25 धूमिल की काव्य यात्रा

डॉ. सत्यपाल शर्मा

 

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पाठ का प्रारूप

 

1. पाठ का उद्देश्य

2. प्रस्तावना

3. साठोत्तरी कविता, अकविता और धूमिल की काव्ययात्रा

3.1 साठोत्तरी कविता

3.2 अकविता

3.3 धूमिल की काव्ययात्रा

4 धूमिल की कविता में निहित चेतना

4.1 ग्रामीण चेतना

4.2 सामाजिक चेतना

4.3 राजनीतिक चेतना

5    धूमिल की कविता सम्बन्धी दृष्टि

6    आलोचकों की दृष्टि में धूमिल की कविता

7    निष्कर्ष

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • साठोत्तरी कविता एवं अकविता आन्दोलन की सही समझ बना सकेंगे।
  • धूमिल की काव्‍य-दृष्टि एवं रचना-वि‍धान के बारे में जानेंगे।
  • धूमिल की कविता में निहित ग्रामीण चेतना, सामाजिक चेतना, राजनीतिक चेतना और शिल्पगत वैशिष्ट्य की समझ वि‍कसि‍त कर सकेंगे।
  • भाषा और तेवर के कारण अलग पहचान के स्वातन्त्र्योत्तर कवि धूमिल की कविता के बारे में महत्त्वपूर्ण हिन्दी आलोचकों की राय जानेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

अपनी भाषा और तेवर के कारण सन् 1960 के बाद के महत्त्वपूर्ण हिन्दी कवि धूमिल की अलग पहचान है। उन्होंने हिन्दी कविता का नया मुहावरा गढ़ा। उनका बेलौस अन्दाज समकालीन कवियों से उन्हें अलग करता है। उनकी वैचारिक दृष्टि और भाषा–प्रयोग को लेकर हिन्दी आलोचकों में काफी विवाद रहा है। जर्जर हो गई समाज-व्यवस्था की रूढ़ि‍यों एवं शासन-व्‍यवस्‍था के जनवि‍रोधी आचरणों के प्रति उनकी काव्‍य-दृष्‍टि‍ में सदैव आक्रोश भरा रहा। उनका यह आक्रोश तीखे व्यंग्य के साथ कवि‍ता में उजागर हुआ। वे अपने समय के अत्‍यन्‍त सजग कवि थे। देश की सामाजिक दशा एवं राजनीतिक हलचलों को उन्‍होंने खुली आँखों से देखा था। उनकी कविता समकालीन समाज का एक्सरे है। अपनी बात खुलकर कहने के लि‍ए उन्‍हें आपत्तिजनक भाषा से भी परहेज नहीं था।

 

  1. साठोत्तरी कविता, अकविता और धूमिल की काव्ययात्रा

 

हिन्दी कविता के इतिहास में बीसवीं शताब्दी के साठ और सत्तर के दशक को कई काव्यान्दोलनों के लिए जाना जाता है। धूमिल की रचनात्‍मक सक्रि‍यता का काल यही साठोत्तरी कविता का काल है। उनका जन्‍म उत्तर-प्रदेश के वाराणसी के पास खेवली गाँव में 09 नवम्बर 1936 को हुआ। उनका मूल नाम सुदामा पाण्‍डेय था। धूमिल नाम से वे कविताएँ लिखते थे। सन् 1958 में आई.टी.आई, वाराणसी से विद्युत डिप्लोमा लेकर वे वहीं विद्युत अनुदेशक बने। अड़तीस वर्ष की अल्पायु में 10 फरवरी 1975 को ब्रेन ट्यूमर से उनकी मृत्यु हुई। सन् 1979 में उन्हें मृत्‍यूपरान्‍त साहित्य अकादेमी सम्‍मान से सम्मानित किया गया।

 

3.1 साठोत्तरी कविता

 

भारतीय स्‍वाधीनता के दशक भर बाद भी जब नागरि‍क परि‍दृश्‍य में भग्‍न आस्‍था और टूटे सपनों की स्‍थि‍ति‍ बनी रही, तो सन् 1960 के बाद की हिन्दी कविता में नए भाव-बोध एवं विचारों की नई अभि‍व्‍यक्‍ति‍ का प्रयोजन हुआ। उस दौर की कवि‍ता हताशा से उपजे मोहभंग की कविता है, जो नि‍रन्‍तर आज़ादी के अर्थ खोजने में व्‍यस्‍त दि‍खती है। उस दौर के कवि‍यों को आम आदमी की नियति और स्थिति में कोई परिवर्तन नज़र नहीं आता। उन्‍हें आज़ादी खोखली लगती है, उनका मोह टूटता है। इसी मोहभंग के साथ कवि आम-आदमी की दुर्गति के कारण तलाशता है, और उसके लि‍ए जि‍म्‍मेदार व्यवस्था के विभिन्न रूपों की पहचान करता है। आम आदमी की दुर्गति‍ पहले भी हो रही थी, और उन वि‍संगति‍यों की काव्‍यभि‍व्‍यक्‍ति‍ भी हो रही थी; कि‍न्‍तु अभि‍व्‍यक्‍ति‍ की शैली भि‍न्‍न थी, क्‍योंकि‍ भारतीय बौद्धि‍कों के समक्ष एक आशा थी, सपने थे। उन सपनों के टूटने से कवि‍यों को स्‍थापि‍त रूप-बन्धों को तोड़कर नवोद्घाटि‍त तथ्‍य और नग्न यथार्थ को नई पद्धति‍ से कहने की जरूरत हुई। साठोत्तरी कविता नग्न यथार्थ को नए-रूप बन्धों में प्रस्‍तुत करने की यही कोशि‍श है, जि‍सका मुख्य स्वर नकार, निषेध, आक्रोश, अस्वीकृति एवं विद्रोह का है।

 

