26 समकालीन कविता और कुँवर नारायण

डॉ. कविता भाटिया

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पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. प्रश्‍नाकुलता
  4. व्यक्ति-स्वातन्त्र्य
  5. तनाव
  6. इतिहास और मिथकों का प्रयोग
  7. अमानवीयता के विरुद्ध नैतिक हस्तक्षेप
  8. प्रेम और प्रकृति
  9. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  •   समकालीन कविता में कुँवर नारायण की कविता के महत्त्व को समझ सकेंगे।
  •   समकालीन कविता के विकास में कुँवर नारायण के योगदान से परिचित हो पाएँगे।
  •   समकालीन कविता के सन्दर्भ में कुँवर नारायण की कविताओं की विशिष्टता को पहचान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

कुँवर नारायण समकालीन हिन्दी कविता के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। वे अपनी कविताओं के जरिए अमानवीयकरण के विरुद्ध लगातार संघर्ष करते हैं तथा समकालीन जीवन की तमाम विभीषिकाओं और जटिलताओं से संघर्ष करने वाले नैतिक, विवेकवान व्यक्तित्व की तलाश भी करते हैं। उनकी कविताओं का मुख्य चरित्र बेचैन प्रश्‍नाकुलता है। समय की विसंगतियों, सही व गलत की बदलती परिभाषाओं, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक विसंगतियों के भयावह दृश्य तथा इन सबसे संघर्ष करता, उनके बीच जीने को अभिशप्त आम आदमी की बेचैनी, अकेलेपन, निराशा को स्वर देते हुए कवि जीवन, आस्था व मनुष्यता का पक्षधर भी है।

 

प्रयोगवाद के बाद जन्मी नई कविता का सम्पूर्ण आन्दोलन मोहभंग, अवसाद, खिन्‍नता, श्रम के पराएपन की पीड़ा तथा आत्मनिर्वासन आदि का बोध लेकर आया। इस दौर से पूर्व विश्‍व नागरिक दो-दो विश्‍वयुद्धों की विभीषिका झेल चुका था। नई कविता 1950 के बाद की उन कविताओं को कहा गया जो राजनितिक सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में उत्पन्‍न नए भावबोध के साथ नए शिल्प का आग्रह लेकर सामने आई। सन् 1950 से 1960 के बीच की कविता असमंजस की मानसिकता के साथ जुडी हुई है क्योंकि आजादी के बाद नवनिर्माण का सपना जन मानस ने देखा था। लेकिन आजादी के बाद धीरे-धीरे राजनितिक सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में जो व्यापक भ्रष्टाचार और विसंगति आई, उससे मोहभंग की मानसिकता बनी। ”सन् 1960 तक भारतीय जनमानस में यह आशा बची हुई थी कि मनुष्‍य के सिद्धान्‍त और व्‍यवहार के बीच की जो खाई है उससे कोई-न-कोई मानवीय सरोकार हमें बचा लेगा। लेकिन सन् साठ के बाद एकाएक उभर आई व्‍यापक विकृतियों ने इस धारणा को मजबूत किया कि कोई मानवीय सरोकार भ्रष्‍ट शक्तियों एवं विसंगतियों से समाज को बचा नहीं पाएगा।” (डॉ. कुमुद शर्मा, नयी कविता में राष्‍ट्रीय चेतना, कृतिकार प्रकाशन, नई दिल्‍ली, 1988, पृ.73) इस कविता की प्रमुख विशेषता रही– ‘आधुनिक भाव बोध’ तथा ‘व्यक्ति स्वातन्त्र्य की खोज’। इसे साठोतरी कविता, विद्रोही कविता, सम्पूर्ण यथार्थ की कविता आदि नाम भी दिए गए। समकालीनताका अर्थ है, जिस दौर में सृजन हो रहा है, उसकी मुख्य समस्या से सरोकार। समकालीनता यथार्थवाद से जुड़ी रहती है। समकालीन वह है जो अपने समय के प्रश्‍नों से टकराता है, उसका मुकाबला करता है। जो उन प्रश्‍नों से कतराकर निकल जाता है या किसी शाश्‍वतता से लिपटा रहता है, वह इस काल में रहकर भी समकालीन नहीं है। यहाँ ध्यातव्य है कि परिवेशगत यथार्थ चित्रण समकालीनता नहीं है। समकालीनता में वर्तमान बोध के साथ अतीत और भविष्य का विवेक सम्मत बोध भी होता है। यह विशिष्ट वर्तमान बोध ही समकालीनता को यथार्थ बोध से जोड़ता है। अतीत बोध और भविष्य बोध को अपने वर्तमान में समेटकर समग्र युगबोध को प्रस्तुत करना ही समकालीनता का उद्देश्य है।

