12 हिन्दी आलोचना में शमशेर का मूल्यांकन
डॉ. विनय कुमार जैन
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- आलोचकों की दृष्टि में शमशेर
- 1 मुक्तिबोध की दृष्टि में शमशेर
- 2 नामवर सिंह की दृष्टि में शमशेर
- 3 विजयदेव नारायण साही की दृष्टि में शमशेर
- 4 विश्वनाथ त्रिपाठी की दृष्टि में शमशेर
- 5 नित्यानन्द तिवारी की दृष्टि में शमशेर
- 6 अन्य आलोचक और शमशेर
- शमशेर का मूल्यांकन : सीमाएँ और सम्भावनाएँ
- निष्कर्ष
1. पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- हिन्दी आलोचना में शमशेर के मूल्यांकन का महत्त्व समझ सकेंगे।
- शमशेर के काव्य के मूल्यांकन की विभिन्न दृष्टियों से परिचित हो पाएँगे।
- शमशेर के मूल्यांकन में हिन्दी आलोचना की सीमाएँ समझ सकेंगे।
- शमशेर के मूल्यांकन की सम्भावनाएँ जान पाएँगे।
2. प्रस्तावना
सच्चा मूल्यांकन रचना को ठीक-ठीक समझने में मदद करता है। यह मदद शमशेर के मामले में कुछ ज़्यादा ज़रूरी है। कारण उनकी ज़्यादातर कविताएँ पढ़ते ही समझ में नहीं आ जातीं। समझने के लिए उन पर विचार करना पड़ता है। उनके रचना-सन्दर्भ पर ध्यान देना पड़ता है। उनके प्रयोगों को पहचानना और समझना पड़ता है। यह सब होने के बाद उनकी ताक़त से परिचय होता है। उनकी दृष्टि, मर्म को छूने या भेदने लगती है। साफ़ होने लगता है कि शमशेर हिन्दी के एक समर्थ कवि क्यों हैं?
शमशेर के सर्जक मानस का निर्माण और विकास भारत की आज़ादी के आसपास हुआ। वह दौर हिन्दी कविता की दुनिया में तेज़ी से होने वाले बदलावों का दौर था। कविता अपनी भाषा का रूप बदल रही थी। गद्य के अनेक प्रयोग पद्य में हो रहे थे। शमशेर ऐसे प्रयोग करने वालों में अग्रणी थे। हिन्दी और उर्दू एकमेक होकर उनके मानस में रम गई थी। वे प्रगतिवादी जीवन-दृष्टि को सही मानते थे और सपाटबयानी को ग़लत। प्रगतिवादी जीवन-दर्शन से प्रेरणा लेने वाले वे प्रयोगवादी या नई कविता के कवि थे। उनकी कविता का मक़सद कोरी वाहवाही लूटना नहीं था। वे एक प्रतिष्ठित कवि हों या न हों, सच्चे कवि ज़रूर होना चाहते थे और हुए भी। उनके जैसे सच्चे कवि के कवि-कर्म सक्रियता की वयांकन की वास्तविकका सच्चा मूल्यांकन आलोचना के लिए एक चुनौती है।
3. आलोचकों की दृष्टि में शमशेर
हिन्दी आलोचना में शमशेर के मूल्यांकन की सच्ची शुरुआत अक्टूबर, 1958 में कृति पत्रिका के प्रवेशांक से हुई। उनके काव्य-व्यक्तित्व पर इस अंक में मुक्तिबोध ने लिखा और नामवर सिंह ने भी। दोनों के ही लेखन से शमशेर के बारे में गम्भीर चर्चा शुरू हुई। इस लेखन का महत्त्व यह भी है कि इसकी अनेक स्थापनाएँ बाद में दोहराई गईं। आज भी शमशेर का मूल्यांकन इन स्थापनाओं को अनदेखा करते हुए सम्भव नहीं है। इनको पढ़ने से शमशेर-काव्य की सच्ची समझ बहुत दूर तक बनती है।
4. मुक्तिबोध की दृष्टि में शमशेर