उस दौर के वि‍चारकों ने उन्हें भूखी पीढ़ी, श्मशानी पीढ़ी, बीटनिक पीढ़ी, युयुत्सावादी कविता, अकविता जैसे कई नाम दि‍ए, किन्तु अन्‍तत: अकविता के रूप में यह स्‍वर कुछ समय तक पूरे सामर्थ्‍य से मुखरि‍त रहा। उस दौर के बौद्धि‍कों को नागरि‍क-जीवन की दुर्गति‍, व्‍यवस्‍था की विसंगतियाँ, परि‍वेश की वीभत्‍सता असह्य थीं। उनमें उन स्‍थि‍ति‍यों के लि‍ए जि‍म्‍मेदार व्‍यवस्‍था की तमाम नीति‍यों के प्रति निषेध, नकार, अस्वीकार भाव से भरे थे; उनमें उस नग्‍न यथार्थ को यथावत् उजागर करने की जि‍द थी। राजकमल चौधरी इस अकवि‍ता आन्‍दोलन के अगुआ कवि‍ थे। उस दौर के सामाजि‍क यथार्थ को समान संवेदना से देखनेवाले महत्त्‍वपूर्ण कवि‍ थे–जगदीश चतुर्वेदी, धूमि‍ल, कैलाश वाजपेयी, गंगाप्रसाद वि‍मल, चन्द्रकान्त देवताले, विष्णुचन्द्र शर्मा, कुमार विकल, सौमि‍त्र मोहन, विजेन्द्र, वेणुगोपाल, मोना गुलाटी, श्याम परमार, परेश, आलोकधन्‍वा, लीलाधर जगूड़ी आदि‍। धूमिल उस दौर के ऐसे महत्त्वपूर्ण कवि हैं, जि‍न्‍होंने व्यवस्था की वंचनाओं का शि‍कार हुई सामान्‍य जनता का पक्ष लि‍या, उनकी भावनाओं से छल करनेवाली व्‍यवस्‍था को आइना दिखाया। कविता में परंपरा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता का बोझ ढोना कभी धूमिल का काम्‍य नहीं रहा। इन सबकी आड़ में पल रही दुर्नीति‍ को धूमिल भली-भँति‍ पहचान गए थे। उनकी कविता की आक्रामक भाषा इसी पहचान-शक्‍ति‍ का संकेत है। उन्‍होंने ऐसी काव्य-भाषा विकसित की, जि‍सने हि‍न्‍दी कवि‍ता को नई कविता की कल्पना और जटिल बिम्‍बधर्मि‍ता से मुक्त कि‍या। उनकी भाषा काव्य-सत्य को जीवन सत्य के निकट लाती है। अपनी कवि‍ता में उन्‍होंने नीति‍गत तरीके से जनहि‍त में व्यवस्था के विरुद्ध अपना आक्रोश एवं विद्रोह व्यक्त किया।

 

3.2. अकविता

 

चूँकि‍ धूमिल का काव्‍यारम्भ अकविता के दौर में हुआ, इसलिए अकविता आन्दोलन की प्रमुख विशेषताओं पर यहाँ एक नजर डाल लेना जरूरी है। अकविता का आरम्भ सन् 1963 में प्रकाशित प्रारम्भ संकलन से माना जाता है। इस आन्दोलन ने बड़े साहस से कवि‍ता के पुराने मूल्यों को नकारकर कविता के नए शि‍ल्‍प एवं अन्तर्वस्तु का नव सन्‍धान कि‍या। यौन-चि‍त्रण सम्बन्धी उनकी दृष्टि पर सर्वाधिक विवाद उठा। स्‍त्री-देह के प्रतीकों से चि‍त्रि‍त उनकी पद्धति‍यों को उनकी रुग्णता और कुण्ठा माना जाने लगा। इस आक्षेप से धूमिल भी बच न सके। उनकी कविताओं में दर्ज ‘मूतना’, ‘गर्भ’, ‘गर्भपात’, ‘मासिक धर्म’, ‘वीर्यपात’, ‘गद्गद औरत’, ‘नेकर का नाड़ा’, ‘लड़कियों के स्तन’, ‘औरत की लालची जाँघ’, ‘उबासियों में उँघते नितम्ब’ जैसे यौन-प्रतीक एवं शब्‍द-नग्‍नता के मद्देनजर कुछ लोगों को यह कथन सच भी लगने लगा। कि‍न्‍तु धूमिल की कविता का यह सम्‍पूर्ण सत्‍य नहीं, मात्र एक पक्ष है।

 

3.3 धूमिल की काव्ययात्रा

 

धूमिल के तीन कविता संग्रह हैं– ‘संसद से सड़क तक’, ‘कल सुनना मुझे’ तथा ‘सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र।’ जि‍नमें अन्‍ति‍म दो संग्रह उनकी मृत्‍यु के बाद प्रकाशित हुए। सन् 1960 से 66 तक की धूमिल की कविताओं में व्यवस्था के प्रति आक्रोश, जनता के प्रति सहानुभूति और मानव-मूल्यों में गिरावट के प्रति खीज दिखती है। सन् 1967 से 70 के दौरान वह खीज, व्यवस्था के प्रति अमूर्त्त आक्रोश परि‍पक्‍व होकर शासकों के वि‍रुद्ध मुखर हो उठा। ‘संसद से सड़क तक’ में संकलि‍त उनकी चर्चित लम्बी कविताएँ इसी दौरान रची गईं। राजनीतिक दलों का अवसरवाद और चुनाव का धोखा उजागर हुआ; आज़ादी, जनतन्त्र, संसद और समाजवाद का असली चेहरा सामने आया। विगत काव्यानुभवों से परे, कवि‍ को नए युगबोध और नई दृष्टि से काव्‍य-सन्‍धान की दिशा मि‍ली। ‘कुत्ता’, ‘एक बूढ़ा मैं’, ‘शान्तिपाठ’, ‘कविता’, ‘शहर का व्याकरण’, ‘मोचीराम’ जैसी कविता की रचना के लि‍ए धूमिल की काव्य-यात्रा में सन् 1967 महत्त्वपूर्ण वर्ष है। इस समय तक अकवि‍ता के दौर के अधि‍कांश रचनाकारों का क्रोध व्‍यवस्‍थि‍त ढंग से व्‍यक्‍त होने लगा। दिशाहीन व्यवस्था विरोध समाप्‍त हो गया, राजनीतिक चेतना घनीभूत हुई और स्पष्ट राजनीतिक दृष्‍टि‍ से आक्रोश व्‍यक्‍त होने लगा। नगरोन्मुख हिन्दी साहित्य उसी दौरान ग्रामोन्मुख हुआ। धूमिल की महत्त्वपूर्ण लम्बी कविता पटकथा उसी दौर की कवि‍ता है।

 