 

आधुनिक हिन्दी कविता की बढ़ती विकासधारा में ‘समकालीन कविता’ जैसा कोई शब्द प्रयोग नहीं है। वास्तव में ‘समकालीन कविता’ आम आदमी के संवेदनात्मक जीवन की अभिव्यक्ति है। इस कविता ने कथ्य और टेकनीक के धरातल पर पारम्परिक काव्य प्रतिमानों की लीक को छोड़कर साहित्य में युगान्तकारी परिवर्तन प्रस्तुत किया। एक ओर इस कविता ने वैयक्तिक ऊहापोह, भीतरी कशमकश, मानसिक द्वन्द्व तथा अन्तविर्रोध की स्थितियों का सविस्तार शाब्दिक चित्र खींचा तो दूसरी ओर मूल्यहीन स्थितियों में मूल्य संकल्प काव्य चेतना का आधार बना। सातवें दशक तक की कविता में जो आत्महीनता, दयनीयता, निस्सहायता, दिशाहीनता, निराशा व खीझ व्याप्त थी, वह आठवें दशक तक आते आते कवियों के स्वर में काफी साफ और स्पष्ट होकर सामने आई है। 1990 में सोवियत संघ के विघटन के साथ बौद्विक अहंकार समाप्त हुआ और समाजवाद का स्वप्‍न भंग हो गया, जिस कारण सामाजिक परिवर्तन, राजनीतिक चेतना, आक्रामकता और मानवीय सरोकार, अपनी स्थितियों तथा दशाओं का विश्‍लेषण और वैचारिक तनाव इस काल की कविता में बखूबी विद्यमान रहा।

 

समकालीन कविता से जुड़े कवियों को हम तीन श्रेणियों में रख सकते हैं। पहली श्रेणी उन कवियों की है जो समकालीन कविता से पूर्व के समय में प्रचलित काव्य आन्दोलनों से जुड़े रहे हैं किन्तु उनकी सोच समकालीन कविता के कवियों की तरह ही रही। इनमें मुक्तिबोध,नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, त्रिलोचन तथा श्रीकान्त वर्मा प्रमुख हैं। दूसरी श्रेणी अकवितावादी कवियों राजकमल चौधरी, धूमिल, जगदीश चतुर्वेदी और सौमित्र मोहन आदि की है तथा तीसरी श्रेणी, लीलाधर जगूड़ी, कुमार विकल, मंगलेश डबराल, बलदेव बंशी, राजेश जोशी तथा अरुण कमल जैसे समकालीन कवियों की है। कुँवर नारायण समकालीन हिन्दी कविता के पूर्वज कवि हैं। उनकी कविताओं में समकालीन कविता की अनेक विशेषताएँ अनुस्यूत हैं।

  1. प्रश्‍नाकुलता

कुँवर नारायण की कविताओं में निहित प्रश्‍नाकुलता, बेचैनी की अभिव्यक्ति है। आत्मजयी के नचिकेता में आधुनिक सन्दर्भों में उभरे जीवन प्रश्‍नों को एक चिरन्तन जीवनधारा के प्रश्‍नों से जोड़ने तथा उत्तर पाने की शाश्‍वत अकुलाहट है। उसके भीतर वह वृहत्तर जिज्ञासा है, जिसके लिए केवल सुखी जीवन जीना काफी नहीं, सार्थक जीना जरूरी है। आत्मजयी  एक विचार काव्य है, यहाँ पिता वाजश्रवा एक प्रकार से ठहरे हुए मूल्य की वाहक पीढ़ी के प्रतीक हैं। वह अपने निर्णयों को नई पीढ़ी पर लादना चाहता है। दूसरी ओर नचिकेता भौतिकता, विलासिता और निहित स्वार्थों के पीछे अन्धी दौड़ में शामिल लोगों की दुनिया में, जीवन के विशिष्ट अर्थों की तलाश करते व्यक्ति हैं। वह स्वयं उस पीढ़ी से पार्थक्य स्वीकार करता है–‘तुम्हारी दृष्टि में मैं विद्रोही हूँ / क्योंकि मेरे सवाल तुम्हारी मान्यताओं का उल्लंघन करते हैं’। अपनी अनास्था में अधिक सहिष्णुऔर अपनी नास्तिकता में अधिक धार्मिक’, नचिकेता की इस वाणी में आज के युग मानस की विवशता और अकुलाहट स्पष्ट प्रकट होती है। पिता वाजश्रवा से प्रश्‍न करते हुए वह जानना चाहता है–

