने वाला यथार्थ, व्यक्ति मात्र का ही सच नहीं है उसमें मनुष्यता का बड़ा ‘स्पेक्ट्रम’ दिखाई देता है।
- लखनऊ : पाठ विश्लेषण
लखनऊ सिर्फ़ एक शहर का नाम नहीं, एक संस्कृति का नाम है। हिंदुस्तान के भौगोलिक मानचित्र पर लखनऊ अपनी गंगा-जमुनी विरासत के लिए प्रसिद्ध रहा है। कभी-कभी यह विरासत बोझ भी बन जाती है। लखनऊ पर भी उसकी संस्कृति इतनी हावी हो गई कि वहाँ जीवंतता के स्रोत सूखने लगे। हिन्दी साहित्य में बहुत कम कविताएँ हैं जो किसी शहर और उसकी संस्कृति को रूपायमान करती हों। कुँवर नारायण की कविता लखनऊ उस शहर का रोचक विवरण है। इस कविता में लखनऊ की प्रस्तुति बिम्बों की लड़ी के माध्यम से हुई है। ये सभी बिम्ब मिलकर शहर के निरुद्देश्य भागमभाग का चित्र खींचते हैं। कविता में वर्णनात्मकता का गुण विद्यमान है। शहर के अलग-अलग हिस्सों के ब्यौरे व कुछ अनूठे प्रतीक लखनऊ का चित्र पाठक के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। यह कविता अपने खास अंदाज़े बयां के कारण विशेष लोकप्रिय रही।
कविता के आरंभ में लखनऊ को एक बूढ़े व्यक्ति के रूपक से प्रस्तुत किया गया है। बूढ़े व्यक्ति अक्सर नौजवानों के तरीकों पर नाराज़, चिड़चिड़ाए हुए से रहते हैं जबकि उनकी अपनी आत्मशक्ति क्षीण हो चुकी होती है। ऐसे में कवि ने इस बात पर विशेष बल दिया है कि ऐसे बूढ़े व्यक्ति ‘टूटी आरामकुर्सी’ (जो समय के साथ अपनी चमक और ताकत खो चुकी है) पर अधलेटे-अधमरे, खाँसते हुए बूढ़े के समान लखनऊ शहर भी बूढ़ा हो चुका है। यह शहर समय के साथ नहीं चल रहा। वह अपनी महानता में इतना व्यस्त है कि हर नई चीज़ पर कुछ नाराज़-सा है ठीक वैसे ही जैसे बुजुर्ग लोग आने वाली पीढ़ियों पर नाखुश दिखते हैं।
लखनऊ के चार हिस्से हैं- कॉफी हाउस, हज़रतगंज, अमीनाबाद और चौक। चारों हिस्सों में अलग-अलग तरह के लोगों का जमावड़ा रहता है- कहीं सरकारी कार्यालय हैं, कहीं बाज़ार की रौनक और कहीं कॉफी हाउस में बुद्धिजीवियों की बैठक। चार हिस्से मानो चार तरह की तहज़ीब के प्रतिनिधि हैं। इस लखनऊ में कुछ नौजवानों का भी बसेरा है लेकिन वे नौजवान यहाँ अपनी जीवन-शैली नहीं जी पा रहे। कवि कहता है कि ये नौजवान ज़िन्दगी को तरसते हैं। युवा जीवन का उत्साह वहाँ कुंठित हो रहा है। वे बात-बेबात की बहसें करते हैं, एक-दूसरे से ऊबे होकर भी, एक-दूसरे को सहते हैं। बचना चाहकर भी बार-बार टकरा जाते हैं। इस तरह ग़म खाते, ग़म पीते वे उत्साहहीन ज़िन्दगी जी रहे हैं।
इसके बाद कवि उस शामे-अवध की बात करता है, जिसकी चर्चा तहज़ीब के शिखर के रूप में की गई है। उसमें नवाबी तकल्लुफ इस कदर था कि छोटी से छोटी बात को समझने-समझाने में भी घंटों का समय निकल जाता। बेकार के तकल्लुफ और बहस के मिजाज़ ने ज़िन्दगी की सहज गति और रंगीनी छीन ली थी। अगला चित्र लखनऊ के बाज़ार का है। बाज़ार के लिए कवि ने बहुत खूबसूरत पंक्ति दी है- ‘जहाँ ज़रूरतों का दम घुटता है’। बाज़ार और ज़रूरत का कोई रिश्ता नहीं। वह ज़रूरत से अधिक आकर्षण का केन्द्र है। कवि कुँवर नारायण बाज़ार का आतंकित कर देने वाला चित्रण करते हैं। सब ओर इतनी अधिक भीड़ है कि जैसे पूरा भीड़ का युग चल रहा हो। सभी सड़कों पर जगह तक नहीं बची। बिना वजह चारों तरफ भागमभाग मची हुई है। चारों ओर निरुद्देश्यता की स्थिति है जिसे कवि ‘बे-रौनक आना-जाना’ कहता है और जो बेहद निराशाजनक है।