मुक्तिबोध ने शमशेर को हिन्दी का ‘मौलिक’ और ‘अद्वितीय’ कवि बताया। कारण यह कि शमशेर के पास मौलिक और विशेष (विशेष वह, जो शेष में न हो या कम हो) कथ्य है, जो विशेष अभिव्यक्ति की माँग करता है। इसके लिए अपनी कविता-भाषा चाहिए। उसकी साधना चाहिए। शमशेर ने कठिन साधना की। फल पर नहीं, साधना पर एकाग्र रहते हुए। विरोधी वातावरण से विचलित न होते हुए। नतीजा यह कि उन्होंने कविता की अपनी भाषा को पाया। अपने शिल्प का विकास किया। यह कविताई नई थी। पुराने मानस से नई कविताई को समझने में मुश्किल होती ही है। यह मुश्किल ‘सामान्यीकरण की आदत या यान्त्रिक विचार-शैली’ से काम चलाने वालों को ज़्यादा होती है। हिन्दी आलोचना में यह आदत भी दिखलाई देती है और शैली भी। इसके कारण सच्चे कवि का सच्चा मूल्यांकन हो नहीं पाता।
मुक्तिबोध की स्थापना है कि मूलत: शमशेर का मन एक ‘इम्प्रेशनिस्टिक’ चित्रकार का है। ऐसा चित्रकार पूरा चित्र बनाने की जगह बहुत महत्त्व और प्रभावपूर्ण कुछ हिस्सों को ही अपने चित्र में जगह देता है। बाक़ी हिस्सों को ‘दर्शक की कल्पना के भरोसे छोड़ देता है।’ इम्प्रेशनिस्टिक चित्रकार जीवन की जटिलताओं का पूरा चित्रण नहीं करता। किसी एक हिस्से का ही चित्रण करता है। पूरा चित्रण कवि कर सकता है। इसलिए शमशेर ने अपने मन में चित्रकार की जगह कवि को बैठाया है। ‘इम्प्रेशनिस्टिक’ चित्रकार से प्रभावित कवि को। ऐसे में पाठक के सामने संवेदना के चित्र होते हैं। प्रसंग की उसे कल्पना करनी होती है। यदि यह कल्पना ठीक-ठीक हो पाए तो वह कविता के मर्म तक पहुँच जाती है।
मुक्तिबोध ने शमशेर को जीवन-प्रसंगों की जगह भाव-प्रसंगों का कवि बताया। उन्होंने कहा कि जीवन-प्रसंगों की तरह ये भाव-प्रसंग वास्तविक होते हैं। हिन्दी कविता में ‘वास्तविक भाव-प्रसंगों की मौलिक विशिष्टता का बहुत कम चित्रण’ हुआ है। ‘विशिष्ट भाव-प्रसंगों’ का प्रयोग करने के कारण मीरा और सूर आज भी ‘प्रणय-जीवन के सर्वोत्तम कवि’ हैं। शमशेर उन्हीं की तरह ‘विशिष्ट भाव-प्रसंगों’ में रमते हैं। मीरा और सूर की तरह वे प्रणय-जीवन के कवि हैं। भाव-प्रसंग का ख़ास हिस्सा उनकी अन्तर्वस्तु है। इसकी अपनी सच्चाई है। इसे वे, जितना हो सके, सुरक्षित रखते हैं।
मुक्तिबोध के अनुसार शमशेर ‘मनोवैज्ञानिक यथार्थवादी’ हैं। वे विशेष भाव-प्रसंग चुनते हैं। उसके प्रति अपनी प्रतिक्रियाएँ देखते हैं। अपनी संवेदनाओं पर होने वाले बाहरी यथार्थ के आघात देखते हैं। यह देखने के कारण वे मनोवैज्ञानिक हैं और इन सब आन्तरिक प्रक्रियाओं की ‘प्रसंगबद्धता का निर्वाह’ करने के कारण यथार्थवादी। उनके मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद का मिज़ाज भाव-प्रसंग में अपनी संवेदनाएँ देखने के कारण आत्मपरक है। इन संवेदनाओं के अपने रूप-रस-गन्ध-स्पर्श हैं। ये संवेदनाओं के गुण हैं और ‘एक भाव-प्रसंग में विभिन्न संवेदनाओं के प्रभावकारी गुणों के चित्र प्रस्तुत करना शमशेर ही का काम है।’ शमशेर का योगदान यह है कि ‘प्रणय-जीवन में भाव-प्रसंगों के आभ्यन्तर की विविध सूक्ष्म संवेदनाओं के गुण-चित्र वे प्रस्तुत करते हैं।’ ये चित्र ‘अनूठे हैं… अपने वास्तविक खरेपन के कारण प्रभावशाली’ हैं। ‘‘सूक्ष्म संवेदनाओं के गुण-चित्र उपस्थित करना बड़ा ही दुष्कर कार्य है’’(मुक्तिबोध रचनावली-भाग-5, पृ.-432) और शमशेर यही करते हैं। अपने काव्य-सौन्दर्य के साथ इसी कारण वे मौलिक भी हैं, अद्वितीय भी।
