24 धूमिल की कविताओं का पाठ-विश्लेषण
डॉ. रसाल सिंह
पाठ का प्रारूप
1.पाठ का उद्देश्य
2.प्रस्तावना
3.धूमिल की कविताओं का पाठ-विश्लेषण
3.1. मोचीराम कविता का पाठ-विश्लेषण
3.2. प्रौढ़ शिक्षा कविता का पाठ-विश्लेषण
3.3. पटकथा कविता का पाठ-विश्लेषण
4. निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- धूमिल की कविताओं से परिचित हो सकेंगे।
- दी गई कविताओं के मूल अर्थ समझ सकेंगे।
- इन कविताओं में उभरने वाली अर्थ व्यंजनाओं से परिचित हो सकेंगे।
- इन कविताओं की भाषा और रचना-प्रक्रिया समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
देश की आजादी के बाद सत्ता प्राप्ति के लिए जो अवसरवादिता, आपाधापी और लूटमार शुरू हुई वह भारतीय इतिहास की अभूतपूर्व घटना थी। सत्ता की इस बाजीगरी ने भारतवासियों में गहरी निराशा, असन्तोष और मोहभंग पैदा किया। नई कविता, अकविता, युवा कविता, विद्रोही कविता और जनवादी कविता जैसे कई काव्यान्दोलन विफल आजादी की कोख से पैदा हुए।
धूमिल विद्रोही कविता और विद्रोही पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि हैं। उन्होंने चुस्त, सूक्तिपरक, सूत्रबद्ध और व्यंग्यमय भाषा में युवा पीढी़ की आकांक्षाओं, उम्मीदों, सपनों और संघर्षों को अभिव्यक्ति दी। प्रजातन्त्र और उसके संचालकों के प्रति इस युवा पीढी़ के मन में तीव्र घृणा, असन्तोष और निराशा भरी हुई थी। स्वातन्त्र्योत्तर युवा पीढ़ी का यह असन्तोष और विद्रोह धूमिल की कविता का मूल तेवर है। उन्होंने नेताओं की चालाकी, धूर्तता और स्वार्थपरता का लगातार पर्दाफाश किया। उनकी कविता में जहाँ बेबस और शोषित-उत्पीड़ित आम जनता के प्रति गहरी सहानुभूति है, वहीं उसके यथास्थितिवादी रवैये, उसकी मिमियाहट और बेमतलब जि़न्दगी के प्रति गहरा असन्तोष, खीज और पीड़ा का भाव मौजूद है।
धूमिल की तीन लम्बी कविताओं के पाठ-विश्लेषण द्वारा इस इकाई में उपर्युक्त विशेषताओं से परिचित हो पाएँगे। ये कविताएँ हैं– मोचीराम, प्रौढ़ शिक्षा और पटकथा। ये तीनों लम्बी कविताएँ उनके पहले काव्यसंग्रह, संसद से सड़क तक ( सन् 1972) में संकलित हैं।
- धूमिल की कविताओं का पाठ-विश्लेषण
3.1. मोचीराम कविता का पाठ-विश्लेषण
धूमिल ने कविता के लिए एकदम अछूते, उपेक्षित और ताजा विषय चुने। मोचीराम इस प्रकार के विषयों में महत्त्वपूर्ण है। मोचीराम अपना काम पूरी ईमानदारी, निष्ठा और आत्मीयता के साथ करनेवाला आम आदमी है। वह मेहनतकश सर्वहारा है जो ‘रोज कुआँ खोदकर पानी पीता है।’ वह अपने व्यवसाय को सबसे बढ़कर मानता है। ‘कर्म ही पूजा’ के सिद्धान्त में वह पूरा यकीन रखता है। वह अपने ग्राहकों को समदृष्टि से देखता है। वह जाति या वर्ग के आधार पर किसी को बड़ा या छोटा नहीं मानता। वह जूतों की मरम्मत के बहाने समाज और व्यवस्था की मरम्मत करना चाहता है। वह मानता है कि जिस प्रकार हरेक जोड़ी जूते को मरम्मत की जरूरत है उसी प्रकार हर आदमी को सुधार की जरूरत है–
बाबूजी ! सच कहूँ – मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है
मोचीराम मानता है कि आज आदमी छोटा होता जा रहा है। वह अपनी विशिष्टता खो रहा है। आज जूता आदमी की पहचान बन गया है। जूता आदमी और आदमी के बीच वर्गभेद पैदा करता है। किन्तु मोचीराम इस वर्गभेद को अस्वीकार करके एक नए समाजवाद की प्रस्तावना करता है। वह व्यवस्था में मौजूद अमानवीयकरण के खिलाफ इन्सानियत के एहसास को बचाए रखने की वकालत करता है। वह मानता है कि व्यवस्था या जूते को ठीक करने की प्रक्रिया में सबसे ज्यादा चोट आम आदमी को सहनी पड़ती है। वह पूरी संवदेनशीलता और शिद्दत के साथ आम आदमी के दर्द को समझने और सम्प्रेषित करने की बात करता है–