इसके बाद कवि लखनऊ के वर्णन के लिए उपमाओं की झड़ी लगा देता है। इन उपमाओं में सिसकता दर्द, उसकी हर कड़ी में सुनाई पड़ता है क्योंकि लखनऊ अपने अतीत के बोझ से दबा नई ज़िन्दगी के लिए तरस रहा है। लखनऊ ‘मुर्दा शानो-शौकत की कब्र’, ‘तवाइफ की ग़ज़ल’, ‘कमान कमर नवाब के झुके हुए शरीफ आदाब सा’ होकर रह गया है। इस सारे वर्णन में एक पीड़ा है मानो सब्र का बाँध टूट जाना चाहता है। ज़िन्दगी को ज़बरदस्ती किसी ने बंद कर सिसकने को विवश कर दिया हो।
कुँवर नारायण जिस समय के लखनऊ की बात कर रहे हैं उसमें ह्रासोन्मुख, पतनशील तहज़ीब ही दिखाई पड़ती है। एक लंबे समय तक लखनऊ जीती-जागती, धड़कती, साँस लेती संस्कृति का प्रतीक रहा, जिसने जीवन की हर कला में नफ़ासत पैदा की। खान-पान चिकनकारी, संगीत, अन्य कलाएँ सबमें इस शहर ने अपनी एक जगह बनाई। स्थूल सांसारिक घटनाओं से नाता तोड़ उसने भीतरी खूबसूरती को मूर्तिमान करने की कोशिश की। जीवन जीने की कला सिखाई। कवि ने उस ओर संकेत करते हुए भी उसकी अधोगति का ही अधिक वर्णन किया है। वह हर प्रकार के सौन्दर्य एवं कला को लुप्त होती संस्कृति का रूप मानता है, जैसे ‘खंडहर में बेगम का शबाब’। खंडहर के बीच सौन्दर्य भी अपनी सार्थकता खो बैठता है। खंडहर की वीरानी, खूबसूरती के जीवन-स्रोत को सूखा देती है। उसका सारा सत्व छीन लेती है, चाहे फिर वह बारीक मलमल पर कढ़ी बारीकियाँ हों या नवाबों को रिझाने के लिए गाई जाती कव्वालियाँ, सब दमघोटू बनने लगते हैं। कवि कहता है कि ‘किसी मरीज़ की तरह नयी ज़िन्दगी के लिए तरसता/ सरशार और मजाज़ का लखनऊ’।
लखनऊ सरशार और मजाज़ जैसे शायरों का भी है जो पतन के विभिन्न धरातलों के बीच भी क्रांति के जीवनदायी गीत गा सके। पूरी कविता में जिस लखनऊ को कवि अस्वीकार करता है, उसे मानो अंतिम पंक्ति में यह कहकर अपना लेता है-‘यही है क़िब्ला/ हमारा और आपका लखनऊ।’ प्रेम और घृणा, दोनों ही ओर भावना का उद्दाम वेग है, यही इस कविता में प्रतिबिंबित हुआ है।
- अटूट क्रम : पाठ विश्लेषण
अटूट क्रम, कुँवर नारायण के पहले काव्य संग्रह चक्रव्यूह में संकलित, महत्त्वपूर्ण कविता है। इस कविता में भी कवि जिस अटूट-क्रम को प्रतिस्थापित करता है, वह जीवन में निश्चितता और स्थापित ढाँचों के विरोध में है। कुँवर जी ने जीवन को कभी खानों में बाँटकर नहीं देखा। वे जीवन में एक निरंतरता देखते हैं। इसके मूल में जीवन के प्रति सकारात्मक स्वीकार भाव है जो इसे स्पृहणीय बनाता है। आज का मनुष्य बिना समझे-बूझे तथाकथित ‘सफलता’ की दौड़ में दौड़ रहा है। जीवन में सार्थकता का अनुभव सफलता से कहीं ऊपर है। कवि विचार रखता कि हर बार जीवन में निश्चित लक्ष्य होना क्यों ज़रूरी है? यात्रा का आनंद भी तो लक्ष्य हो सकता है। अटूट-क्रम कविता जीवन के इसी उभयपक्षी चिंतन को प्रस्तुत करती है।
कवि, जीवन की गंभीर समस्या को अनुत्तरित प्रश्न के रूप में रखता है। वह सवाल करता है कि लक्ष्य को भली-भाँति जानना क्यों ज़रूरी है। जब जीवन निरंतर चलने वाला संघर्ष है तो फिर यह परिभाषित करना क्यों आवश्यक है कि उसका पक्ष क्या है? जीवन को हर बार पूर्व स्थापित मानदंडों द्वारा निश्चित नहीं किया जा सकता। कवि उसे निश्चित किए जाने के पक्ष में नहीं है। वह कहता है कि यदि यह मान लिया जाए कि चलने या आगे बढ़ने का असली सत्व, उसका असली आकर्षण मार्ग के अनिश्चित होने में ही है तो रास्ता कैसा होगा, पथरीला, काँटों भरा या सुहावना, फूलों सजा यदि यह न जानते हुए भी उस राह पर निकल जाऊँ तो क्या बुरा है। इस रास्ते का कोई अन्त है या नहीं यह कह पाना भी कठिन है। इस अनिश्चितता में ही इसकी खूबसूरती है।