5. नामवर सिंह की दृष्टि में शमशेर
नामवर सिंह ने कृति में किए गए शमशेर के अपने मूल्यांकन को शमशेर : प्रतिनिधि कविताएँ की भूमिका (27 जुलाई, 1990ई.) लिखकर और आगे बढ़ाया। उन्होंने शमशेर की कविता को ‘स्वगत-संलाप’ और ‘आन्तरिक एकालाप’ कहा। इसका कारण है शमशेर का उत्कट आत्मसंयम। इसी से उनकी राजनीतिक कविताएँ तक लाउड नहीं होतीं। उनकी कविताओं में ‘यथातथ्य’ है। कविताओं पर अपना मत वे आरोपित नहीं करते। उनके यहाँ न ‘विचारों की बकवास’ है, न ‘भावों की भड़ास’। वस्तुत: ‘विविध इन्द्रिय-बोध सूचक चित्रों की संवेदनशीलता में शमशेर बेजोड़ हैं।’ इन्द्रिय-बोध-सूचक चित्र अर्थात् बिम्ब। बिम्ब का उपयोग सब कवि करते हैं, लेकिन ‘बिम्ब शमशेर की भाषा है…।’ वे विविध, स्पष्ट बिम्बों का चुनाव और उपयोग करते हैं, जिनमें संगीत के सूक्ष्म स्वर से एकसूत्रता आती है। यह सूक्ष्म लय बिम्बों को बिखरने नहीं देती। नई कविता का सूत्रपात जिस बिम्ब-प्रधानता से हुआ, उसके ‘प्रवर्तकों में शमशेर मुख्य हैं’।
नामवर जी ने कहा कि शमशेर के लिए कवि-कर्म उनकी आत्मा की अभिव्यक्ति है। अभिव्यक्ति का यह भवन उन्होंने ‘अपनी हड्डियाँ गलाकर, अपना ख़ून जलाकर’ तैयार किया है। इसमें पारम्परिक आदत के साथ नहीं बल्कि पूरी सजगता के साथ ही प्रवेश सम्भव है। यह ‘बोलचाल की लय का गद्य’ है। ‘अत्यधिक सुगठित’। इसमें कहीं कुछ अनावश्यक नहीं। जो है, अनिवार्य है। ‘कहीं-कहीं शोख़ी भी’ है। ‘शमशेरियत लिए हुए।’ शमशेरियत क्या है? वस्तु सत्य की अभिव्यक्ति, यथावत् और संयमित भाषा में, कहीं-कहीं शोख़ी के साथ। शोख़ी अर्थात् वस्तु-सत्य से बनता-बिगड़ता भाव सत्य अथवा आत्म सत्य। आत्म सत्य दूसरों का भी। इसीलिए शमशेर ने जितने व्यक्तियों पर कविताएँ लिखीं, उतने ‘व्यक्तियों पर शायद ही किसी कवि ने कविताएँ लिखी हों’।
शमशेर की कार्यशाला ‘रंगों का महोत्सव’ है। उनके बिम्बों में ‘अकुण्ठ मन से शरीर का उत्सव रचा गया है।’ शमशेर ने शब्दों से रंगों का भी काम लिया, रेखाओं का भी और सुरों का भी – ‘शब्द में निहित इन सम्भावनाओं की तलाश जैसी शमशेर में है, अन्यत्र विरल है।’ अपनी प्रेम-कविताओं के रूप में शमशेर ने कालातीत नहीं, कालजयी कला को सम्भव किया है। इसका स्रोत कवि की ‘निष्कम्प प्रतिबद्धता’ है। शमशेर केवल कवि हैं। जेनुइन कवि। नामवर जी के अनुसार शुद्ध कवि, कवियों के कवि, प्रयोग के कवि और प्रगति के कवि जैसे विशेषण उनको छोटा कर देते हैं। एक सम्पूर्ण कवि-व्यक्तित्व के रूप में उनकी पूरी समझ पैदा नहीं करते। इसीलिए ये विशेषण उनकी कविताओं को ठीक-ठीक समझने में भी रुकावट ज़्यादा पैदा करते हैं।