फिर भी मुझे ख्याल रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे हुए जूतों के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई उँगली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
सम्बोधन शैली में लिखी गई इस कविता में कवि धूमिल मोचीराम के माध्यम से समाज के पूरे ढाँचे की जाँच-पड़ताल करते हैं। समाज में मौजूद गैर-बराबरी और नाइन्साफी को उभारकर उस पर चोट करते हैं। वे बताते हैं कि अलग-अलग हैसियत का आदमी, अलग-अलग किस्म के जूते पहनता है। एक तरफ श्रमजीवी वर्ग है, जिसके जूते में चकतियाँ-ही-चकतियाँ हैं। घनघोर अभाव और बेबसी ने उसके चेहरे पर झुर्रियों का जाल बुन दिया है। इस अथाह पीड़ा के बावजूद वह अपनी उम्मीद खत्म नहीं होने देता। मोचीराम को ऐसे मेहनतकश आदमी के पूरी तरह फटेहाल जूते की मरम्मत करने में बेहद ध्यानपूर्वक काम करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में वह कई बार विचलित हो जाता है और बड़ी मुश्किल से अपने पेशागत दायित्व का निर्वाह करता है। इस श्रमजीवी के साथ कवि धूमिल बुर्जुआ आदमी के चरित्र का खुलासा करते हैं। इस अमीर आदमी का जूता पैर को सजाने-सँवारने के काम आता है। वह जमकर सैर-सपाटा और मौज-मस्ती करता है। न वह अक्लमन्द है, न वक्त का पाबन्द है, फिर भी दुनियावी अर्थों में बेहद सफल और सम्पन्न है। उसके अन्दर मानवीयता की जगह व्यापारी बुद्धि है जो हर चीज को नफा-नुकसान के तराजू पर तौलता है। यह लालची और लोलुप आदमी मोचीराम से घण्टे भर काम करवाकर भी उसका सही मेहनताना नहीं देता क्योंकि शोषण उसकी धमनियों में बहता है। यहाँ कवि धूमिल व्यवस्था की उस विडम्बना को उभारना चाहते हैं जिसमें हर गरीब आदमी बदमाश और अमीर आदमी शरीफ माना जाता है–
एक जूता और है जिससे पैर को
‘बाँधकर’ एक आदमी निकला है
सैर को
न वह अकलमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे कहीं जाना नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
श्रमजीवी और ‘परजीवी’ को आमने-सामने खड़ा करके धूमिल व्यवस्था की उस विसंगति को रेखांकित करना चाहते हैं जो सही आदमी को असफल और अभावग्रस्त बनाती है और गलत आदमी को सफल और सम्पन्न बनाती है। धूमिल इस विसंगति का सख्त विरोध करते हैं।
मोचीराम के माध्यम से मेहनतकश आदमी में अन्तर्निहित मानवीयता और संवेदनशीलता को अभिव्यक्त करते हुए धूमिल बताते हैं कि व्यवस्था के विरोधाभास पीड़ाजनक हैं। मोचीराम अपने निजी (पेशागत) हित से अलग हटकर व्यापक मानवीय दृष्टि से घटनाओं, व्यक्तियों और व्यवस्था का विश्लेषण करता है। व्यवस्था में मौजूद अन्याय, असमानता और अराजकता लगातार उसकी छाती पर हथौड़े की तरह चोट करते हैं। वह मानता है कि अगर व्यक्ति का जीवन प्रामाणिक नहीं है तो धरम-करम और रण्डियों की दलाली में कोई खास फर्क नहीं है –
और बाबूजी ! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
मानवीय सम्वेदना ही व्यक्ति को जीने का सही तर्क और तरीका देती है। मानवीय सम्वेदना के अभाव में आदमी अपनी अलग पहचान खोकर स्वार्थलिप्त भीड़ का हिस्सा बन जाता है। अमानवीय व्यवस्था तन्त्र उसे अपनी चपेट में ले लेता है। वह व्यक्ति की इच्छाओं को बढ़ावा देकर उसे सामाजिकता से काट देता है। तन्त्र की अमानवीयता, बर्बरता और अराजकता को देखकर संवेदनशील आदमी के लिए अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण रखना मुश्किल हो जाता है। उसका मन विचलित हो जाता है और बार-बार व्यवस्था से द्रोह करता है। उसे लगता है कि सत्ता के नकाब के पीछे एक खूँखार चेहरा है जो आम आदमी पर लगातार चोट करता है। धूमिल मानते हैं कि सत्ता का यह दोगलापन गम्भीर चिन्ता की बात है। वे मानते हैं कि सोचने से ही बदलाव की जमीन तैयार होगी।