 

तुम्हारे इरादों में हिंसा

खंग पर रक्त

तुम्हारे इच्छा करते ही हत्या होती है

तुम समृद्व होगे

लेकिन उससे पहले

समझाओ मुझे अपने कल्याण का आधार…

 

तभी तो वह सनातन मूलक प्रतिगामी व्यक्तियों से संघर्ष करते हुए ‘भ्रष्ट अभिषेकों को न दूँ मस्तक/न दूँ मान …’ की गुंजार करते हैं। कवि ने अनेक कविताओं में मनुष्य और परिवेश के विरोध और उसमें से उत्पन्‍न निर्ममता, क्रूरता, भय और अमानवीयता आदि भावों को व्यक्त किया है। वह प्रश्‍नांकित जिज्ञासु मुद्रा में किसी तलाश में लीन दिखाई देते हैं–

 

क्या वह हाथ

  जो लिख रहा उतना ही है

  जितना दिख रहा

  या, उसके पीछे

  एक और हाथ भी है

  उसे लिखने के लिए बाध्य करता हुआ’

 

कवि कहना चाहते हैं कि अब स्वतन्त्र व्यक्तित्व बचा ही कहाँ है? वह व्यक्ति जो कुछ कर रहा है वह उससे करवाया जा रहा है। सवाल उठता है कि अपनी मूल आत्मा को नष्ट कर व्यक्तित्वहीनता की स्थिति में जीने को क्या वह विवश नहीं है? यही प्रश्‍नाकुलता उसे निरन्तर बैचेन किए हुए है, जो तत्कालीन परिवेश से उत्पन्‍न हुई है। कवि सोचना शुरू करता है–

 

किसे रोशनी कहूँ?

        किसे अन्धेरा?

        किसे शिकार कहूँ?

        किसे शिकारी कहूँ?

        किसे शिखर कहूँ?

        किसे धरातल?

 

आज रोशनी, अन्धेरा, शिकार व शिकारी के बीच का अन्तर स्पष्ट नहीं है। सभी परिभाषाएँ और पहचानें गड्डमड्ड हो चुकी हैं। यहाँ कवि का उद्देश्य समाज में व्याप्त त्रासद मूल्यहीनता का निर्मम उद्घाटन करना है। कवि की यह प्रश्‍नाकुलता व संशय, सामाजिक-राजनीतिक विडम्बनाओं, सवालों से उलझे उस आधुनिक मनुष्य की प्रश्‍नाकुलता है, जिसके भीतर चुनौतियाँ व समस्याएँ हैं।

  1. व्यक्ति स्वातन्त्र्य

कुँवर नारायण का कवि-व्यक्तित्व आत्मानुभूतियों पर ज्यादा केन्द्रित है। मनुष्यता विरोधी सामाजिक षड्यन्त्रों के खिलाफ कवि की ऊर्जा निरन्तर संघर्ष करती है। कवि की बैचेनी और खीझ सामाजिक-राजनीतिक दुरावस्था की वास्तविक और नंगी तस्वीर तो खींचती ही है, संवेदनहीन हो चुके लोगों का पर्दाफाश भी करती है। घबराहट  कविता में कवि का संघर्ष नाटकीयता, भयावहता, आशंका से होता हुआ एक स्तब्ध निर्णय तक पहुँचता है–

 

मैं चाहता था

    वह हारकर चला जाए,

    दरवाजे से किसी तरह आई हुई बला जाए

    आदमी के वेश में जानवर

    इससे ज्यादा घातक-यह डर!