6. विजयदेव नारायण साही की दृष्टि में शमशेर
विजयदेव नारायण साही ने शमशेर को ‘विशुद्ध सौन्दर्य’ का कवि कहा है। शमशेर जीवन-जगत से कटे विशुद्ध सौन्दर्य के कवि नहीं हैं। वे जीवन के अपार और निरन्तर बदलते हुए सौन्दर्य के कवि हैं। मलयज ने भी शमशेर को ‘विशुद्ध सौन्दर्य का कवि’ कहा, लेकिन ‘विशुद्ध सौन्दर्य’ से उनका अभिप्राय सौन्दर्य के अमूर्त पक्ष से है। यह सौन्दर्य बाहरी संसार के सौन्दर्य की जगह उसके आधार पर ‘उनका अपना अलग रचा हुआ सौन्दर्य’ है। यही उनकी उपलब्धि है, वरना उनका जीवन-दर्शन ‘ढुलमुलपने का दर्शन’ है ‘जिसमें मानव कल्याण का शोर-भर है।’ अज्ञेय ने शमशेर की कवितागत मूल्य-दृष्टि और राजनीतिक दृष्टि में विरोध पाया। वे मानते हैं कि उनकी कविता का बुनियादी संवेदन प्रगतिवाद के विरुद्ध है। वे ‘रूमानी और बिम्बवादी’ कवि हैं। वस्तुत: बिम्ब शमशेर के लिए साधन हैं। साध्य होते तो उनको बिम्बवादी कहना न्यायसंगत होता। स्पष्ट है कि शमशेर के ऐसे मूल्यांकन से उनका कवि व्यक्तित्व पूरी तरह से उभरकर सामने नहीं आता। ऐसे ही मूल्यांकन का एक उदाहरण रामविलास शर्मा की शमशेर-विषयक आलोचना है।
7. विश्वनाथ त्रिपाठी की दृष्टि में शमशेर
शमशेर की सच्ची समझ विकसित करने के लिए मुक्तिबोध और नामवर सिंह की तरह विश्वनाथ त्रिपाठी की आलोचना भी एक हद तक मदद करती है। वे शमशेर को ‘अप्राप्ति में प्राप्ति’ का कवि कहते हैं। अप्राप्ति वास्तविक है, और प्राप्ति सच लगने वाला भ्रम। इसके द्वन्द्व की यातना समकालीन कविता में शमशेर के यहाँ सर्वाधिक है। वस्तुत: ‘‘शमशेर ने नारी की अप्राप्ति में जो भाव-प्राप्ति की है, वह हिन्दी में अन्यत्र दुर्लभ है। अप्राप्त नारी का यह भाव-रूप वास्तविक है।’’(अनभै साँचा, अंक : अक्टूबर-दिसम्बर, 2011, पृ.-69) इतना वास्तविक है कि ‘अगर शमशेर न हों तो हिन्दी कविता के पास नारी देह के सौन्दर्य का वैसा कोई दूसरा कवि नहीं बचेगा।’ भावलोक में प्राप्त होने पर भी नारी-देह-सौन्दर्य उनके यहाँ ठोस है। साकार है। विशेष है। विशेष इसलिए कि ‘देह में शमशेर के यहाँ पूरा देशकाल सिमट आता है।’ अर्थात् शमशेर के काव्य में दैहिक-सौन्दर्य केवल देह तक सीमित नहीं रहता। समकालीन मनुष्य के भाव/अभाव से जुड़ता है।
विश्वनाथ त्रिपाठी शमशेर को रीतिवादी नहीं मानते, वे कहते हैं कि शमशेर ‘बहुत दूर तक रीति-विरुद्ध कवि हैं।’ यही कारण है कि अपने दौर की सच्ची कविता लिख पाते हैं। ऐसी कविता नया ‘शब्द–विधान’ नहीं, नया ‘अनुभव-विधान’ प्रस्तुत करती है। अनुभव-विधान नया हो तो पुराने शब्द और तौर-तरीक़े काम नहीं देते। शमशेर नई अभिव्यक्ति को सम्भव कर पाते हैं। कारण यह कि उनमें बच्चों जैसी ‘वितथीकरण’ (डिस्टॉर्शन) और कल्पना की शक्ति है। वे वस्तुओं के किसी आयाम को उनसे अलग करके अपने भावों के अनुसार वस्तुएँ रचते हैं। उनकी कविताओं में किसी ‘आकर्षक वस्तु को खा-पी लेने की शिशु मन की सहजात वृत्ति’ भी है। शमशेर के भीतर मौजूद बच्चे में सृजन की सहज योग्यता है।