भाषा की रात कविता में धूमिल को लगा कि भाषा को ठीक करने से पहले आदमी को ठीक करना जरूरी है। पतझड़ में उन्‍हें देश में फैली बेकारी पर चोट करना जरूरी लगा। रोटी और संसद जैसी अत्‍यन्‍त छोटी कवि‍ता में जब धूमिल पूछते हैं कि वह तीसरा आदमी कौन है, जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है; वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है? तो इस देश की संसद मौन हो जाती है। मनुष्‍य की जि‍जीवि‍षा-पूर्ति‍ के लि‍ए अनि‍वार्य साधन ‘रोटी’ को खेल का उपादान बनानेवालों की पहचान करने में एक कवि‍ व्‍यग्र है, कि‍न्‍तु देश के लोकतन्‍त्र की सर्वोच्‍च संस्‍था, हमारी संसद, अर्थात् हमारे देश के जनप्रति‍नि‍धि‍यों का समूह, जि‍नका प्राथमि‍क दायि‍त्‍व नागरि‍क-जि‍जीवि‍षा के संसाधन की सुव्‍यवस्‍था करना है; मौन है। वह मौन है क्‍योंकि‍ यह खेल वही खेल रहा है, और उनके इस खेल का रहस्‍य उजागर हो गया है। किस्सा जनतन्त्र उनकी उस दौर की महत्त्वपूर्ण कविता है। सन् 1970 के आस-पास धूमि‍ल में दुनिया बदल देने की धुन सवार हो गई। इसी दौर में उन्होंने ‘कविता श्री काकुलम’ की रचना की थी। इन दिनों वे हिटलर, मुसोलिनी, स्तालिन, लेनिन आदि के बारे में विषद चर्चा करते थे। उनका मानना था की बैठे रहने से स्थिति नहीं बदलेगी। स्थिति को बदलने के लिए संघर्ष अनिवार्य है। ‘आतिश के अनार सी वह लड़की’, ‘सिलसिला’, ‘हत्यारे’ तथा ‘लोहसाँय’ जैसी कविताओं में उनकी चेतना का क्रमिक विकास दि‍खता है। ‘वापसी’ कविता में कवि‍ को अपने स्‍वजनों की नि‍स्‍तेज आँखों में जैसी नि‍स्‍सहाय स्‍थि‍ति‍ दि‍खती है, वह जीवन की त्रासद अनुभूति‍यों को पुनर्पुन: नवजीवन देती चलती है। कवि‍ के घर की पाँच जोड़ी आँखों में से माँ की आँखें तीर्थ-यात्रा के पड़ाव से पहले ही पंक्‍चर हो गए बस के दो पहिये हैं। पिता की आँखें लोहसाँय-सी ठण्‍डी शलाखें हैं। बेटी की आँखें मन्‍दिर में दीवट पर जलते घी के दो दीये; और पत्नी की आँखें, आँखें नहीं, हाथ हैं, जो कवि‍ को थामे हुए हैं। ये तमाम रूपक एक पेशेवर गरीब परि‍वार के लि‍ए रचे गए हैं। जि‍सकी तीन पीढ़ि‍याँ लोकतान्‍त्रि‍क व्‍यवस्‍था द्वारा प्रवंचि‍त और नि‍रुपाय हैं। दो पीढ़ि‍यों की आशाएँ मि‍ट चुकीं, तीसरी पीढ़ी की बची-खुची सम्‍भावना मन्‍दि‍र के दीवट पर सम्‍मानपूर्वक उपेक्षा पाने को मजबूर है। पड़ाव से पहले तीर्थ-यात्रा की बस के पहि‍ए की तरह पंक्‍चर कर माँ की आँखों को नि‍रुपाय कर दि‍या गया; लोहसाँय-सी ठण्‍डी शलाखों की तरह पि‍ता की आँखों की आशा मि‍टा दी गई; पत्नी की आँखें, आँखें रही ही नहीं, कवि‍ को थामे रखने हेतु हाथ हो गईं, पल-पल की जि‍म्‍मेदारि‍यों के बोझ से लदी हुईं। रह गईं भावी पीढ़ी बेटी की आँखें, जि‍नके लि‍ए कुछ उम्‍मीद रची या रखी जा सकती है, उन्‍हें मन्‍दिर में दीवट पर जलते घी के दो दीये बना दि‍ए गए; जो अभी प्रज्‍वलि‍त तो हैं, पर मन्‍दि‍र के भक्‍ति‍-भाव से उन्‍हें सम्‍मानि‍त, पवि‍त्र और नि‍रर्थक साबि‍त कर कि‍नारे कर दि‍या गया है।

 

लोहे का स्वाद कवि‍ता धूमिल की अन्तिम और चेतना के विकास की दृष्टि से वि‍शि‍ष्‍ट कवि‍ता है, जिसमें कवि सृजेता और भोक्‍ता के ज्ञान और अनुभवों को सूक्ष्‍मता से वि‍भाजि‍त करते दि‍खते हैं। वस्‍तु-ज्ञान और भोगानुभूति‍ की ऐसी स्‍पष्‍ट वि‍भाजक-रेखा, इतनी सूक्ष्‍मता से शायद ही इससे पहले कि‍सी ने खींची हो–लोहे का स्वाद/लोहार से मत पूछो/उस घोड़े से पूछो/जिसके मुँह में लगाम हैगौरतलब है कि‍ लोहार उस लगाम का कारीगर है, सृजेता, उसने उसे आकार दि‍या है, गढ़ा है, उसे गरम कि‍या, पीटा और एक संज्ञा के अनुरूप बनाया; पर सत्‍य यह है कि‍ उसका स्‍वाद, अर्थात् उसके उपयोग की परि‍णति‍ लोहार नहीं, घोड़े का मालि‍क भी नहीं, घोड़ा जानता है। अच्‍छे-भले ताकत का स्‍वामी घोड़ा, उस लगाम के कारण पि‍द्दी से मनुष्‍य का अनुगामी बना रहता है, अपनी सारी ताकत का बोध खोकर उस दुर्बल मनुष्‍य के इशारों पर नाचता रहता है। हमारे देश की लोकतान्‍त्रि‍क व्‍यवस्‍था ने ऐसी ही लगाम बना रखी है, जि‍सके द्वारा पूरी जनशक्‍ति‍ संचालि‍त होती है।

  1. धूमिल की कविता में निहित चेतना

 

प्रसिद्ध हि‍न्‍दी आलोचक नामवर सिंह ने धूमिल को एक जगह ‘गँवई अनुभव और किसानी संस्कार का कवि’ कह दि‍या, तो इसका अभि‍प्राय यह नहीं कि‍ उनके अन्‍य वै‍शि‍ष्‍ट्य की अनदेखी कर केवल इसी बात की माला फेरी जाए। वे नि‍श्‍चय ही गँवई अनुभव के कवि थे। उनकी कविता में किसानी दुनियाँ से आए शब्दों, मुहावरों की भरमार है। देहाती दुनिया से वे गहनता जुड़े थे। भाव-सम्प्रेषण के वांछि‍त उत्‍कर्ष हेतु कवि‍ता में ग्राम्य-परिवेश के उपादानों का प्रयोग सम्‍भवत: उन्‍हें सहज और कारगर लगता था; कि‍न्‍तु उनके लि‍ए केवल इतना ही सच नहीं था। इस कारण उनकी अन्‍य प्रखरता को अलक्षि‍त छोड़ना उचि‍त नहीं होगा। उनकी सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना भी अत्‍यन्‍त प्रखर थी। बेहतर जानने के लि‍ए यहाँ उनकी काव्‍य-चेतना की भि‍न्‍न-भि‍न्‍न दि‍शाओं को अलग-अलग देखने की कोशि‍श करते हैं।