 

कवि यहीं नहीं रुकते। दूसरे ही पल उनकी सम्वेदनात्मक आत्मानुभूति उन्हें झकझोरती है और वे सोचने पर मजबूर होते हैं-शायद उस आदमी को मदद की जरूरत थी । यहाँ दो विरोधी भावों को एक साथ रखा गया है। यह किसी बड़े कवि का लक्षण है कि वह जो सोच रहा है उसी पर प्रश्‍न करता है। यह प्रश्‍नाकुलता मुक्तिबोध की कविता अन्धेरे में  के वाचक की मनःस्थिति की याद दिलाती है। जहाँ वे बड़े-बड़े आदर्शो को पाना चाहता है और निराशा के गर्त में बैठा अकर्मण्य व्यक्ति तमाम अवसरों को खोता चला जाता है। वे पूरी कविता में परम अनिवार आत्मसम्भवा अभिव्यक्तिको पाने की खोज यात्रा में है। कवि कुँवर नारायण का द्वन्द्व भी इसी तरह का है। उनका वाचक अन्त तक दरवाजा खोलने का साहस नहीं कर पाता। वह संशयग्रस्त है। वह मानव सभ्यता से क्षुब्ध भयावहता के साथ अन्तिम पंक्तियों में ‘मनुष्य की पहचानका संकट उजागर करता है। विचारों की स्वतन्त्रता की वकालत करते हुए कवि वैयक्तिक स्वतन्त्रता का पक्षधर भी है। वे कहते हैं –

 

मुझे

एक मनुष्य की तरह पढ़ो; देखो और समझो

ताकि हमारे बीच

एक सहज और खुला रिश्ता बन सके

माँद और जोखिम का रिश्ता नहीं।

कवि हमारे समय की विडम्बना को बेहद प्रभावी ढंग से व्यक्त करते हुए कहते हैं–

लेकिन इस भय से नहीं छूट पाता कि

हर समय

किसी की निगरानी में हूँ

 

वास्तव में यह भय हमारी स्वतन्त्रता के हनन से उपजा भय है। आज समाज का सारा नियन्त्रण संवेदनहीन सभ्यता में तेजी से पनपे गलत और अमानवीय लोगों के हाथ में है। ऐसी राजसत्ता में आम आदमी दाँव पर है। ऐसे ही विषम समय में कवि मनुष्य की अस्मिता की खोज का प्रश्‍न भी सामने रखते हैं। वह यही सीख देता है कि अपने को पहचान कर सार्थक विद्रोह किया जाये और वृहत्तर समाज से जुड़ा जाये तभी अपनी वास्तविक अस्मिता को पाया जा सकता है–

 

अपने को बड़ा रखने की

छोटी से छोटी कोशिश भी

दुनिया को बड़ा रखने की कोशिश है

  1. तनाव

कुँवर नारायण की कविताओं का केन्द्रीय भाव तनाव है। इस तनाव का कारण अनिर्णय की मानसिक अवस्था है। जीवन और दुनिया का कोई निश्‍च‍ित अर्थ देने में कवि असमर्थ है लेकिन यह असमर्थता चिन्तन के अभाव का परिणाम न होकर विराट जीवन की जटिल अवस्था का परिणाम है–

 

मैंने अक्सर

  इस उलजलूल दुनिया को

  दस सिरों से सोचने और

बीस हाथों से पाने की कोशिश में

  अपने लिए

  बेहद मुश्किल बना लिया है।

 

जब अपने खोए हुए अर्थ और अभिप्राय के बावजूद लोकतन्त्र को लोकतन्त्र कहा जाए तो इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है। आपातकाल के दौरान लिखी कवि की यह कविता राजनीति विरोधी व जनपक्षीय होने का सशक्त प्रमाण प्रस्तुत करती है–

        

   डॉक्टर ने मेज पर से

              ऑपरेशन का चाकू उठाया

           मगर वह चाकू नहीं

           जंग लगा भयंकर छुरा था

            छुरे को बच्‍चे के पेट में

           भोंकते हुए उसने कहा

              अब यह बिल्कुल ठीक हो जाएगा।

 

आज के समय में तनाव की स्थिति इतनी गहरी है कि बेचैनी और जल्दबाजी व्यक्ति पर हावी है। इस जल्दबाजी ने स्वयं के प्रति विचार की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। जल्दबाजी में वह सिर्फ समय कबिता रहा है और समय उसे–

 

जल्दी का जमाना है

सब जल्दी में है

    कोई कहीं पहुँचने की जल्दी में

    तो कोई कहीं लौटने की।

 