शमशेर भले ही अपना भाषा-संस्कार उर्दू का बताते हों, पर कवि वे हिन्दी के ही हैं। उर्दू में सिर्फ़ ‘हाथ आज़माते’ हैं। कारण यह है कि अधूरे वाक्य लिखने की छूट वे हिन्दी में रचना करते हुए ही लेते हैं उर्दू में वाक्य पूरे लिखते हैं। साथ ही अन्य कलाओं का उपयोग भी वे हिन्दी में रचना करते हुए ही करते हैं। वाक्यों को अक्सर अधूरे छोड़ देना शमशेर के बिम्ब-प्रेमी होने का नतीजा है, क्योंकि ‘बिम्ब-प्रेमी कवि भाषा-सामग्री का अक्सर कम इस्तेमाल किया करते हैं।’
8. नित्यानन्द तिवारी की दृष्टि में शमशेर
नित्यानन्द तिवारी ने शमशेर की कविता को ‘आज़ादी की कविता’ कहा है। आज़ादी का अर्थ यहाँ हर क़ीमत पर जीवन से प्रतिबद्धता है। कारण यह कि जीवन विचारधारा, कला या इतिहास से बड़ा है जिसे महसूस करना आज़ादी है। विचारधारा, कला या इतिहास से आज़ादी जीवन के लिए ही है। अन्तिम प्रतिमान जीवन है। यह जीवन ऐतिहासिक है। इसलिए शमशेर का व्यक्ति ‘पूँजीवादी समाज का ग़ैर-ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं।’ काल भी अपराजित है और कवि का ‘मैं’ भी। काल अस्तित्व के कारण अपराजित है और कवि का ‘मैं’ सृजन के कारण। सौन्दर्य के कारण। कला और सृजनशीलता में होड़ है। ‘यह होड़ आत्म–मनुष्य की नहीं, व्यक्ति-मनुष्य की है।’ ऐतिहासिक व्यक्ति-मनुष्य की। सृजन कला है। कला, काल का उलट है। यह कला रहस्यवादी नहीं। अरुण कमल का मानना है कि शमशेर के यहाँ जगत का सौन्दर्य और देह का सौन्दर्य जीने की यातना को सहने लायक बनाता है। देह में पूरे देशकाल के सिमटने का अभिप्राय यही है। शमशेर जीवन से और जीवन के लिए कविता लिखने वाले कवि हैं
9. अन्य आलोचकों की दृष्टि में शमशेर
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह के अनुसार फै़ज़ ने ईश्वर के प्रति प्रेम को सारी मानवता के प्रति प्रेम से बदलकर इश्क़ हक़ीक़ी को जैसे बदल दिया, वैसे ही शमशेर ने व्यापक सन्दर्भ देते हुए अपनी प्रेमानुभूति को बदला है। इब्बार रब्बी को भी लगता है कि शमशेर के यहाँ ‘प्रेमिका प्रेम तो है ही, अपने मित्रों से प्रेम और जिनको नहीं जानते, उनसे भी प्रेम’ है। इस तरह ‘वो प्रेम के अद्भुत कवि हैं।’ उनकी ख़ासियत यह भी है कि प्रेमचन्द की तरह उनमें ‘हिन्दी-उर्दू के बन्धन टूट जाते हैं’, वे ‘भारतभारती और मुसद्दस पर एक साथ लिखते हैं।’