कवि बुद्धिजीवी वर्ग की कायरता और अवसरवादिता पर भी चोट करता है। वह मानता है कि बुद्धिजीवी वर्ग गरम लोहे को ठण्डा करता है और जनता के गुस्से को गुमराह करता है। असल में वह पूँजीवादी व्यवस्था का एजेण्ट है जो उसके टुकड़ों पर ऐश करता है। कवि का मानना है कि कोई भी काम किसी भी जाति का विशेषाधिकार नहीं है। वह मानता है कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। वह मानता है कि हर इन्सान के अन्दर सपने देखने और उन्हें साकार करने की क्षमता मौजूद होती है। हर आदमी के अन्दर संघर्ष का माद्दा होता है। हर आदमी के विरोध का तरीका, साधन और शब्दावली अलग-अलग होती है। कुछ ऐसे होते हैं, जिन्हें व्यवस्था की चालबाजियों का अन्दाजा नहीं है और कुछ रोजमर्रा की जरूरतों के मारे हैं। कुछ ऐसे होते हैं जो सीधे-सीधे व्यवस्था की खिलाफत करते हैं, उसके शोषण-चक्र के खिलाफ बगावत का झण्डा बुलन्द करते हैं। कवि धूमिल भविष्य गढ़ने में ‘इनकार से भरी हुई एक चीख’ और ‘एक समझदार चुप’ दोनों को समान रूप से कारगर मानते हैं क्योंकि दोनों अपने-अपने तरीके से यथास्थिति को अस्वीकार करते हैं। व्यवस्था के शोषण तन्त्र का मौन प्रतिकार भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है क्योंकि यह मौन मजबूरी और बेचारगी का परिणाम होता है। समाज के एक हिस्से में व्यवस्था की नाकाफियत और नाइन्साफी के खिलाफ विद्रोह की चेतना जाग्रत हो जाती है वहीं दूसरे हिस्से में भूख से बेबसी और चुप्पी पैदा होती है। दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई पेट की भूख है। इसके बाद ही विद्रोह और इनकलाब आता है। कवि धूमिल के मन में उस व्यवस्था के प्रति तीव्र असन्तोष, घृणा और गुस्सा है जिसने आदमी को पेट के सवाल तक सीमित करके गूँगा-बहरा बना दिया है। एक बैल मात्र बना दिया है–
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इनकार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है –
3. 2. प्रौढ़ शिक्षा कविता का पाठ-विश्लेषण
शिक्षा आदमी को आदमी होने का सही अर्थ समझाती है। वह उसे जिन्दगी का मतलब और मकसद देती है। आदमी को उसके अधिकारों और कर्त्तव्यों से परिचित कराती है। सत्ता के शोषण चक्र की पहचान और उसके तिलिस्म को तोड़ने की सामर्थ्य देती है। शिक्षा मनुष्य में सही और गलत का फर्क करने की चेतना पैदा करती है। वह आदमी को जीने का सही सलीका और जिन्दगी की चुनौतियों से जूझने का साहस देती है। धूमिल शिक्षा के इस महत्त्व को भली प्रकार समझते हैं। इसलिए वे किसानों और मजदूरों के बीच शिक्षा के प्रसार की जरूरत को रेखांकित करते हैं। स्वातन्त्र्योत्तर भारत में प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम बड़े जोर-शोर से चलाया गया। यह कार्यक्रम केवल अक्षर ज्ञान तक सीमित था। यह बेहद औपचारिक, उथला और कागजी कार्यक्रम साबित हुआ। कवि धूमिल शिक्षा को व्यापक सन्दर्भों में ग्रहण करते हैं और किसानों-मजदूरों के सामने सत्ता-व्यवस्था की असलियत का खुलासा करना चाहते हैं। वे अक्षर ज्ञान तक सीमित न रखकर, उन्हें उनके वास्तविक हालात से रू-ब-रू कराना चाहते हैं।