अपने समय के इस अविवेकपूर्ण जीवन का सच कवि की विचारपूर्ण दृष्टि का ही परिणाम है। यह तनाव समय और समाज की क्रूर सच्‍चाइयों, राजनीतिक विडम्बनाओं, मनुष्यता के अवमूल्यन से उपजा है जिसे कमोबेश हर व्यक्ति महसूस कर रहा है। जब स्याह-सफेद की परिभाषाएँ और भूमिकाएँ परस्पर बदल जाएँ तो मनुष्य की विवशता और बढ़ जाती है। इन दोनों का मिलना भयावह स्थिति का परिचायक है–

 

लेकिन परेशान है इन दिनों

काले की जगह

सफेद नामक झूठ ने ले ली है

और दोनों ने मिलकर

एक बहुत बड़ी दुकान खोल ली है।

 

इससे बड़ी त्रासद स्थिति क्या होगी कि आम आदमी इसी दलदलमें रहने के लिए विवश है। आज के उपभोक्तावादी समय में बाजार ने वस्तुओं की भीड़ में मनुष्य को अकेला कर दिया है। वस्तुओं की कीमतें बढ़ती जाती हैं और फकत आदमी की कीमत गिर रही है। देशी-विदेशी वस्तुओं से पटे बाजारों की आपाधापी और गलाकाट प्रतियोगिता ने आनन्द, खुशी, सरलता और सहजता जैसे मानवीय भावों को खा लिया है–

 

वैसे सच जो यह है कि मेरे लिए

      बाजार एक ऐसी जगह है

                जहाँ मैंने हमेशा पाया है

                एक ऐसा अकेलापन जैसे मुझे

                बड़े-बड़े जंगलों में भी नहीं मिला।

 

ऐसे ही समय और समाज में जीते हुए व्यक्ति बेचैन और तनावग्रस्त है परन्तु कवि मानता है कि बदलाव आत्मशक्ति से ही सम्भव है–

अगर मुझमें अपनी दुनिया को

बदल सकने की ताकत होती

तो सबसे पहले

उस मैंको बदलने से शुरू करता

जिसमें दुनिया को बदलने की ताकत होती।

  1. इतिहास व मिथकों का प्रयोग

 

कुँवर नारायण की कविता में इतिहास और मिथक चेतना का अपना वैशिष्ट्य है। उनका मानना है कि भारतीय परम्परा में मिथक शस्‍त्र को एक मृत प्राय वस्तु मानते हुए कभी भी ख़ारिज नहीं किया गया बल्कि मानवीय उर्जा के एक प्रच्छ्न्न स्त्रोत और मानसिक बुनावट के एक जीवन्त हिस्से के रूप में उसका प्रयोग किया गया। कवि अपने आधुनिक विचारों को व्यक्त करने के लिए पुराण की कथाओं को खोज लाते हैं। यहाँ उसकी कल्पना स्वयं ही मिथकीय माध्यम अपना लेती है। इन मिथकीय स्रोतों से कवि नई व्याख्याओं की प्रस्तुति करते हैं। समय से संघर्षरत प्रश्‍नों से घिरे मनुष्य के आत्ममूल्यांकन हेतु कवि इतिहास का चुनाव करते हैं। इतिहास से वे शिक्षा लेते हैं और पूर्वजों के दृष्टि विश्‍लेषण से शोधित दृष्टि प्राप्त कर अपनी परिस्थितियों में कोई नया आकार देना चाहते हैं। कवि ने आत्मजयी के पौराणिक कथावृत का सहारा लेकर आधुनिक सन्दर्भों में देखने का प्रयास किया है। यहाँ नचिकेता आधुनिक चिन्तन का प्रतीक बनकर आया है। कथा में नचिकेता अपने पिता वाजश्रवा से धर्म-कर्म सम्बन्धी मतभेदों के कारण खिन्‍न है, जिससे पिता क्रुद्व होकर उसे यम को दे देते हैं। जीवन के शाश्‍वत प्रश्‍नों पर अपने स्व-विवेक से चिन्तन करता हुआ नचिकेता जीवन, मृत्यु, ईश्‍वर आदि ज्वलन्त प्रश्‍नों से जूझकर कई दार्शनिक समाधान प्रस्तुत करता है। एक ओर निरन्तर बढ़ती हुई भौतिक उन्‍नति और दूसरी ओर आत्मिक स्तर पर घोर असंयम, जो इस भौतिक प्रगति को ही अपने लिए अभिशाप बना रहा है। आज के युग जीवन की यह पीड़ा उभरकर यहाँ प्रकट हुई है–