विष्णु खरे शमशेर को ‘विशुद्ध सौन्दर्य’ का कवि नहीं मानते। हिन्दी आलोचना में शमशेर के मूल्यांकन की स्थिति उनके अनुसार यह है कि उनकी कविताओं में विशुद्ध -सौन्दर्य देखने वाले उनकी समाजोन्मुख प्रतिबद्ध कविताओं को बर्दाश्त-भर करते हैं और क्रान्तिधर्मी उनकी सौन्दर्यपरक कविताओं के कारण उनके समूचे कवि-कर्म को संदिग्ध मानते हैं। शमशेर की आत्मपरक और प्रतिबद्ध कविताओं के बीच जो रिश्ता है, भले वह तनाव का रिश्ता हो, उसकी खोज होनी चाहिए। ‘‘शमशेर की समाजोन्मुख कविताओं का विशद विश्लेषण नहीं हुआ है और जहाँ तक उनकी आत्मपरक और प्रतिबद्ध रचनाओं के बीच एक सम्बन्ध या तनाव की खोज का सवाल है उसकी तो शायद शुरुआत भी नहीं की गई है।’’ (पूर्वग्रह, नवम्बर-दिसंबर, 1987, पृ.-40)
10. शमशेर का मूल्यांकन : सीमाएँ और सम्भावनाएँ
सवाल शमशेर के पूरे और सच्चे मूल्यांकन का है। मुक्तिबोध ने हिन्दी आलोचकों की ‘सामान्यीकरण की आदत या यान्त्रिक विचार-शैली’ को ऐसे मूल्यांकन के लिए अक्षम बताया था। शमशेर ने एक कविता में कहा था कि जनता का दु:ख एक है और हवा में उड़ती पताकाएँ अनेक। ये पताकाएँ जनता के दु:ख का प्रतिनिधित्व कम, इस्तेमाल ज़्यादा करती हैं। ‘सामान्यीकरण की आदत या यान्त्रिक विचार-शैली’ इस इस्तेमाल का एक सुविधाजनक तरीक़ा है। मुक्तिबोध की तरह शमशेर भी इसके शिकार हुए हैं। इसके कारण न मुक्तिबोध की नज़र से मुक्तिबोध को पूरी तरह देखने की कोशिश हुई है, न शमशेर की नज़र से पूरी तरह शमशेर को।
दोनों ही कवियों ने कविताओं के साथ-साथ गद्य भी लिखा है और उसमें अपनी मान्यताओं, अपनी दृष्टि, अपने मक़सद को स्पष्ट किया है। अपने गद्य लेखन द्वारा उन्होंने सही समझ के लिए जगह बनाई है। अपने सृजन के सही मूल्यांकन की सम्भावना पैदा की है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। दोनों का गद्य बताता है कि उनके लिए मार्क्सवाद काम का है, पर वे इसके सरलीकृत रूप को नहीं मानते। रूढ़ि और संकीर्णता से मुक्त विचार (धारा) ही दोनों को मंजूर है। दोनों ही कमोबेश व्यक्ति की आन्तरिक सच्चाई के कवि हैं। इसका बाहरी सच्चाई से ज़रूरी रिश्ता है।
शमशेर मार्क्सवाद में व्यक्ति की ‘सकारात्मक आज़ादी का पक्ष’ देखते हैं। उसे ‘आदमी के इतिहास को समझने’ के लिए, विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों को समझने के लिए ज़रूरी मानते हैं। कहते हैं कि मार्क्सवाद ने उनको रुग्ण मन:स्थिति से उबारा। बताते हैं कि उसे जब-जब कविताओं में लाने की कोशिश उन्होंने की ‘तो विशेष रूप से कवि प्रमुख हो जाता है। मेरी ख़ास कोशिश यह रहती है कि वह किसी भी कीमत पर काव्यात्मकता न खोने पाए। …’ उनकी कविता के लिए विचारधारा है, विचारधारा के लिए कविता नहीं। मूलत: और प्रमुखत: कवि हैं वे। आशय यह कि काव्यात्मकता खोकर अगर मार्क्सवाद कविता में आता है, तो न मार्क्सवाद के लिए ठीक है, न कविता के लिए। काव्यात्मक होते हुए मार्क्सवाद का असर कैसे कविता में आता है, इसका एक उदाहरण है शमशेर की कविता- बैल। मुख्य बात यह कि विचार, विचारधारा या मार्क्सवाद की कविता में भूमिका को लेकर शमशेर के मन में न कोई संशय है, न भ्रम।