यह कविता सदियों की अज्ञानता और रूढ़ियों की अन्धी गुफा के द्वार पर आशा और नई चेतना की दस्तक है। यह युगों-युगों के दर्द की समाप्ति का उद्घोष है। यह विकास की मुख्यधारा में शामिल होने का घोषणा-पत्र है। यह जिन्दगी में बदलाव की सहमति और जिन्दगी की यातनाओं के खिलाफ आवाज है। यह शताब्दियों के अन्धेरे को समझने की कोशिश है। यह कविता शोषण की पहेली को सुलझाती है। जो व्यवस्था आदमी को जानवर-सा बनाती है, यह उसकी खिलाफत करती है। धूमिल जंगलराज के समानान्तर एक सही जनतन्त्र की बात प्रस्तावित करते हैं। वे अमानवीयता के अन्धेरे के खिलाफ संघर्ष चेतना की लालटेन की लौ तेज करते हैं। वे किसानों और मजदूरों को अतीत के अन्याय और शोषण से सबक लेकर एक सही व्यवस्था की शुरुआत के संघर्ष में शरीक करना चाहते हैं–
लालटेन की लौ ज़रा और तेज करो
उसे यहाँ –
पेड़ में गड़ी हुई कील से
लटका दो
हाँ – अब ठीक है
आज का सबक शुरू करने से पहले
मैं एक बार फिर वह सब बतलाना चाहूँगा
जिसे मैंने कल कहा था
क्योंकि पिछले पाठ का दुहराना
हर नई शुरुआत में शरीक है
धूमिल बताना चाहते हैं कि मेहनतकश जीवन भर जिस व्यवस्था का लिहाज करता है, वह व्यवस्था उसका तनिक भी लिहाज नहीं करती। वह इन्सानी तकाजों तक को खूँटी पर टाँगकर आदमी को रोज-ब-रोज नंगा करने पर उतारू है और भूखा मारती है। व्यवस्था जानती है कि आदमी को अनपढ़ बनाए रखकर, उसकी अभिव्यक्ति क्षमता को छीनकर ही उसका आसानी से शिकार किया जा सकता है।
हमारे चालाक ‘सुराजिए’ अपढ़-गँवार जनता के सीधेपन का लाभ उठाकर आजादी का अपहरण कर ले गए। उन्होंने जनता के हिस्से की हवा, धूप और रोशनी तक छीन ली। वे पुरखों के नाम, सिद्धान्त और आदर्श की ओट में मजे से पीना-खाना कर रहे थे। उन्होंने भोली अपढ़ जनता को भरमाने के लिए दोमुँही भाषा और दोहरे सिद्धान्त ईजाद किए। उनकी आड़ में न्यायालय से लेकर खेत की मेड़ तक किसान को उसके हक से वंचित कर दिया। उसे ‘सच्चा पृथ्वीपुत्र’ और ‘संसार का अन्नदाता’ जैसे झूठे झुनझुने थमाकर निरक्षर और गुलाम बनाए रखने की साजिश रची–
मगर चालाक ‘सुराजिए’
आजादी के बाद के अन्धेरे में
अपने पुरखों का रंगीन बलगम
और ग़लत इरादों का मौसम जी रहे थे
अपने-अपने दराज़ों की भाषा में बैठकर
प्रार्थना तक, ग़लत रास्तों पर डालती थी
‘वह सच्चा पृथ्वीपुत्र है’
‘वह संसार का अन्नदाता है’
मगर तुम्हारे लिए कहा गया हर वाक्य,
एक धोखा है जो तुम्हें दलदल की ओर
ले जाता है
‘अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है’ कहना ग्राम्य जीवन की थोथी और झूठी प्रशंसा है। वास्तविकता यह है कि बिचौलिए और व्यापारी खेतों और किसानों के उत्पादन पर मौज उड़ाते हैं। वे खेत की मेड़ पर खड़े किसान को झूठी दिलासा और भ्रम के अलावा कुछ नहीं देते। विकास की कोई किरण वहाँ तक नहीं पहुँचती जबकि भारत में विकास किसान की मेहनत का परिणाम है।
कवि धूमिल श्रमजीवियों को पशुओं (नेताओं) की हरकतों और उनके हमलों के प्रति आगाह करना चाहते हैं। उन्हें अपने हितों को पहचानने और हक के लिए लड़ने की प्रेरणा देते हैं। वे कहते हैं कि किसानों को अपने मिजाज को बदलना होगा। उन्हें गीली मिट्टी की जगह चट्टान बनना होगा। जब वे स्वाबलम्बी, स्वाभिमानी बनकर अपने हक की लड़ाई लड़ेंगे तभी विकास की किरणें उनकी अन्धेरी जिन्दगी में प्रवेश कर सकेंगी। वे किसानों को अमरबेल की तरह पराश्रित न होकर पेड़ की तरह जड़ पकड़ने और तनकर खड़े होने की सीख देते हैं। समय बदल रहा है। बदले हुए समय के अनुरूप किसानों को खुद को भी बदलना चाहिए। अपनी जिन्दगी की वास्तविकता को पहचानना चाहिए। व्यवस्था के शोषण और अमानवीयता के अन्धकार का प्रतिरोध नई दुनिया के द्वार खोलेगा। भविष्य में नई व्यवस्था की शुरुआत होगी जिसमें किसानों को उनका हक और सम्मान मिल सकेगा। इसलिए उन्हें इस बदलाव के संघर्ष में बढ़-चढ़ कर भागीदारी करनी चाहिए और इस बदलाव का स्वागत करना चाहिए–
गीली मिट्टी की तरह – हाँ-हाँ –मत करो
तनो
अकड़ो
अमरबेलि की तरह मत जियो
जड़ पकड़ो
बदलो – अपने-आपको बदलो