 

4.1 ग्रामीण चेतना

 

ग्राम्य-बोध का सूक्ष्‍मतर प्रयोग धूमिल की कविताओं में वि‍लक्षण है। ग्रामीण सन्‍दर्भों से लि‍ए गए उनके रूपक काव्‍य-कथ्‍य को अधिक सम्प्रेषणीय और प्रभावी बनाते दि‍खते हैं। उल्‍लेखनीय है कि‍ अपनी रचनाओं में उन्‍होंने केवल शासन-तन्‍त्र और व्‍यवस्‍था पर ही आक्षेप नहीं कि‍या, अबूझ और जनसरोकारों से परांग्‍मुख कवि‍ताओं की भी उन्‍होंने अच्‍छी खबर ली। जटि‍ल और उलझे भाषा-प्रयोगों की काव्‍य-रचना की आधुनि‍कतावादी रवायत उन्‍हें बेहद नागवार गुजरती थी। कवि‍ता शीर्षक अपनी कवि‍ता में उन्‍होंने खीजकर उसकी नि‍रर्थकता पर टि‍प्‍पणी की—नहीं, अब वहाँ कोई अर्थ खोजना व्‍यर्थ है/पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों/और बैलमुत्ती इबारतों में/अर्थात् खोजना व्‍यर्थ है…यहाँ पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों का अभि‍प्राय उन अबूझ और जटि‍ल भाषा-संकेतों से है, अस्‍पष्‍ट प्रतीकों से है, जो जनोपयोगी कदापि‍ नहीं है। इसलि‍ए उन्‍होंने उसे बैलमुत्ती इबारत कहा, अर्थात् गाँव में चलते हुए बैलों के पेशाब गि‍रने से जि‍स तरह जमीन पर टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं के नि‍शान बनते हैं, पर वे उपयोगी, स्‍थाई और सार्थक इबारत नहीं होते। गीलापन सूखते ही वे नि‍शान समाप्‍त हो जाते हैं; ठीक वैसे ही भाषा के उन तस्कर-संकेतों में कोई अर्थ खोजना व्‍यर्थ है। किसानी संस्‍कृति‍ से लि‍या गया यह रूपक कथ्‍य की सम्‍प्रेषणीयता के लि‍ए बेहतरीन और बोधगम्‍य है। जिन दि‍नों हिन्दी कविता में बिम्ब-प्रतीक के नूतन क्षि‍ति‍ज तलाशकर नए-नए प्रयोग आजमाए जा रहे थे, धूमिल का सारा काम बेहतर प्रभाव के साथ ठेठ-समाज के सहज जीवन से चल जा रहा था, कहीं कोई परेशानी नहीं आ रही थी। खेवली शीर्षक कवि‍ता में उन्‍होंने अपने गाँव के नागरि‍क-जीवन की पीड़ा जि‍स तीक्ष्‍णता से दर्ज की है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं– वहाँ न जंगल है न जनतन्‍त्र/भाषा और गूगेपन के बीच कोई/दूरी नहीं है/एक ठण्‍डी और गाँठदार अँगुली माथा टटोलती है/सोच में डूबे हुए चेहरों और/वहा दरकी हुई ज़मीन में/कोई फ़र्क नहीं है।वहाँ कोई सपना नहीं है। न भेड़िये का डर/बच्चों को सुलाकर औरतें खेत पर चली गई हैं…स्‍वाधीन भारत के लोकतान्‍त्रि‍क सरकार की इससे बड़ी नि‍रर्थकता और क्‍या होगी कि‍ एक गाँव की भाषा और गूंगेपन में, या कि‍ चि‍न्‍तनशील चेहरों और दरकी हुई ज़मीन में कोई फ़र्क नहीं है। उस गाँव में जंगल और जनतन्‍त्र की एक साथ अनुपस्‍थि‍ति‍ दि‍खना, भाषा और गूंगेपन का भेद मि‍टना, दरअसल उस स्‍थि‍ति‍ का द्योतक है, जि‍समें जनतन्‍त्र का मानवीय सरोकार तो सि‍रे से गायब है ही, दुर्व्‍यवस्‍था और आतंक का साया भी ऐसा छाया हुआ है कि‍ भयभीत होने से बेहतर भयहीन होना है। वहाँ सब कुछ नि‍यति‍ का अंश है। जि‍स भय से मुक्‍ति‍ का कोई मार्ग ही न हो, वि‍रोध से कोई हल नि‍कलने की उम्‍मीद ही न हो, वहाँ मुक्‍ति‍कामना कि‍स काम की! सारी वि‍पत्ति‍यों को दाय समझ लेना ही बेहतर है। इस खेवली का नागरि‍क ऐसे ही ठण्‍डे हाथों, गाँठदार मेहनतपरस्‍त उँगलि‍यों, जलवि‍हीन दरके हुए खेतों, भावशून्‍य नि‍स्‍तेज चेहरों का इनसान है, जहाँ जंगल और जनतन्‍त्र, भाषा और गूंगापन, दरके हुए खेत और जन-जन का नि‍स्‍तेज चेहरा बराबर है, इनमें से कि‍सी का कोई मतलब स्‍पष्‍ट नहीं होता। गौरतलब है कि‍ खेवली यहाँ कोई एक गाँव का नाम नहीं है, वह उस दौर के हर भारतीय गाँव का प्रतीक है। धूमिल ने ठेठ ग्रामीण शब्दों को कविता में इस तरह पिरोया है कि वे कविता की लय में एकबद्ध हो गए हैं। ग्रामीण प्रतीकों और बिम्बों के सार्थक प्रयोग से उन्‍होंने साठोत्तरी कविता में अपनी अलग पहचान बनाई है। लोहसाँय कवि‍ता में उनका काव्‍य-पुरुष टेकू बनि‍हार लोहसाँय के चालू होते ही हँसी-मजाक, बतकही के दौरान इधर-उधर झाँककर धीरे से कहता है—हँसुए पर ताव जरी ठीक तरे देना/कि‍ धार मुड़े नहीं आजकल/छि‍नार नि‍हाई ने/लोहे को मनमाफि‍क हनने के लि‍ए/हथौड़े से दोस्‍ती की है…कवि‍ता के इस अंश में लोहे के कारीगर से अच्‍छी तरह धार बनाने का आग्रह, और नि‍हाई-हथौड़े की दोस्‍ती की बात में जो सन्‍देश है, उसमें असल व्‍यंजना टेकू के इधर-उधर झाँककर धीरे से कहने से आती है; नि‍हाई के छि‍नार हो जाने के कारण आती है। हँसुए पर ताव जरी ठीक तरे देना में ग्राम्‍य शब्‍दावली के प्रयोग से कथन के प्रभाव को पुरजोर कि‍या गया है। लोहे का उपयोग धूमि‍ल ने अपनी रचनाओं में बहुवि‍ध ढंग से कि‍या है। यह लोहा वह खनि‍ज है, वह शक्‍ति‍ है, जि‍सके कारण मनुष्‍य का वजूद बनता है, कि‍न्‍तु शोषकों ने, अर्थात् हथौड़े ने उसे सँवारने वाले आधार से, अर्थात् नि‍हाई से दोस्‍ती कर ली है, क्‍योंकि‍ वह आधार छि‍नार हो गया है। इसके बावजूद वे केवल गँवई अनुभव और किसानी संस्कार के कवि नहीं हैं, और भी बहुत कुछ हैं। ‘संसद से सड़क तक’, ‘कल सुनना मुझे’ तथा ‘सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र’ की अधिकांश कविताओं में शहरी मध्यवर्ग की समस्याएँ हैं। पतीली की दाल, चूल्हे का कोयला, बाल्टी, चौका, सोहर, गोबर, चकती, टाकना, नाधना, पोंकना, लिट्टी, हुचुर-हुचुर जैसी ग्रामीण शब्दावली उनकी प्रयुक्‍ति‍यों में जीवन्‍त हो जाती हैं। ‘मोचीराम’, ‘प्रौढ़ शिक्षा’, ‘किस्सा जनतन्त्र’, ‘गाँव’ जैसी अनेक कविताओं में ग्रामीण शब्दावली और देहाती जिन्दगी के ठेठ चित्र देखे जा सकते हैं।