हिन्दी आलोचना में शमशेर का निर्द्वन्द्व स्वीकार कम है। रामविलास शर्मा और विजयदेव नारायण साही की विचार-दृष्टि में पर्याप्त अन्तर है लेकिन शमशेर के मामले में दोनों लगभग एक नतीजे पर पहुँचते हैं। दोनों मानते हैं कि शमशेर की दृष्टि और कविता में अन्तर विरोध की हद तक है। शमशेर के गद्य में इसका स्पष्टीकरण मौजूद है, लेकिन दोनों ही आलोचक, शमशेर का मूल्यांकन करते हुए उसका उपयोग करने की ज़रूरत नहीं समझते। शमशेर की सच्ची समझ की सम्भावना मुक्तिबोध, नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, नित्यानन्द तिवारी आदि की आलोचना में है। सबसे ज़्यादा स्वयं शमशेर के लेखन में। इस आलोचना में वे ठोस संकेत करते हैं, जिनकी रोशनी में शमशेर का सच्चा और पूरा मूल्यांकन सम्भव है। शमशेर का गद्य उनकी कविताओं के सम्यक् मूल्यांकन का आधार प्रस्तुत करता है। हिन्दी में शमशेर की ऐसी आलोचना भी हुई है, जो उनकी आलोचना कम और शब्द-जाल द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा ज़्यादा लगती है। शमशेर ने निराला को आधुनिक हिन्दी कविता का प्रथम नागरिक कहा था। इसी तर्ज़ पर अशोक वाजपेयी ने शमशेर को नई कविता का पहला नागरिक कहा। गोया दूसरा या तीसरा नागरिक होने से कोई समर्थ कवि कम महत्त्वपूर्ण हो जाता हो।
शमशेर दूसरों की मुँहदेखी कविता में बरतने वाले यन्त्र नहीं, कवि हैं। सच्चे कवि। वे मानते हैं कि ‘‘अपनी कला चेतना को जगाना और उसकी मदद से जीवन की सच्चाई और सौन्दर्य को अपनी कला में सजीव से सजीव रूप देते जाना ही मैं ‘साधना’ समझता हूँ। वे इसी में कलाकार का संघर्ष छिपा हुआ देखते हैं। कला में भावनाओं की तराश-खराश, चमक, तेज़ और गरमी सब उसी से पैदा होंगी, उसी ‘संघर्ष’ और ‘साधना’ से, जिसमें अन्तर-बाहर दोनों का मेल है।’’(आलोचना, जनवरी-मार्च, 2011, पृ.-100) कला का मक़सद है– जीवन की सच्चाई और सौन्दर्य को ‘सजीव से सजीव रूप देते’ चले जाना। कविता भी इसी मक़सद तक पहुँचनेवाली संघर्ष-प्रक्रिया है। शमशेर ने भीतर-बाहर से एक सच्चे कवि के रूप में यह संघर्ष बहुत किया है।
सच्चा और पूरा मूल्यांकन उनका हक़ बनता है। यह मूल्यांकन तभी हो सकता है जब शमशेर और उनके कवि-कर्म को छिटपुट लेख लिखकर निपटा देने वाला सुविधाभोगी रवैया छोड़ा जाए। उनको सम्पूर्णता में देखा जाए। कविताओं की व्याख्या–विवेचना एक-एक कर, धैर्यपूर्वक की जाए। देखा जाए कि इनके वाक्य कितने अर्थबहुल हैं, विशेष हैं, और कैसे इनकी ताक़त या कमज़ोरी बनते हैं। वाक्यों को कविता से अलग कर आलोचकीय सुविधा के अनुसार इस्तेमाल करने की बजाय कविता के अभिन्न हिस्सों की तरह लिया जाए। कविता को एक अखण्ड इकाई मानकर उसका पाठ-विश्लेषण किया जाए। कविताओं की पृष्ठभूमि स्पष्ट की जाए। उनके सन्दर्भ स्पष्ट किए जाएँ। उनकी अनुभव-सम्पन्नता की विवेचना हो। वे जीवन को कैसे सम्पन्न करती हैं, इसका परिचय दिया जाए। इस तरह हिन्दी-कविता में शमशेर के योगदान को रेखांकित किया जाए। यह सब शमशेर के सम्यक् मूल्यांकन के लिए ज़रूरी है और हिन्दी आलोचना में शमशेर पर भरपूर चर्चा होने के बावजूद यह काम अभी तक हुआ नहीं है।