 

मेरे पिता

  तुम और तुम्हारी दुनिया

  एक दूसरे से थकी हुई प्रतिक्रिया में

  युगों से रूढ़

  बासी- सी लगती है

 

बुद्धि के महत्त्व की स्वीकृति एवं समाज की रूढ़ियों के विरुद्ध व्यक्ति की साहसिकता का प्रतीक नचिकेता पुरातन मान्यताओं, रूढ़ि संस्कारों को लगभग नकारते हुए कहता है –

 

ओ मस्तक विराट

इतना अभिमान रहे

भ्रष्ट अभिषेकों को न दूँ मस्तक

न दूँ  मान …

 

नचिकेता का यह अन्तर्द्वन्द्व आधुनिक मनुष्य के उद्वेलन का प्रतीक है और इस भूमि पर वह अपनी अस्मिता खुद गढ़ता है। कवि प्रश्‍नों के निहितार्थ के लिए इतिहास में जाते है, किसी गरिमामय आतंक फैलाने के उद्देश्य से नहीं और न ही अभिव्यक्ति के लिए किसी मार्ग की तलाश में–

  ये दधीचि हड्डियाँ

    हर दाह में तप लें

    न जाने कौन दैवी आसुरी संघर्ष

    बाकी हो अभी

    जिसमें तपाई हड्डियाँ मेरी यशस्वी हो

 

इस आसुरी महासमर में भी मनुष्य थका या निराश नहीं हुआ है बल्कि पूरे मनोयोग से, अपनी पूरी ताकत से किसी श्रेष्ठ के लिए अपनी हड्डियों को दाह करने को तत्पर है। इसी तरह चक्रव्यूह कविता में महाभारत के युद्ध और अभिमन्यु के प्रसंग को मिथकीय रूप में चित्रित किया गया है–

मेरे हाथ में टूटा हुआ पहिया

  पिघलती आग- सी संध्या

     ऽ ऽ ऽ

  यह महासंग्राम

  युग-युग से चला आता महाभारत

  हजारों युगों, उपदेशों, उपाख्यानों, कथाओं में

  छिपा वह पृष्ठ मेरा है

 

यहाँ व्यूह रूढ़ियों का प्रतीक है तो अभिमन्यु इनसे घिरा उस निर्भय साहसी व्यक्ति का प्रतीक है जो रूढ़ियों को ध्वस्त करने के लिए संकल्पित है। कृष्ण व सुदामा की मित्रता की मिथक कथा को आज के परिप्रेक्ष्य में कवि प्रस्तुत करते हुए कहता है–

 

कैसी बाँसुरी? कैसी नाच? कौन गिरिधारी

    जिस महल को तुम

    भौंचक खड़े देख रहे

    वह तो उसका है

    जिसकी कमर की लचकों में

    हीरों की खान है।

    बहुत भोले हो सुदामा,

    नहीं समझोगे इस कौतुक को।

 

राज्य की नीतियों में छल और प्रपंच का निर्णय करने वालों का बोलबाला है, ऐसी राजसत्ता में आम आदमी ही दाँव पर है। इससे सही और स्पष्ट तस्वीर हमारे लोकतन्त्र की और क्या हो सकती है–

 

धर्मराज धूर्तराज दोनों जुआड़ी

पासे खनखनाते हुए

राजनीति में शकुनी का प्रवेश…

इस भ्रष्ट समाज ने तो ईश्‍वर के प्रतीकों को भी राजनीति के कुत्सित षड्यन्त्रों का शिकार बना लिया है।

  1. अमानवीयता के विरुद्ध नैतिक हस्तक्षेप

 

कुँवर नारायण अमानवीयकरण के खिलाफ लगातार जिरह करते हैं। उनके मन में संवेदनाओं का अजस्र स्रोत है। कवि इतिहास, संघर्ष, मृत्युबोध और यथार्थ की तमाम विभीषिकाओं से परे पूरे मनोयोग से अपने कोमल मन से निर्मित निजी सम्वेदनाओं के मर्मस्पर्शी चित्रों और पीड़ित अन्तरात्मा व नैतिक विवेक चेतना से निर्मित मूल्यों व मनुष्यता की पक्षधरता के चित्रों का पूरी निस्संगता के साथ समन्वय करता है। विषमता से अन्याय पैदा होता है और अन्याय से वेदना और पीड़ा। यही वेदना आत्मजयी  के नचिकेता में है, जो सनातनमूलक प्रतिगामी व्यक्तियों से संघर्ष करती है–