 

4.2 सामाजिक चेतना

 

धूमिल की कविता समकालीन समाज के नागरि‍क-जीवन की सहज दि‍नचर्या का जीवन्‍त गीत है। जनसामान्‍य की अभावग्रस्त जिन्दगी, सामाजिक व्यवस्था की जड़ता, जर्जरता, विकृति, विसंगति उनके यहाँ प्रखरता से उभरी है। ‘किस्सा जनतन्त्र’ में एक साधारण परिवार का अभावग्रस्त जीवन जैसे भौंचक कर देता है–करछुल…/बटलोही से बतियाती है और चिमटा/तवे से मचलता है/चूल्हा कुछ नहीं बोलता/चुपचाप जलता है और जलता रहता है खाना पकाने के उपस्‍करों की इस बतकही और अनबन के वि‍लक्षण कौशल से कवि‍ ने घर के अभाव को जि‍स खूबसूरती से आकार और अभि‍व्‍यक्‍ति‍ दी, उसकी कि‍तनी भी प्रशंसा कम होगी। बेकारी से आक्रान्‍त अराजक स्‍थि‍ति‍ पर केन्‍द्रि‍त कवि‍ता ‘पतझड़’, सामाजिक-चेतना एवं वर्ग-दृष्टि पर केन्‍द्रि‍त कविता ‘मोचीराम’, अकाल की भयावहता पर केन्‍द्रि‍त ‘अकाल दर्शन’ कविता धूमिल की काव्‍य-दृष्‍टि‍ एवं जनसरोकार के साथ-साथ जनजीवन की सहजता को दुर्वह बनानेवाले जिम्मेदार षड्यन्‍त्रों का श्रेष्ठ उदाहरण है। उनकी रचनाओं में पूरा नागरि‍क-जीवन बहेलि‍यों से घि‍रे परि‍न्‍दों के समूह की तरह पेश हुआ है। ‘कर्फ्यू में एक घण्‍टे की छूट’ कवि‍ता में वे कहते हैं—गोलीकाण्‍ड के बाद/लड़कों का गायब होना नई बात नहीं है/यह शान्‍ति‍ का मसला है/लेकि‍न खबरों के मलबे के नीचे/सचाई का पता कब चला है?/घबराने की कोई बात नहीं और/यह खतरनाक भी उतना नहीं/जि‍तना कि‍सी लड़की का पीछा करना।/देह के जलाशय में/तैरना न जानते हुए भी/कुल्‍हों के कशर में कूद भरना…ऐसी दारुण स्‍थि‍ति‍ को कि‍सी वि‍वरण या खबर की तरह प्रस्‍तुत करने की धूमि‍ल पद्धति‍, सहज दि‍खती हुई भी सहज नहीं है। नि‍हायत वक्‍तव्‍य की तरह दि‍खने वाले ये वाक्‍य अपनी व्‍यंजना में इतने ताकतवर हैं कि‍ व्‍यवस्‍था एवं व्‍यवस्‍थापकों के प्रति‍ घृणा उत्‍पन्‍न करते हैं। ‘भाषा की रात’ कविता में सि‍यासी षड्यन्‍त्र का वही खेल दर्ज हुआ है, जि‍समें ‘चन्द चालाक लोगों ने/(जि‍नकी नरभक्षी जीभ ने/पसीने का स्‍वाद चख लि‍या है)/बहस के लिए/भूख की जगह/भाषा को रख दिया है।’ सामाजिक-राजनीतिक चेतना के वास्‍तवि‍क चि‍त्र उकेरने की दृष्‍टि‍ से ‘बीस साल बाद’, ‘रोटी और संसद’ जैसी कई कविताएँ अत्‍यन्‍त महत्त्वपूर्ण हैं।