यह दुनिया बदल रही है
और यह रात है, सिर्फ रात…
इसका स्वागत करो
यह तुम्हें
शब्दों के नए परिचय की ओर लेकर
चल रही है।
3.3. पटकथा कविता का पाठ-विश्लेषण
धूमिल की यह लम्बी कविता स्वातन्त्र्योत्तर भारत में घटित प्रहसन की पटकथा है। यह कविता स्वाधीनता आन्दोलन के मूल्यों, आदर्शों, उम्मीदों और सपनों के साथ हमारे राजनेताओं ने जो विश्वासघात किया, उसकी पूरी व्यथा-कथा है। जनतन्त्र के नाम पर जो प्रहसन आज तक चल रहा है उसकी पटकथा धूमिल अपनी इस लम्बी कविता में लिखते हैं। व्यवस्था के प्रलोभनों और तिलिस्म से बाहर आकर कवि आमजन से रू-ब-रू होते हैं। वे आमजनों के लिए आजादी के जो मायने, मूल्य, वायदे और सपने थे उनको समझते और पहचानते हैं। आजादी को लेकर उनके मन में उत्साह और उल्लास के भाव हैं। वे आमजन को आजादी की बधाई देते हैं। धूमिल को खुद से और प्रकारान्तर से बुद्धिजीवी वर्ग से कोफ्त होती है। अपने अन्दर राष्ट्र निर्माण में भागीदारी हेतु जरूरी जवान खून होने के बावजूद वे सुविधा और शान्ति का सुरक्षित जीवन चुनते हैं। आजादी के सपनों को पूरा करने के लिए जो परिश्रम और संघर्ष किया जाना था उसकी जगह बुद्धिजीवी वर्ग ने सिर्फ इन्तजार किया। मगर महज इन्तजार से बदलाव नहीं आता। आजादी के साथ यह उम्मीद थी कि कोई बालक भूखा रहकर स्कूल नहीं जाएगा, कोई छत बारिश में नहीं टपकेगी। कोई आदमी लाचारी में नंगा नहीं रहेगा, कोई दवा के अभाव में घुट-घुटकर नहीं मरेगा। अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा। कोई किसी को नंगा नहीं करेगा क्योंकि अब अपने देश में अपने लोगों का शासन है। हमने आजादी पा ली। ये उम्मीद और सपने बेहद लुभावने और सुहावने तो थे, पर सच्चे न थे। बार-बार लोग इन सपनों को साकार करने की उम्मीद में लोकनायक नेहरू को चुनते रहे। बार-बार पंचवर्षीय योजनाएँ आती-जाती रहीं। विश्वशान्ति और पंचशील के सूत्र समझाए जाते रहे और तसल्ली दी जाती रही कि सब कुछ सही होगा लेकिन वास्तविकता यह थी कि कहीं भी कुछ भी सही नहीं था। कहीं कोई बड़ा बदलाव नजर नहीं आया। यथास्थिति बनी रही। कभी-कभी हालात बहुत खराब होते थे और उम्मीद उतार पर होती थी तब छोटा-मोटा विरोध और बहसें होती थीं, जिनमें बदलाव की चिन्ता कम और नोंक-झोंक ज्यादा होती थी। धीरे-धीरे लोग नाउम्मीद होते गए क्योंकि मौसम में बदलाव तो दूर कोई मौसम ही न बचा था। हर तरफ सपनों का श्मशान था। मुर्दा शान्ति और दमघोंटू सन्नाटा था। कहीं-कहीं अमीरी के टापू थे जिन्हें घोर गरीबी और जहालत के बीच देखना बड़ा डरावना था–
मैंने इन्तज़ार किया –
अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जाएगा
अब कोई छत बारिश में
नहीं टपकेगी।
x x x
मैं इन्तजार करता रहा…
इन्तजार करता रहा…
इन्तजार करता रहा…
जनतन्त्र, त्याग, स्वतन्त्रता…
संस्कृति, शान्ति, मनुष्यता…
ये सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
खुशफ़हम इरादे थे
ऐसे नाउम्मीद-नामुराद समय में बौद्ध धर्म के सबसे बड़े अनुयायी देश चीन ने शान्ति का जाप करते मजबूर, कमजोर और बीमार भारत को सरेआम पीटा। कहीं कोई विरोध नहीं हुआ क्योंकि हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक हमारा देश ठण्डी राख बना हुआ था। वह नफरत, साजिश और अन्धेरगर्दी का शिकार था। जनता जनता नहीं थी, वह एक ऐसी भेड़ थी जो दूसरों द्वारा पेट भरने और बदन गरम रखने के लिए इस्तेमाल की जा रही थी। इस भेड़ को बार-बार जनतन्त्र की घुट्टी पिलाई जा रही थी और बताया जा रहा था कि हमारे देश में भेड़िए और भेड़ को, घोड़े और घास को जिन्दा रहने के लिए एक जैसी छूट है। यह अपने समय का सबसे बड़ा झूठ था क्योंकि इस देश में कानून एक ही चलता था– जंगल का कानून। छूट एक ही थी, ताकतवर को लूट की छूट। वास्तव में हमारे यहाँ जनतन्त्र एक तमाशे की तरह था जिसमें जनता को बार-बार भरमाया और बरगलाया जा रहा था–