तारों भरे आसमान में दृष्टि को प्रकाशित करने वाला वह एक तारा भी अलग पहचान लिया जाता है। इसी तरह बंजारा जीवन में भी एक भटकन और अनिश्चय है लेकिन कवि उस अनिश्चय को शान से अपनाना चाहता है। उसी को अपना घर मान लेता है, जो कहीं है, या फिर नहीं ही है। कवि के अनुसार जीवन में ऐसा स्थायित्व न हो तो भी वह प्रिय हो सकता है।
कविता के अंतिम अंश में कवि यह इच्छा प्रकट करता है कि यदि वह अचानक ‘प्रगल्भ बहार’ की तरह मूर्च्छित वनों में प्रस्फुटित हो जाए और पुनः अपने ही बीज का भवितव्य बनकर लौट आए तब भी क्या बुरा है। यहाँ ‘अचानक’ शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है। एक प्रकार की आकस्मिकता कई बार किसी प्राप्य को और भी वांछित बना देती है। ‘बीज’ से ‘भवितव्य’ तक की यात्रा एक जीवन-क्रम को पूरा कर देती है। कवि उसी के बीच अपना अगला कदम उठाना चाहता है जो किसी निश्चित दिशा की ओर हो सकता है और अनिर्दिष्ट भी।
इस कविता में जीवन और विचार के खुलेपन पर बल दिया गया है। सीमाओं के बिना उसमें नई जीवनी-शक्ति को अर्जित कर पाना संभव है। चक्रव्यूह में ऐसी और भी कविताएँ हैं, जिनमें लगता है कि कवि अपने-आप से संवाद कर रहा है जबकि कविता का कथ्य केवल उस तक सीमित नहीं है। वह कई और दिलों के तार भी छू देता है। कहने का यह निजी ढंग अवश्य ही कविता को अधिक विश्वसनीयता प्रदान करता है।
- कुछ ऐसे भी यह दुनियाँ जानी जाती है : पाठ विश्लेषण
तुकात्मक एवं गीतात्मक ढंग की यह कविता कुँवर नारायण के कुछ अलग मिजाज़ को प्रस्तुत करती है। गंभीर और दार्शनिक कविताएँ रचने वाले कुँवर नारायण कई बार भाषा का अद्भुत खेल रचते हैं। अपने दूसरे काव्य संग्रह परिवेशः हम-तुम की भूमिका में उन्होंने लिखा भी है– “सरल, कहीं-कहीं अति सरल होते हुए भी यह बिल्कुल सतही नहीं। बाहरी जीवन को स्नेह और समझदारी से छूने का प्रयत्न किया गया है, कभी गंभीरता से कभी छोटे-छोटे खिलवाड़ी वाक्-चित्रों द्वारा। जीवन के कई हल्के-भारी खंड-चित्र हैं जो एक स्थायी सौन्दर्य-बोध द्वारा विभिन्न तथ्यों में रूप-बद्ध होते हैं।”(परिवेशः हम-तुम – कुंवर नारायण, पाठकों से)
यह कविता ऐसा ही वाक्-चित्र है, जिसमें दुनिया को जानने, पहचानने और अनुमानने का प्रयत्न किया गया है।दुनिया का एक पक्ष वह है, जिसे सब जानते हैं और दूसरा वह जिसे हर व्यक्ति अपनी संवेदना और अपने अनुभव के आधार पर पहचानता है। दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जगह सही होते हैं।कुँवर नारायण की यह विशिष्टता है कि वे वैयक्तिक चेतना के जिस उत्कर्ष को स्थापित करते हैं, उसमें कोई एकात्म सत्य नहीं है, वह विविधमुखी एवं उभयपक्षी है।उनके विचार में हर व्यक्ति को अपना सत्य अर्जित करने का मानवीय अधिकार है।वह अल्पमत में हो, दुनिया की रीति के विरुद्ध हो तब भी उसे अपने निजी विचार रखने की छूट है।इस कविता में कवि उन सभी रूपों को स्वीकार करता है, जिस दृष्टि से यह दुनिया जानी जा सकती है।वह कहीं भी उसकी गंभीरता-अगंभीरता पर प्रश्न-चिह्न नहीं लगाता।