‘सिलसिला’ में कवि स्पष्ट घोषणा करते हैं कि ‘हवा गरम है/और धमाका एक हल्की-सी रगड़ का/इन्तज़ार कर रहा है।’ व्यवस्था व्यक्ति को किस प्रकार तोड़ रही है, कवि को इसका अहसास है। रुग्‍न-व्यवस्था की जकड़ में कैद मुक्‍ति‍कामी कुपि‍त जनों के अभि‍मत की तरह प्रस्‍तुत कवि‍ता ‘हत्यारे (एक)’ एक वि‍शि‍ष्‍ट रचना है—वे हँसते हैं और हत्‍याओं की परि‍भाषाएँ/बदल जाती हैं।…वे तुम्‍हारे सामने एक आईना रखते हैं और/तुम गुर्राने लगते हो/अपने खि‍लाफ। एक बेगानी आवाज बनकर। इसी तरह ‘हत्यारे(दो)’ कविता में वे कहते हैं–हत्‍यारे एकदम सामने नहीं आते।/उनके पास हैं कई-कई चेहरे/…हत्यारों ने फेंक दिए हैं/सारे शब्द और विचार/उन्होंने हथियार उठा लिए हैं इस वक्त/इस वक्त तुम्हें तय करना है कि तुम/क्या करोगे?… गौरतलब है इन भयावह स्‍थि‍ति‍यों की सूचना भर दे देना धूमि‍ल अपना दायि‍त्‍व नहीं समझते, वे हल भी देते हैं। ‘वापसी’ शीर्षक कविता में उन्‍होंने जनता से कहा–हे भाई हे! अगर चाहते हो/कि हवा का रुख बदले/तो एक काम करो/…संसद जाम करने से बेहतर है–सड़क जाम करो। उनकी सामाजिक चेतना सतत स्पष्ट दि‍खती है। लोकजीवन की दि‍नचर्या से लि‍ए गए प्रतीकों द्वारा कवि‍ सतत व्यवस्था की विसंगतियों, षड्यन्त्रों की पोल खोलते नजर आते हैं। वे नि‍स्‍सन्‍देह तीव्र अनुभूति एवं प्रखर विचारों के कवि हैं।

 

4.3 राजनीतिक चेतना

 

धूमिल राजनीतिक स्‍तर पर जनता के लिए संघर्ष करनेवाले प्रतिबद्ध कवि हैं, कि‍न्‍तु उनकी वैचारिकता कि‍सी वाद की गिरफ्त में नहीं है। वि‍चारकों ने उनकी कविता में कभी लोहियावादी विचार ढूँढा तो कभी समाजवादी। पर तथ्‍य है कि‍ वे अपने देश के लोकतन्‍त्र और समाजवाद से बेहद निराश थे। उनकी सामाजिक और राजनीतिक चेतना इतनी स्‍पष्‍ट थी कि‍ वे कि‍सी भी संशय में नहीं थे। उन्‍हें जनतन्त्र और जंगल में कोई फर्क नहीं दि‍खता था। वे समझ चुके थे कि‍ राजनीतिक बहेलि‍यों एवं व्‍यवस्‍था के अधि‍पति‍यों से लोहा लिए बि‍ना उनकी साजि‍श से नि‍जात पाना असम्‍भव है, मजबूर जनजीवन की समस्याओं का कोई समाधान आवश्‍यक है। लि‍हाजा समकालीन राजनीति के कलुषि‍त चेहरे को उजागर करने की सफलतम कोशिश उन्‍होंने लगातार की। विद्रोह, हरित क्रान्ति, रोटी और संसद, खेवली, सिलसिला, किस्सा जनतन्‍त्र, बीस साल बाद, जनतन्त्र के सूर्योदय में, संसद-समीक्षा, कर्फ़्यू में एक घण्‍टे की छूट, लोकतन्‍त्र, जनतन्‍त्र : एक हत्या सन्‍दर्भ, हरित क्रान्‍ति, हत्यारे, लोहसाँय, नीन्‍द के बाद, रात्रि-भाषा जैसी कवि‍ताओं में इन वि‍संगति‍यों एवं वि‍द्रूपताओं को देखा जा सकता है। स्वाधीन भारत में धूमिल की कविता तर्कपूर्ण और सार्थक मानवीय जीवन की परि‍भाषा और पहचान गढ़ती है। भारतीय लोकतन्त्र के पाखण्‍ड और वि‍संगति‍यों की पोल खोलने में उन्‍होंने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी। ‘बीस साल बाद’ कविता में स्‍वाधीनता के बीस साल बाद के भारत की बदकि‍स्‍मती पर वे खुद से सवाल करते हैं कि‍ ‘जानवर बनने के लि‍ए कि‍तने सब्र की जरूरत होती है?’ या ‘क्या आज़ादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है/जिन्हें एक पहिया ढोता है/या इसका कोई खास मतलब होता है।’ ‘पटकथा’ शीर्षक लम्‍बी कवि‍ता में उनकी प्रखर राजनीतिक चेतना स्‍पष्‍ट हुई है। इसमें  भारतीय लोकतन्‍त्र के वीभत्‍स चेहरे को उन्‍होंने बड़ी बेरहमी से रेखांकि‍त कि‍या है। एकदम से पटकथा शैली में आज़ादी की खुशफहमी से शुरू इस कवि‍ता में कवि उम्मीद लगा बैठे कि बाहर हवा है, धूप है, चिडि़याँ चहचहा रही हैं, तो नि‍श्‍चय ही अब कोई बच्चा भूखा रहकर स्कूल नहीं जाएगा, कोई छत बारिश में नहीं टपकेगी, कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा, अब कोई दवा के अभाव में घुट-घुटकर नहीं मरेगा, अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा, कोई किसी को नंगा नहीं करेगा, अब यह ज़मीन लोगों की अपनी होगी। दरअसल कवि‍ धूमिल ये सपने अपनी ओर से नहीं आम जनता की आँखों से देख रहे थे। कि‍न्‍तु ऐसा हुआ नहीं; इन्तजा़र होता रहा, क्‍योंकि‍ वे सारे शब्द थे, सुनहरे वादे थे, खुशफ़हम इरादे थे, बार-बार लोकनायक चुना जाता रहा, जनता को विश्वशान्ति और पंचशील के पाठ पढ़ाए जाते रहे, बहसें होतीं रहीं, शब्दों के जंगल में लोग एक-दूसरे को काटते रहे, भाषा की खाई को जुबान से कम जूतों से ज्यादा पाटते रहे, कवि‍ ने अचरज से देखा कि–दुनिया का सबसे बड़ा बौद्ध-मठ/बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है कवि‍ ने देखा कि इस देश कि‍ जनता–एक भेड़ है/जो दूसरों की ठण्ड के लिए/अपनी पीठ पर/ऊन की फसल ढो रही है। जनतन्त्र में जनता की अटूट आस्था है क्‍योंकि उन्‍हें समझाया गया है कि यहाँ–ऐसा जनतन्त्र है जिसमें/घोड़े और घास को/एक-जैसी छूट हैजनता को नहीं मालूम कि यह जनतन्‍त्र एक विडम्बना है, झूठ है–दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र/एक ऐसा तमाशा है/जिसकी जान/मदारी की भाषा है। देश-दशा यूँ थी कि‍ गोदाम अनाजों से भरे थे और लोग/भूखों मर रहे थे…। वक्त के उस शर्मनाक दौर से गुजरते हुए कवि को महसूस होता है कि शासक वर्ग बेहद चालाक हो गया है, ‘वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं/उसके रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है।’ कवि जनता की निराशा और असन्तोष को सही दिशा देने का आह्वान करते हैं–‘अब वक्त आ गया है कि तुम उठो/और अपनी ऊब को आकार दो।’ तथ्‍यत: पूरी दुनिया के भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क/रोटी है। भूख मनुष्‍य को मजबूर करती है, झुकाती है; कि‍न्‍तु भाषा उसे तनकर खड़े होने का साहस और सम्‍बल देती है। जि‍स व्‍यक्‍ति‍ को इस भूख और भाषा के बीच की सही दूरी का ज्ञान न हो उसे धूमि‍ल मनुष्‍य कहलाने का हक नहीं देना चाहते, क्‍योंकि‍ पशुता सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है, उक्‍त अज्ञान भी पशुता ही है, यह आदमी को वहाँ ले जाती है, जहाँ भूख, सबसे पहले भाषा को खा जाती है, अर्थात् मनुष्‍य गूंगा हो जाता है। कवि‍ की स्‍पष्‍ट समझ है कि‍–मन्त्री जब प्रजा के सामने आता है/तो पहले से ज्यादा मुस्कराता है/नये-नये वादे करता है/और यह सिर्फ़ घास के/सामने होने की मजबूरी है/वर्ना उस भले मानुस को/यह भी पता नहीं कि विधानसभा भवन/और अपने निजी बिस्तर के बीच/कितने जूतों की दूरी है। शासकों के लोक-लुभावन नारों के बारे में भी उनकी स्‍पष्‍ट समझ है। वे समाजवाद के नारे लगाएँगे, पर तथ्‍यत: मेरे देश का समाजवाद/मालगोदाम में लटकती हुई/उन बाल्टियों की तरह है/जिस पर आगलिखा है/और उनमें बालू और पानी भरा है। कवि‍ यह भी स्‍पष्‍ट देख गए कि‍ अपने यहा संसद-/तेली की वह घानी है/जिसमें आधा तेल है/और आधा पानी है चौथे आम चुनाव से कवि को बहुत आशा थी, उन्‍हें लग रहा था कि‍ नवनि‍र्वाचि‍त जनप्रति‍नि‍धि‍ सम्‍भवत: जन के हि‍त की बात करेंगे, कि‍न्‍तु चुनाव परि‍णाम से उनके सपने टूट गए। उन्‍होंने एक बार फि‍र देखा कि कुर्सियाँ वही हैं/सिर्फ टोपियाँ बदल गई हैं। उन्‍हें स्‍पष्‍ट हो गया कि‍ पार्टियों की दलदल में जनता का हमदर्द नहीं होता। वकील, वैज्ञानि‍क, अध्यापक, नेता, दार्शनि‍क, लेखक, कवि‍ कलाकार सबको आवाज देकर उन्‍होंने जाँच कर ली, इनका पूरा कुनबा उन्‍हें ‘कानून की भाषा बोलता हुआ/अपराधियों का एक संयुक्त परिवार…’ लगा। आजादी और लोकतन्‍त्र के इस घि‍नौने चेहरों को बेनकाब करते रहने के बावजूद अन्‍तत: वे इसी नि‍ष्‍कर्ष पर थे कि‍–मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है/संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्राएँ हैं/हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है।/दरिद्र की व्यथा की तरह/उचाट और कूँथता हुआ। घृणा में/डूबा हुआ सारा का सारा देश पहले की तरह आज भी/मेरा कारागार है।