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
जिन्दा रहने के लिए
घोड़े और घास को
एक-जैसी छूट है
X X X X X
दरअस्ल, अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।
इस ‘जनतन्त्र’ में अमीरों के बीच में गरीब होना, सबसे बड़ी गाली थी। गरीब आदमी अपमानित, उत्पीड़ित, तिरस्कृत और बहिष्कृत था जबकि सच्चाई यह थी कि अमीरों की अमीरी, गरीबों के परिश्रम की कमाई थी। कवि धूमिल उस विडम्बना को हमारे सामने रखते हैं जिसमें देशभक्ति सिर्फ गरीब और मूर्ख व्यक्ति के हिस्से आती है। इस तरह की स्थितियों में आजादी का सही अर्थ गायब हो गया। फिर सन् 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया और ताशकन्द में शान्ति-यात्री लाल बहादुर शास्त्री मृत पाए गए।
देश में हर ओर अराजकता और अव्यवस्था का आलम था। हर आदमी घोर स्वार्थ और आत्मजीविता में लिप्त हो गया। भाईचारा और भोलापन अतीत की बात हो गए। हर आदमी सिर्फ और सिर्फ अपने नफा-नुकसान के जोड़-घटाव में उलझ गया। विश्वास शब्द बेमानी हो गया। अपराध और स्वार्थ, सम्बन्धों की आड़ में फलने-फूलने लगे। हर ओर दोमुँही भाषा और दोहरे चरित्रों का बोलबाला था। ऐसी स्थिति में आम आदमी अपने आप को बड़ा असहाय महसूस करता था क्योंकि नेतृत्व ने उसे लगातार ठगा था। लोगों में बेचैनी, रोष और गुस्सा बढ़ रहा था। पीड़ा, आक्रोश और बेबसी का मिला-जुला भाव था।
धूमिल कहना चाहते हैं कि ऐसे समय में बुद्धिजीवी वर्ग की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती थी मगर उन्होंने खुद को और देश को एक बार फिर छला। ऐसे विकराल समय में डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे एकाध नेता जरूर धूमकेतु की तरह दृश्यपटल पर नजर आए जिन्होंने गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया। उन्होंने बताया कि देश की ज्यादातर समस्याओं की जड़ कांग्रेस का वर्चस्व है। धूमिल खुद गैर-कांग्रेसी विकल्प की वकालत करते हैं और कहते हैं कि कांग्रेस के अलावा किसी को भी चुना जाए पर कांग्रेस को जरूर अपदस्थ किया जाए। इस ठहराव को, इस जड़ता को तोड़ना और नई शुरुआत करना निहायत जरूरी है। उनके मन में वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ गहरी नफरत है। वे अपने आस-पास की वास्तविक जिन्दगी को नजरअन्दाज करके आँकड़ों के आधार पर भविष्य के कार्यक्रम और योजनाएँ बनाने वाले नेतृत्त्व का विरोध करते हैं। वे उन कारणों की पड़ताल करना चाहते हैं जिनकी वजह से विद्रोह का जज्बा चुक गया है और आदमी ने झुकना सीख लिया है।
कवि मानता है कि भूखे आदमी की सबसे पहली और सबसे बड़ी जरूरत रोटी होती है पर इस रोटी को पाने के लिए विद्रोह और संघर्ष जरूरी है। रोटी की कीमत क्या है, उसके लिए किन सिद्धान्तों, किन आदर्शों, किन आकांक्षाओं और किन दायित्वों की बलि दी जा रही है, यह जानना भी जरूरी है। अगर इन प्रश्नों का सही, सटीक और सन्तोषजनक जवाब नहीं है तो आदमी और पशु में अन्तर नहीं है। व्यवस्था भूख के हथियार से आदमी के स्वाभिमान और भाषा का शिकार करती है। वह उसकी अभिव्यक्ति और विरोध की सामर्थ्य को खत्म करती है। उसे पराश्रित, कमजोर और डरपोक बनाती है। इन्साफ और हक सिर्फ उसे मिल सकते हैं जो व्यवस्था की खूँखारता का सामना करने का हौसला और साहस रखता है। धूमिल यहाँ यह भी बताना चाहते हैं कि जंगल को जंगल की भाषा में ही जवाब दिया जा सकता है। लोहे को लोहा ही काटता है। इसके लिए संकल्पबद्ध और संघर्ष के लिए सन्नद्ध होने की जरूरत है। वे यहाँ यह भी बताना चाहते हैं कि व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की इस मुहिम में कोई अकेला नहीं है। लाखों लोग सही नेतृत्त्व और सही पहल के इन्तजार में खड़े हैं। वे तटस्थ इसलिए हैं क्योंकि राह दिखाने वाला कोई मजबूत और भरोसे का नेता नहीं।