 

यह ब धर्म नहीं

धर्म सामग्री का प्रदर्शन ह

अन्‍न,घृत, पशु, पुरोहित, मैं…

शायद इस निष्ठा में हर सवाल बाधा है

जिसमें मनुष्य नहीं

अदृश्य का साझा है

 

तुम सब चतुर और चमत्कारी कविता नैतिक कर्ताओं की पहचान कराती है तो सम्मेदीन नामक चरित्र अपनी साधारणता के साथ एक चिरपरिचित चरित्र का रूप ले लेता है। व्यक्ति के रूप में, जिसका मारा जाना तय है, वह निहत्था सम्मेदीन, नचिकेता की तरह नैतिक संघर्षशीलता का शाश्‍वत रूपक बन जाता है–

 

बचाए रखना

उस उजाले को

जिसे अपने बाद

जिन्दा छोड़ जाने के लिए

जान पर खेलकर आज

एक लड़ाई लड़ रहा है किसी गाँव का कोई खब्ती सम्मेदीन

 

कवि जनतन्त्र के खोखलेपन और आम आदमी की दुर्दशा से बखूबी वाकिफ है। कवि की जिज्ञासा और प्रश्‍नाकुल प्रवृत्ति मिलकर व्यवस्था पर प्रश्‍नचिह्न खड़ा करती है–

 

इस पाँव से उस पाँव पर

ये पाँव बेवाई फटे         

कान्धे धरा किसका महल ?

हम नींव पर किसकी डटे ?

यह माल ढोते थक गई तकदीर खच्‍चर हाल की

काँधे धरी यह पालकी है किस कन्हैया लाल की।     

 

यही प्रश्‍नाकुलता जब जनतन्त्र के पहरेदारों की वास्तविकता तथा व्यवस्था और सत्ता की अमानवीयता का परिचय पा लेती है तो उसका विडम्बनात्मक स्थिति  से परिचय होता है–

 

कैसी विडम्बना है कि जब वे जागे

  उन पर गलत जगह गलत वक्त सोने का इल्जाम लगाया

  और जनता की सुविधा के लिए

  सरकारी रास्तों को साफ कराया गया

  अब सोने और जागने का पूरा सन्दर्भ बदल चुका था।

कवि तब व्यंग्यात्मक शैली में स्पष्ट करते हैं–

सच्‍चाई

विज्ञापनों के फुटनोटों में

इतनी बारीक और धूर्त भाषा में छपी कि अपठनीय।

 

ऐसी ही स्थितियों को स्पष्ट करने के लिए कवि अपनी कविताओं में व्यंग्य का बखूबी प्रयोग करता है। इसके अतिरिक्त मुकदमे, पर्यावरण, जल्दी में, अलग -अलग खातों में, बदलते पोस्टर आदि कविताएँ कवि अनुभव की प्रौढ़ता की सूचक हैं।

  1. प्रेम और प्रकृति

 

कवि कुँवर नारायण प्रेम के लिए पूरी निष्ठा से आतुर दिखते हैं, तो प्रकृति उनके भावों की निश्छल अभिव्यक्ति के लिए सम्बल बनी है। उन्होंने अत्यन्त संयमित भूमिका में प्रेम की अभीप्सा का जीवन्त चित्र खींचा है-

 

उस भुरभुरी बालू पर

जहाँ लहरों की तरलता नाच चुकी होगी

हम बैठेंगे

गुमसुम

चुपचाप 

उसी सुकुमार दृश्य से घुले मिले

 

जहाँ प्रकृति प्रेम को सम्भव कर रही हो वहीं कवि प्रेम के लिए प्रकृति के निश्छल प्रतिमानों का वरण करता है। एक शान्त, निश्छल प्रेमानुभूति यहाँ व्याप्त है। कई जगह कवि मनुष्य की निराशा और अवसाद को प्रकृति की निराशा और अवसाद तक ले जाता है–

 