  1. धूमिल की कविता–सम्बन्धी दृष्टि

कविता की सार्थकता एवं उसके जनसरोकार के प्रति‍ सावधान कवि‍ धूमिल ने कविता के बारे में कई कविताएँ लिखीं हैं। ‘कविता’, ‘कविता के भ्रम में’, ‘अगली कविता के लिए’ आदि इसके उदहारण हैं। ये कवि‍ताएँ धूमिल की कविता को ठीक से समझने की दृष्टि भी देती है। ‘संसद से सड़क तक’ संकलन के प्रारम्‍भि‍क पृष्‍ठों में ही कवि‍ कहते हैं कि‍ ‘एक सही कविता/पहले/एक सार्थक वक्तव्य होती है।’ फि‍र वक्तव्य की इस सार्थकता का भेद वे अपनी कवि‍ता शीर्षक कवि‍ता में खोलते हैं कि‍ कविता/घेराव में/किसी बौखलाए हुए आदमी का/संक्षिप्त एकालाप है। कविता के द्वारा हस्तक्षेपशीर्षक कवि‍ता में वे साफ कहते हैं कि‍ मेरे शब्द उसे ज़िंदगी के कई-स्तरों पर खुद को/पुनरीक्षण का अवसर देते हैं, वह बीते हु वर्षों/को एक-एक कर खोलता है।/वर्तमान को और पारदर्शी पाता है उसके आर-पार/देखता है। और इस तरह अकेला आदमी भी/अनेक कालों और अनेक सम्‍न्‍धों मे एक समूह/मे बदल जाता है। मेरी कविता इस तरह अकेले को/सामूहिकता देती है और समूह को साहसिकता।…मुनासि‍ब कार्रवाई शीर्षक अपनी कवि‍ता में वे कहते हैं–‘कवि‍ता क्‍या है?/कोई पहनावा है?/कुर्ता-पाजामा है?/ना, भाई ना/कविता/शब्दों की अदालत में/मुजरिम के कठघरे में खड़े बेकसूर आदमी का/हलफनामा है।’ कविता धूमिल के लि‍ए कवि-कर्म की सार्थकता समझने का माध्‍यम भी है। इसके सहारे वे कवि-कर्म के उद्देश्य एवं दायि‍त्‍व की सही खोज करते हैं। वे कविता को अभिव्यक्ति का साधन मात्र नहीं मानते। उनके अनुसार कवि‍ कविता को अपने खून से सींचता है। ‘कल सुनना मुझे’ की एक कवि‍ता में वे कहते हैं ‘और तुम कहते हो कि कवि एक सुन्दर बगीचा है/जि‍ससे अपने लि‍ए तुम एक शब्‍द फूल/तोड़ सकते हो। तोड़ो/मगर मत भूलो कि इस बगीचे को/एक आदमी ने अपने खून से सींचा है।’ जीवन की त्रासदी झेल रहे नागरि‍क और बदहाल समाज-व्‍यवस्‍था को देखते हुए ‘कल सुनना मुझे’ संग्रह में संकलि‍त कविता के द्वारा हस्तक्षेप शीर्षक कवि‍ता में उन्‍होंने साफ-साफ घोषण की कि‍ कविता में शब्दों के ज़रिये एक कवि/अपने वर्ग के आदमी को समूह की साहसिकता से/भरता है जब कि शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु को/समूह से विच्छिन्न करता है। यह ध्यान/रहे कि शब्द और शस्त्र के व्यवहार का व्याकरण/अलग-अलग है/शब्द अपने वर्ग-मित्रों में कारगर/होते हैं और शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु पर कविता की सकारात्मकता को रेखांकित करते हुए उन्‍होंने ‘मुनासि‍ब कार्रवाई’ शीर्षक कवि‍ता में कवि‍ता को ‘भाषा में/आदमी होने की तमीज’ कहा। कवि‍ता उनके लि‍ए सदैव ही मनोरंजन से परे जीवन जीने की सहयोगि‍नी लगी। ‘लोहे का स्‍वाद’ शीर्षक कविता में उन्‍होंने कहा कि‍ ‘शब्द किस तरह/कविता बनते हैं/इसे देखो/अक्षरों के बीच गिरे हुए/आदमी को पढ़ो।’ कविता  उनके लि‍ए सदैव ‘गुर्राने वाली, चेतावनी देने वाली, जागती आवाज’ रही। नक्‍सलबाड़ी कवि‍ता में वे ‘अपनी कवि‍ताओं के लि‍ए/दूसरे प्रजातन्‍त्र की तलाश’ करते दि‍खते हैं तो ‘मुनासि‍ब कार्रवाई’ शीर्षक कविता में उन्‍हें ‘कवि‍ता, सि‍र्फ उतनी ही देर तक सुरक्षि‍त’ दि‍खती है ‘जि‍तनी देर, कीमा होने से पहले/कसाई के ठीहे और तनी हुई गराँस के बीच/बोटी सुरक्षि‍त है…