11. निष्कर्ष
हिन्दी आलोचना में शमशेर का समग्र मूल्यांकन अभी तक नहीं हो पाया है। हालाँकि मुक्तिबोध, नामवर सिंह, विष्णु खरे सहित कई आलोचकों ने अपनी-अपनी दृष्टि से उनके मूल्यांकन का प्रयास किया है। वास्तव में शमशेर की कविता हिन्दी आलोचना के समक्ष चुनौती है। मुक्तिबोध उन्हें ‘मनोयथार्थवादी’ मानते हैं तो नामवर सिंह उन्हें ‘जेनुइन कवि’ कहते हैं। मार्क्सवादी होते हुए भी शमशेर के काव्य में अद्भुत कलात्मकता मौजूद है। इससे कुछ आलोचक उन्हें सिर्फ ‘विशुद्ध सौन्दर्य’ का कवि मानते हैं, लेकिन कुछ कविताओं में उनकी विचारधारा को भी स्पष्ट तौर पर लक्षित किया जा सकता है। दरअसल शमशेर का मूल्यांकन किसी वाद, चाहे वह मार्क्सवाद हो, या कलावाद, के खाँचे में फिट करके नहीं किया जा सकता। शमशेर की कविता हिन्दी आलोचना के नए मानदण्ड की माँग करती है।
you can view video on हिन्दी आलोचना में शमशेर का मूल्यांकन |
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें–
- मुक्तिबोध रचनावली-5, नेमिचन्द्र जैन(संपा.), राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002
- कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता, नामवर सिंह –राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002
- छठवाँ दशक , विजयदेव नारायण साही, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद
- एक शमशेर भी है, दूधनाथ सिंह(संपा.), राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002
- नई कविता और अस्तित्ववाद, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, 8, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002
- अनभै साँचा, द्वारिका प्रसाद चारुमित्र(संपा.), शमशेर जन्मशती विशेषांक : अक्टूबर-दिसम्बर, 2011, अंक: 24 -148, कादम्बरी, सैक्टर-9, रोहिणी, दिल्ली-110085
- आलोचना, त्रैमासिक, सहस्राब्दी अंक: चालीस, जनवरी-मार्च, 2011, प्रधान सम्पादक: नामवर सिंह –राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली- 110002
- पूर्वग्रह (आलोचना द्वैमासिक) –अंक: 83, चौदहवें वर्ष का दूसरा अंक: नवम्बर-दिसम्बर, 1987 –सम्पादक: अशोक वाजपेयी –प्रकाशक: भारत भवन, शामला हिल्स रोड, भोपाल-462002
- कविता के नए प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली,1974
- कवियों का कवि शमशेर, रंजना अरगड़े, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,1988.
- प्रतिनिधि कविताएँ: शमशेरबहादुर सिंह, नामवर सिंह(संपा.), राजकमल पेपरबैक्स,
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B6%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9
- https://www.youtube.com/watch?v=ZZGpKHOXUsE
- https://www.youtube.com/watch?v=jelRXM5uvls
- https://www.youtube.com/watch?v=jelRXM5uvls