अशान्त धुआँ और बेबसी

सिगरेट पीता हुआ आसमान

उमड़ते बादलों के धुआँधार छल्ले बेजबान

लाल, नीले रंग घुले –मिले

तेज शराब की तरह

मेज पर लुढ़की हुई शाम में।

कुँवर नारायण के यहाँ प्रकृति अपने सहज स्वाभाविक रूप में भी विद्यमान है

कार्निस पर

एक नटखट किरण बच्‍चे सी

खड़ी जंगल पकड़कर

किलकती है मुझे देखकर साँस रोके

बाँहें फैलाए खड़ा गुलमोहर …

कब वह कूदकर आ जाए उसकी गोद में

 

प्रकृति से कवि का यह व्यवहार, कवि की प्रकृति से गहरी निस्संगता का प्रतीक है। प्रेम में सहजता, शरारत, समर्पण, दैहिकता, स्मृति और भावुकता के रंग दो नीली आँखें  कविता में द्रष्टव्य है। कबीर के ढाई आखर प्रेमको पढ़ना और समझना हर किसी के वश की बात नहीं। मनुष्यता का पक्षधर यह कवि उसी प्रेम को पाने का आकांक्षी है। आज के विषैले समय में जब चहुँ ओर घृणा और नफरत के बीजवपन हो रहे हों, यह विनम्र कवि अजीब-सी मुश्किल में दिखता है–

 

मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताकत

          दिनों दिन क्षीण पड़ती जा रही

          और इसके विपरीत

दिनों-दिन मेरा प्रेम रोग बढ़ता ही जा रहा।

 

यहाँ  धर्म, जाति, प्रदेश यहाँ तक कि निजी सम्बन्धों से भी मनुष्य घृणा नहीं कर पा रहा। सभी तो अपने हैं और विवशता ऐसी कि सभी पर प्यार आता है। वस्तुतः समाज के जिन्दा और बचे रहने के मूल में यही मनुष्य प्रेमहै जिसे कवि प्रकारान्तर से बचाए-बनाए रखने के आकांक्षी है। तमाम विषमताओं के बावजूद कुँवर नारायण की कविता में अदम्य मानवीय जिजीवषा है। मृत्यु का भय यदि तोड़ता है तो प्रेम की ऊर्जा वैयक्तिक और सामूहिक विषमताओं में भी बचे रहने की अद्भुत शक्ति देती है। कुल मिलकर कुँवर नारायण का कवि हृदय और कवि कर्म समूचे सन्दर्भ को समेटता है।

  1. निष्कर्ष

कवि कुँवर नारायण की समग्र कविताओं पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट होता है कि कवि की आरम्भिक कविताओं में तो नई कविता के दौर की काव्यभाषा की स्वाभाविक छाप है परन्तु कवि लगातार सतर्क भी है। कविता के वाक्य विन्यास को आरोपित सजावट से मुक्त कर सहज वाक्य विन्यास के निकट लाने के लिए। यही कवि की विशेषता है, सहज रहते हुए भी सरलीकरण से बचना। अपने समय के तनावों और जटिलताओं की सहज भाषा में कवि की सार्थक अभिव्यक्ति है। कुँवर नारायण की कविता पाठक को काव्य दुरूहता से आक्रान्त नहीं करतीं बल्कि उसे उद्वेलित और आन्दोलित करती है। यही कारण है कि कुँवर नारायण की कविताएँ बाद के दौर में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखती हैं। कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर उनकी कविताएँ समकालीन कविता के स्वर को समृद्ध करती हैं।

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पुस्तकें

  1. आत्मजयी, कुंवर नारायण, भारतीय ज्ञान, दिल्ली
  2. वाजश्रवा के बहाने, कुंवर नारायण, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
  3. परिवेश:हम-तुम,  कुंवर नारायण,वाणी प्रकाशन, दिल्ली
  4. कुंवर नारायण की कविता: मिथक और यथार्थ, प्रदीप कुमार सिंह, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली
  5. कुंवर नारायण के काव्य में परम्परा और प्रयोग का द्वन्द्व, अमरेन्द्रनाथ त्रिपाठी, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली
  6. कुंवर नारायण और उनका साहित्य, अनिल मेहरोत्रा, ज्ञान भारती प्रकाशन,दिल्ली
  7. समकालीन हिन्दी कविता, परमानन्द श्रीवास्तव(सम्पा.), साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
  8. कविता के नए प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली

 

वेब लिंक्स

  1. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%81%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3
  3. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3
  4. https://www.youtube.com/watch?v=XGFN2UL7p7k
  5. https://www.youtube.com/watch?v=2AUDJ4s4WEA