दुनिया के अनेक रूपों की पहचान बताते हुए कवि कहता है कि ‘पागल–से लुटे-लुटे, जीवन से छुटे-छुटे’ अर्थात् जीवन में कसी हुई तार्किक संगति से मुक्त होकर, मन की उद्दाम लहर के वेग में, ऊपर से उससे गहरे सम्बद्ध दिखते हुए और अन्तर में उससे विमुख होकर भी दुनिया को जाना जा सकता है।
यह दुनिया मनुष्य से इतर नहीं है। कवि कहता है कि यह अपनी ही रची सृष्टि है। इस नाते मनुष्य भी ब्रह्म होने की स्पर्धा कर सकता है। इस दुनिया के बनने में उसकी ब्रह्म-दृष्टि प्रतिबिम्बित होती है। ऊपर से इस संसार में रचे-बसे होकर भी अंदर से उससे कुछ बचकर भी रहा जा सकता है। दुनिया का यह अनुभव उभयपक्षी अनुभव है, जिसमें कवि एक साथ उसके भीतर व उसके बाहर लिप्त-निर्लिप्त अनुभव करता है। वह इस रूप में दुनिया को पहचानता है।
आगे की पंक्तियों में वह दुनिया को अनुमान लगाने की बात करता है जहाँ स्वयं बिना नपे-तुले अपने आस-पास में घुल जाना कवि को अधिक प्रिय है। यह अनुभव विस्मित कर देने वाला है, जिसमें ऊपर से ठगा-सा महसूस करते हुए भी भीतर से जगे-जगे सचेत भाव से सब किया जाता है। यह दुनिया को समझने का एक अलग अनुभव है।
यह कविता तरल गीतात्मक विन्यास में रची गई है। गीत की कड़ियों की तरह तुकान्तता से माधुर्य की सृष्टि की गई है। इस कविता में कवि का जीवन के प्रति सकारात्मक स्वीकार भाव भी विद्यमान है। बाहर और भीतर जो अलग-अलग स्थिति कवि को दिखाई पड़ती है, उसमें कुँवर नारायण की उसी दार्शनिक दृष्टि का आधार है; जो जीवन और कविता को एक निश्चित कोण से देखने की आग्रही नहीं है। उनका चिन्तन समावेशी है इसलिए जीवन की विविधता उसमें समाई हुई है।
- निष्कर्ष
ये सभी कविताएँ कुंवर नारायण के कवि मिजाज़ के अनेक रंगों को हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। पाठ विश्लेषण की पद्धति से इन्हें समझना कविता पढ़ने की समझ पैदा करता है। कवि अपनी कविता में आत्म-संवाद करता है और इसी से समाज से संवाद करने की शक्ति कविता में उत्पन्न हो जाती है। कवि आत्म-सत्य और सामाजिक सत्य के माध्यम से दोनों पक्षों के सत्य को उद्घाटित करता है। व्यवस्था किस प्रकार मनुष्य की संवेदना का क्षरण कर रही है इसका चित्र प्रस्तुत करते हुए भी कुँवर नारायण की कविता का मूल चरित्र समावेशी एवं आशावादी है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें-
- आत्मजयी, कुंवर नारायण, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
- वाजश्रवा के बहाने, कुंवर नारायण, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
- परिवेश:हम-तुम , कुंवर नारायण,वाणी प्रकाशन, दिल्ली
- शब्द और देशकाल, कुंवर नारायण, राजकमल प्रकाशन, इलाहबाद
- कुंवर नारायण की कविता: मिथक और यथार्थ, प्रदीप कुमार सिंह, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली
- कुंवर नारायण की काव्य-दृष्टि और उनकी कविता, पंकज चतुर्वेदी जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली
- चुनी हुई कविताएँ: कुंवर नारायण, सुरेश सलिल(संपा.), मेधा बुक्स,दिल्ली
- आत्मजयी: नचिकेता के प्रसंग पर आधारित, लक्ष्मीचंद्र जैन(संपा.), भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
वेब लिंक्स
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