  1. आलोचकों की दृष्टि में धूमिल की कविता

 

भाषा-प्रयोग के मद्देनजर साठोत्तरी काल के चर्चित हि‍न्‍दी कवि धूमिल की काव्‍य-दृष्‍टि‍ पर हिन्दी के समालोचकों ने पर्याप्‍त तीखी प्रति‍क्रि‍या दी, पर नई रचना-दृष्‍टि‍ के अनुरक्‍तों के बीच वे अत्‍यन्‍त समादृत भी हुए। काशीनाथ सिंह की राय में जि‍स हि‍न्‍दी आलोचना का मुँह धूमिल के आने तक कहानी की ओर था, कविता की ओर ओर मुड़ गया। नेमिचन्द्र जैन के अनुसार धूमिल की कविता स्‍वातन्‍त्र्योत्तरकालीन भारतीय नौजवान के लि‍ए राष्‍ट्रीय वि‍संगति‍यों की समझ बनाने का उपस्‍कर है। वि‍षय एवं भाषा-प्रयोग की दृष्‍टि‍ से वर्जित क्षेत्रों में प्रवि‍ष्‍ट धूमिल की कविता पर शुचि‍तावादी हिन्दी आलोचकों को जब-तब दुवि‍धा हो जाया करती है, कि‍न्‍तु नामवर सिंह उसे उस दौर की अनि‍वार्यता के रूप में देखते हैं। तथ्‍यत: परि‍स्‍थि‍ति‍ जि‍तनी भयावह होगी, नि‍राकरण उसके अनुकूल ही होगा। सचाई के बयान हेतु धूमिल ने यदि‍ हि‍न्‍दी कविता को मुँहफट बनाया, तो यह लोगों को बुरा नहीं लगना चाहि‍ए। परमानन्द श्रीवास्तव धूमिल की कवि‍ता को क्रूर और अमानवीय होती व्ययवस्था के विरुद्ध नैतिक हस्तक्षेप मानते हैं, उनकी राय में धूमि‍ल ने अपनी काव्‍य-भाषा में ऐतिहासिक महत्त्व के अलग और अनूठे मुहावरे विकसित किए। स्‍वीकार एवं उपालम्‍भ के लम्‍बे दौर से गुजरने के बावजूद तथ्‍य है कि‍ धूमिल की कवि‍ता अकेले आदमी को सामूहिकता और समूह को साहसिकता से सम्‍पन्‍न करती है।

 

  1. निष्कर्ष

 

हिन्दी के चर्चि‍त साठोत्तरी कवि धूमिल का आरम्‍भि‍क लेखन अकविता से प्रभावि‍त रहा, बाद के दि‍नों में वे लोहियावादी समाजवाद से प्रभावित हुए। क्रूर-व्यवस्था से विद्रोह उनकी कविता का मूल स्‍वर है। गहरे सामाजिक सरोकारों से जुड़े प्रतिबद्ध कवि‍ धूमि‍ल की राजनीतिक चेतना प्रखर थी। जनतन्त्र के पाखण्‍ड को उजागर करने में सदैव उन्‍होंने अपने गँवई अनुभव और किसानी संस्कार का बेहतरीन उपयोग कि‍या। उन्होंने हि‍न्‍दी कविता को नई भाषा और नया मुहावरा दि‍या।

 

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अतिरिक्त जानें

पुस्तकें

  1. संसद से सड़क तक, धूमिल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  2. क्रान्तिदर्शी कवि धूमिल, वी. कृष्ण, सीता प्रकाशन,हाथरस
  3. आधुनिक हिन्दी कविता (चतुर्थ खण्ड), प्रगतिशील काव्य, उ. प्र. राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय,इलाहबाद.
  4. समकालीन बोध और धूमिल का काव्य, डॉ. हुकुमचंद्र राजपाल,वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली
  5. कविता के नए प्रतिमान,नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
  6. सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र,धूमिल, संपादक-रत्नशंकर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
  7. समकालीन कविता का यथार्थ, डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, हरियाणा साहित्य ग्रन्थ अकादमी

 

वेब लिंक्स

  1. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF_%27%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%27
  3. https://www.youtube.com/watch?v=MXh2LacLCS0
  4. https://www.youtube.com/watch?v=gIG5atE0N4E
  5. https://www.youtube.com/watch?v=bdqsgDLUkYw