बुद्धिजीवी वर्ग समाज को दिशा देता है। वह उसकी विवेक-चेतना और संघर्ष-चेतना को जाग्रत करता है। उसे बेहतर विकल्प सुझाता है। मगर स्वातन्त्र्योत्तर भारत का जो शिक्षित वर्ग है वह अपनी सुरक्षित और सुविधाजीवी जिन्दगी के दायरे से बाहर निकलकर इस दायित्व के निर्वाह के लिए तैयार नहीं है। वह अपनी सुविधाओं की सीमा में सिमटा हुआ है, क्योंकि उसके पास व्यापारी बुद्धि है जो परिवर्तन का श्रेय तो लेना चाहती है पर उसके लिए कोई खतरा नहीं उठाना चाहती। यह वर्ग इस तरह से क्रान्ति करना चाहता है कि साँप भी मर जाए और लाठी भी सुरक्षित रहे। जहाँ लाठी की फिक्र होगी वहाँ साँप मर ही नहीं सकता।
भारत देश की बुद्धिजीवी जमात के इस टुच्चे लालच का शिकार हो गई। इस ऐतिहासिक दुर्घटना ने आमूल बदलाव की सम्भावनाओं को समाप्त कर दिया। बुद्धिजीवी वर्ग के प्रगतिशील और जनवादी विचारों पर स्वार्थ और सुविधा की जो काई जमी हुई है, धूमिल उसे खरोंचना चाहते हैं। वे आदमी के अन्दर के मैल को भी धो डालना चाहते हैं।
सन् 1967 में चौथा आम चुनाव हुआ। कई प्रान्तों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। अलग-अलग झण्डे फहराने लगे। नेताओं के अलग-अलग गुट, अलग-अलग नस्लें, अलग-अलग रूप, अलग-अलग रंग, अलग-अलग चाल, चरित्र और चेहरे नजर आने लगे। जो एक बात सब में थी, वह थी सत्ता की भूख। जनता इस नए नजारे को देखकर और भी ठगा हुआ महसूस कर रही थी। देश में असंख्य रोग थे, अनगिनत समस्याएँ थीं। भारत एक विशाल दलदल की तरह था जिसके किनारे अधमरा जनतन्त्र पड़ा था। जिसमें जाति, धर्म, सम्प्रदाय, पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े कुलबुला रहे थे। नेता इस अधमरे पशु को नोंच-खसोट रहे थे। जितने भी मानवीय मूल्य और गुण हैं, उनकी धज्जियाँ उड़ाई जा रही थीं। ईमानदार से ईमानदार आदमी के पास चोर जेबें थीं और वह उन्हें भरने में लगा हुआ था। हिंसा-अहिंसा, चापलूसी और निष्ठा का भेद मिट चुका था। सब लोग हिन्दुस्तान को पीट रहे थे, घसीट रहे थे। हिन्दुस्तान अधमरा हो चुका था, घायल था और हर मोर्चे पर मात खा रहा था। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि नाउम्मीदी, भूख, मुफलिसी और दिशाभ्रम ने लोगों को जानवर से भी बदतर बना दिया था। वे अपने-अपने तरीके से अपना-अपना पेट भरने में लगे हुए थे।
धूमिल को फिर भी आमजन से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि वे उनकी मजबूरी को समझते हैं और मानते हैं कि वे अपने हैं और उन्हीं की आँखों में भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं। वे उन्हें गलत हाथों का हथियार बनने से रोकना चाहते हैं क्योंकि अन्धी और हिंसक भीड़ को सही दिशा दिया जाना बेहद जरूरी है। जनता को जगाकर और जोड़कर ही सही मायनों में बदलाव लाया जा सकता है।
कभी-कभी धूमिल की उम्मीद धूमिल पड़ने लगती है और उन्हें लगता है कि सत्ता परिवर्तन के बावजूद कहीं कोई बड़ा बदलाव नहीं है। बस छोटे-मोटे बदलाव हुए हैं। अब कुछ नए लोग नहले से दहला बन गए हैं और पहले से थोड़ा ज्यादा झुककर और ज्यादा मुस्कराकर जनता के सामने आने लगे हैं। वे ज्यादा भरोसे की भाषा बोलते हैं। उनकी आवाज पहले वालों से ज्यादा मीठी है, पर सच्चाई यह है कि बोतल तो नई है पर शराब पुरानी ही है। धूमिल कहते हैं कि कुर्सियाँ वही हैं सिर्फ टोपियाँ और चेहरे बदल गए हैं। हर ओर नए-नए नारे हैं। सतह पर हलचल है पर देश की जनता निश्चल है।
मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का
एक पुर्ज़ा गरम होकर
अलग छिटक गया है और
ठण्डा होते ही
फिर कुर्सी से चिपक गया है
उसमें न हया है
न दया है
नहीं – अपना कोई हमदर्द
यहाँ नहीं है। मैंने एक-एक को
परख लिया है।
मैंने हरेक को आवाज़ दी है
हरेक का दरवाज़ा खटखटाया है
मगर बेकार…मैंने जिसकी पूँछ
उठाई है उसको मादा
पाया है।
भारत देश में समाजवाद भी एक ऐसा खोखला नारा बन गया है जिससे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। जो गरीब है, वह दया का पात्र और लाचार है। जो इस गरीबी और भूख के खिलाफ मुट्ठी तानता है, अपराधी है। संसद को देश की धड़कन और जनता का दर्पण कहा जाता है, पर सच्चाई यह है कि संसद तेली की वह घानी है, जिसमें बूँद भर तेल और पूरा पानी है। धूमिल के अनुसार संसद में अपराधियों, व्यभिचारियों, ठगों, उचक्कों और दलालों की भरमार है। पूरी मिलावट और झूठी सजावट है। ईमानदार आदमी को अपनी ईमानदारी का मलाल है और जो सच बोलता है वह सबसे फटेहाल है। देश की आजादी के 66 साल बाद भी स्थिति में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। हर ओर वही लूटमार और जूतमपैजार है। हर ओर वोट का व्यापार है, लूट, ठगी और व्यभिचार है।
धूमिल एक बेहतर भविष्य, समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज चाहते हैं लेकिन उन्हें वर्त्तमान समाज और सत्ता व्यवस्था से कोई उम्मीद नहीं है। इसी कारण वे व्यवस्था पर जमकर कुठाराघात करते हैं। वे जानते हैं कि फिलहाल वे इस व्यवस्था को बदल नहीं सकते इसलिए वे इसके नग्नतम रूप को अभिव्यक्त करते हैं। पटकथा कविता व्यवस्था की नग्नता और क्रूरता पर प्रहार करती है।
- निष्कर्ष
निष्कर्षतः उपर्युक्त विश्लेषित तीनो कविताओं के मूल में सत्ता और व्यवस्था से मोहभंग का स्वर है। ये तीनों कविताएँ व्यवस्था और सत्ता की विद्रूपता को व्यंग्य मिश्रित आक्रोश के साथ व्यक्त करती हैं। मोचीराम में जहाँ व्यवस्था स्वयं जूते का प्रतीक है वहीं पटकथा में सत्ता के हर तरह के चरित्र पर धूमिल ने खुला प्रहार किया है। इन दोनों कविताओं में जनता की मज़बूरी और यथास्थितिवाद का जिक्र है और कविता में उम्मीद से ज्यादा हताशा की अभिव्यक्ति है। जबकि प्रौढ़ शिक्षा उम्मीद की कविता अधिक है। व्यवस्था-परिवर्तन के प्रति निराशा और आशा का यह द्वन्द्व तीनो कविताओं में है। कहीं आशा अधिक है तो कहीं निराशा का बोध है लेकिन ये कविताएँ अन्ततः साधारण मेहनतकश जनता की पक्षधर हैं।
you can view video on धूमिल की कविताओं का पाठ-विश्लेषण |
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- समकालीन हिन्दी कविता, सम्पादक-परमानन्द श्रीवास्तव, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
- संसद से सड़क तक, धूमिल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- समकालीन कविता और धूमिल, डॉ. मन्जुल उपाध्याय,अनामिका प्रकाशन,इलाहबाद
- धूमिल और उसका काव्य संघर्ष, ब्रह्मदेव मिश्र, लोकभारती प्रकाशन,इलाहबाद
- सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र, धूमिल, रत्नशंकर(संपा.), वाणी प्रकाशन, दिल्ली
- कविता के नए प्रतिमान,नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF_%27%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%27
- https://www.youtube.com/watch?v=MXh2LacLCS0
- https://www.youtube.com/watch?v=gIG5atE0N4E
- https://www.youtube.com/watch?v=jDfKkL0Ssk8